Changes

Jump to navigation Jump to search
m
no edit summary
Line 19: Line 19:  
== मन्त्र योग ==
 
== मन्त्र योग ==
   −
मनन करने से जो हमारी रक्षा करता है उसे मन्त्रयोग कहते हैं। मन्त्रयोग के द्वारा हम अपने भावों को शुद्ध करते हैं, चित्त की चंचलता को कम करते हैं। इस प्रकार मन्त्रयोग की प्रथम साधना के द्वारा योग साधक अधम स्थिति से मध्यम स्थिति पर आ जाये तथा बुद्धि शुद्ध व चैतन्य हो जाये। मन्त्र योग की साधना करने से मन एकाग्र होकर प्राण सुषुम्ना में प्रवेश कर जाता है तथा चित्त की वृत्तियों का निरोध होता है। मन्त्रयोग के द्वारा सुषुम्ना मार्ग खुल जाता है और कुण्डलिनी शक्ति सहस्रार में सहजता से पहुँच जाती है एवं मन्त्रयोग के द्वारा सुषुम्ना मार्ग शुद्ध हो जाता है।<blockquote>मंत्रजपान्मनोलयो मंत्रयोगः।</blockquote>निरन्तर सिद्ध मंत्र का जाप करते हुये, मन जब अपने आराध्य के ध्यान में तन्मयता से लय भाव प्राप्त कर लेता है, उस अवस्था को मंत्र योग कहते हैं। मंत्र नाद ब्रह्म का प्रतीक है। मंत्र वह है जिसमें मानसिक एकाग्रता एवं निष्ठा का सम्पूर्ण समागम हो। जिसकी रहस्यमय क्षमता पर गहन श्रद्धा हो तथा जिसका अनावश्यक विज्ञापन न करके गोपनीय रखा जाय।<blockquote>मननात् त्राणनाच्चैव मद्रपस्यावबोध नात्। मंत्र इत्युच्यते सम्यक् मदधिष्ठानत प्रिये॥(रुद्रयामल)</blockquote>अर्थ-<blockquote>भवन्ति मन्त्रयोगस्य षोडशांगानि निश्चितम्। यथा सुधांशोर्जायन्ते कला षोडशशोभना॥
+
मनन करने से जो हमारी रक्षा करता है उसे मन्त्रयोग कहते हैं। मन्त्रयोग के द्वारा हम अपने भावों को शुद्ध करते हैं, चित्त की चंचलता को कम करते हैं। इस प्रकार मन्त्रयोग की प्रथम साधना के द्वारा योग साधक अधम स्थिति से मध्यम स्थिति पर आ जाये तथा बुद्धि शुद्ध व चैतन्य हो जाये। मन्त्र योग की साधना करने से मन एकाग्र होकर प्राण सुषुम्ना में प्रवेश कर जाता है तथा चित्त की वृत्तियों का निरोध होता है। मन्त्रयोग के द्वारा सुषुम्ना मार्ग खुल जाता है और कुण्डलिनी शक्ति सहस्रार में सहजता से पहुँच जाती है एवं मन्त्रयोग के द्वारा सुषुम्ना मार्ग शुद्ध हो जाता है।<blockquote>मंत्रजपान्मनोलयो मंत्रयोगः।</blockquote>निरन्तर सिद्ध मंत्र का जाप करते हुये, मन जब अपने आराध्य के ध्यान में तन्मयता से लय भाव प्राप्त कर लेता है, उस अवस्था को मंत्र योग कहते हैं। मंत्र नाद ब्रह्म का प्रतीक है। मंत्र वह है जिसमें मानसिक एकाग्रता एवं निष्ठा का सम्पूर्ण समागम हो। जिसकी रहस्यमय क्षमता पर गहन श्रद्धा हो तथा जिसका अनावश्यक विज्ञापन न करके गोपनीय रखा जाय।
 +
 
 +
मंत्र की साधना चेतना को परिष्कृत करती है। इसमें किसी बीजाक्षर, मंत्र या वाक्य का बार-बार पुनरावर्तन किया जाता है। विधिवत् लयबद्ध पुनरावर्तन को जाप कहते हैं। इसमें ध्वनि के उच्चारण पर विशेष ध्यान दिया जाता है। चित्त की सूक्ष्मतम तरंगें ध्वनि की तरंगें हैं। मंत्र की साधना से पहले अन्दर की सफाई होती है। अन्त में व्यक्ति उसी में एकाग्र हो जाता है। उसका मन स्थिर होने लगता है। वैदिक साधना पद्धति में, बौद्धों में मणि पद्मे हं, जैनों में नमस्कार महामंत्र, अर्हम् आदि ध्वनियों के उदाहरण हैं। उन ध्वनियों का उपयोग करना चाहिये जिनसे मन परमात्मा में लयहीन हो जाये।<blockquote>तस्य वाचकः प्रणवः। तज्जपस्तदर्थभावनम् ।</blockquote>पातंजल योग सूत्र के अनुसार ईश्वर का वाचक प्रणव (ओंकार) है। इसका जप करते हुये अन्त में इसके अर्थ अर्थात् परमात्म रूप हो जाना मंत्र का प्रमुख उद्देश्य है। मंत्र के जप के साथ उसके अर्थ, छन्द, ऋषि या देवता का अधिकाधिक रूप में मनन किया जाता है। तब वह शीघ्र सिद्ध होता है। मंत्र सिद्धि के द्वारा मन, मंत्र तथा आराध्य देव की पृथक्ता का बोध साधक को नहीं होता है।<blockquote>मननात् त्राणनाच्चैव मद्रपस्यावबोध नात्। मंत्र इत्युच्यते सम्यक् मदधिष्ठानत प्रिये॥(रुद्रयामल)</blockquote>अर्थ-<blockquote>भवन्ति मन्त्रयोगस्य षोडशांगानि निश्चितम्। यथा सुधांशोर्जायन्ते कला षोडशशोभना॥
    
भक्ति शुद्धिश्चासनं च पञ्चांगस्यापि सेवनम्। आचार धारणे दिव्यदेशसेवनमित्यपि॥
 
भक्ति शुद्धिश्चासनं च पञ्चांगस्यापि सेवनम्। आचार धारणे दिव्यदेशसेवनमित्यपि॥
Line 91: Line 93:  
'''न्यास-''' विना न्यास के मन्त्र जप करने से जप निष्फल और विघ्नदायक कहा गया है। मन्त्र साधना में सफलता का मूल आधार चित्त की एकाग्रता है। चित्त को एकाग्र करने के लिये मन्त्रांगों के साथ मन्त्र का जाप करना विहित है।
 
'''न्यास-''' विना न्यास के मन्त्र जप करने से जप निष्फल और विघ्नदायक कहा गया है। मन्त्र साधना में सफलता का मूल आधार चित्त की एकाग्रता है। चित्त को एकाग्र करने के लिये मन्त्रांगों के साथ मन्त्र का जाप करना विहित है।
 
==मंत्र जाप की विधि==
 
==मंत्र जाप की विधि==
मन्त्र विशेष को निरन्तर दोहराने को जप कहा जाता है। अग्निपुराण में जप के शाब्दिक अर्थ में ज को जन्म का विच्छेद और प को पापों का नाश बताया है। अर्थात् जिसके द्वारा जन्म-मरण एवं पापों का नाश हो वह जप है। जप को नित्य जप, नैमित्तिक जप, काम्य जप, निषिद्ध जप, प्रायश्चित्त जप, अचल जप, चल जप, वाचिक जप, उपांशु जप, भ्रामर जप, मानसिक जप, अखण्ड जप, अजपा जप एवं प्रदक्षिणा जप आदि से विभाजित किया गया है।<ref name=":0" />
+
मन्त्र विशेष को निरन्तर दोहराने को जप कहा जाता है। अग्निपुराण में जप के शाब्दिक अर्थ में ज को जन्म का विच्छेद और प को पापों का नाश बताया है। अर्थात् जिसके द्वारा जन्म-मरण एवं पापों का नाश हो वह जप है।<ref>गरिमा, दैव्यव्यपाश्रय चिकित्सा के परिप्रेक्ष्य में संस्कृत वांग्मय में वर्णित मन्त्रों का समीक्षात्मक अध्ययन, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय(२०२०) अध्याय-०२। http://hdl.handle.net/10603/377274</ref> जप को नित्य जप, नैमित्तिक जप, काम्य जप, निषिद्ध जप, प्रायश्चित्त जप, अचल जप, चल जप, वाचिक जप, उपांशु जप, भ्रामर जप, मानसिक जप, अखण्ड जप, अजपा जप एवं प्रदक्षिणा जप आदि से विभाजित किया गया है।<ref>कल्याण योगांक,https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.427011/page/n8/mode/1up?view=theater जपयोग, श्रीराजाराम नारायण वरुलेकर, गोरखपुरः गीताप्रेस (पृ०३२९)</ref>
 +
 
 +
 
    
अग्नि पुराण के अनुसार-<blockquote>उच्चैर्जपाद्विशिष्टः स्यादुपांशुर्दशभिर्गुणैः। जिह्वाजपे शतगुणः सहस्रो मानसः स्मृतः॥( अग्नि पु० २९३/९८)</blockquote>ऊँचे स्वर मेंकिये जाने वाले जाप की अपेक्षा मन्त्र का मूक जप दसगुणा विशिष्ट है। जिह्वा जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस जप हजार गुणा उत्तम है। अग्नि पुराण में वर्णन है कि मंत्र का आरम्भ पूर्वाभिमुख अथवा अधोमुख होकर करना चाहिये। समस्त मन्त्रों के प्रारम्भ में प्रणव का प्रयोग करना चाहिये। साधक के लिये देवालय, नदी व सरोवर मन्त्र साधन के लिये उपयुक्त स्थान माने गये हैं।
 
अग्नि पुराण के अनुसार-<blockquote>उच्चैर्जपाद्विशिष्टः स्यादुपांशुर्दशभिर्गुणैः। जिह्वाजपे शतगुणः सहस्रो मानसः स्मृतः॥( अग्नि पु० २९३/९८)</blockquote>ऊँचे स्वर मेंकिये जाने वाले जाप की अपेक्षा मन्त्र का मूक जप दसगुणा विशिष्ट है। जिह्वा जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस जप हजार गुणा उत्तम है। अग्नि पुराण में वर्णन है कि मंत्र का आरम्भ पूर्वाभिमुख अथवा अधोमुख होकर करना चाहिये। समस्त मन्त्रों के प्रारम्भ में प्रणव का प्रयोग करना चाहिये। साधक के लिये देवालय, नदी व सरोवर मन्त्र साधन के लिये उपयुक्त स्थान माने गये हैं।
Line 104: Line 108:     
== मन्त्र ध्यान साधना ==
 
== मन्त्र ध्यान साधना ==
भारतीय आध्यात्मिक साहित्यों में उल्लेखित विभिन्न ध्यान साधनाओं में मंत्र साधना को ध्यान साधना में सबसे सुगम एवं सरल बताया गया है। मंत्र विज्ञान ध्वनि के विद्युत रूपान्तरण की विशिष्ट विधि व ध्यान साधना है। मंत्र महान स्पन्दनों तथा शक्तिशाली आध्यात्मिक ऊर्जाओं से परिपूर्ण है जो साधक के मन, चेतना तथा बुद्धि की शुद्धता के लिये पूर्ण संतुष्टि प्रदान करता है। मंत्र साधना से उत्पन्न शुद्ध ऊर्जा, साधक के मन एवं चेतना की तामसिक वृत्तियों व दोषों का परित्याग करते हुये सर्वोच्च चेतना से मिला देता है।
+
भारतीय आध्यात्मिक साहित्यों में उल्लेखित विभिन्न ध्यान साधनाओं में मंत्र साधना को ध्यान साधना में सबसे सुगम एवं सरल बताया गया है। मंत्र विज्ञान ध्वनि के विद्युत रूपान्तरण की विशिष्ट विधि व ध्यान साधना है। मंत्र महान स्पन्दनों तथा शक्तिशाली आध्यात्मिक ऊर्जाओं से परिपूर्ण है जो साधक के मन, चेतना तथा बुद्धि की शुद्धता के लिये पूर्ण संतुष्टि प्रदान करता है। मंत्र साधना से उत्पन्न शुद्ध ऊर्जा, साधक के मन एवं चेतना की तामसिक वृत्तियों व दोषों का परित्याग करते हुये सर्वोच्च चेतना से मिला देता है।<ref>अमृतलाल गुर्वेन्द्र, मंत्र योग का वैज्ञानिक विवेचन,(२००३) हरिद्वारः देव संस्कृति विश्वविद्यालय, पृ० ४।http://shodh.inflibnet.ac.in:8080/jspui/bitstream/123456789/928/1/amrit%20lal%20gurvendra.pdf</ref>
    
== मन्त्र चिकित्सा एवं आधुनिक अनुसंधान ==
 
== मन्त्र चिकित्सा एवं आधुनिक अनुसंधान ==
913

edits

Navigation menu