Mantra (मंत्र)

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प्राचीन भारतीय आध्यात्मिक साहित्यों में उल्लेखित विभिन्न योग साधनाओं में मन्त्र साधना को ध्यान साधना में सबसे सुगम एवं सरल बताया गया है। भारतीय संस्कृति में मंत्रों का विशेष महत्व रहा है। जब भी कोई धार्मिक कार्य पूजा पाठ आदि किया जाता है तो वह मन्त्रोच्चारण के साथ ही प्रारंभ होता है। प्रत्येक शब्द स्वयं में स्पन्दन धारित होता है। उच्चारित करने पर विशिष्ट ध्वनि, तरंग एवं कम्पन को जन्म देता है। मंत्र अति विशिष्ट, महान स्पंदनों एवं शक्तिशाली आध्यात्मिक ऊर्जाओं से परिपूर्ण है। इस वाक्य की सहमति के रूपमें ऋग्वेद में भी वर्णित है कि जिस प्रकार सागर में तरंगें उठती है वैसे ही स्पंदन सहित वाक् की तरंगें भी गति करती हैं। मन्त्र अक्षरों का ऐसा दुर्लभ,विशिष्ट एवं अनोखा संयोग है, जो चेतना जगत को आन्दोलित, आलोडित एवं उद्वेलित करने में सक्षम होता है। मन्त्र जप का लाभ मानसिक ओजस्विता, बौद्धिक प्रखरता एवं आत्मिक वर्चस्व के रूप में तो मिलता ही है, भौतिक स्वास्थ्य भी उससे सहज ही उपलब्ध हो जाता है। मंत्र शब्द का अर्थ असीमित है। वैदिक छन्दोबद्ध ऋचाओं को भी मन्त्र कहा जाता है।

परिचय

मन्त्र विज्ञान ध्वनि के विद्युत रूपान्तरण की विशिष्ट विधि व ध्यान साधना है। मन्त्र महान स्पन्दनों तथा शक्तिशाली आध्यात्मिक ऊर्जाओं से परिपूर्ण है जो साधक के मन, चेतना तथा बुद्धि की शुद्धता के लिये पूर्ण संतुष्टि प्रदान करता है। मंत्रों की सकारात्मक ऊर्जा मानव चरित्र को श्रेष्ठ बनाने में सहायक होती थी। मानसिक विद्रूपताओं को मन्त्रोच्चारण दूर हटाता है। व्यक्ति को आत्म विकास से भरने में मंत्रशक्ति अत्यंत महत्वपूर्ण है। प्राचीन मान्यता रही है कि मंत्रों के प्रभाव से अग्नि प्रज्ज्वलित हो जाया करती थी। भारतीय संगीत में दीपक राग के गायन से भी अग्नि उत्पन्न करने का उल्लेख भिन्न-भिन्न रूपों में मिलता है। चिकित्सकीय परिणामों के सन्दर्भ यदि अग्नि उत्पन्न करने का प्रयोग देखा जाए तो शारीरिक तापक्रम में वृद्धि से अभिप्राय निकाला जा सकता है। मंत्रों को प्रभावशाली बनाने के लिये केवल वाणी ही पर्याप्त नहीं है, उसके साथ हृदय-अन्तःकरण की शक्तिजुडनी चाहिये जो तप साधना द्वारा जागृत की जाती है।

परिभाषा

रुद्रयामल में मंत्र के विषयमें वर्णन है कि मनन करने से सृष्टि का सत्य रूप ज्ञात हो, भव बंधनों से मुक्ति मिले एवं जो सफलता के मार्ग पर आगे बढाये उसे मन्त्र कहते हैं-

मननात् त्रायतेति मंत्रः।

मंत्र शब्द मन् एवं त्र के संधि योग से बना हुआ है। यहाँ त्र का अर्थ चिंतन या विचारों की मुक्ति से है। अतः मंत्र का पर्याय हुआ मन के विचारों से मुक्ति। जो शक्ति मन को बन्धन से मुक्त कर दे वही मन्त्र योग है। मानसिक एवं शारीरिक एकात्म ही मन्त्र के प्रभाव का आधार है। मंत्रों का उच्चारण एवं उसका जाप शरीर, मनस और प्रकृति पर सकारात्मक प्रभाव डालता है।[1]

मननं विश्वविज्ञानं त्राणं संसारबन्धनात्। यतः करोति संसिद्धो मंत्र इत्युच्यते ततः॥

यास्क मुनि का कथन है। अर्थात् मंत्र वह वर्ण समूह है जिसका बार-बार मनन किया जाय और सोद्देश्यक हो। अर्थात् जिससे मनोवांछित फल की प्राप्ति हो।

पाणिनि जी के अनुसार मत्रि गुप्त परिभाषणे धातु से मंत्र शब्द बनता है, जिसका अर्थ है- रक्षा करने वाला फार्मूला। यास्काचार्य जी ने निरुक्त में मंत्रामननात् द्वारा मंत्र का अर्थ- बुद्धि से किया हुआ विचार' बताया है। शतपथ ब्राह्मण में महर्षि याज्ञवल्क्य ने वाग्वै मंत्रः द्वारा प्रभावशाली वाणी को मंत्र कहा है। इस प्रकार की मंत्र विद्या से अपने पर तथा दूसरों पर प्रभाव डाला जाता है। इसके तीन प्रकार हैं-[2]

  1. संकल्प या आवेश (मैग्नेटिज्म और विल पॉवर)
  2. अभिमर्श और मार्जन (मेस्मरिज्म)
  3. आदेश (हिप्नोटिक सजैशन)

मन्त्र का महत्व

भारतीय चिन्तनधारा में मन्त्र की महनीयता एवं कमनीयता इसलिए मानी गयी हैं, क्योंकि यह व्यक्ति की सुप्त या लुप्त आत्मीय शक्ति को जगाकर दैवी शक्ति के साथ सामंजस्य स्थापित करने वाला गूढ ज्ञान है। व्यक्ति के जीवन की कैसी भी समस्या क्यों न हो - चाहे वह शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, व्यावसायिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक हो- मन्त्र साधना अभीष्ट सिद्धि का सबसे विश्वसनीय साधन माना जाता है।[3]

मन्त्रशास्त्र के साथ अन्तःकरणका बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। मन्त्रमें जो शक्ति निहित रहती है, वह शक्ति मन्त्रके आश्रयसे अन्तःकरण में प्रकट हो जाती है। योग में मन्त्र साधना का विशेष महत्वपूर्ण स्थान है। मन्त्र साधना को योग साधना में सबसे सुगम एवं सरल बताते हुये, समस्त योगी ऋषि-मुनि मंत्र साधना के अस्तित्व को स्वीकार किया है।[4]

मन्त्रो हि गुप्त विज्ञानः। सर्वे बीजात्मकाः वर्णाः मंत्राः ज्ञेयाः शिवात्मिकाः। साधक साधन साध्य विवेकः मन्त्रः। प्रयोगसमवेतार्थस्मारकाः मंत्राः। मननात्तत्वरूपस्य देवस्यामिततेजसः। त्रायते सर्वदुःखेभ्यस्तस्मान्मंत्र इतीरितः॥ मन्यते ज्ञायते आत्मादि येन तन्मन्त्रः॥

पं० श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार-

मंत्र वह है जिसमें मानसिक एकाग्रता एवं निष्ठा का समुचित समावेश हों, परिष्कृत व्यक्तित्व की परिमार्जित वाणी से जिसकी साधना की जाय। जिसकी रहस्यमय क्षमता पर गहन श्रद्धा हो तथा जिसका अनावश्यक विज्ञापित न करके गोपनीय रखा जाय।[5]

मन्त्र योग

मनन करने से जो हमारी रक्षा करता है उसे मन्त्रयोग कहते हैं। मन्त्रयोग के द्वारा हम अपने भावों को शुद्ध करते हैं, चित्त की चंचलता को कम करते हैं। इस प्रकार मन्त्रयोग की प्रथम साधना के द्वारा योग साधक अधम स्थिति से मध्यम स्थिति पर आ जाये तथा बुद्धि शुद्ध व चैतन्य हो जाये। मन्त्र योग की साधना करने से मन एकाग्र होकर प्राण सुषुम्ना में प्रवेश कर जाता है तथा चित्त की वृत्तियों का निरोध होता है। मन्त्रयोग के द्वारा सुषुम्ना मार्ग खुल जाता है और कुण्डलिनी शक्ति सहस्रार में सहजता से पहुँच जाती है एवं मन्त्रयोग के द्वारा सुषुम्ना मार्ग शुद्ध हो जाता है।

मंत्रजपान्मनोलयो मंत्रयोगः।

निरन्तर सिद्ध मंत्र का जाप करते हुये, मन जब अपने आराध्य के ध्यान में तन्मयता से लय भाव प्राप्त कर लेता है, उस अवस्था को मंत्र योग कहते हैं। मंत्र नाद ब्रह्म का प्रतीक है। मंत्र वह है जिसमें मानसिक एकाग्रता एवं निष्ठा का सम्पूर्ण समागम हो। जिसकी रहस्यमय क्षमता पर गहन श्रद्धा हो तथा जिसका अनावश्यक विज्ञापन न करके गोपनीय रखा जाय। मंत्र की साधना चेतना को परिष्कृत करती है। इसमें किसी बीजाक्षर, मंत्र या वाक्य का बार-बार पुनरावर्तन किया जाता है। विधिवत् लयबद्ध पुनरावर्तन को जाप कहते हैं। इसमें ध्वनि के उच्चारण पर विशेष ध्यान दिया जाता है। चित्त की सूक्ष्मतम तरंगें ध्वनि की तरंगें हैं। मंत्र की साधना से पहले अन्दर की सफाई होती है। अन्त में व्यक्ति उसी में एकाग्र हो जाता है। उसका मन स्थिर होने लगता है। वैदिक साधना पद्धति में, बौद्धों में मणि पद्मे हं, जैनों में नमस्कार महामंत्र, अर्हम् आदि ध्वनियों के उदाहरण हैं। उन ध्वनियों का उपयोग करना चाहिये जिनसे मन परमात्मा में लयहीन हो जाये।

तस्य वाचकः प्रणवः। तज्जपस्तदर्थभावनम् ।

पातंजल योग सूत्र के अनुसार ईश्वर का वाचक प्रणव (ओंकार) है। इसका जप करते हुये अन्त में इसके अर्थ अर्थात् परमात्म रूप हो जाना मंत्र का प्रमुख उद्देश्य है। मंत्र के जप के साथ उसके अर्थ, छन्द, ऋषि या देवता का अधिकाधिक रूप में मनन किया जाता है। तब वह शीघ्र सिद्ध होता है। मंत्र सिद्धि के द्वारा मन, मंत्र तथा आराध्य देव की पृथक्ता का बोध साधक को नहीं होता है।

मननात् त्राणनाच्चैव मद्रपस्यावबोध नात्। मंत्र इत्युच्यते सम्यक् मदधिष्ठानत प्रिये॥(रुद्रयामल)

अर्थ-

भवन्ति मन्त्रयोगस्य षोडशांगानि निश्चितम्। यथा सुधांशोर्जायन्ते कला षोडशशोभना॥

भक्ति शुद्धिश्चासनं च पञ्चांगस्यापि सेवनम्। आचार धारणे दिव्यदेशसेवनमित्यपि॥

प्राणक्रिया तथा मुद्रा तर्पणं हवनं बलिः। यागो जपस्तथा ध्यानं समधिश्चेति षोडशः॥[6]

अर्थात् चन्द्रमा की १६ कलाओं के समान मन्त्रयोग के भी १६ अंग होते हैं। ये अंग इस प्रकार हैं- भक्ति, शुद्धि, आसन, पञ्चांगसेवन, आचार, धारणा, दिव्यदेशसेवन, प्राणक्रिया, मुद्रा, तर्पण, हवन, बलि, याग, जप, ध्यान और समाधि। सभी अंगों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-

भक्ति- इष्टदेव मन्त्र आदि में परम अनुराग को भक्ति कहते हैं। भक्ति तीन प्रकार की होती है- वैधी, रागाअत्मिका और परा। शास्त्रीय विधि एवं निषेध द्वारा निर्णीत धीर साधकों के द्वारा अपनायी गयी भक्ति वैधी कहलाती है। जिस भक्ति के रस का आस्वादन कर साधक भाव-सागर में डूब जाता है, उसे रागात्मिका भक्ति कहते हैं। परम आनन्ददायक भक्ति को पराभक्ति कहते हैं।

शुद्धि- निर्मलता को शुद्धि कहा जाता है। मन्त्रसाधना में चार प्रकार की शुद्धियों पर बल दिया गया है। वे क्रमशः इस प्रकार हैं- कायशुद्धि, चित्तशुद्धि, दिक्शुद्धि एवं स्थान शुद्धि।

आसन- मन्त्रसिद्धि के लिये सकाम एवं निष्काम कर्मों के भेद से तथा कामना के तारतम्य से आसन का निर्णय किया जाता है। जैसे- रेशम, कम्बल और कुशा आदि।

पञ्चांगसेवन- गीता, सहस्रनाम, स्तव, कवच एवं हृदय इन पाँचों को पञ्चांग कहते हैं। अपने-अपने सम्प्रदाय की गीता का स्वाध्याय, मनन एवं चिन्तन करने से,

आचार- मन्त्रसाधना में मुख्यतया तीन प्रकार के आचार माने गये हैं- वामाचार, दक्षिणाचार तथा दिव्याचार। वाम एवं दक्षिण आचार परस्पर एक दूसरे से भिन्न होते हुये भी एक ही लक्ष्य पर ले जाते हैं। इनमें भेद यह है कि वामाचार प्रवृत्तिमूलक तथा दक्षिणाचार निवृत्तिमूलक है। प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर ले जाने वाला आचार दिव्याचार कहलाता है।गुरु शिष्य की प्रकृति, अभिरुचि एवं शक्ति का विचार कर काम्य एवं निष्काम उपासना के भेद पर ध्यान देकर आचार उपदेश देना चाहिये।

धारणा- बाह्य एवं आभ्यन्तर भेद से धारणा दो प्रकार की होती है। बाह्य वस्तुओं के साथ मनोयोग होने से बहिर्धारणा एवं अन्तर्जगत् के सूक्ष्म द्रव्यों के साथ मनोयोग होने से अन्तर्धारणा बनती है। धारणा की सिद्धि हो जाने पर मन्त्रसाधक को ध्यानसिद्धि एवं मन्त्रसिद्धि दोनों मिल जाती है। धारणासिद्धि की स्थूल एवं सूक्ष्म सभी प्रक्रियाओं को योगमर्मज्ञ गुरु से विधिवत् सीखकर मन्त्र-साधना करनी चाहिये।

दिव्यदेशसेवन- तन्त्रों में वह्नि, अम्बु, लिंग, स्थण्डिल, कुण्ड, पट, मण्डल, विशिखा, नित्ययन्त्र, भावयन्त्र, पीठ, विग्रह, विभूति, नाभि, हृदय एवं मूर्धा- इन १६ को दिव्यदेश कहा गया है। साधक को अपने अधिकार के अनुसार दिव्यदेश में पूजा एवं उपासना करनी चाहिये। धारणा की सहायता से दिव्यदेश में पूजा एवं उपासना करनी चाहिये। धारणा की सहायता से दिव्यदेश में इष्टदेव का साक्षात्कार होता है।

प्राणक्रिया- मन, प्राण एवं वायु में अभेद सम्बन्ध माना गया है तथा वायु एवं प्राण में कार्य-कारण का सम्बन्ध। इसलिये प्राणायामपूर्वक मन्त्रोक्त न्यासों को करना चाहिये।

मुद्रा- तन्त्र में मुद्रा शब्द का निर्वचन करते हुये कहा गया है कि मुद्रा शब्द का प्रथम अक्षर देवताओं की प्रसन्नता का तथा दूसरा अक्षर पापक्षय का सूचक है। इस प्रकार मुद्रा के प्रभाव से देवता प्रसन्न होते हैं तथा साधक पापरहित होता है। पूजन, जप, काम्यप्रयोग, स्नान, हवन और मन्त्र साधना आदि में सभी देवताओं की आराधना हेतु अनेक मुद्राओं का विधान किया गया है।

तर्पण- तर्पण करने से देवता शीघ्र सन्तुष्ट एवं प्रसन्न होते हैं। यह तर्पण सकाम एवं निष्काम भेद से दो प्रकार का होता है।

हवन- जप के बिना मन्त्र सिद्ध नहीं होता तथा हवन के बिना वह फल नहीं देता। अतः अभीष्ट फल प्राप्ति हेतु साधक को श्रद्धापूर्वक हवन करना चाहिये। काम्य एवं निष्काम दोनों प्रकार के प्रयोगों में हवन किया जाता है। काम्य प्रयोंगों में तत्तद् द्रव्यों से तथा निष्काम प्रयोगों में यथा उपलब्ध द्रव्यों से हवन किया जाता है।

बलि- देवता के लिये द्रव्य का समर्पण बलिदान कहलाता है। बलिदान करने से विघ्नों की शान्ति होती है तथा साधक निरापद होकर साध्य या सिद्धि को प्राप्त करता है। अतः अन्तर्याग एवं बहिर्यागदोनों में ही बलि की अनिवार्यता मानी गयी है। अन्तर्याग में आत्मबलि को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इसके करने से साधक का अहंकार नष्ट हो जाता है और फिर वह अपने उद्देश्य में सफल हो जाता है। बलिदानों में काम, क्रोध, आत्म आदि शत्रुओं की बलि देना कहा गया है। जैसा कि महानिर्वाण तंत्र में कहा गया है-

कामक्रोधौ विघ्नकृतौ बलिं दत्त्वा जपं चरेत् ।(महानिर्वाण तंत्र)

अर्थात् काम और क्रोध रूपी दोनों विघ्नकारी पशुओं का बलिदान करके उपासना करनी चाहिये।

इन्द्रियाणि पशून् हत्वा।(तंत्र महाविज्ञान, पंचमकार रहस्य-२५४)

अर्थात् इन्द्रियों रूपी पशु का वध करें। तंत्र के एक प्रसिद्ध विद्वान ने अपने एक ग्रन्थ में बकरे को काम, भैंसे को क्रोध, बिलाव को लोभ एवं भेड को मोह की संज्ञा देते हुये, इनके परित्याग को पशुबलि की संज्ञा दी है। यह स्पष्ट है कि बलि का स्पष्ट अर्थ दुष्प्रवृत्तियों का त्याग है, जो मंत्र योग साधक के अति आवश्यक कर्म है।

याग- इष्टदेव के पूजन को याग कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है- अन्तर्याग तथा बहिर्याग। अन्तर्याग में अपने देहमयपीठ पर पीठदेवता, पीठशक्तियों एवं आवरण देवताओं के साथ मानसोपचारों से इष्टदेव का पूजन किया जाता है।

जप- मन्त्र की बार-बार आवृत्ति करने को जप कहते हैं। यह तीन प्रकार का होता है- मानसिक, उपांशु एवं वाचिक। वाचिक जप का फल यज्ञतुल्य होता है। इसकी अपेक्षा उपांशुजप सौ गुना तथा उसकी अपेक्षा मानसिकजप हजार गुना अधिक फलदायी होता है।

ध्यान- मन्त्रसाधना में ध्यान भाव-प्रधान होता है। कारण यह है कि कारण एवं कार्यब्रह्म दोनों ही भावमय होते हैं परन्तु मन एवं वाणी से अगोचर कारणब्रह्म केवल भावगम्य होता है। जिस प्रकार मन्त्र शब्द से सम्बद्ध होता है, उसी प्रकार शब्द अर्थ से, अर्थ भाव से और भाव रूप से सम्बद्ध होता है। इसीलिये प्रत्येक मन्त्र का एक विशेष अर्थ, भाव एवं रूप होने के कारण उनका ध्यान भी विशिष्ट होता है। ब्राह्ममुहूर्त में ध्यानाभ्यास करना सर्वश्रेष्ठ है।

समाधि- जिस प्रकार लययोग की समाधि महालय तथा हठयोग की समाधि महाबोध मानी जाती है, उसी प्रकार मन्त्रयोग की समाधि महाभाव कहते हैं। मन, मन्त्र एवं देवता इन तीनों की जबतक पृथक्-पृथक् सत्ता रहती है तबतक उसे ध्यान कहा जाता है। इन तीनों के एक भाव में मिलते ही समाधि प्रारम्भ होती है।

मन्त्रयोग की अवधारणा

वह शक्ति जो मन को बन्धन से मुक्त कर दे वही मंत्र योग है। मंत्र को सामान्य अर्थ में ध्वनि कम्पन से लिया जाता है। मंत्रविज्ञान ध्वनि के विद्युत रूपान्तर की अनोखी साधना विधि है। शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि-

मननात् तारयेत् यस्तु स मंत्रः प्रकीर्तितः।

अर्थात् यदि हम जिस इष्टदेव का मन से स्मरण कर श्रद्धापूर्वक, ध्यान कर मंत्रजप करते हैं और वह दर्शन देकर हमें इस भवसागर से तार दे तो वही मंत्रयोग है।इष्टदेव के चिन्तन करने, ध्यान करने तथा उनके मंत्रजप करने से हमारा अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है। मन्त्र जप एक विज्ञान है, अनूठा रहस्य ह्है जिसे आध्यात्म विज्ञानी ही उजागर कर सकते हैं। मंत्र रूपी ध्वनि विद्युत रूपान्तरण की अनोखी विधि है। इस विधि को अपनाकर आत्मसाक्षात्कार किया जा सकता है।

मंत्रयोग के उद्देश्य

मन को तामसिक वृत्तियों से मुक्त करना तथा मंत्रजप द्वारा व्यक्तित्व का रूपान्तरण ही जपयोग का मुख्य उद्देश्य है।

मंत्रयोग की उपयोगिता तथा महत्व

मंत्रयोग अभ्यास से समस्त मानसिक क्रियाएँ सन्तुलित हो जाती हैं। जप के समय साधक श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करता है जिसके द्वारा नकारात्मक विकार नष्ट होकर सकारात्मक विचारों में वृद्धि होती है।

मन्त्र के प्रकार

प्राचीन शास्त्रानुसार वेद में प्राप्त होने वाले मन्त्र ईश्वर श्वास-प्रश्वास से प्रादुर्भूत हुये हैं। उत्पत्ति की दृष्टिसे मंत्र चार प्रकार के माने गये हैं- वैदिक मंत्र, पौराणिक मंत्र, औपनिषदैक मंत्र एवं तान्त्रिक मंत्र।

वैदिक मंत्रः समस्त संसार का मूल स्तम्भ इन वेद मंत्रों को माना गया है। वैदिक मंत्र जैसे- गायत्री मंत्र, महामृत्युञ्जय मंत्र, नवग्रह सूक्त आदि।

पौराणिक मंत्रः इन मंत्रों को एकाग्रचित्त, श्रद्धा भावना, लगन एवं वाणी शुद्धि सहित जपने से मन तथा मस्तिष्क में सकारात्मकता और शुभ विचार आते हैं और तनाव का नाश होता है। उदाहरणतया- देवी माहात्म्य, शिव सहस्रनाम, गणेश स्तोत्र आदि।

औपनिषैदिक मंत्रः इस श्रेणी में उपनिषदों से प्राप्त मंत्रों का समावेश है। इन मंत्रों के माध्यम से साधक को अन्तर आत्मा एवं परमात्मा के विषय में गूढ रहस्य का ज्ञान हो जाता है। यह मंत्र मुख्यतः सन्यासियों द्वारा प्रयोग किये जाते हैं।

तान्त्रिक मंत्रः तन्त्र शास्त्र में गायत्री मंत्र जैसे कुछ वैदिक मंत्र अत्यधिक महत्वपूर्ण माने जाते हैं। कुछ तान्त्रिक मंत्र हैं जैसे- साबरी मंत्र, अघोर मंत्र, वशीकरण मंत्र आदि।

मन्त्र योग के अंग

ऋषि- जिन साधक ने सर्वप्रथम शिवजी के मुख से मन्त्र सुनकर विधिवत् उसे सिद्ध किया था, वह उस मन्त्र के ऋषि कहलाते हैं। उन ऋषि को उस मन्त्र का आदि गुरू मानकर श्रद्धा सहित उनका मस्तिष्क में न्यास किया जाता है।

देवता- जीव मात्र के समस्त क्रिया कलापों को प्रेरित, संचालित एवं नियन्त्रित करने वाली प्राणशक्ति को देवता कहते हैं। यह शक्ति व्यक्ति के हृदय में स्थित होती है। अतः देवता का हृदय में न्यास करते हैं। प्रत्येक मन्त्र का एक सुनिश्चित देवता है। अतः मन्त्र आराधना से पूर्व और सामापन के समय देव विशेष का पूजन-अर्चन आवश्यक है। ये देवता सात प्रकार के होते हैं- मन देवता, आत्मा देवता, इष्ट देवता, कुल देवता, गृह देवता, ग्राम देवता और लोक देवता।

छन्द- मन्त्र को सर्वतोभावेन आच्छादित करने की विधि को छन्द कहते हैं। अक्षर या पदों से छ्जन्द बनता है तथा इनका उच्चारण मुख से होता है। अतः छन्द का मुख न्यास किया जाता है।

बीज- मन्त्र शक्ति को उद्भावित करने वाला तत्व बीज कहलाता है। अतः बीज का सृजनांग में न्यास किया जाता है।

शक्ति- जिसकी सहायता से बीज मन्त्र बन जाता है, वह तत्व शक्ति कहलाता है। उसका पादस्थान में न्यास करते हैं।

विनियोग- गौतमीय तन्त्र के अनुसार ऋषि एवं छन्द का ज्ञान न होने पर मन्त्र का फल नहीं मिलता तथा उसका विनियोग न करके मात्र जप करने से मन्त्र दुर्बल हो जत है। मन्त्र को फल की दिशा का निर्देश देना विनियोग कहलाता है।

न्यास- विना न्यास के मन्त्र जप करने से जप निष्फल और विघ्नदायक कहा गया है। मन्त्र साधना में सफलता का मूल आधार चित्त की एकाग्रता है। चित्त को एकाग्र करने के लिये मन्त्रांगों के साथ मन्त्र का जाप करना विहित है।

मंत्र जाप की विधि

मन्त्र विशेष को निरन्तर दोहराने को जप कहा जाता है। अग्निपुराण में जप के शाब्दिक अर्थ में ज को जन्म का विच्छेद और प को पापों का नाश बताया है। अर्थात् जिसके द्वारा जन्म-मरण एवं पापों का नाश हो वह जप है।[7] जप को नित्य जप, नैमित्तिक जप, काम्य जप, निषिद्ध जप, प्रायश्चित्त जप, अचल जप, चल जप, वाचिक जप, उपांशु जप, भ्रामर जप, मानसिक जप, अखण्ड जप, अजपा जप एवं प्रदक्षिणा जप आदि से विभाजित किया गया है।[8]अग्नि पुराण के अनुसार-

उच्चैर्जपाद्विशिष्टः स्यादुपांशुर्दशभिर्गुणैः। जिह्वाजपे शतगुणः सहस्रो मानसः स्मृतः॥(अग्नि पु० २९३/९८)

ऊँचे स्वर मेंकिये जाने वाले जाप की अपेक्षा मन्त्र का मूक जप दसगुणा विशिष्ट है। जिह्वा जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस जप हजार गुणा उत्तम है। अग्नि पुराण में वर्णन है कि मंत्र का आरम्भ पूर्वाभिमुख अथवा अधोमुख होकर करना चाहिये। समस्त मन्त्रों के प्रारम्भ में प्रणव का प्रयोग करना चाहिये। साधक के लिये देवालय, नदी व सरोवर मन्त्र साधन के लिये उपयुक्त स्थान माने गये हैं।

मंत्र की शक्ति

ऋषि हमें बताते हैं कि हमारी मूल प्रकृति सत्य, चेतना और आनंद है। मन्त्र शब्द की उत्पत्ति (निघण्टु के अनुसार) मनस् से बताया गया है। जिसका अर्थ है आर्ष कथन सामान्य रूप से मनन् से मन्त्र की उत्पत्ति माना गया है। मननात् मन्त्रः।

तज्जपस्तदर्थ भावनम् ।(यो०सू० १/१८)

मंत्र का जप अर्थ सहित चिन्तन पूर्वक करना चाहिये। जिस देवता का जप कर रहे हों, उसका ध्यान और चिन्तन करते रहने से एकाग्रता में वृद्धि होती है एवं लक्ष्य की शीघ्र ही सिद्धि होती है।

मन्त्र विद्या ध्वनि तरंगों पर आधारित है। रेडियो, टेलीविजन, राडार की भांति प्राचीन काल के आविष्कारों में यह सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण तथा चमत्कारी खोज थी। मन्त्र, ध्वनि विज्ञान का सूक्ष्मतम विज्ञान है। इसके अनुसार जो कार्य आधुनिक यन्त्रों के माध्यम से हो सकते हैं वे मन्त्र के प्रयोग से भी संभव हैं।

पदार्थ की तरह अक्षरों तथा अक्षरों से युक्त शब्दों में बहुतशक्ति का भण्डार मौजूद है। पिछले दिनों ध्वनि विज्ञान पर अमेरिका, प जर्मनी में कितनी ही महत्वपूर्ण खोजें हुई हैं। साउण्ड थेरेपी

एक नयी उपचार पद्धति के रूप में विकसित हुई है। ध्वनि कम्पनों के आधार पर मारक शस्त्र भी बनने लगे हैं। ब्रेन वाशिंग के अनगिनत प्रयोगों में ध्वनि विद्या का प्रयोग होने लगा है।

मन्त्र ध्यान साधना

भारतीय आध्यात्मिक साहित्यों में उल्लेखित विभिन्न ध्यान साधनाओं में मंत्र साधना को ध्यान साधना में सबसे सुगम एवं सरल बताया गया है। मंत्र विज्ञान ध्वनि के विद्युत रूपान्तरण की विशिष्ट विधि व ध्यान साधना है। मंत्र महान स्पन्दनों तथा शक्तिशाली आध्यात्मिक ऊर्जाओं से परिपूर्ण है जो साधक के मन, चेतना तथा बुद्धि की शुद्धता के लिये पूर्ण संतुष्टि प्रदान करता है। मंत्र साधना से उत्पन्न शुद्ध ऊर्जा, साधक के मन एवं चेतना की तामसिक वृत्तियों व दोषों का परित्याग करते हुये सर्वोच्च चेतना से मिला देता है।[9]

मन्त्र चिकित्सा एवं आधुनिक अनुसंधान

चिकित्सा प्रणाली व्यक्ति के स्वास्थ्य को ही बेहतर नहीं बनाती बल्कि उनके व्यवहार एवं मनःस्थिति को भी बेहतर बनाती है। आयुर्वेदिक चिकित्सा में रोगी की चिकित्सा औषधियों के साथ-साथ दैवव्यपाश्रय चिकित्सा के द्वारा भी होती है। मंत्र चिकित्सा दैवव्यपाश्रय का एक महत्त्वपूर्ण है।

अक्षरसमूहः यस्योच्चारेण व्याधिरूपशाम्यति देवादस्यश्च प्रसन्ना भवति।

मंत्रोच्चार की नियमित प्रक्रिया दुहरी प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है। एक आभ्यन्तरिक एवं दूसरी बाह्य। इससे उत्पन्न इन्फ्रासोनिक स्तर का ध्वनि प्रवाह जहाँ शरीरमें स्थित सूक्ष्म चक्रों में शक्ति संचार करता है वहीं दूसरी ओर इन ध्वनि प्रकंपनों से वातावरण में एक विशेष प्रकार का स्पंदन उत्पन्न होता है। मंत्र विज्ञान पर अनुसंधानरत वैज्ञानिकों ने पाया है कि मंत्रोच्चारण के पश्चात् उसकी आवृत्तियों से उठने वाली ध्वनि तरंगें पृथ्वी के आयन मंडल को घेरे विशाल भू चुम्बकीय प्रवाह शूमेन्स रेजोनेन्स से टकराती और परावर्तित होकर सम्पूर्ण पृथ्वी के वायुमण्डल में छा जाती है।[10]

मंत्र चिकित्सा के लाभ

  • चिंता और अवसाद को कम करता है।
  • न्यूरोसिस से छुटकारा दिलाता है।
  • रोगप्रतिरक्षा क्षमता को बढाता है।
  • अंतर्ज्ञान को खोलता है।
  • मंत्र के नियमित अभ्यास से एकाग्रता, याददाश्त एवं तार्किक शक्ति में वृद्धि।
  • मन की चंचलता में कमी

मन्त्र ध्यान एक ऐसी तकनीक है जिसमें एक ध्वनि, शब्द या शब्दांश (मन्त्र) को ध्यान के दौरान मनमें या तीव्र आवाजमें जप किया जाता है। अनुभव के साथ प्रयोग के द्वारा ये सिद्ध हुआ है कि अगर किसी मंत्र की सही आवृत्ति, सही लक्ष्य के साथ अभ्यासकर्ता करता है तो इससे उसके मस्तिष्कमें ऑक्सीजन के प्रवाह में मदद करता है, हृदय गति, रक्तचाप को कम करता है, कई बीमारियाँ ठीक हो जाती हैं, मानसिक शान्ति मिलती है और मानसिक बाहरी गतिविधियों या बीमारियों से रक्षा करता है।[11]

इसके साथ ही कुण्डलिनी, बीज मंत्र और चक्रों का भी ध्यान करने का वर्णन है। इसमें विचार या मस्तिष्क तरंगों का वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार हैं-

  1. गामा तरंग- गामा तरंग वाले सबसे तेज दिमाग वाले होते हैं। इसकी आवृत्ति ४०-१०० हर्टज है। यह उच्च शिक्षा और ध्यान के लिये प्रेरणा देता है।
  2. बीटा तरंग- इसकी आवृत्ति १२-४० हर्ट्ज है। यह सतर्कता, एकाग्रता और अनुभूति में सहायक है।
  3. अल्फा तरंग- इसकी आवृत्ति ८-१२ हर्ट्ज है। यह दृश्यता, विश्राम और रचनात्मकता के लिये सहायक है।
  4. थीटा तरंग- उनकी आवृत्तियाँ ४-८ हर्ट्ज है। यह ध्यान, अन्तर्ज्ञान और स्मृति के लिये है।
  5. डेल्टा तरंग- इसकीआवृत्ति ०-४ है। यह उपचार या चिकित्सा और नींद के लिये महत्वपूर्ण है।

इसमें कुछ विशेषज्ञों के प्रयोगों का भी उल्लेख किया है जिसमें जीन पॉल वैंकट का मंत्र आधारित भावातीत ध्यान विषय पर उसके परिणाम बताए हैं।[12]

उद्धरण॥ References

  1. अवधेश प्रताप सिंह तोमर जी, संगीत चिकित्सा पद्धति के क्षेत्र में हुई और हो रही शोध विषयक एक अध्यनात्मक दृष्टि, (शोध गंगा)सन् २०१६, डॉ० हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, अध्याय- ०१, (पृ०११)।
  2. डॉ० राकेश कुमार, संस्कृत-हिन्दी भाषा साहित्य में वैदिक-मनोविज्ञान, डॉ०विनोद कुमार, सन् २०२०(मार्च-अप्रैल द्वैमासिक विशेषांक) केन्द्रीय हिंदी निर्देशालय रामकृष्णपुरम, नई दिल्ली(पृ० १३)।
  3. शुकदेव चतुर्वेदी, मन्त्र साधना और सिद्धान्त,भूमिका, सन् २०२०, इंडिका पब्लिशर (पृ०२)।
  4. Karnick CR. Effect of mantras on human beings and plants. Anc Sci Life. 1983 Jan;2(3):141-7. PMID: 22556970; PMCID: PMC3336746.
  5. आचार्य श्री राम शर्मा- मन्त्र शक्ति के चमत्कारी परिणाम, अखण्ड ज्योति वर्ष ४१, अंक ४ (पृ० २८)।
  6. गरिमा, दैव्यव्यपाश्रय चिकित्सा के परिप्रेक्ष्य में संस्कृत वांग्मय में वर्णित मन्त्रों का समीक्षात्मक अध्ययन, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय(२०२०) अध्याय-०२। http://hdl.handle.net/10603/377274
  7. गरिमा, दैव्यव्यपाश्रय चिकित्सा के परिप्रेक्ष्य में संस्कृत वांग्मय में वर्णित मन्त्रों का समीक्षात्मक अध्ययन, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय(२०२०) अध्याय-०२। http://hdl.handle.net/10603/377274
  8. कल्याण योगांक,https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.427011/page/n8/mode/1up?view=theater जपयोग, श्रीराजाराम नारायण वरुलेकर, गोरखपुरः गीताप्रेस (पृ०३२९)
  9. अमृतलाल गुर्वेन्द्र, मंत्र योग का वैज्ञानिक विवेचन,(२००३) हरिद्वारः देव संस्कृति विश्वविद्यालय, पृ० ४।http://shodh.inflibnet.ac.in:8080/jspui/bitstream/123456789/928/1/amrit%20lal%20gurvendra.pdf
  10. आचार्य श्री राम शर्मा - व्यक्तित्व परिष्कार में मंत्र शक्ति का योगदान, अखण्ड ज्योति, वर्ष १९८९, अंक (पृ० 34/35)।
  11. Scientific Analysis of Mantar Based Medition and Its Beneficial Effects : An over view, Written by : Jai Paul Dudejahttps://www.ijastems.org/wp-content/uploads/2017/06/v3.i6.5.Scientific-Analysis-of-Mantra-Based-Meditation.pdf
  12. 3 Jeen Paul Banguet, EEG & Clinical Neurophysiology, voll. 33, 1972, p. 454https://www.academia.edu/88573949/Spectral_analysis_of_the_EEG_in_meditation?f_ri=1275961