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| '''हवन-''' जप के बिना मन्त्र सिद्ध नहीं होता तथा हवन के बिना वह फल नहीं देता। अतः अभीष्ट फल प्राप्ति हेतु साधक को श्रद्धापूर्वक हवन करना चाहिये। काम्य एवं निष्काम दोनों प्रकार के प्रयोगों में हवन किया जाता है। काम्य प्रयोंगों में तत्तद् द्रव्यों से तथा निष्काम प्रयोगों में यथा उपलब्ध द्रव्यों से हवन किया जाता है। | | '''हवन-''' जप के बिना मन्त्र सिद्ध नहीं होता तथा हवन के बिना वह फल नहीं देता। अतः अभीष्ट फल प्राप्ति हेतु साधक को श्रद्धापूर्वक हवन करना चाहिये। काम्य एवं निष्काम दोनों प्रकार के प्रयोगों में हवन किया जाता है। काम्य प्रयोंगों में तत्तद् द्रव्यों से तथा निष्काम प्रयोगों में यथा उपलब्ध द्रव्यों से हवन किया जाता है। |
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− | '''बलि-''' देवता के लिये द्रव्य का समर्पण बलिदान कहलाता है। बलिदान करने से विघ्नों की शान्ति होती है तथा साधक निरापद होकर साध्य या सिद्धि को प्राप्त करता है। अतः अन्तर्याग एवं बहिर्यागदोनों में ही बलि की अनिवार्यता मानी गयी है। अन्तर्याग में आत्मबलि को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इसके करने से साधक का अहंकार नष्ट हो जाता है और फिर वह अपने उद्देश्य में सफल हो जाता है। बलिदानों में काम, क्रोध, आत्म आदि शत्रुओं की बलि देना कहा गया है। | + | '''बलि-''' देवता के लिये द्रव्य का समर्पण बलिदान कहलाता है। बलिदान करने से विघ्नों की शान्ति होती है तथा साधक निरापद होकर साध्य या सिद्धि को प्राप्त करता है। अतः अन्तर्याग एवं बहिर्यागदोनों में ही बलि की अनिवार्यता मानी गयी है। अन्तर्याग में आत्मबलि को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इसके करने से साधक का अहंकार नष्ट हो जाता है और फिर वह अपने उद्देश्य में सफल हो जाता है। बलिदानों में काम, क्रोध, आत्म आदि शत्रुओं की बलि देना कहा गया है। जैसा कि महानिर्वाण तंत्र में कहा गया है-<blockquote>कामक्रोधौ विघ्नकृतौ बलिं दत्त्वा जपं चरेत् ।(महानिर्वाण तंत्र)</blockquote>अर्थात् काम और क्रोध रूपी दोनों विघ्नकारी पशुओं का बलिदान करके उपासना करनी चाहिये।<blockquote>इन्द्रियाणि पशून् हत्वा।(तंत्र महाविज्ञान, पंचमकार रहस्य-२५४)</blockquote>अर्थात् इन्द्रियों रूपी पशु का वध करें। तंत्र के एक प्रसिद्ध विद्वान ने अपने एक ग्रन्थ में बकरे को काम, भैंसे को क्रोध, बिलाव को लोभ एवं भेड को मोह की संज्ञा देते हुये, इनके परित्याग को पशुबलि की संज्ञा दी है। यह स्पष्ट है कि बलि का स्पष्ट अर्थ दुष्प्रवृत्तियों का त्याग है, जो मंत्र योग साधक के अति आवश्यक कर्म है। |
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| '''याग-''' इष्टदेव के पूजन को याग कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है- अन्तर्याग तथा बहिर्याग। अन्तर्याग में अपने देहमयपीठ पर पीठदेवता, पीठशक्तियों एवं आवरण देवताओं के साथ मानसोपचारों से इष्टदेव का पूजन किया जाता है। | | '''याग-''' इष्टदेव के पूजन को याग कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है- अन्तर्याग तथा बहिर्याग। अन्तर्याग में अपने देहमयपीठ पर पीठदेवता, पीठशक्तियों एवं आवरण देवताओं के साथ मानसोपचारों से इष्टदेव का पूजन किया जाता है। |
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| '''जप-''' मन्त्र की बार-बार आवृत्ति करने को जप कहते हैं। यह तीन प्रकार का होता है- मानसिक, उपांशु एवं वाचिक। वाचिक जप का फल यज्ञतुल्य होता है। इसकी अपेक्षा उपांशुजप सौ गुना तथा उसकी अपेक्षा मानसिकजप हजार गुना अधिक फलदायी होता है। | | '''जप-''' मन्त्र की बार-बार आवृत्ति करने को जप कहते हैं। यह तीन प्रकार का होता है- मानसिक, उपांशु एवं वाचिक। वाचिक जप का फल यज्ञतुल्य होता है। इसकी अपेक्षा उपांशुजप सौ गुना तथा उसकी अपेक्षा मानसिकजप हजार गुना अधिक फलदायी होता है। |
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− | '''ध्यान-''' मन्त्रसाधना में ध्यान भाव-प्रधान होता है। कारण यह है कि कारण एवं कार्यब्रह्म दोनों ही भावमय होते हैं परन्तु मन एवं वाणी से अगोचर कारणब्रह्म केवल भावगम्य होता है। जिस प्रकार मन्त्र शब्द से सम्बद्ध होता है, उसी प्रकार शब्द अर्थ से, अर्थ भाव से और भाव रूप से सम्बद्ध होता है। इसीलिये प्रत्येक मन्त्र का एक विशेष अर्थ, भाव एवं रूप होने के कारण उनका ध्यान भी विशिष्ट होता है। | + | '''ध्यान-''' मन्त्रसाधना में ध्यान भाव-प्रधान होता है। कारण यह है कि कारण एवं कार्यब्रह्म दोनों ही भावमय होते हैं परन्तु मन एवं वाणी से अगोचर कारणब्रह्म केवल भावगम्य होता है। जिस प्रकार मन्त्र शब्द से सम्बद्ध होता है, उसी प्रकार शब्द अर्थ से, अर्थ भाव से और भाव रूप से सम्बद्ध होता है। इसीलिये प्रत्येक मन्त्र का एक विशेष अर्थ, भाव एवं रूप होने के कारण उनका ध्यान भी विशिष्ट होता है। [[Brahma Muhurta - Scientific Aspects (ब्राह्ममुहूर्त का वैज्ञानिक अंश)|ब्राह्ममुहूर्त]] में ध्यानाभ्यास करना सर्वश्रेष्ठ है। |
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| '''समाधि-''' जिस प्रकार लययोग की समाधि महालय तथा हठयोग की समाधि महाबोध मानी जाती है, उसी प्रकार मन्त्रयोग की समाधि महाभाव कहते हैं। मन, मन्त्र एवं देवता इन तीनों की जबतक पृथक्-पृथक् सत्ता रहती है तबतक उसे ध्यान कहा जाता है। इन तीनों के एक भाव में मिलते ही समाधि प्रारम्भ होती है। | | '''समाधि-''' जिस प्रकार लययोग की समाधि महालय तथा हठयोग की समाधि महाबोध मानी जाती है, उसी प्रकार मन्त्रयोग की समाधि महाभाव कहते हैं। मन, मन्त्र एवं देवता इन तीनों की जबतक पृथक्-पृथक् सत्ता रहती है तबतक उसे ध्यान कहा जाता है। इन तीनों के एक भाव में मिलते ही समाधि प्रारम्भ होती है। |
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| === मंत्र की शक्ति === | | === मंत्र की शक्ति === |
| ऋषि हमें बताते हैं कि हमारी मूल प्रकृति सत्य, चेतना और आनंद है। मन्त्र शब्द की उत्पत्ति (निघण्टु के अनुसार) मनस् से बताया गया है। जिसका अर्थ है आर्ष कथन सामान्य रूप से मनन् से मन्त्र की उत्पत्ति माना गया है। मननात् मन्त्रः। | | ऋषि हमें बताते हैं कि हमारी मूल प्रकृति सत्य, चेतना और आनंद है। मन्त्र शब्द की उत्पत्ति (निघण्टु के अनुसार) मनस् से बताया गया है। जिसका अर्थ है आर्ष कथन सामान्य रूप से मनन् से मन्त्र की उत्पत्ति माना गया है। मननात् मन्त्रः। |
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| + | == मन्त्र ध्यान साधना == |
| + | भारतीय आध्यात्मिक साहित्यों में उल्लेखित विभिन्न ध्यान साधनाओं में मंत्र साधना को ध्यान साधना में सबसे सुगम एवं सरल बताया गया है। मंत्र विज्ञान ध्वनि के विद्युत रूपान्तरण की विशिष्ट विधि व ध्यान साधना है। मंत्र महान स्पन्दनों तथा शक्तिशाली आध्यात्मिक ऊर्जाओं से परिपूर्ण है जो साधक के मन, चेतना तथा बुद्धि की शुद्धता के लिये पूर्ण संतुष्टि प्रदान करता है। मंत्र साधना से उत्पन्न शुद्ध ऊर्जा, साधक के मन एवं चेतना की तामसिक वृत्तियों व दोषों का परित्याग करते हुये सर्वोच्च चेतना से मिला देता है। |
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| == मन्त्र चिकित्सा एवं आधुनिक अनुसंधान == | | == मन्त्र चिकित्सा एवं आधुनिक अनुसंधान == |