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११. दूसरी बात यह हुई कि शिक्षक स्वयं गुरु न होकर लघु बन गया, कर्मचारी बन गया और राष्ट्रनिर्माण के अपने दायित्व से विमुख हो गया । शिक्षा में सारे के सारे गैरशैक्षिक नियंत्रण बढ़ गये । सारे तन्त्र में एक प्रकार की व्यक्तिनिरपेक्षता फैल गयी जहाँ किसीकी भी जिम्मेदारी निश्चित करना कठिन हो गया । तन्त्र का चेहरा निर्जीव बन गया जहाँ प्रेम, आनन्द, रस, कृतकृत्यता जैसे तत्त्वों का अभाव हो गया । हम आर्य चाणक्य का स्मरण कर कहते अवश्य हैं कि शिक्षक राष्ट्र निर्माता होता है, परंतु वर्तमान स्थिति में न तो शिक्षा राष्ट्रनिर्माणकारी हो सकती है, न शिक्षक राष्ट्रनिर्माता बन सकता है । अत: परिवर्तन का यह एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है जिसकी हमें चिन्ता करनी होगी । शिक्षा में स्वायत्तता का सम्पूर्ण विचार एक और शासन का नियन्त्रण कैसे दूर हो इस दिशा में तथा दूसरी ओर स्वायत्तता का विचार और प्रयास स्वयं शिक्षकों की ओर से आरम्भ होने की दिशा में होना चाहिये ।
 
११. दूसरी बात यह हुई कि शिक्षक स्वयं गुरु न होकर लघु बन गया, कर्मचारी बन गया और राष्ट्रनिर्माण के अपने दायित्व से विमुख हो गया । शिक्षा में सारे के सारे गैरशैक्षिक नियंत्रण बढ़ गये । सारे तन्त्र में एक प्रकार की व्यक्तिनिरपेक्षता फैल गयी जहाँ किसीकी भी जिम्मेदारी निश्चित करना कठिन हो गया । तन्त्र का चेहरा निर्जीव बन गया जहाँ प्रेम, आनन्द, रस, कृतकृत्यता जैसे तत्त्वों का अभाव हो गया । हम आर्य चाणक्य का स्मरण कर कहते अवश्य हैं कि शिक्षक राष्ट्र निर्माता होता है, परंतु वर्तमान स्थिति में न तो शिक्षा राष्ट्रनिर्माणकारी हो सकती है, न शिक्षक राष्ट्रनिर्माता बन सकता है । अत: परिवर्तन का यह एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है जिसकी हमें चिन्ता करनी होगी । शिक्षा में स्वायत्तता का सम्पूर्ण विचार एक और शासन का नियन्त्रण कैसे दूर हो इस दिशा में तथा दूसरी ओर स्वायत्तता का विचार और प्रयास स्वयं शिक्षकों की ओर से आरम्भ होने की दिशा में होना चाहिये ।
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१२. शिक्षा को हमने अप्रत्याशित रूप से संस्थागत बना दिया है। संस्था को फिर आर्थिक दृष्टि से और प्रशासनिक दृष्टि से शासनमान्य होना ही पड़ता है । कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में पंजीकृत हुए बिना संस्था चल नहीं सकती । पंजीकृत होते ही उसमें वस्तुनिष्ठता आ जाती है । वस्तुनिष्ठता यह शब्द हमें अच्छा लगता है क्योंकि उसका अर्थ हम पक्षपातरहितता करते हैं। परंतु व्यवहार में वस्तुनिष्ठता यान्त्रिकता बन जाती है । वस्तुनिष्ठता, मूल्यांकन, प्रमाणपत्र, पदवी आदिका महत्त्व इतना बढ़ जाता है कि अब विद्यालय नामक संस्था से बाहर, बिना परीक्षा उत्तीर्ण किये, बिना प्रमाणपत्र प्राप्त किये कोई शिक्षा होती है यह बात ही हम भूल गये हैं । इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि अब प्रमाणपत्र भी अथार्जिन का साधन है, ज्ञानवान होने का प्रमाण नहीं । शिक्षा अपने स्वभाव से ही इतनी अधिक संस्थागत नहीं हो सकती । वह तो जन्मपूर्व से ही आरम्भ होती है, घर में, आँगन में, खेल के मैदानों में, मन्दिर में, बाजारों में अर्थात्‌ सर्वत्र होती है। वह जीवन के क्रम के साथ जुड़ी हुई रहती है, जीवन के हर पहलू में अनुस्यूत रहती है । संस्थागत स्वरूप तो उसके पूर्ण स्वरूप का एक छोटा सा हिस्सा होता है, वह भी हमेशा अनिवार्य नहीं होता । वर्तमान में हमने शिक्षा के केवल संस्थागत स्वरूप को मान्यता देकर अपने आपको संकट में डाल दिया है । अतः परिवर्तन का हमारा दूसरा प्रयास शिक्षा को इतने अधिक संस्थाकरण से मुक्त करने की दिशा में होना चाहिए ।
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१२. शिक्षा को हमने अप्रत्याशित रूप से संस्थागत बना दिया है। संस्था को फिर आर्थिक दृष्टि से और प्रशासनिक दृष्टि से शासनमान्य होना ही पड़ता है । कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में पंजीकृत हुए बिना संस्था चल नहीं सकती । पंजीकृत होते ही उसमें वस्तुनिष्ठता आ जाती है । वस्तुनिष्ठता यह शब्द हमें अच्छा लगता है क्योंकि उसका अर्थ हम पक्षपातरहितता करते हैं। परंतु व्यवहार में वस्तुनिष्ठता यान्त्रिकता बन जाती है । वस्तुनिष्ठता, मूल्यांकन, प्रमाणपत्र, पदवी आदिका महत्त्व इतना बढ़ जाता है कि अब विद्यालय नामक संस्था से बाहर, बिना परीक्षा उत्तीर्ण किये, बिना प्रमाणपत्र प्राप्त किये कोई शिक्षा होती है यह बात ही हम भूल गये हैं । इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि अब प्रमाणपत्र भी अथार्जिन का साधन है, ज्ञानवान होने का प्रमाण नहीं । शिक्षा अपने स्वभाव से ही इतनी अधिक संस्थागत नहीं हो सकती । वह तो जन्मपूर्व से ही आरम्भ होती है, घर में, आँगन में, खेल के मैदानों में, मन्दिर में, बाजारों में अर्थात्‌ सर्वत्र होती है। वह जीवन के क्रम के साथ जुड़ी हुई रहती है, जीवन के हर पहलू में अनुस्यूत रहती है । संस्थागत स्वरूप तो उसके पूर्ण स्वरूप का एक छोटा सा हिस्सा होता है, वह भी सदा अनिवार्य नहीं होता । वर्तमान में हमने शिक्षा के केवल संस्थागत स्वरूप को मान्यता देकर अपने आपको संकट में डाल दिया है । अतः परिवर्तन का हमारा दूसरा प्रयास शिक्षा को इतने अधिक संस्थाकरण से मुक्त करने की दिशा में होना चाहिए ।
    
१३. आधुनिकता और वैश्विकता की संकल्पनाओं ने हमें गहरे संकट में डाल दिया है । इन दोनों संज्ञाओं के सही अर्थ को छोड़कर हमने उनका अर्थ पाश्चात्य ऐसा ही कर दिया है । “आधुनिक शब्द संस्कृत शब्द “अधुना' से बना है । अधुना' का अर्थ है 'अब' या “अभी' अर्थात्‌ “वर्तमान' । शाश्वत सिद्धान्तों का वर्तमान स्वरूप कैसा होता है इसका चिन्तन भारत में प्राचीन काल से, अर्थात्‌ जबसे चिन्तन आरम्भ हुआ तबसे होता रहा है । इसी प्रक्रिया में हमारे स्मृति साहित्य की रचना हुई है। इसे हम युगानुकूल चिन्तन कहते हैं। युगानुकूल का ही. अर्थ आधुनिकता है । आधुनिकता धार्मिक भी हो सकती है और पाश्चात्य भी । इसलिये परिवर्तन का विचार करते समय हमें पाश्चात्य ही आधुनिक है इस धारणा से मुक्त होना होगा । इस धारणा से मुक्त होकर ही हम पाश्चात्यीकरण से मुक्त हो पायेंगे । इसी प्रकार हमें इस बात में भी स्पष्ट होना होगा कि धार्मिकता और वैश्विकता में कोई अन्तर नहीं है । भारत ने
 
१३. आधुनिकता और वैश्विकता की संकल्पनाओं ने हमें गहरे संकट में डाल दिया है । इन दोनों संज्ञाओं के सही अर्थ को छोड़कर हमने उनका अर्थ पाश्चात्य ऐसा ही कर दिया है । “आधुनिक शब्द संस्कृत शब्द “अधुना' से बना है । अधुना' का अर्थ है 'अब' या “अभी' अर्थात्‌ “वर्तमान' । शाश्वत सिद्धान्तों का वर्तमान स्वरूप कैसा होता है इसका चिन्तन भारत में प्राचीन काल से, अर्थात्‌ जबसे चिन्तन आरम्भ हुआ तबसे होता रहा है । इसी प्रक्रिया में हमारे स्मृति साहित्य की रचना हुई है। इसे हम युगानुकूल चिन्तन कहते हैं। युगानुकूल का ही. अर्थ आधुनिकता है । आधुनिकता धार्मिक भी हो सकती है और पाश्चात्य भी । इसलिये परिवर्तन का विचार करते समय हमें पाश्चात्य ही आधुनिक है इस धारणा से मुक्त होना होगा । इस धारणा से मुक्त होकर ही हम पाश्चात्यीकरण से मुक्त हो पायेंगे । इसी प्रकार हमें इस बात में भी स्पष्ट होना होगा कि धार्मिकता और वैश्विकता में कोई अन्तर नहीं है । भारत ने
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१४. हमेशा वैश्विक संदर्भ में ही विचार और व्यवहार किया है । भारत की आकांक्षा “सर्वे भवन्तु सुखिन:' रही है । भारत हमेशा मानव धर्म के सन्दर्भ में ही विचार करता है । अपने ध्येय को भी भारत “कृण्वन्तो विश्वमार्यमू' कहकर ही प्रस्तुत करता है । इसलिये भारत के लिए वैश्विकता नयी बात नहीं है । वैश्विकता का सम्बन्ध केवल पाश्चात्य के साथ नहीं है ।
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१४. सदा वैश्विक संदर्भ में ही विचार और व्यवहार किया है । भारत की आकांक्षा “सर्वे भवन्तु सुखिन:' रही है । भारत सदा मानव धर्म के सन्दर्भ में ही विचार करता है । अपने ध्येय को भी भारत “कृण्वन्तो विश्वमार्यमू' कहकर ही प्रस्तुत करता है । इसलिये भारत के लिए वैश्विकता नयी बात नहीं है । वैश्विकता का सम्बन्ध केवल पाश्चात्य के साथ नहीं है ।
    
१५. नये सिरे से परिवर्तन का विचार करते समय हमें धार्मिक अध्यात्म विचार को ध्यान में लेना पड़ेगा । आज हमारा सारा चिन्तन बुद्धिनिष्ठ हो गया है। बुद्धिनिष्ठ चिन्तन के आधार पर ही देश की सारी व्यवस्थायें बनी हैं और व्यवहार की रचना हुई है । परन्तु धार्मिक चिन्तन बुद्धिनिष्ठ न होकर आत्मनिष्ठ होता है । श्रीमटू भगवदू गीता में श्रीमगवान कहते हैं,
 
१५. नये सिरे से परिवर्तन का विचार करते समय हमें धार्मिक अध्यात्म विचार को ध्यान में लेना पड़ेगा । आज हमारा सारा चिन्तन बुद्धिनिष्ठ हो गया है। बुद्धिनिष्ठ चिन्तन के आधार पर ही देश की सारी व्यवस्थायें बनी हैं और व्यवहार की रचना हुई है । परन्तु धार्मिक चिन्तन बुद्धिनिष्ठ न होकर आत्मनिष्ठ होता है । श्रीमटू भगवदू गीता में श्रीमगवान कहते हैं,

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