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| ४. हमारे सन्दर्भ और पार्श्वभूमि कैसी है? हम तात्विक रूप से और भावात्मक रूप से हमारे प्राचीन भूतकाल से जुड़े हैं । हमें उपनिषदों का तत्त्वज्ञान सही लगता है। हम आत्मतत्त्तस की और एकात्मता की बात करते हैं । हमें ऐसे मूल्य अच्छे और सही लगते हैं जिनका अधिष्ठान आध्यात्मिक है । हम त्याग, समर्पण, सेवा, निष्ठा आदि बातों की सृष्टि में विहार करना पसंद करते हैं । हमारे राष्ट्रीय आदर्श भी त्यागी, बलिदानी, सेवाभावी, लोककल्याण हेतु जीवन देने वाले व्यक्तियों के हैं । जहाँ जहाँ हमें इन आदर्शों के अनुरूप उदाहरण देखने को मिलते हैं, हम खुश होते हैं। परन्तु | | ४. हमारे सन्दर्भ और पार्श्वभूमि कैसी है? हम तात्विक रूप से और भावात्मक रूप से हमारे प्राचीन भूतकाल से जुड़े हैं । हमें उपनिषदों का तत्त्वज्ञान सही लगता है। हम आत्मतत्त्तस की और एकात्मता की बात करते हैं । हमें ऐसे मूल्य अच्छे और सही लगते हैं जिनका अधिष्ठान आध्यात्मिक है । हम त्याग, समर्पण, सेवा, निष्ठा आदि बातों की सृष्टि में विहार करना पसंद करते हैं । हमारे राष्ट्रीय आदर्श भी त्यागी, बलिदानी, सेवाभावी, लोककल्याण हेतु जीवन देने वाले व्यक्तियों के हैं । जहाँ जहाँ हमें इन आदर्शों के अनुरूप उदाहरण देखने को मिलते हैं, हम खुश होते हैं। परन्तु |
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− | ५. हमारा आसनन भूतकाल ध्यान में लेने की अधिक आवश्यकता है । विगत दो सौ वर्षों की घटनायें हमारी वर्तमान समस्याओं की जड हैं । ये दो सौ वर्ष हमारे चिन्तन और रचना के परिवर्तन का काल है । व्यवहार के जितने भी पक्ष होते हैं उन सभी में परिवर्तन हुआ है । इन दो सौ वर्षा में एक पूर्ण रूप से अधार्मिक प्रतिमान को हमारे ऊपर लादने का बलवान प्रयास हुआ है और शिक्षा की सहायता से यह प्रयास अप्रत्याशित रूप से यशस्वी भी हुआ है । | + | ५. हमारा आसनन भूतकाल ध्यान में लेने की अधिक आवश्यकता है । विगत दो सौ वर्षों की घटनायें हमारी वर्तमान समस्याओं की जड़ हैं । ये दो सौ वर्ष हमारे चिन्तन और रचना के परिवर्तन का काल है । व्यवहार के जितने भी पक्ष होते हैं उन सभी में परिवर्तन हुआ है । इन दो सौ वर्षा में एक पूर्ण रूप से अधार्मिक प्रतिमान को हमारे ऊपर लादने का बलवान प्रयास हुआ है और शिक्षा की सहायता से यह प्रयास अप्रत्याशित रूप से यशस्वी भी हुआ है । |
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| ६. यह केवल शिक्षा क्षेत्र का परिवर्तन नहीं है, यह सम्पूर्ण जीवन रचना का परिवर्तन है । ब्रिटिशों के ट्वारा लादे गये इस अधार्मिक ढाँचे का प्रभाव इस बात में है कि स्वतन्त्रता के बाद भी हमने उस ढाँचे को आधुनिक समझ कर, अनिवार्य समझ कर अपना लिया है । इसलिये परिवर्तन का विचार करते समय हमें वर्तमान वैचारिक, मानसिक और व्यावहारिक सन्दर्भ को ध्यान में लेना पड़ेगा । इन सभी संदर्भों को लेकर हम शिक्षा क्षेत्र का विचार करेंगे तो हमें कुछ निराकरण प्राप्त होगा । | | ६. यह केवल शिक्षा क्षेत्र का परिवर्तन नहीं है, यह सम्पूर्ण जीवन रचना का परिवर्तन है । ब्रिटिशों के ट्वारा लादे गये इस अधार्मिक ढाँचे का प्रभाव इस बात में है कि स्वतन्त्रता के बाद भी हमने उस ढाँचे को आधुनिक समझ कर, अनिवार्य समझ कर अपना लिया है । इसलिये परिवर्तन का विचार करते समय हमें वर्तमान वैचारिक, मानसिक और व्यावहारिक सन्दर्भ को ध्यान में लेना पड़ेगा । इन सभी संदर्भों को लेकर हम शिक्षा क्षेत्र का विचार करेंगे तो हमें कुछ निराकरण प्राप्त होगा । |
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| === ज्ञानात्मक पक्ष === | | === ज्ञानात्मक पक्ष === |
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− | १७. हमें सर्व प्रथम परिवर्तन का ज्ञानात्मक पक्ष ध्यान में लेना चाहिये । विद्यालयों, महाविद्यालयों में जो पढ़ाया जाता है उसका स्वरूप धार्मिक नहीं है। सामाजिक शास्त्रों के सिद्धान्त, प्राकृतिक विज्ञानों की दृष्टि व्यक्तिगत विकास की संकल्पना, जीवनरचना और सृष्टिचना की समझ आदि सब जडवादी, अनात्मवादी जीवनदृष्टि के आधार पर विकसित किये गये हैं । हम यह सब विगत आठ दस पीढ़ियों से पढ़ते आये हैं । यह बहुत स्वाभाविक है कि छोटी आयु से जो पढ़ाया जाता है उसीके अनुसार मानस बनता है, विचार और व्यवहार बनते हैं । ऐसा मानस फिर व्यक्तिगत और सामुदायिक जीवन की व्यवस्थायें बनाता है । देश उसी आधार पर चलता है । देश उसी आधार पर चलने लगता है । धीरे धीरे देश की जीवन रचना में परिवर्तन होने लगता है। यह परिवर्तन जब सम्पूर्ण हो जाता है तब देश का चरित्र पूर्ण रूप से बदल जाता है । जब तक यह परिवर्तन पूर्ण नहीं होता तब तक देश की अपनी मूल जीवन रचना और शिक्षा के माध्यम से बदलने वाली नयी रचना में संघर्ष होता रहता है । देश की मूल रचना अपने आपको बचाने के लिये प्रयास करती रहती है । वह सरलता से अपने आपको हारने नहीं देती । हमारे देश की जितनी भी अधिकृत ताकतें हैं वे सब विपरीत दिशा की शिक्षा के पक्ष में हैं । परंतु हमारे पूर्वजों की महान तपश्चर्या और अपनी जीवनरचना और जीवनदृष्टि की आन्तरिक ताकत के बल के कारण हम इतने शतकों में भी नष्ट नहीं हुए हैं। हम क्षीणप्राण अवश्य हुए हैं परंतु गतप्राण नहीं हुए हैं । हम गतप्राण न हों इसलिये हमें अब अपना ध्यान कक्षाकक्ष में पढ़ाये जानेवाले विषयों के विषयवस्तु की ओर केन्द्रित करना पड़ेगा । हमें विषयों की संकल्पनायें बदलनी होंगी, आधारभूत परिभाषायें बदलनी होंगी, पाठ्यक्रम बदलने होंगे, पठनपाठन की पद्धति बदलनी होगी । इसके लिये हमें अपने शोध, अनुसंधान और अध्ययन की पद्धतियों को भी बदलना होगा । यह एक महान शैक्षिक प्रयास होगा । यह सबसे पहले करना होगा क्योंकि इसे किये बिना बाकी सारे परिवर्तन पाश्चात्य ढाँचे को ही मजबूत बनानेवाले सिद्ध होंगे। आज भी लगभग वही हो रहा है । प्रयास तो हम बहुत कर रहे हैं परन्तु स्वना नहीं बदल रही है । | + | १७. हमें सर्व प्रथम परिवर्तन का ज्ञानात्मक पक्ष ध्यान में लेना चाहिये । विद्यालयों, महाविद्यालयों में जो पढ़ाया जाता है उसका स्वरूप धार्मिक नहीं है। सामाजिक शास्त्रों के सिद्धान्त, प्राकृतिक विज्ञानों की दृष्टि व्यक्तिगत विकास की संकल्पना, जीवनरचना और सृष्टिचना की समझ आदि सब जड़वादी, अनात्मवादी जीवनदृष्टि के आधार पर विकसित किये गये हैं । हम यह सब विगत आठ दस पीढ़ियों से पढ़ते आये हैं । यह बहुत स्वाभाविक है कि छोटी आयु से जो पढ़ाया जाता है उसीके अनुसार मानस बनता है, विचार और व्यवहार बनते हैं । ऐसा मानस फिर व्यक्तिगत और सामुदायिक जीवन की व्यवस्थायें बनाता है । देश उसी आधार पर चलता है । देश उसी आधार पर चलने लगता है । धीरे धीरे देश की जीवन रचना में परिवर्तन होने लगता है। यह परिवर्तन जब सम्पूर्ण हो जाता है तब देश का चरित्र पूर्ण रूप से बदल जाता है । जब तक यह परिवर्तन पूर्ण नहीं होता तब तक देश की अपनी मूल जीवन रचना और शिक्षा के माध्यम से बदलने वाली नयी रचना में संघर्ष होता रहता है । देश की मूल रचना अपने आपको बचाने के लिये प्रयास करती रहती है । वह सरलता से अपने आपको हारने नहीं देती । हमारे देश की जितनी भी अधिकृत ताकतें हैं वे सब विपरीत दिशा की शिक्षा के पक्ष में हैं । परंतु हमारे पूर्वजों की महान तपश्चर्या और अपनी जीवनरचना और जीवनदृष्टि की आन्तरिक ताकत के बल के कारण हम इतने शतकों में भी नष्ट नहीं हुए हैं। हम क्षीणप्राण अवश्य हुए हैं परंतु गतप्राण नहीं हुए हैं । हम गतप्राण न हों इसलिये हमें अब अपना ध्यान कक्षाकक्ष में पढ़ाये जानेवाले विषयों के विषयवस्तु की ओर केन्द्रित करना पड़ेगा । हमें विषयों की संकल्पनायें बदलनी होंगी, आधारभूत परिभाषायें बदलनी होंगी, पाठ्यक्रम बदलने होंगे, पठनपाठन की पद्धति बदलनी होगी । इसके लिये हमें अपने शोध, अनुसंधान और अध्ययन की पद्धतियों को भी बदलना होगा । यह एक महान शैक्षिक प्रयास होगा । यह सबसे पहले करना होगा क्योंकि इसे किये बिना बाकी सारे परिवर्तन पाश्चात्य ढाँचे को ही मजबूत बनानेवाले सिद्ध होंगे। आज भी लगभग वही हो रहा है । प्रयास तो हम बहुत कर रहे हैं परन्तु स्वना नहीं बदल रही है । |
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| === स्वतन्त्र और स्वायत्त रचना === | | === स्वतन्त्र और स्वायत्त रचना === |