अपेक्षित परिवर्तन की ओर

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=== समग्रता में परिवर्तन ===

१. आज परिवर्तन की भाषा तो सर्वत्र बोली जाती है । प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा हो, चाहे विश्वविद्यालयीन, परिवर्तन होते ही रहते हैं। परिवर्तन संसार का नियम है ऐसा सूत्र भी सर्वश्र सुनाई देता है । परंतु शिक्षा में आज जो परिवर्तन अपेक्षित है वह ऐसा छोटा मोटा या केवल काल के प्रवाह में होने वाला परिवर्तन नहीं है । परिवर्तन धार्मिक चिन्तन के अनुसार होना अपेक्षित है । वर्तमान शिक्षाव्यवस्था को समग्रता में देखकर शिक्षा के सम्पूर्ण मंत्र, तंत्र और यंत्र को परिवर्तित करने की आवश्यकता है । इसे ही हम आमूल परितर्वन कहते हैं। ऐसे समग्रता में परिवर्तन किये बिना हम शिक्षा की जिन समस्याओं की बात करते हैं उनका निराकरण होना सम्भव नहीं है ।

२. हमें छोटे छोटे परिवर्तन की बात तो झट से समझ में आती है । जैसे कि हम पाठ योजना में नवाचार की बात करते हैं, पाठ्यपुस्तकों में समय समय पर परिवर्तन करते हैं, पाठ्यक्रमों में भी परिवर्तन होता रहता है, कभी हम परीक्षा की पद्धतियों में परिवर्तन करते हैं, कभी कुछ नये विषय जुड़ जाते हैं । संस्कारों की शिक्षा, मूल्यशिक्षा जैसी बातें भी अब अग्रहपूर्वक जुड़ने लगी हैं । इनमें हमारा समय, धन, बुद्धि आदि कम खर्च नहीं हो रहे हैं । हम प्रामाणिक नहीं है ऐसा भी नहीं है। तथापि हम शिक्षा के वर्तमान स्वरूप से संतुष्ट नहीं हैं । इसका कारण यह है कि मूल बातें विचार में न लेकर हम ऊपरी परिवर्तन में ही लगे हैं । परिवर्तन के लिये शिक्षा के सभी पहलुओं का एक साथ विचार करने की आवश्यकता है ।

३. परिवर्तन के लिये हमें प्रथम चिन्तन बदलने की आवश्यकता होती है, क्योंकि चिन्तन ही शेष सभी बातों का आधार है । आधाररूप होने पर भी चिन्तन केवल प्रथम चरण है । वह नींव है यह बात सत्य है, नींव पक्की होनी चाहिये यह भी सत्य है, नींव शुद्ध होनी चाहिये यह भी सत्य है परंतु केवल नींव से भवन नहीं होता यह भी उतना ही सत्य है । इसलिये चिन्तन के बाद व्यवहार की बात होना अनिवार्य है । चिन्तन के बाद, चिन्तन के साथ, चिन्तन के अनुरूप क्रियान्वयन की बात होनी चाहिये ।

जब हम व्यवहार के स्तर पर परिवर्तन की बात करते हैं, तब कई बातों का विचार करना होता है । क्रियान्वयन के लिये एक रचना चाहिये, एक कार्य योजना चाहिये, एक रणनीति, एक व्यूहरचना चाहिये । हमें अपनी पार्श्वभूमि और सन्दर्भ का विचार करना होगा, हमारी क्षमताओं और व्यापक

मानसिकता का विचार करना होगा, हमारी तत्काल और दूरगामी आवश्यकताओं का तथा संसाधनों की उपलब्धता का विचार करना होगा । हमे एक सम्पूर्ण प्रतिमान का, एक सम्पूर्ण ढाँचे का विचार करना होगा । भले ही समय लगे, हमें पूरा विचार, एक साथ विचार, समग्रता में विचार किये बिना परिवर्तन का प्रारम्भ नहीं करना चाहिये ।

४. हमारे सन्दर्भ और पार्श्वभूमि कैसी है? हम तात्विक रूप से और भावात्मक रूप से हमारे प्राचीन भूतकाल से जुड़े हैं । हमें उपनिषदों का तत्त्वज्ञान सही लगता है। हम आत्मतत्त्तस की और एकात्मता की बात करते हैं । हमें ऐसे मूल्य अच्छे और सही लगते हैं जिनका अधिष्ठान आध्यात्मिक है । हम त्याग, समर्पण, सेवा, निष्ठा आदि बातों की सृष्टि में विहार करना पसंद करते हैं । हमारे राष्ट्रीय आदर्श भी त्यागी, बलिदानी, सेवाभावी, लोककल्याण हेतु जीवन देने वाले व्यक्तियों के हैं । जहाँ जहाँ हमें इन आदर्शों के अनुरूप उदाहरण देखने को मिलते हैं, हम खुश होते हैं। परन्तु

५. हमारा आसनन भूतकाल ध्यान में लेने की अधिक आवश्यकता है । विगत दो सौ वर्षों की घटनायें हमारी वर्तमान समस्याओं की जड़ हैं । ये दो सौ वर्ष हमारे चिन्तन और रचना के परिवर्तन का काल है । व्यवहार के जितने भी पक्ष होते हैं उन सभी में परिवर्तन हुआ है । इन दो सौ वर्षा में एक पूर्ण रूप से अधार्मिक प्रतिमान को हमारे ऊपर लादने का बलवान प्रयास हुआ है और शिक्षा की सहायता से यह प्रयास अप्रत्याशित रूप से यशस्वी भी हुआ है ।

६. यह केवल शिक्षा क्षेत्र का परिवर्तन नहीं है, यह सम्पूर्ण जीवन रचना का परिवर्तन है । ब्रिटिशों के ट्वारा लादे गये इस अधार्मिक ढाँचे का प्रभाव इस बात में है कि स्वतन्त्रता के बाद भी हमने उस ढाँचे को आधुनिक समझ कर, अनिवार्य समझ कर अपना लिया है । इसलिये परिवर्तन का विचार करते समय हमें वर्तमान वैचारिक, मानसिक और व्यावहारिक सन्दर्भ को ध्यान में लेना पड़ेगा । इन सभी संदर्भों को लेकर हम शिक्षा क्षेत्र का विचार करेंगे तो हमें कुछ निराकरण प्राप्त होगा ।

७. ब्रिटिश शिक्षा पद्धति की कुछ व्यवस्थायें हैं जो हम आज गृहीत मानकर चल रहे हैं । पहला गृहीत इस प्रकार हैं शिक्षा संस्था चलाने के लिये शासन की मान्यता अनिवार्य है । यह बात, यह गृहीत आज समाजमन में इतना पक्का बैठा हुआ है कि हमें स्मरण में भी नहीं है कि भारत में केवल डेढ़ सौ वर्ष पूर्व तक शासन का कोई शिक्षा विभाग ही नहीं था । शिक्षा के संबंध में आज जो कानून और नियम हैं, जो विभिन्‍न प्रकार के नियन्त्रणों की व्यवस्था है, पाठ्यक्रम निर्माण, पाठ्यपुस्तक निर्माण, परीक्षा, प्रवेश, अनुदान आदि का तन्त्र है उसका सर्वथा अभाव था ।

८. इसका अर्थ यह नहीं है कि ये सारी बातें नहीं थीं । शिक्षाविषयक सारी बातों का नियन्त्रण शासन का न होकर शिक्षकों का रहता था । शिक्षक शासन के प्रति नहीं अपितु समाज के प्रति उत्तरदायी रहता था ।

९. इस व्यवस्था के कई सुपरिणाम थे और सुपरिणाम यह था कि विद्या और विद्यावान सत्ता और अर्थ के अधीन न होकर उसके मार्गदर्शक, निर्देशक और आवश्यकता पड़ने पर नियन्त्रक के रूप में काम कर सकते थे । शिक्षा ज्ञानसत्ता का एक हिस्सा थी जो धर्मसत्ता के रूप में व्यवहार करती थी |

१०. इस व्यवस्था के बदलने के कई दुष्परिणाम हैं । शासन के नियंत्रण में आते ही शिक्षा ने अपना गौरव, गुरुता खो दिया । ज्ञानसत्ता के ऊपर अर्थ और शासन का प्रभुत्व हो जाने के कारण से समाज सही मार्गदर्शन से वंचित हो गया । साथ ही अर्थसत्ता और राज्यसत्ता बिना मार्गदर्शन के सही रास्ते से भटकने लगे और बिना नियन्त्रण के निरंकुश होकर कुशासन में परिणत हो गये ।

११. दूसरी बात यह हुई कि शिक्षक स्वयं गुरु न होकर लघु बन गया, कर्मचारी बन गया और राष्ट्रनिर्माण के अपने दायित्व से विमुख हो गया । शिक्षा में सारे के सारे गैरशैक्षिक नियंत्रण बढ़ गये । सारे तन्त्र में एक प्रकार की व्यक्तिनिरपेक्षता फैल गयी जहाँ किसीकी भी जिम्मेदारी निश्चित करना कठिन हो गया । तन्त्र का चेहरा निर्जीव बन गया जहाँ प्रेम, आनन्द, रस, कृतकृत्यता जैसे तत्त्वों का अभाव हो गया । हम आर्य चाणक्य का स्मरण कर कहते अवश्य हैं कि शिक्षक राष्ट्र निर्माता होता है, परंतु वर्तमान स्थिति में न तो शिक्षा राष्ट्रनिर्माणकारी हो सकती है, न शिक्षक राष्ट्रनिर्माता बन सकता है । अत: परिवर्तन का यह एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है जिसकी हमें चिन्ता करनी होगी । शिक्षा में स्वायत्तता का सम्पूर्ण विचार एक और शासन का नियन्त्रण कैसे दूर हो इस दिशा में तथा दूसरी ओर स्वायत्तता का विचार और प्रयास स्वयं शिक्षकों की ओर से आरम्भ होने की दिशा में होना चाहिये ।

१२. शिक्षा को हमने अप्रत्याशित रूप से संस्थागत बना दिया है। संस्था को फिर आर्थिक दृष्टि से और प्रशासनिक दृष्टि से शासनमान्य होना ही पड़ता है । कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में पंजीकृत हुए बिना संस्था चल नहीं सकती । पंजीकृत होते ही उसमें वस्तुनिष्ठता आ जाती है । वस्तुनिष्ठता यह शब्द हमें अच्छा लगता है क्योंकि उसका अर्थ हम पक्षपातरहितता करते हैं। परंतु व्यवहार में वस्तुनिष्ठता यान्त्रिकता बन जाती है । वस्तुनिष्ठता, मूल्यांकन, प्रमाणपत्र, पदवी आदिका महत्त्व इतना बढ़ जाता है कि अब विद्यालय नामक संस्था से बाहर, बिना परीक्षा उत्तीर्ण किये, बिना प्रमाणपत्र प्राप्त किये कोई शिक्षा होती है यह बात ही हम भूल गये हैं । इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि अब प्रमाणपत्र भी अथार्जिन का साधन है, ज्ञानवान होने का प्रमाण नहीं । शिक्षा अपने स्वभाव से ही इतनी अधिक संस्थागत नहीं हो सकती । वह तो जन्मपूर्व से ही आरम्भ होती है, घर में, आँगन में, खेल के मैदानों में, मन्दिर में, बाजारों में अर्थात्‌ सर्वत्र होती है। वह जीवन के क्रम के साथ जुड़ी हुई रहती है, जीवन के हर पहलू में अनुस्यूत रहती है । संस्थागत स्वरूप तो उसके पूर्ण स्वरूप का एक छोटा सा हिस्सा होता है, वह भी सदा अनिवार्य नहीं होता । वर्तमान में हमने शिक्षा के केवल संस्थागत स्वरूप को मान्यता देकर अपने आपको संकट में डाल दिया है । अतः परिवर्तन का हमारा दूसरा प्रयास शिक्षा को इतने अधिक संस्थाकरण से मुक्त करने की दिशा में होना चाहिए ।

१३. आधुनिकता और वैश्विकता की संकल्पनाओं ने हमें गहरे संकट में डाल दिया है । इन दोनों संज्ञाओं के सही अर्थ को छोड़कर हमने उनका अर्थ पाश्चात्य ऐसा ही कर दिया है । “आधुनिक शब्द संस्कृत शब्द “अधुना' से बना है । अधुना' का अर्थ है 'अब' या “अभी' अर्थात्‌ “वर्तमान' । शाश्वत सिद्धान्तों का वर्तमान स्वरूप कैसा होता है इसका चिन्तन भारत में प्राचीन काल से, अर्थात्‌ जबसे चिन्तन आरम्भ हुआ तबसे होता रहा है । इसी प्रक्रिया में हमारे स्मृति साहित्य की रचना हुई है। इसे हम युगानुकूल चिन्तन कहते हैं। युगानुकूल का ही. अर्थ आधुनिकता है । आधुनिकता धार्मिक भी हो सकती है और पाश्चात्य भी । इसलिये परिवर्तन का विचार करते समय हमें पाश्चात्य ही आधुनिक है इस धारणा से मुक्त होना होगा । इस धारणा से मुक्त होकर ही हम पाश्चात्यीकरण से मुक्त हो पायेंगे । इसी प्रकार हमें इस बात में भी स्पष्ट होना होगा कि धार्मिकता और वैश्विकता में कोई अन्तर नहीं है । भारत ने

१४. सदा वैश्विक संदर्भ में ही विचार और व्यवहार किया है । भारत की आकांक्षा “सर्वे भवन्तु सुखिन:' रही है । भारत सदा मानव धर्म के सन्दर्भ में ही विचार करता है । अपने ध्येय को भी भारत “कृण्वन्तो विश्वमार्यमू' कहकर ही प्रस्तुत करता है । इसलिये भारत के लिए वैश्विकता नयी बात नहीं है । वैश्विकता का सम्बन्ध केवल पाश्चात्य के साथ नहीं है ।

१५. नये सिरे से परिवर्तन का विचार करते समय हमें धार्मिक अध्यात्म विचार को ध्यान में लेना पड़ेगा । आज हमारा सारा चिन्तन बुद्धिनिष्ठ हो गया है। बुद्धिनिष्ठ चिन्तन के आधार पर ही देश की सारी व्यवस्थायें बनी हैं और व्यवहार की रचना हुई है । परन्तु धार्मिक चिन्तन बुद्धिनिष्ठ न होकर आत्मनिष्ठ होता है । श्रीमटू भगवदू गीता में श्रीमगवान कहते हैं,

इंद्रियाणि पराण्याहु: इंट्रियेश्य: पर मन: ।

मनसस्तु परा बुद्धि: यो बुद्ध: परतस्तु स: ।। (गी. ३-४२)

अर्थात्‌ इंट्रियाँ विषयों से परे हैं, मन इंद्रियों से परे है, मन से परे बुद्धि है और बुद्धि से परे जो है वह “'वह' है अर्थात्‌ आत्मतत्त्व है ।

हम समझने लगे हैं कि अध्यात्म और भौतिकता में अन्तर है अथवा विरोध है, भौतिक अथवा दैनंदिन व्यवहारों में अध्यात्मिकता बाधा बनती है और आध्यात्मिक बनना है तो भौतिकता छोडनी पड़ती है । वास्तव में इस प्रकार का विभाजन ही ठीक नहीं है। आध्यात्मिकता का अधिष्ठान लेकर भौतिक जीवन की रचना करना धार्मिक जीवनरचना का वैशिक्य है। अत: अध्यात्मविचार को समझना आवश्यक है ।

१६ एक और सूत्र भी ध्यान में लेने की आवश्यकता होगी । शिक्षा राष्ट्रीय होती है, व्यक्तिगत नहीं । व्यक्ति अकेला कभी भी जी नहीं सकता । समाज के बिना और सृष्टि के बिना उसका जीवन सम्भव ही नहीं है । cafe, समष्टि और सृष्टि में जीवन एक और अखण्ड है और इस अखण्ड जीवन में आत्मतत्त्व अनुस्यूत है । धार्मिक समाजजीवन की रचना इस सूत्र के आधार पर हुई है और शिक्षा के माध्यम से इस रचना को विचार और व्यवहार में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाने की व्यवस्था की गई है । शिक्षा का वर्तमान स्वरूप ऐसा नहीं है । वर्तमान शिक्षा व्यक्ति का लाभ और उस लाभ के लिये अन्यों का उपयोग कैसे हो यह सिखाती है । इस प्रकार की शिक्षा न तो व्यक्ति के लिये और न तो समाज के लिये लाभकारी होती है । कुछ लाभ यदि दिखाई देता भी है तो वह बहुत कम और बहुत अल्पकालीन होता है । यह शिक्षा राष्ट्र को समृद्ध, सुसंस्कृत, ज्ञानवान, पराक्रमी नहीं बना सकती । परिवर्तन की योजना करते समय हमें व्यक्तिगत सन्दर्भ को छोडकर राष्ट्रीय सन्दर्भ का स्वीकार करना होगा | व्यावहारिक चिन्तन के इतने पहलू देखने के बाद हमें प्रत्यक्ष योजना पर विचार करना प्राप्त है । योजना करते समय कुछ इस प्रकार से विचार करना होगा...

ज्ञानात्मक पक्ष

१७. हमें सर्व प्रथम परिवर्तन का ज्ञानात्मक पक्ष ध्यान में लेना चाहिये । विद्यालयों, महाविद्यालयों में जो पढ़ाया जाता है उसका स्वरूप धार्मिक नहीं है। सामाजिक शास्त्रों के सिद्धान्त, प्राकृतिक विज्ञानों की दृष्टि व्यक्तिगत विकास की संकल्पना, जीवनरचना और सृष्टिचना की समझ आदि सब जड़वादी, अनात्मवादी जीवनदृष्टि के आधार पर विकसित किये गये हैं । हम यह सब विगत आठ दस पीढ़ियों से पढ़ते आये हैं । यह बहुत स्वाभाविक है कि छोटी आयु से जो पढ़ाया जाता है उसीके अनुसार मानस बनता है, विचार और व्यवहार बनते हैं । ऐसा मानस फिर व्यक्तिगत और सामुदायिक जीवन की व्यवस्थायें बनाता है । देश उसी आधार पर चलता है । देश उसी आधार पर चलने लगता है । धीरे धीरे देश की जीवन रचना में परिवर्तन होने लगता है। यह परिवर्तन जब सम्पूर्ण हो जाता है तब देश का चरित्र पूर्ण रूप से बदल जाता है । जब तक यह परिवर्तन पूर्ण नहीं होता तब तक देश की अपनी मूल जीवन रचना और शिक्षा के माध्यम से बदलने वाली नयी रचना में संघर्ष होता रहता है । देश की मूल रचना अपने आपको बचाने के लिये प्रयास करती रहती है । वह सरलता से अपने आपको हारने नहीं देती । हमारे देश की जितनी भी अधिकृत ताकतें हैं वे सब विपरीत दिशा की शिक्षा के पक्ष में हैं । परंतु हमारे पूर्वजों की महान तपश्चर्या और अपनी जीवनरचना और जीवनदृष्टि की आन्तरिक ताकत के बल के कारण हम इतने शतकों में भी नष्ट नहीं हुए हैं। हम क्षीणप्राण अवश्य हुए हैं परंतु गतप्राण नहीं हुए हैं । हम गतप्राण न हों इसलिये हमें अब अपना ध्यान कक्षाकक्ष में पढ़ाये जानेवाले विषयों के विषयवस्तु की ओर केन्द्रित करना पड़ेगा । हमें विषयों की संकल्पनायें बदलनी होंगी, आधारभूत परिभाषायें बदलनी होंगी, पाठ्यक्रम बदलने होंगे, पठनपाठन की पद्धति बदलनी होगी । इसके लिये हमें अपने शोध, अनुसंधान और अध्ययन की पद्धतियों को भी बदलना होगा । यह एक महान शैक्षिक प्रयास होगा । यह सबसे पहले करना होगा क्योंकि इसे किये बिना बाकी सारे परिवर्तन पाश्चात्य ढाँचे को ही मजबूत बनानेवाले सिद्ध होंगे। आज भी लगभग वही हो रहा है । प्रयास तो हम बहुत कर रहे हैं परन्तु स्वना नहीं बदल रही है ।

स्वतन्त्र और स्वायत्त रचना

१८. इसके लिये हमें वर्तमान रचना के समान्तर एक स्वतन्त्र और स्वायत्त रचना निर्माण करने की भी आवश्यकता पड़ेगी । अध्ययन और अनुसन्धान करने वाले बुद्धिमान और राष्ट्रभक्‍्त तरुणों को ज्ञानसाधना करने हेतु आवाहन करना पड़ेगा । यह कार्य सरल नहीं है क्योंकि पद, प्रतिष्ठा और धन छोड़कर ही ज्ञानसाधना हो सकती है ऐसी आज स्थिति है । दूसरी ओर ज्ञानसाधना करने वालों का पूर्ण सम्मान और सुरक्षा, प्रतिष्ठा और आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके ऐसे धनवान लोगोंं का भी आवाहन करना होगा । अर्थ से विद्या श्रेष्ठ है इस सूत्र को स्वीकृत बनाने से ही यह कार्य हो सकता है ।

नये पाठ्यक्रमों के लिये हमें नयी अध्ययन सामग्री भी तैयार करनी पड़ेगी । हमारे शाश्वत सिद्धान्तों को समाहित करने वाले शास्त्र ग्रन्थों का अध्ययन कर उनके आधार पर वर्तमान युग के अनुरूप साहित्य निर्माण करने का कार्य भी करना होगा । उसी समय विश्व के ज्ञान प्रवाहों से अवगत रहते हुए उनका समायोजन हमारी ज्ञानधारा से कर उसे समृद्ध भी बनाना होगा । संक्षेप में विपुल साहित्य निर्माण हमारा दूसरा कार्य होगा ।

शिक्षा को स्वायत्त बनाने की दिशा में बलवान प्रयास करने की आवश्यकता है। शासन निरपेक्ष शिक्षाव्यवस्था ही समाज का सही मार्गदर्शन कर सकती है । शिक्षा शिक्षकों के बल पर चलनी चाहिये । जहाँ शिक्षक कर्मचारी होते हैं वहाँ वे गुरु नहीं बन सकते । गुरुत्व एक मानसिकता होती है । शिक्षक अपने आपको गुरु मानता है तब वह दायित्वबोध से युक्त होता है । तब छात्र का यदि चरित्र अच्छा नहीं है, समाज यदि सुसंस्कृत नहीं है तो वह अपने आपको जिम्मेदार मानता है । समाज यदि शिक्षक को गुरु मानता है तो उसे धनवानों से और सत्तावानों से अधिक आदर देता है । ऐसा समाज शिक्षक को कभी भी दीन या दरिद्रा नहीं रहने देता । यदि समाज शिक्षक को गुरु मानकर उसका सम्मान करता है परन्तु शिक्षक अपने आपको गुरु नहीं मानता तब वह समाज को गलत रास्ते पर ले जाकर भटका देता है और उसका अकल्याण करता है । यदि शिक्षक अपने आपको गुरु मानता है परन्तु समाज उसे गुरु नहीं मानता है तो शिक्षक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और अवमानना भी सहनी पड़ती है । ऐसी स्थिति में विरले ही अपना गुरूत्व बनाये रख पाते हैं, अधिकांश कर्मचारी बन जाते हैं । इस स्थिति में ज्ञान की, शिक्षक की और समाज की हानि होती है । जब समाज और शिक्षक दोनों ही शिक्षक को गुरु नहीं मानते हैं तब समाज की अधोगति को सीमा नहीं रहती । ऐसा समाज सुसंस्कृत नहीं रह पाता । वह प्रथम पशुप्रवृत्ति की ओर बढ़ता है और फिर पशु से भी गयाबीता बनकर विकृति की ओर गति करता है । कहने की आवश्यकता नहीं है कि आज हम ऐसी ही स्थिति में जी रहे हैं । इस स्थिति से उबरने के लिये हमें शिक्षा को स्वायत्त बनाने की दिशा में गम्भीर रूप से प्रयास करने होंगे । यह कार्य कोई भी व्यक्ति या संस्था अकेले नहीं कर सकते । इसके लिये अनिवार्य रूप से संगठन चाहिये । व्यक्ति या संस्था शैक्षिक कार्य कर सकते हैं । देश में अगणित व्यक्ति और संस्थायें आज भी मूल्यवान शैक्षिक कार्य कर ही रहे हैं । परंतु समाज के मानस को बदलना और शासन को प्रभावित करने का कार्य संगठित शक्ति ही कर सकती है । संगठित शक्ति भी दो प्रकार की है । एक तो शिक्षा के ही क्षेत्र में कार्यरत संगठन की शक्ति और दूसरी धर्मसत्ता की नैतिक शक्ति । वास्तव में शिक्षा धर्मसत्ता का ही प्रतिनिधित्व करती है । समाज को शिक्षित करने का कार्य धर्मसत्ता का होता है। यह धर्म की शिक्षा नहीं अपितु धर्म आधारित शिक्षा है । अत: धर्म की नैतिक शक्ति और शैक्षिक संगठनों की संगठन की शक्ति ही समाज के मानस को बदलकर और शासन को प्रभावित कर शिक्षा को स्वायत्त बना सकते हैं । आज देश में ऐसे संगठनों का अस्तित्व है । धर्मसत्ता भी है । उन्होंने इस कार्य को अपनी वरीयता सूची में लाने की आवश्यकता है ।

स्वतन्त्र प्रयोग

१९, शिक्षा के ऐसे प्रयोग भी करने होंगे जहाँ हम पूर्ण रूप  से धार्मिक ज्ञानधारा पर आधारित शिक्षा दे सकें । ऐसे प्रयोग केन्द्र चलाने के लिये संस्थासंचालक, शिक्षक और अभिभावकों का एक परस्पर अनुकूल मानस वाला समूह चाहिए । ऐसे प्रयोग केन्द्र प्रथम तो प्रयोग के रूप में ही चलेंगे परंतु बाद में स्थान स्थान पर चलने चाहिये । वे अनेक लोगोंं के द्वारा, अनेक स्थानों पर, विभिन्‍न प्रकार की परिस्थितियों में भी चलाये जा सकें ऐसे व्यावहारिक और लचीलापन लिये होने चाहिये । सर्वमान्य और सर्वस्वीकृत होने की क्षमता वाले होने चाहिये । व्यक्ति को और समाज को एक साथ लाभ करने वाले होने चाहिए ।

परिवार शिक्षा और परिवार में शिक्षा

२०. हमें स्थापित ढाँचे के बाहर निकलकर भी विचार करना होगा । जरा सा विचार करने पर ध्यान में आता है कि व्यक्तिविकास की हो या राष्ट्रनिरमाण की, चस्रिनिर्माण की हो या कौशलबविकास की, अधथर्जिन के लायक बनाने की हो या व्यवहारज्ञान की, अधिकांश शिक्षा परिवार में होती है । चरित्रनिर्माण की शिक्षा तो गर्भावस्था में और शिशु-अवस्था में होती है । सभी प्रकार की इस शिक्षा को देने वाले होते हैं मातापिता । हमारे शास्त्र, हमारी परम्परा, हमारा अनुभव और हमारी सामान्य बुद्धि कहती है कि माता बालक की प्रथम गुरु है । दूसरा क्रम पिता का है । शिक्षक का क्रम तीसरा होता है । अधिकांश शिक्षा घर में शिशु अवस्था में मिलने वाले संस्कारों के माध्यम से ही होती रही है । परिवार का एक और भी बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान है । वंशपस्म्परा के माध्यम से और भी अनेक प्रकार की परम्परायें बनाए रखने का कार्य भी परिवार में ही होता है । अत: परिवार संस्कृति रक्षा का, न केवल रक्षा का, संस्कृति के संवर्धन का भी बहुत बड़ा केन्द्र है । परिवारव्यवस्था विश्व के समाजजीवन को दी हुई भारत की अनुपम देन है । जीवन का समग्रता में आकलन करने वाली बुद्धि की यह देन है। मातापिता का स्थान शिक्षक नहीं ले सकता और घर का स्थान विद्यालय नहीं ले सकता । आज परिवारव्यवस्था शिथिल हो गई है और परिवार में मिलने वाली शिक्षा भी प्रभावी नहीं रही है । इस स्थिति में हमें परिवारव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने की व्यवस्था शिक्षा के माध्यम से करनी होगी । परिवार धार्मिक समाजरचना की मूल इकाई है । अतः परिवार के सुदूृढ़ीकरण से राष्ट्र जीवन भी सुल्यवस्थित होगा ।

"अनौपचारिक" को अधिक महत्त्व

२१. चरित्रनिर्माण की शिक्षा, परिवार सुदृढ़ीकरण की शिक्षा, मन को संयम में रखने की शिक्षा, शरीर को स्वस्थ और बलवान बनाने की शिक्षा का परीक्षा में उत्तीर्ण होने, अच्छे अंक मिलने और अर्थार्जन के अच्छे अवसर मिलने से कोई सम्बन्ध नहीं होता । तथापि यह अनिवार्य है । अत: इन सभी बातों का शिक्षा में समावेश करना, इन बातों की परीक्षा नहीं होना, इनसे अर्थार्जन नहीं होना, तथापि इनको विकास के मुख्य लक्षण मानना व्यक्ति और समाज को सुसंस्कृत बनाने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम होगा । आज इसे अनौपचारिक शिक्षा कहा जाता है। करियर बनाने की दौड़ में इसकी कोई गणना नहीं है । इसे अधिक महत्त्वपूर्ण मानकर, अधिक अर्थपूर्ण बनाकर हमारे सर्व प्रकार के संसाधनों का विनियोग इसमें करने की आवश्यकता है। सूत्र यह है कि शिक्षा का सम्बन्ध अर्थार्जन से नहीं अपितु was से जोड़ने के विविध तरीके हमने अपनाने चाहिये । ऐसी शिक्षा देने में मातापिता सक्षम हों इस दृष्टि से मातापिता की शिक्षा आरम्भ करनी चाहिये । परिवार शिक्षा को महत्त्व प्रदान करना चाहिये । हर बालक को अच्छा पुरुष, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ और अच्छा पिता तथा हर बालिका को अच्छी स्त्री, अच्छी पत्नी, अच्छी गृहिणी और अच्छी माता बनना सिखाने हेतु विद्यालय होने चाहिये ।

शिक्षा का सम्बन्ध ज्ञानार्जन से जोड़ना और अर्थार्जन से तोड़ना है तो अर्थार्जन की एक अलग, स्वतन्त्र और अच्छी योजना बनानी होगी | अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को इस बात का विचार करना पड़ेगा क्योंकि बिना अर्थ के ज्ञानार्जन भी सम्भव नहीं होता और केवल जीवन भी सम्भव नहीं होता ।

सामान्य जन के सामान्य ज्ञान की प्रतिष्ठा

२२. शिक्षा को ठीक पटरी पर लाने हेतु और एक बात विचारणीय है। हमारी. वर्तमान. औपचारिक शिक्षाव्यवस्था के बाहर भी ज्ञान का समृद्ध भण्डार है। सामान्य जन के पास परम्परागत ज्ञान सुरक्षित है। गाँवों में, वनवासी क्षेत्र में स्थापत्य, शिल्प, तकनीकी, कला, कारीगरी, वनस्पति, प्राणी, औषधि, उपचार, मंत्रचिकित्सा आदि अनेक प्रकार की विघाओ के जानकार लोग हैं । इन्हें कदाचित लिखना पढ़ना नहीं आता होगा, कदाचित बहुत कम आता होगा परन्तु इन व्यावहारिक कौशलों के साथ साथ प्रकृतिप्रेम, प्रामाणिकता, विद्या का सम्मान जैसे सदूगुण विपुल मात्रा में होते हैं । हमें इन विद्याओं का स्वीकार करना चाहिये, उनका सम्मान करना चाहिये, उनका समर्थन करना चाहिये। साथ ही परम्परागत ज्ञान को शास्त्रीय आधार देने हेतु अनुसन्धान की योजना भी बनाना चाहिये । लोकशिक्षा और शास्त्रशिक्षा का समन्वय करना चाहिये ।

देशव्यापी सन्दर्भ

२३. परिवर्तन की किसी भी योजना का सन्दर्भ देशव्यापी होना आवश्यक है । कोई एक स्थान तक सीमित नहीं रहना चाहिये । यह बात ठीक है कि प्रत्यक्ष कार्य तो किसी छोटे स्थान या स्थानों पर ही हो सकता है, परंतु परिणाम की दृष्टि से, लागू होने की सम्भावना की दृष्टि से उसका स्वरूप राष्ट्रीय होना चाहिये । साथ ही समग्रता में विचार करना भी अनिवार्य होगा । समग्रता और व्यापकता के लिये योजना भी दीर्घकालीन बनना आवश्यक होगा । इन तीन में भी समग्रता सबसे अहम मुद्दा होगा । समग्रता में विचार करने से ही आमूलचूल परिवर्तन सम्भव है |

सारांश के रूप में कहें तो परिवर्तन के हमारे प्रयासों के चरण कुछ इस प्रकार होंगे...

. हमें शिक्षा का सैद्धान्तिक प्रतिमान गढ़ना होगा ।

. इस प्रतिमान के आधार पर विपुल मात्रा में अध्ययन और अध्यापन की सामग्री का निर्माण करना होगा ।

. इसका प्रयोग करने के लिये स्वतन्त्र विद्या केन्द्रों की स्चना करनी होगी ।

. अनौपचारिक शिक्षाव्यवस्था. का. महत्त्व बढ़ाना होगा ।

. परिवारशिक्षा और लोकशिक्षा की अच्छी व्यवस्था करनी होगी ।

. सामान्य जन के परम्परागत ज्ञान को मान्यता देनी होगी ।

. मान्यता देने हेतु उसे शास्त्रीय आधार देना होगा । इस दिशा में अध्ययन और अनुसन्धान की गतिविधियों को मोडना होगा । इससे न केवल उसे प्रतिष्ठा प्राप्त होगी, वह परिष्कृत भी होगा और आधुनिक भी होगा ।

. शिक्षा को धार्मिक अर्थ में और धार्मिक पद्धति से स्वायत्त बनाने हेतु शिक्षकों को दायित्वबोध से युक्त बनाना होगा और सम्मानित करना होगा ।

. परिवर्तन की योजना समग्रता में बनानी होगी, इसका सन्दर्भ देशव्यापी बनाना होगा, इसकी योजना दीर्घकालीन बनानी होगी |

. इन प्रयासों का नामाभिधान “समग्र शिक्षायोजना' कर शिक्षाक्षेत्र में सभी संगठनों के परिवर्तन के प्रयासों का ध्रुवीकरण इस बिन्दु पर करना होगा ।

. समाज का. मानसपरिवर्तन और शासन का नीतिपरिवर्तन संगठित प्रयास से ही हो सकता है। संगठनों का यही प्रमुख दायित्व भी है । उन्हें अपने इस दायित्व को निभाने हेतु सिद्ध होना होगा ।

. वर्तमान में देश के विद्वानों के पास ज्ञानशक्ति और संगठनों के पास लोकसंग्रह की शक्ति है ही, केवल उसे जानना और व्यवस्थित करना आवश्यक है ।

आज विश्व भारत से मार्गदर्शन की अपेक्षा करता है । यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि युगों से भारत मार्गदर्शन करता आया है । भारत के अस्तित्व की सार्थकता भी इसीमें है । कोई कारण नहीं कि हम यह ईश्वरप्रदत्त दायित्व निभा न सकें ।