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३. यदि वास्तव में वस्तु अनावश्यक है और हम देना नहीं चाहते हैं तो दूढतापूर्वक मना करना और उस पर अन्त
३. यदि वास्तव में वस्तु अनावश्यक है और हम देना नहीं चाहते हैं तो दूढतापूर्वक मना करना और उस पर अन्त
तक डटे रहना चाहिये । यह होना ठीक नहीं है कि दो तीन बार तो मना किया परन्तु और जिद की तो दे
तक डटे रहना चाहिये । यह होना ठीक नहीं है कि दो तीन बार तो मना किया परन्तु और जिद की तो दे
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feat |
४. दूढतापूर्वक मना करना ही पर्याप्त है । डाँटना, मारना, ताने देना, झुझलाना आदि ठीक नहीं । समझाना ठीक
४. दूढतापूर्वक मना करना ही पर्याप्त है । डाँटना, मारना, ताने देना, झुझलाना आदि ठीक नहीं । समझाना ठीक
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इसका अर्थ यह हुआ कि हम आज भी बेटी नहीं बेटा ही चाहते हैं ।
इसका अर्थ यह हुआ कि हम आज भी बेटी नहीं बेटा ही चाहते हैं ।
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बेटी भी बेटा है इस सूत्र को लेकर ही उसका संगोपन होता है, उसकी शिक्षा होती है उसका करिअर बनता है ।
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पर्व ५ : विविध
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प्रश्न २२
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उत्तर
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बेटी भी बेटा है इस सूत्र को लेकर ही उसका संगोपन होता है, उसकी शिक्षा होती है
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उसका करिअर बनता है ।
परिवार को और समाज को क्या बेटी की आवश्यकता ही नहीं है ? केवल बेटा ही चाहिये ?
परिवार को और समाज को क्या बेटी की आवश्यकता ही नहीं है ? केवल बेटा ही चाहिये ?
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इसका अर्थ यह है कि हम बेटी नहीं बचा रहे हैं बेटी को बेटा बना रहे हैं ।
इसका अर्थ यह है कि हम बेटी नहीं बचा रहे हैं बेटी को बेटा बना रहे हैं ।
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इसी कारण से अब घर घर नहीं रहे क्योंकि घर तो गृहिणी का होता है । हमार बेटी बेटी ही नहीं रही तो
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इसी कारण से अब घर घर नहीं रहे क्योंकि घर तो गृहिणी का होता है । हमार बेटी बेटी ही नहीं रही तो गृहिणी कैसे बनेगी ? मातापिता भी बेटा बेटी समान के चक्कर में घर चलाना नहीं सिखाते । वास्तव में घर स्त्री और पुरुष दोनों से चलता है परन्तु केन्द्र में तो गृहिणी ही रहती है ।
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गृहिणी कैसे बनेगी ? मातापिता भी बेटा बेटी समान के चक्कर में घर चलाना नहीं सिखाते । वास्तव में घर स्त्री
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और पुरुष दोनों से चलता है परन्तु केन्द्र में तो गृहिणी ही रहती है ।
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स्मृतिकार कहते हैं, “गृह॑ तु गृहिणी हीन॑ कान्ताराद्तिरिच्यते' अर्थात् बिना गृहिणी के घर जंगल से भी
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स्मृतिकार कहते हैं, “गृह॑ तु गृहिणी हीन॑ कान्ताराद्तिरिच्यते' अर्थात् बिना गृहिणी के घर जंगल से भी अधिक भयावह होता है । और हम यही कर रहे हैं ।
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अधिक भयावह होता है । और हम यही कर रहे हैं ।
घर ही नहीं रहा तो संस्कृति की परम्परा ही खण्डित हो जायेगी ।
घर ही नहीं रहा तो संस्कृति की परम्परा ही खण्डित हो जायेगी ।
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हम स्त्रीपुरुष समान मानते हैं परन्तु पुरुष के साथ समानता प्राप्त करने के लिये स्त्री को पुरुष जैसा बनना
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हम स्त्रीपुरुष समान मानते हैं परन्तु पुरुष के साथ समानता प्राप्त करने के लिये स्त्री को पुरुष जैसा बनना पडता है । स्त्री ख्री रहकर पुरुष के समान नहीं बन सकती यही तो स्त्री की अवमानना है ।
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पडता है । स्त्री ख्री रहकर पुरुष के समान नहीं बन सकती यही तो स्त्री की अवमानना है ।
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क्या आगे चलकर हम यह करना चाहते हैं कि बेटी विवाह के बाद ससुराल न जाये ? क्योंकि पुरुष जैसा
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क्या आगे चलकर हम यह करना चाहते हैं कि बेटी विवाह के बाद ससुराल न जाये ? क्योंकि पुरुष जैसा ही बनना है तो वही करना पडेगा । पुरुष ससुराल नहीं जाता तो स्त्री क्यों जाय ? आज अब लडकियाँ अपना ही घर बसाना चाहती हैं, ससुराल उसका घर नहीं होता ।
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ही बनना है तो वही करना पडेगा । पुरुष ससुराल नहीं जाता तो स्त्री क्यों जाय ? आज अब लडकियाँ अपना ही
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घर बसाना चाहती हैं, ससुराल उसका घर नहीं होता ।
इसलिये बेटी बचाओ बेटी पढाओ का सूत्र ठीक से समझकर बेटी को बेटी बनाने की ओर बेटे को बेटा
इसलिये बेटी बचाओ बेटी पढाओ का सूत्र ठीक से समझकर बेटी को बेटी बनाने की ओर बेटे को बेटा
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बनाने की शिक्षा देनी होगी । इसमें उसका स्वयं का भी भला है और समाज का भी ।
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बनाने की शिक्षा देनी होगी । इसमें उसका स्वयं का भी भला है और समाज का भी ।
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शिक्षा ज्ञान की वाहक है । वह बहुत मूल्यवान है । फिर वह निःशुल्क क्यों होनी चाहिये ?
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एक अभिभावक का प्रश्न
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'''प्रश्न २२ शिक्षा ज्ञान की वाहक है । वह बहुत मूल्यवान है । फिर वह निःशुल्क क्यों होनी चाहिये ?'''
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'''एक अभिभावक का प्रश्न'''
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'''उत्तर''' आज यही कहा जाता है कि जिसका कोई शुल्क नहीं उसका कोई मूल्य नहीं । जो मुफ्त मिलता है उसकी कोई कीमत नहीं होती । इसलिये आप निःशुल्क विद्यालय चलायेंगे तो कोई पढने नहीं आयेगा । आजकल तो ऊँचा शुल्क लेने वाले विद्यालय अच्छे माने जाते हैं ।
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आज यही कहा जाता है कि जिसका कोई शुल्क नहीं उसका कोई मूल्य नहीं । जो मुफ्त मिलता है उसकी कोई
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हमारी सोच विपरीत बन गई है । पैसा ही सबसे श्रेष्ठ है ऐसा सोचकर ही हम ये बातें करते हैं । वास्तव में सुसंस्कृत और बुद्धिमान लोग जानते हैं कि पैसे से अधिक मूल्यावन बहुत बातें हैं । वे पैसे से नापी ही नहीं जातीं । पैसे से उन्हें तौलना ही उनका मूल्य कम कर देने के बराबर है । इसलिये शिक्षा निःशुल्क होनी चाहिये ।
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कीमत नहीं होती । इसलिये आप निःशुल्क विद्यालय चलायेंगे तो कोई पढने नहीं आयेगा । आजकल तो ऊँचा
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शुल्क लेने वाले विद्यालय अच्छे माने जाते हैं ।
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हमारी सोच विपरीत बन गई है । पैसा ही सबसे श्रेष्ठ है ऐसा सोचकर ही हम ये बातें करते हैं । वास्तव में
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परन्तु इसका दूसरा पक्ष है । कोई भी मूल्यवान वस्तु बिना माँगे और बिना पात्रता के देने से उसका मूल्य नहीं रहता । इसलिये जिन्हें जानने की इच्छा ही नहीं है, जो पढना ही नहीं चाहता उसे ज्ञान की क्या कीमत होगी ? जिसकी पात्रता नहीं है उसे पढने के लिये बुलाने से वह ज्ञान को मूल्यवान नहीं मानेगा । उसकी अवमानना करेगा ।
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सुसंस्कृत और बुद्धिमान लोग जानते हैं कि पैसे से अधिक मूल्यावन बहुत बातें हैं । वे पैसे से नापी ही नहीं जातीं ।
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पैसे से उन्हें तौलना ही उनका मूल्य कम कर देने के बराबर है । इसलिये शिक्षा निःशुल्क होनी चाहिये ।
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परन्तु इसका दूसरा पक्ष है । कोई भी मूल्यवान वस्तु बिना माँगे और बिना पात्रता के देने से उसका मूल्य
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पढने के लिये लोग शुल्क देने के लिये तभी तैयार होते हैं जब उन्हें बाद में अधिक पैसा मिलने की आशा है । वे ज्ञान का शुल्क नहीं दे रहे हैं, आगे मिलने वाले पैसे हेतु निवेश कर रहे होते हैं ।
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नहीं रहता । इसलिये जिन्हें जानने की इच्छा ही नहीं है, जो पढना ही नहीं चाहता उसे ज्ञान की क्या कीमत
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होगी ? जिसकी पात्रता नहीं है उसे पढने के लिये बुलाने से वह ज्ञान को मूल्यवान नहीं मानेगा । उसकी
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अवमानना करेगा ।
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पढने के लिये लोग शुल्क देने के लिये तभी तैयार होते हैं जब उन्हें बाद में अधिक पैसा मिलने की आशा
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अर्थात् पैसे को केन्द्रस्थान से हटाकर उचित स्थान पर स्थापित करने के लिये शिक्षा निःशुल्क बनानी चाहिये ।
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है । वे ज्ञान का शुल्क नहीं दे रहे हैं, आगे मिलने वाले पैसे हेतु निवेश कर रहे होते हैं ।
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अर्थात् पैसे को केन्द्रस्थान से हटाकर उचित स्थान पर स्थापित करने के लिये शिक्षा निःशुल्क बनानी
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यह कठिन तो है परन्तु भारत को भारत बनना है और हमें भारतीय बनना है तो ज्ञान की प्रतिष्ठा तो करनी ही होगी और उसे पैसे से उपर का स्थान देना होगा ।
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चाहिये ।
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यह कठिन तो है परन्तु भारत को भारत बनना है और हमें भारतीय बनना है तो ज्ञान की प्रतिष्ठा तो करनी
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'''प्रश्न २३''' '''लोग बारबार भगवद्गीता, उपनिषद, वेद आदि की बातें करते रहते हैं । वे तो प्राचीन हैं । उनके होने के खास प्रमाण भी नहीं हैं । वे उस समय प्रासंगिक होंगे । आज के आधुनिक काल में उनकी क्या उपयोगिता है ? उन्हें क्यों पढना चाहिये ?'''
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ही होगी और उसे पैसे से उपर का स्थान देना होगा ।
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'''एक विद्वान प्राध्यापक'''
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इस प्रकार का प्रश्न पूछने वाले आप अकेले नहीं हैं । और भी विट्रज्जन ऐसा प्रश्न पूछते हैं ।
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मजेदार बात यह है कि ऐसा प्रश्न पूछने वाले लोगों में कई ऐसे होते हैं जिन्होंने ये ग्रन्थ देखे तक नहीं होते, पढ़ने की बात तो दूर की है । वे सुनी सुनाई या काल्पनिक बातें करते हैं । उनका तो खास वजूद नहीं है ।
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उत्तर
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जिन्होंने पढ़े हैं उनके लिये विषय अवश्य विचारणीय है ।
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प्रश्न २४
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हम जो सोचते हैं, लिखते है, बोलते हैं उसके दो स्तर होते हैं । एक हिस्सा तो शाश्वत होता है जो काल
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के प्रवाह में बदलता नहीं है । एक हिस्सा व्यवहार का होता है जो देशकाल परिस्थिति के अनुसार बदलता है । जो शाश्वत है, सनातन है, तात्विक है उसे श्रुति कहते हैं, जो बदलता है उसे स्मृति कहते हैं ।
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उत्तर
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हमारे साहित्य में दोनों प्रकार के ग्रन्थ हैं । स्मृति कालबाह्ल होती है, श्रुति नहीं ।
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प्रश्न २५
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वेद, उपनिषद्, भगवद्गीता श्रुति ग्रन्थ हैं इसलिये वे उस समय भी प्रासंगिक थे, आज भी हैं और आगे भी रहेंगे । वे हमारे लिये प्रमाण ग्रन्थ हैं ।
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उत्तर
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'''प्रश्न २४ हमारे सारे शाख्रग्न्थ संस्कृत में लिखे गये हैं । आज हमें संस्कृत आती नहीं है । तब शास्त्रों में क्या लिखा है यह कैसे समझा जा सकता है ? संस्कृत पढ़ना तो कठिन लगता है । फिर क्या करें ?'''
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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हमें संस्कृत नहीं आती है यह हमारा दुर्दैव है । संस्कृत की हमने हरसम्भव अवमानना की है । हमें लगता है कि संस्कृत कठिन है परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है । भारत की सभी भाषाओं की जननी संस्कृत है इसलिये शब्दकोश की दृष्टि से हमारे लिये बहुत परिचित है । सीखने लगें तो बहुत जल्दी आ सकती है । संस्कृत सिखने में एक सात्त्विक आनन्द भी है । इसलिये छोटी आयु से उसे सिखाने की व्यवस्था करनी चाहिये ।
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WH 2 लोग बारबार भगवद्गीता, उपनिषद, वेद आदि की बातें करते रहते हैं । वे तो
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प्राचीन हैं । उनके होने के खास प्रमाण भी नहीं हैं । वे उस समय प्रासंगिक होंगे । आज के आधुनिक काल
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में उनकी क्या उपयोगिता है ? उन्हें क्यों पढना चाहिये ?
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एक विद्वान प्राध्यापक
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इस प्रकार का प्रश्न पूछने वाले आप अकेले नहीं हैं । और भी विट्रज्जन ऐसा प्रश्न पूछते हैं ।
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मजेदार बात यह है कि ऐसा प्रश्न पूछने वाले लोगों में कई ऐसे होते हैं जिन्होंने ये ग्रन्थ देखे तक नहीं होते,
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पढ़ने की बात तो दूर की है । वे सुनी सुनाई या काल्पनिक बातें करते हैं । उनका तो खास वजूद नहीं है ।
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जिन्होंने पढ़े हैं उनके लिये विषय अवश्य विचारणीय है ।
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हम जो सोचते हैं, लिखते है, बोलते हैं उसके दो स्तर होते हैं । एक हिस्सा तो शाश्वत होता है जो काल
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के प्रवाह में बदलता नहीं है । एक हिस्सा व्यवहार का होता है जो देशकाल परिस्थिति के अनुसार बदलता है ।
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जो शाश्वत है, सनातन है, तात्विक है उसे श्रुति कहते हैं, जो बदलता है उसे स्मृति कहते हैं ।
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हमारे साहित्य में दोनों प्रकार के ग्रन्थ हैं । स्मृति कालबाह्ल होती है, श्रुति नहीं ।
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वेद, उपनिषद्, भगवद्गीता श्रुति ग्रन्थ हैं इसलिये वे उस समय भी प्रासंगिक थे, आज भी हैं और आगे भी
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रहेंगे । वे हमारे लिये प्रमाण ग्रन्थ हैं ।
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हमारे सारे शाख्रग्न्थ संस्कृत में लिखे गये हैं । आज हमें संस्कृत आती नहीं है । तब शास्त्रों में क्या लिखा
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है यह कैसे समझा जा सकता है ? संस्कृत पढ़ना तो कठिन लगता है । फिर क्या करें ?
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हमें संस्कृत नहीं आती है यह हमारा दुर्दैव है । संस्कृत की हमने हरसम्भव अवमानना की है । हमें लगता है कि
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संस्कृत कठिन है परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है । भारत की सभी भाषाओं की जननी संस्कृत है इसलिये शब्दकोश की
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दृष्टि से हमारे लिये बहुत परिचित है । सीखने लगें तो बहुत जल्दी आ सकती है । संस्कृत सिखने में एक सात्त्विक
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आनन्द भी है । इसलिये छोटी आयु से उसे सिखाने की व्यवस्था करनी चाहिये ।
संस्कृत का परिचय होने के बाद प्रामाणिक अनुवाद की सहायता से हम मूल ग्रन्थ पढ़ सकते हैं ।
संस्कृत का परिचय होने के बाद प्रामाणिक अनुवाद की सहायता से हम मूल ग्रन्थ पढ़ सकते हैं ।
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भारतीय जीवनदृष्टि क्या है यह जानने के लिये यदि हमने भगवदूगीता से प्रारम्भ किया तो सरल होता है ।
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एक बार भगवदूगीता का कहना क्या है यह समझ लिया तो उसके प्रकाश में अनेक बातें सरलतापूर्वक समझी जा
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सकती हैं ।
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आज सर्वसामान्य लोग नौकरी ही करते हैं । परम्परागत धन्धे भी समाप्त हो गये हैं । धन्धे करने वालों को
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भी नौकरी करनी पड रही है । नये से धन्धा करने के लिये निवेश के लिये बहुत पैसा चाहिये । उसके बाद
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भी स्पर्धा में टिकना असम्भव है । फिर सामान्य लोगों के लिये जैसी भी मिले नौकरी के अलावा क्या
−
बचा है ? नौकरी का भी तो संकट है ।
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एक अभिभावक का प्रश्न
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आपकी बात ठीक है । उत्पादकों के साथ स्पर्धा में गये तो टिकना असम्भव है । इसलिये विद्यालय के शिक्षक,
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संचालक और अभिभावकों ने मिलकर उत्पादन, वितरण और निवेश की योजना बनानी चाहिये । उत्पादन के लिये
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सुरक्षित बाजार निर्माण करना चाहिये । विद्यार्थियों को उत्पादन करना सिखाना इसका मुख्य उद्देश्य है परन्तु
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उत्पादन की खपत को कुछ समय के लिये सुरक्षित करना होगा । धीरे धीरे बाजार खुला हो जायेगा । परन्तु
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उत्पादन फिर यन्त्रों के बडे पैमाने पर होने वाले उत्पादनों के साथ स्पर्धा में जा पडे ऐसी स्थिति नहीं निर्माण करनी
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चाहिये । उत्पादन के अनेक नैतिक नियमों की चर्चा ग्रन्थ में अन्यत्र की गई है ।
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शेद्रे
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भारतीय जीवनदृष्टि क्या है यह जानने के लिये यदि हमने भगवदूगीता से प्रारम्भ किया तो सरल होता है । एक बार भगवदूगीता का कहना क्या है यह समझ लिया तो उसके प्रकाश में अनेक बातें सरलतापूर्वक समझी जा सकती हैं ।
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'''प्रश्न २५ आज सर्वसामान्य लोग नौकरी ही करते हैं । परम्परागत धन्धे भी समाप्त हो गये हैं । धन्धे करने वालों को भी नौकरी करनी पड रही है । नये से धन्धा करने के लिये निवेश के लिये बहुत पैसा चाहिये । उसके बाद भी स्पर्धा में टिकना असम्भव है । फिर सामान्य लोगों के लिये जैसी भी मिले नौकरी के अलावा क्या बचा है ? नौकरी का भी तो संकट है ।'''
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पर्व ५ : विविध
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एक अभिभावक का प्रश्न
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आपकी बात ठीक है । उत्पादकों के साथ स्पर्धा में गये तो टिकना असम्भव है । इसलिये विद्यालय के शिक्षक, संचालक और अभिभावकों ने मिलकर उत्पादन, वितरण और निवेश की योजना बनानी चाहिये । उत्पादन के लिये सुरक्षित बाजार निर्माण करना चाहिये । विद्यार्थियों को उत्पादन करना सिखाना इसका मुख्य उद्देश्य है परन्तु उत्पादन की खपत को कुछ समय के लिये सुरक्षित करना होगा । धीरे धीरे बाजार खुला हो जायेगा । परन्तु उत्पादन फिर यन्त्रों के बडे पैमाने पर होने वाले उत्पादनों के साथ स्पर्धा में जा पडे ऐसी स्थिति नहीं निर्माण करनी चाहिये । उत्पादन के अनेक नैतिक नियमों की चर्चा ग्रन्थ में अन्यत्र की गई है ।
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प्रश्न २६
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'''प्रश्न २६ भाषा प्रभुत्व के लिये पुस्तक पढने को आप कितना महत्त्व देते हैं ?'''
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उत्तर
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'''एक अभिभावक का प्रश्न'''
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प्रश्न २७
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पुस्तक पढने का महत्त्व बहुत है । बच्चों को तीन वर्ष की आयु से पुस्तकों के बीच में रखना चाहिये । भले ही पुस्तक पढ़ें नहीं, पुस्तकों के साथ सम्बन्ध जुडना चाहिये । धीरे धीरे अपने आप पढ़ना आ जायेगा ।
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उत्तर
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घर में यदि बडों को पढ़ते हुए देखते हैं तो बच्चे भी पढ़ने में रुचि लेते हैं । बच्चों ने पढ़ी हुई पुस्तक पर उनके साथ बातें करना भाषा सीखने में बहुत सहायता करता है ।
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भाषा प्रभुत्व के लिये पुस्तक पढने को आप कितना महत्त्व देते हैं ?
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एक अभिभावक HT TA
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पुस्तक पढने का महत्त्व बहुत है । बच्चों को तीन वर्ष की आयु से पुस्तकों के बीच में रखना चाहिये । भले ही
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पुस्तक पढ़ें नहीं, पुस्तकों के साथ सम्बन्ध जुडना चाहिये । धीरे धीरे अपने आप पढ़ना आ जायेगा ।
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घर में यदि बडों को पढ़ते हुए देखते हैं तो बच्चे भी पढ़ने में रुचि लेते हैं । बच्चों ने पढ़ी हुई पुस्तक पर
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उनके साथ बातें करना भाषा सीखने में बहुत सहायता करता है ।
अच्छी सारगर्भित भाषा से युक्त पुस्तकें पढने का अभ्यास बच्चों को होना चाहिये ।
अच्छी सारगर्भित भाषा से युक्त पुस्तकें पढने का अभ्यास बच्चों को होना चाहिये ।
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साथ ही यदि भाषा जानने वाले लोगों की बाचतीत सुनने का और उनके साथ बातें करने का भी अवसर
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साथ ही यदि भाषा जानने वाले लोगों की बाचतीत सुनने का और उनके साथ बातें करने का भी अवसर उन्हें मिलता है तो जैसे सोने में सुहागा मिला ।
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उन्हें मिलता है तो जैसे सोने में सुहागा मिला ।
और कुछ बच्चों को भाषा अवगत होने का जन्मजात वरदान होता है । उन्हें ये सारे अवसर मिलते हैं तो
और कुछ बच्चों को भाषा अवगत होने का जन्मजात वरदान होता है । उन्हें ये सारे अवसर मिलते हैं तो