धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम : एक सर्वसामान्य प्रश्रनोत्तरी
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प्रश्न १. आज के बच्चोंं पर पीअर प्रेशर बहुत रहता है । इस प्रेशर को दूर करने के लिये क्या करें ?
उत्तर समान आयु के साथ पढ़ने वाले बच्चोंं को पीअर्स अर्थात् समवयस्क बच्चे कहते हैं । बच्चे जब साथ खेलते हैं, साथ साथ विद्यालय आते जाते हैं, साथ साथ पढ़ ते हैं तब एक दूसरे की वस्तुरयें देखते हैं । तब उनके मन में सहज आकर्षण निर्माण होता है । जिसके प्रति आकर्षण निर्माण होता है वह वस्तु कोई अधिक सुन्दर या मूल्यवान होती है ऐसा नहीं है परन्तु क्षणिक आकर्षण होना मन का स्वभाव होता है । आकर्षण हुआ कि वह चाहिये ऐसा लगना भी मन का स्वभाव है । इस स्थिति में जिस वस्तु की इच्छा हुई वह सब प्राप्त होना सदा सम्भव नहीं होता । वह इष्ट भी नहीं होता । वह आवश्यक भी नहीं होता । उस समय स्थिति को स्वाभाविक समझना उचित है । उचित समय पर बालक को समझाना उचित है । उचित समय पर बालक को समझाना चाहिये कि मन में आती है वह हर वस्तु प्राप्त करना सदा ठीक नहीं होता । बच्चा मन की चंचलता के कारण जो माँगता है वह देना उचित नहीं होता । हम दे नहीं सकते ऐसा अपराध बोध भी उचित नहीं । उसे परावृत करना ही उचित है और और बिना दुःखी हुए, बिना झुंझलाये यह करना चाहिये । दूसरों के पास है वह हर वस्तु न तो लेने लायक होती है न लेना उचित है यह बात ठीक से मन में बिठाई जानी चाहिये । यदि ऐसा नहीं किया तो यह बात आगे जाकर भी परेशान करती है । तरुण विद्यार्थी भी मित्र इन्जिनीयरींग में प्रवेश लेते हैं इसलिये इन्जिनीयरिंग पढना चाहते हैं । आगे चलकर लोग कहते हैं इसलिये अपना भी वैसा ही मत बना लेते हैं । वस्तुसे पढाई तक और पढाई से अभिप्रायों तक पिअर प्रेशर ही चलता है, स्वतन्त्र बुद्धि का विकास ही नहीं होता । इसलिये समय रहते अपने बच्चोंं को उचित पद्धति से समझाना अच्छा है ।[1]
प्रश्न २. बच्चे अनेक अनावश्यक वस्तुओं के लिये जिद करते हैं । क्या करें ? जिद पूरी करें या न करें ?
उत्तर एक क्षण में समझ लेना चाहिये कि वह वस्तु देनी है कि नहीं । यदि हमारा मत बनता है कि नहीं देनी चाहिये तो जिद पूरी नहीं करनी चाहिये ।
दो तीन बातों का विचार कर लेना चाहिये ।
- जिसे हम अनावश्यक मानते हैं वह वास्तव में अनावश्यक है क्या ?
- अनावश्यक है परन्तु जिद पूरी करने से लाभ है या हानि ? या लाभ तो नहीं है परन्तु हानि भी नहीं है तो उसे अधिक जिद करने का मौका ही नहीं देना चाहिये और तुरन्त पूरी करना चाहिये । उसे माँग तक सीमित रखें, जिद न बनने दें ।
- यदि वास्तव में वस्तु अनावश्यक है और हम देना नहीं चाहते हैं तो दूढतापूर्वक मना करना और उस पर अन्त तक डटे रहना चाहिये । यह होना ठीक नहीं है कि दो तीन बार तो मना किया परन्तु और जिद की तो दे दिया |
- दूढतापूर्वक मना करना ही पर्याप्त है । डाँटना, मारना, ताने देना, झुझलाना आदि ठीक नहीं । समझाना ठीक है, बच्चे बिलकुल छोटे हैं तो दूसरी ओर ध्यान आकर्षित कर सकते हैं ।
प्रश्न ३. महाविद्यालय में कुछ भी पढाते नहीं । हम क्या करें ? (एक विद्यार्थी का प्रश्न)
उत्तर
- सारे विद्यार्थी मिलकर अध्यापकों को पढ़ाने का आग्रह करें कि वे पढाये । विद्यार्थी ऐसा कहें यह तो एक सुखद आश्चर्य होगा क्योंकि विद्यार्थी पढ़ते नहीं ऐसा सबका मानना होता है ।
- नोट्स लेने का, गाइड बुक्स पढने का परामर्श यदि अध्यापक देते हैं तो विनयपूर्वक मना करें । स्वयं पढ़ाने का ही आग्रह करें ।
- एकाध अध्यापक ऐसे हैं तो उन्हें बदलना सरल भी होता है, ठीक भी होता है । सारे अध्यापक ऐसे हैं तो महाविद्यालय बदलना उचित है ।
- विनय न छोडें, आग्रह भी न छोडें । दोनों किया तो स्थिति बदलना निश्चित है ।
प्रश्न ४. माध्यमिक विद्यालयों में पूरे वर्ष का कार्यक्रम सरकार द्वारा भेज दिया जाता है । मुख्याध्यापक के टेबल पर काँच के नीचे वह रहता है । वह पूरा करना ही है और प्रमाणों के साथ उसका वृत्त भी भेजना है । इस स्थिति में मौलिकता और स्वतन्त्रता कहाँ है ? हम अपनी कल्पना से कुछ भी नहीं कर सकते । क्या करें ? (मुख्याध्यापक का प्रश्न)
उत्तर यह बात सही है । कठिनाई भी सही है । इससे होने वाली हानि भी निश्चित है । लोग इन कार्यक्रमों को सम्पन्न करने में कितनी कृत्रिमता और औपचारिकता बरतते हैं यह भी सब जानते हैं । किसी भी अच्छी बात को अनिवार्य बनाया जाय तो उसका विकृतिकरण हो जाता है और वह निरर्थक बन जाती है यह व्यावहारिक सत्य है ।
प्रथम सरकारीकरण, दूसरा शिक्षकों की विश्वसनीयता की समाप्ति और तीसरा अनिवार्य बनाना ऐसा इसका क्रम है ।
इससे मुक्ति सरल नहीं है । मुक्ति की अपेक्षा छोड जो दिये गये कार्यक्रम हैं उन्हें प्रामाणिकता पूर्वक करते हुए विश्वसनीयता बनाना प्रथम बात है, उसके आधार पर कल्पनाशीलता के लिये अवसर माँगना दूसरी बात है जिसका परिणाम अनिवार्यता दूर होना हो सकता है ।
प्रश्न ५. अभिभावक आग्रह करते हैं कि हम गृहकार्य जाँचें, गलतियों का सुधार करें । कक्षा में यदि साठ विद्यार्थी हैं तो यह कैसे हो सकता है ? यह करेंगे तो पढायेंगे कब ? (एक प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक का प्रश्न)
उत्तर यह निजी प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक का प्रश्न हो सकता है जहाँ ऊँचा शुल्क देकर विद्यार्थी पढने के लिये आते हैं । संचालक शिक्षक और अभिभावकों में परस्पर अविश्वास और ऊँचा शुल्क देने के परिणाम स्वरूप अपेक्षा करने का अधिकार ये दो बातें इसका मूल है । शिक्षकों के लिये अपनी विश्वसनीयता निर्माण करना प्रथम बात है ।दूसरा, अभिभावकों के साथ बैठकर इस बात पर चर्चा हो कि यह कैसे सम्भव है । उनकी अपेक्षा कितनी अव्यावहारिक है यह अभिभावकों को बताना चाहिये । संचालकों ने शिक्षकों का पक्ष लेना चाहिये । यदि यह नहीं किया तो अभिभावकों को और संचालकों को अच्छे शिक्षक नहीं मिलेंगे । अभिभावकों की गृहकार्य जाँचने की अपेक्षा तो पूर्ण होगी परन्तु अच्छी शिक्षा नहीं होगी । अतः संचालक, अभिभावक और शिक्षक इन तीनों ने समझदारी से काम लेना चाहिये । शिक्षक की भूमिका और दायित्व इसमें मुख्य है । शिक्षा को औपचारिकता मात्र नहीं बनने देना है । इससे शिक्षा का और समाज का नुकसान होगा ।
प्रश्न ६. शिक्षा की दुरवस्था के लिये सब शिक्षक को ही दोषी मानते हैं । क्या हमारे अलावा और कोई दोषी नहीं है ? (एक शिक्षक का प्रश्न)
उत्तर इस स्थिति के मूल में जायें तो कहना होगा कि सरकार मुख्य रूप से दोषी है । अंग्रेजों ने शिक्षा का सरकारीकरण किया । यह भारत स्वतन्त्र हुआ उससे पूर्व की बात है । जब भारत स्वतन्त्र हुआ तब सरकारीकरण को दूर करना चाहिये था । उस समय किया होता तो सम्भव हो भी जाता परन्तु अंग्रेजों के मनोवैज्ञानिक प्रभाव के कारण ऐसा नहीं हुआ । धीरे धीरे परिस्थिति ऐसी हुई कि अब सरकार उसे मुक्त करना चाहे और शिक्षकों को देना चाहे तो शिक्षक ही दायित्व लेने के लिये तैयार नहीं है । सरकार किसके हाथ में दे ?
दोषी सब हैं । परन्तु शिक्षक को दायित्व लेना चाहिये तो भी वह लेता नहीं है और शिक्षक के अलावा और किसी ने लिया तो शिक्षा की दुरवस्था बदल नहीं सकती । इस स्थिति में शिक्षक नहीं तो और कौन दोषी है ?
औरों के दोष भी शिक्षक दूर नहीं करेगा तब तक दूर नहीं होंगे । तथापि यदि शिक्षक करता नहीं है और रोता रहता है तो शिक्षक के अलावा और कौन दोषी है ?
प्रश्न ७. आज के विद्यार्थियों में ज्ञान तो ठीक, संस्कार भी दिखाई नहीं देते हैं । संस्कार देने की व्यावहारिक योजना क्या हो सकती है ? (एक कार्यकर्ता का प्रश्न)
उत्तर विद्यार्थियों में ज्ञान और संस्कार आयें इस का सम्पूर्ण दायित्व क्रमशः शिक्षकों और अभिभावकों का है । इन्होंने अपना दायित्व नहीं निभाया इसका ही यह परिणाम है । योजना तत्काल और दीर्घकालीन ऐसे दो प्रकार से होनी चाहिये । तत्काल भी केवल संस्कार के लिये हो सकती है ।
संस्कार के लिये संस्कारवर्ग तत्काल योजना हो सकती है । परन्तु तत्काल योजना सदा के लिये न बनी रहे इसलिये मातापिता को अपने बच्चोंं को संस्कार देने हेतु प्रशिक्षित करना यह होनी चाहिये । मातापिता के लिये प्रशिक्षण हेतु विद्यालयों में योजना होनी चाहिये । इसके साथ साथ वर्तमान विद्यार्थियों को अच्छे मातापिता बनने की शिक्षा का मुख्य शिक्षाक्रम में समावेश होना चाहिये । ज्ञान के लिये शिक्षकों को निवेदन करना चाहिये, आग्रह करना चाहिये । पठनपाठन पद्धति में परिवर्तन करना अति आवश्यक है ।
प्रश्न ८. सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में आठ वर्ष पढने के बाद भी बच्चोंं को सादा पढना लिखना भी नहीं आता । बच्चे गन्दे होते हैं, गालियाँ देते हैं । उन्हें मिलने वाला मध्याह्म भोजन सडा हुआ रहता है । ऐसे विद्यालयों में हम अपने बच्चोंं को कैसे भेज सकते हैं ?
उत्तर यह एक दुश्चक्र है । शिक्षक पढ़ाते नहीं इसलिये हम जाते नहीं । हम जाते नहीं इसलिये शिक्षा अच्छी होती नहीं । हम आग्रह रखते नहीं इसलिये भोजन सडा हुआ होता है । शिक्षक ध्यान देते नहीं इसलिये बच्चे गन्दे और गाली देने वाले होते हैं । वे गाली देने वाले मातापिता के ही बच्चे होते हैं इसलिये गाली देना उनका दोष नहीं । इस दोष को दूर नहीं करना शिक्षकों का दोष है । उपाय क्या है ?
- इन विद्यालयों को ठीक करना हमारा सामाजिक दायित्व है । हम केवल अपना ही विचार करते हैं इसलिये सामाजिक जिम्मेदारी से पलायन करते हैं । हमें इन विद्यालयों में अपने बच्चोंं को भेजना चाहिये ।
- शिक्षक पढ़ायें ऐसा आग्रह करना चाहिये । अभिभावकों ने मिलकर यदि आग्रह किया तो शिक्षक पढ़ाने लगेंगे क्योंकि वे योग्यता तो रखते ही हैं । हमारे बच्चोंं के साथ झॉंपडियों के बच्चे भी पढने लगेंगे ।
- झॉपडियों के दो दो बच्चोंं को हममें से एक एक अभिभावक यदि उनकी जिम्मेदारी स्वीकार करते हैं तो बडी सेवा होगी ।
- सडा हुआ मध्याह्म भोजन तो हमारी देखरेख से तुरन्त ठीक हो सकता है ।
निजी विद्यालयों में ऊँचा शुल्क, वाहन का खर्चा और साधनसामग्री का खर्च बचाकर सरकारी विद्यालयों में अपने बच्चोंं को पढाना शिक्षा की सेवा है, समाज की सेवा है । हम सेवा क्यों नहीं करेंगे ? समय नहीं है कहना ठीक नहीं है । इस काम को सेवा न मानकर दायित्व ही मानेंगे तो यह काम हो सकता है । शिक्षा को बाजारीकरण का शिकार बनने से भी हम बचा सकते हैं ।
प्रश्न ९. जो विद्यालय पूर्व प्राथमिक और प्राथमिक विद्यालयों में एक या डेढ़ लाख का शुल्क वसूलते हैं उन्हें सरकार क्यों दण्डित नहीं करती ? (एक अभिभावक का प्रश्र)
उत्तर ऐसा प्रश्न यदि समाज सेवा करने वाला कार्यकर्ता पूछता है तब तो उसका उत्तर और प्रकार से दिया जा सकता है परन्तु आप अभिभावक होकर पूछ रहे हैं इसलिये प्रथम तो आपको ही दण्डित करना चाहिये । ऐसे विद्यालय आपके सहयोग से चलते हैं । पूर्व प्राथमिक शिक्षा की तो कोई आवश्यकता ही नहीं है फिर आप क्यों अपने बच्चे को भेजते हैं । प्राथमिक विद्यालय निःशुल्क भी चलते हैं और कम शुल्क में भी चलते हैं । उसमें शिक्षा डेढड लाख वाले विद्यालयों से कम गुणवत्ता की होती है ऐसा तो नहीं है । फिर आप डेढ लाख वालों का चयन क्यों करते हैं ? वे आपको बाध्य तो नहीं करते । आप ही तो अपनी प्रतिष्ठा के लिये वहाँ भेजते हैं ।
इनका दोष अवश्य है परन्तु इन्हें सरकार दण्डित नहीं कर सकती । इन्हें अभिभावक ही अपने बच्चोंं को न भेजकर दण्डित कर सकते हैं ।
आप अपवाद स्वरूप अभिभावक हैं तो ऐसा कहते हैं । बाकी तो प्रसन्नता प्रसन्नता भेजते हैं, गर्व अनुभव करते हैं और स्थिति यह है कि प्रवेश के लिये कठिनाई हो जाती है । संचालक और अभिभावक मिलकर यह बाजार चलता है ।
आप यदि सामाजिक कार्यकर्ता, सन्निष्ठ शिक्षक या सज्जन नागरिक हैं तो प्रश्न का विचार अलग प्रकार से किया जा सकता है ।
ऐसे विद्यालय शिक्षाक्षेत्र को प्रदूषित तो करते हैं परन्तु इसे रोकने की क्षमता सरकार में नहीं है, समाज में है । समाज के समझदार और सेवाभावी लोगोंं ने, शिक्षकों ने, शिक्षासंस्थाओं ने मिलकर समाज प्रबोधन हेतु आन्दोलन चलाना चाहिये । यह आन्दोलन ऐसे विद्यालयों के अथवा उनमें अपने बच्चोंं को भेजने वालों के विरुद्ध नहीं होना चाहिये । अपितु ऐसे विद्यालय होना ठीक नहीं है ऐसी समझ बनाने हेतु होना चाहिये । जब व्यापक समझ बननी है और निःशुल्क तथा कमशुल्क वाले विद्यालय अच्छे हैं और इनके होते हुए भी देढ लाख वाले विद्यालयों में जो लोग अपने बच्चोंं को भेजते हैं वे नासमझ हैं ऐसा वातावरण बनता है तब स्थिति ठीक होने लगती है । इन विद्यालयों में अपने बच्चोंं को भेज नहीं सकते इसलिये भेजनेवालों की ईर्ष्या करते हैं वे सही नहीं हैं । उनके कारण स्थिति ठीक नहीं होती । यह समाज का एक मनोवैज्ञानिक प्रश्न है और वह मनोवैज्ञानिक पद्धति से ही सुलझाया जा सकता है ।
प्रश्न १०. पढाई पूरी होने के बाद विद्यार्थियों को नौकरी देने की जिम्मेदारी सरकार की है । वह यदि अपनी जिम्मेदारी पूर्ण न करें तो कहाँ शिकायत कर सकते हैं ?
उत्तर समझदारी पूर्वक किसी भी प्रश्न का विचार करना हरेक की जिम्मेदारी है । हरेक को नौकरी देने की जिम्मेदारी सरकार की नहीं है । सरकार यदि ऐसा करती है तो वह केवल चुनावी घोषणा है जो मिथ्या है । सरकार भी यह जानती है । थोडा विचार करेंगे तो ध्यान में आयेगा कि हम यन्त्रों का अधिकाधिक मात्रा में प्रयोग करते जायेंगे तो मनुष्य के लिये काम ही नहीं रहेगा । फिर नौकरियाँ ही नहीं होंगी । इस स्थिति में सरकार तो क्या कोई भी नौकरी नहीं दे सकता । हाँ, सरकार बेरोजगारी भत्ता दे सकती है परन्तु वह नौकरी नहीं, भीख होगी । इससे तो दुर्गति होगी ।
हाँ, सरकार की यह जिम्मेदारी अवश्य है कि सबको अर्थार्जन हेतु काम मिले । काम और नोकरी में अन्तर है । प्रथम तो यह समझना चाहिये कि लोग काम नहीं माँग रहे हैं, नौकरी माँग रहे हैं । जिन्हें काम करना है उन्हें काम तो मिल ही जाता है । यदि हम विद्यालयों में और घरों में काम और काम करना सिखाने लगें, स्वमान जाग्रत करें तो सरकार निरपेक्ष अर्थार्जन की अच्छी व्यवस्था देखते ही देखते बन सकती है क्योंकि भारत के रक्त में इस व्यवस्था के संस्कार हैं । नोकरी नहीं मिलना यह संकट नहीं है, बच्चोंं को निरुद्यमी बनाना और काम करने लायक ही नहीं बनाना संकट है । सही समृद्धि तो उद्यमशीलता के साथ रहती है, और रहती ही है ।
शिक्षा लोगोंं को इस दिशा में अग्रसर होने को प्रेरित करे और उद्यम सिखायें यही इस प्रश्न का उत्तर है ।
प्रश्न ११. हम शिक्षकों को पूरा वेतन देते हैं तो भी वे ट्यूशन करते हैं । कभी कभी तो शेयर बाजार में व्यवसाय करते हैं । उनकी नौकरी निश्चित है । उनका कोई कुछ बिगाड नहीं सकता । अब क्या किया जाय ? (एक संचालक का प्रश्न)
उत्तर ऐसा करने वाले शिक्षक आपका प्रश्न सुनकर हँसते होंगे । हमारा कोई कुछ बिगाड नहीं सकता ऐसा कहकर आपको ठेंगा दिखाते होंगे । स्थिति तो आप कहते हैं ऐसी ही है । परन्तु हमने पूरा तन्त्र ही यह सम्भव हो ऐसा बना दिया है । अनेक संचालक भी पूरे वेतन पर हस्ताक्षर करवाकर कम वेतन देते हैं । उनका भी कोई कुछ बिगाड नहीं सकता । अनेक विद्यार्थी खुले आम नकल करके पास हो जाते हैं । उनका भी कोई कुछ बिगाड नहीं सकता । अनेक मन्त्री अनेक प्रकार से भ्रष्टाचार करते हैं । उनका भी कोई कुछ बिगाड नहीं सकता ।
सवाल कानून का नहीं है, सवाल नैतिकता का है । अपनी करनी के ये परिणाम हैं । शिक्षा में, राजनीति में, अर्थार्जन में नीति नहीं रहेगी तो यही सब होगा ।
आज भी तो हम प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चशिक्षा में नीति और सदाचार नहीं सिखाते हैं । सब कुछ कानून से करना चाहते हैं । कानून से वह होता नहीं ।
इसलिये दो बातों की आवश्यकता है । शिक्षा के तन्त्र को विकेन्ट्रित करना चाहिये । इतनी छोटी इकाइयाँ बनानी चाहिये जो विवेकशील व्यक्ति के नियन्त्रण में रहे ।
दूसरा नीति सदाचार की शिक्षा अनिवार्य परन्तु अनौपचारिक पद्धति से देनी चाहिये |
सज्जनता स्वेच्छा से होती है, दबाव से नहीं । दूसरे अच्छे बनें ऐसी अपेक्षा कब कर सकते हैं यह सुज्ञ लोगोंं को समझना कठिन नहीं है ।
प्रश्न १२. हम अच्छे शिक्षक चाहते हैं । परन्तु उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में गणित और विज्ञान के शिक्षक मिलते नहीं है । क्या उपाय है ? (एक संचालक का प्रश्न)
उत्तर हमने जीवन को अर्थनिष्ठ बना दिया है । जीवन में पैसा ही केन्द्रस्थान में आ गया है । लोगोंं को लगता है कि डॉक्टर, इन्जिनीयर, चार्टर्ड एकाउण्टण्ट, मैनेजर आदि ही बनना चाहिये । इसलिये लोग इतिहास, समाजशास्त्र, भाषा, साहित्य, विज्ञान, गणित जैसे ज्ञानात्मक विषय पढना ही नहीं चाहते । जब इन विषयों को पढने वाले विद्यार्थी ही नहीं होंगे तो पाँच दस वर्षों में शिक्षक भी नहीं मिलेंगे । यह कठिनाई तो हमने ही मोल ली है । जो सामान्य स्नातक बनना चाहते हैं वे गणित, विज्ञान जैसे बुद्धिगम्य विषय पढना नहीं चाहते हैं, न वे पढ सकते हैं । इसलिये शिक्षकों का अभाव हो जाता है । दो उपाय हो सकते हैं । एक तो हमारे विद्यालय में शिक्षक चाहिये इसलिये हमारे विद्यार्थियों को ही शिक्षक बनने हेतु प्रेरणा और प्रशिक्षण देना, और दूसरा विद्यार्थी समाज में ज्ञानात्मक दृष्टिकोण निर्माण करना ।
प्रश्न १३. इतिहास, समाजशास्त्र, साहित्य आदि विषय न कोई पढना चाहता है न पढाना । इसके क्या परिणाम हो सकते हैं ? इन्हें नहीं पढने से क्या हानि है ?
उत्तर शिक्षा ज्ञानार्जन के लिये होती है । शिक्षा समष्टि में ज्ञाननिष्ठ व्यवहार करने के लिये होती है । हमारी परम्परा, हमारी संस्कृति, हमारा राष्ट्र, हमारी जीवनदृष्टि की शिक्षा यदि नहीं मिली, हम जीवन के बोध के उच्चतर स्तर तक नहीं पहुँचे तो पशु में और मनुष्य में क्या अन्तर रह जायेगा ? मनुष्य को व्यक्तिगत रूप से सुसंस्कृत बनाने के लिये और समाज को समृद्ध चिरंजीवी और विकसित बनाने के लिये ये विषय आवश्यक होते हैं । इसलिये ये अध्ययन की मुख्य धारा में होने चाहिये । आज इन विषयों को सार्थकता पूर्वक और गहराई से पढ़ाने वाला कोई नहीं रहा क्योंकि दो पीढ़ियों से हमने उनका महत्त्व भुला दिया इसलिये विद्यार्थियों ने पढ़ना छोड दिया । विद्यार्थी नहीं पढ़े इसलिये शिक्षक भी नहीं रहे । उपाय वही है जो गणित, विज्ञान आदि के विषय में बताया है ।
प्रश्न १४. बडे लोगोंं के बच्चे तो अंग्रेजी माध्यम में पढते हैं परन्तु छोटे लोगोंं को अंग्रेजी माध्यम की मनाई करते हैं । क्या आप हमें आगे नहीं बढने देना चाहते हैं ?
उत्तर क्षमा करें । यह छोटे लोगों के लिये नहीं है, तथाकथित बडे लोगोंं के लिये है क्योंकि आप यदि अपने आपको छोटा मानते हैं तो जो सही है वह नहीं करेंगे, आप जिन्हें बडा मानते हैं उनके जैसा करेंगे।
आप अपने ब्चचों को अंग्रेजी माध्यम में इसलिये पढाना चाहते हैं क्योंकि वे पढाते हैं । कल वे बन्द करेंगे तो आप भी बन्द करेंगे ।
इसलिये प्रश्न आपका नहीं, उनका है । उनसे ही परामर्श है कि अंग्रेजी माध्यम में अपने बच्चोंं को न पढायें।
अंग्रेजी से हानि अधिक है, लाभ कुछ भी नहीं । इसलिये समझदार लोग कभी भी अपने बच्चोंं को अंग्रेजी माध्यम से नहीं पढायेंगे । उल्टा कहें तो जो पढ़ाते हैं वे समझदार नहीं हैं । आप भी उनके जैसे नासमझ हैं क्योंकि आप उनका अनुकरण करते हैं ।
प्रश्न १५. सहशिक्षा के बारे में आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर अध्ययन के लिये मन की एकाग्रता, संयम, अनुशासन, सदाचार आदि अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं । यदि ये सब नहीं हैं तो अध्ययन सम्भव ही नहीं है । इन सबको यदि एक शब्द में कहना है तो वह शब्द है ब्रह्मचर्य । स्वामी विवेकानन्द जैसे अनेक मनीषियों ने शिक्षा के लिये ब्रह्मचर्य की आवश्यकता पर बल दिया है ।
सह शिक्षा लडके और लडकियाँ दोनों के ब्रह्मचर्य में अवरोध निर्माण करती है । इसलिये वह सराहनीय नहीं है।
आज की मानसिकता इससे अत्यन्त विपरीत है यह सही है परन्तु उपाय तो यही है । हम अन्तर्मन में ब्रह्मचर्य की रक्षा का महत्त्व समझते हैं इसलिये तो छात्रावास अलग होते हैं, कार्यक्रमों में निवास की व्यवस्था अलग होती हैं, बस या रेल में महिलाओं के लिये अलग व्यवस्था होती है ।
हमें लगता है महिलाओं को ही पुरुषों से भय है इसलिये महिलाओं की सुरक्षा करो । परन्तु सुरक्षा तो पुरुषों के ब्रह्मचर्य की भी करनी चाहिये |
विवाह होने तक न केवल शारीरिक अपितु मानसिक ब्रह्मचर्य की भी आवश्यकता होती है । इसकी रक्षा हो सके इस दृष्टि से सहशिक्षा नहीं होना अच्छा है ।
प्रश्न १६. आजकल बच्चे बहुत स्मार्ट हो गये हैं फिर उन्हें पाँच वर्ष की आयु तक क्यों नहीं पढाना चाहिये ? (एक अभिभावक का प्रश्न)
उत्तर मोबाइल, टीवी, संगणक चलाने को, किसी के सामने नहीं शरमाने को, चबर-चबर बोलने को, विज्ञापन की अभिनय सहित हूबहू नकल करने को हम स्मार्टनेस कहते हैं । यह स्मार्टनेस नहीं है, छिछलापन है जो बच्चोंं में होता है इसलिये हमें अखरता नहीं है परन्तु बडे बच्चे यदि ऐसे हैं तो हमें परेशानी होती है ।
स्मार्ट होने से भी बुद्धिमान, स्थिर और शान्त होना आवश्यक है । स्मार्टनेस के लिये हमारे शास्त्र बहुत अच्छा शब्द है । वह है प्रत्युत्पन्नमतित्व अर्थात् त्वरित बुद्धि वाला, सहज बुद्धिवाला । सामान्य भाषा में शब्द हैं चतुर । चतुराई सदा सराहनीय ही होती है ऐसा नहीं है ।
अतः प्रथम तो स्मार्टनेस की ही चिन्ता करें । स्मार्ट है इसलिये जल्दी पढ़ाने का तो सवाल ही नहीं है ।
प्रश्न १७. विद्यालयों में सीसीटीवी कैमरे रखने का क्या प्रयोजन है ?
उत्तर विद्यालय यदि बडा है तो मुख्याध्यापक को कहाँ क्या हो रहा है इसकी जानकारी अपने स्थान पर ही बैठे हुए मिलती रहे यही उसका मूल प्रयोजन है । कोई बाहर का व्यक्ति, कोई आवांछनीय व्यक्ति विद्यालय में न घुसे इसकी सावधानी भी इससे रखी जाती है । परन्तु इस व्यवस्था का दुरुपयोग मनुष्य का मन और बुद्धि कर ही लेते हैं । इसलिये कक्षाकक्षों में शिक्षक और विद्यार्थियों की गतिविधि पर नजर रखने के लिये इसका महत्तम उपयोग किया जाता है । विद्यार्थी यह खूब जानते हैं इसलिये उससे बचने के उपाय भी खोज लेते हैं और जो करना है कर लेते हैं ।
प्रश्न १८. इतने प्रभावी दृश्यश्राव्य उपकरण हैं फिर शिक्षक की क्या आवश्यकता है ? (एक संचालक का प्रश्न)
उत्तर घर में आपके सब काम करने वाला और आपके साथ मीठी बातें भी करने वाला रोबोट है तो फिर पत्नी, पुत्र आदि की क्या आवश्यकता है ? आप तुरन्त कहेंगे कि जीवन जीवित लोगोंं के साथ जीया जाता है, यन्त्रों के साथ नहीं । शिक्षा का भी ऐसा ही है । शिक्षा जीवित लोगोंं के मध्य होने वाला व्यवहार है, यन्त्रों और मनुष्यों के मध्य होने वाला नहीं । यन्त्र हमारे सहायक हो सकते हैं, हमारा स्थान नहीं ले सकते हैं ।
जो लोग शिक्षा को यान्त्रिक व्यवस्था के हवाले कर रहे हैं उनकी सोच इस प्रकार की बनती है, परन्तु जो आत्मीयता, प्रेरणा, श्रद्धा, निष्ठा, मूल्य चरित्र, सदूगुणविकास आदि का महत्त्व जानते हैं वे कभी भी शिक्षक के स्थान पर यन्त्र नहीं लायेंगे ।
प्रश्न १९. दुनिया टेबलेट की ओर जा रही है और आप स्लेट की बात कर रहे हैं । कौन इसे स्वीकार कर सकता है ? (एक अभिभावक का प्रश्न)
उत्तर जो बुद्धिमान होगा वह स्लेट के पक्ष में खडा रहेगा । खूब पैसा खर्च करना, विद्युत का प्रयोग करना, हाथ और मस्तिष्क को कोई कम नहीं देना यह टेबलेट है जबकि उससे सौ गुना कम दाम में स्लेट आती है जिस पर हाथ से लिखना और बुद्धि में बिठाना है । पुस्तक का भी ऐसा ही है ।
हम ऐसे कष्ट कम करना चाहते हैं जो वास्तव में अध्ययन हेतु किया जानेवाला व्यायाम है । इससे बचकर स्वास्थ्य को कैसे बचायेंगे ? टेब्लेट में हो या स्लेट में लिखना तो समान ही है ना ? फिर इतने महँगे उपकरणों की और आकर्षित होने में क्या बुद्धिमानी है ? शिक्षा को महँगे उपकरणों वाली नहीं, सस्ते और कम से कम उपकरणों वाली बनाना चाहिये । इसलिये टेबलेट नहीं स्लेट चाहिये ।
प्रश्न २०. मातृभाषा नहीं आने से क्या हानि है ? (एक अभिभावक का प्रश्न)
उत्तर मातृभाषा क्यों नहीं आनी चाहिये इसका कोई तर्कपूर्ण कारण है क्या ? नहीं । इसलिये मातृभाषा नहीं आना अत्यन्त अस्वाभाविक है ।
- मातृभाषा नहीं आने से दुनिया की एक भी भाषा अच्छी तरह नहीं आती |
- मातृभाषा नहीं आने से हमारी संस्कृति के साथ गहरा सम्बन्ध नहीं बनता ।
- मातूभाषा नहीं आने से अपने आसपास जो मातृभाषा जानने वाले लोग हैं उनके साथ सार्थक सम्भाषण नहीं कर सकते ।
- मातृभाषा नहीं आयेगी तो सब्जी लेने के लिये कैसे जायेंगे ? घर में आने वाले नौकरों, मेकेनिक, सफाई कर्मचारी आदि के साथ सम्बन्ध कैसे बनेगा ?
- भारत में यदि मातृभाषा नहीं आती तो पूजा कैसे करेंगे । संस्कृत कैसे आयेगी ? संस्कृत में लिखे ग्रन्थ कैसे पढ़ेंगे ?
अर्थात् मातृभाषा नहीं आने से हम सहज और सामान्य नहीं रहेंगे । समूह में अलग हो जायेंगे ।
प्रश्न २१. अभी तो सरकार ने सूत्र दिया है “बेटी बचाओ बेटी पढाओ' तब आप सहशिक्षा के लिये क्यों मना कर रहे हैं? (एक अभिभावक का प्रश्न)
उत्तर आपका प्रश्न ही असंगत है । बेटी पढ़ाने का और सहशिक्षा का क्या सम्बन्ध है ? सहशिक्षा नहीं होने का अर्थ यह नहीं होता कि बेटी को पढ़ाना नहीं है । बेटी को अवश्य पढ़ाना है । परन्तु इस सूत्र का आज हम व्यवहार में क्या कर रहे हैं इसका जरा गम्भीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है ।
आधुनिक समय में भी एक कालखण्ड ऐसा आया जब कन्या भ्रूण हत्या की मात्रा बढ गई । यह चिन्तित कर देने वाला मामला अवश्य था । हमारी यह भी धारणा बनी है कि हम लडकों को ही पढाते हैं, लडकियों को नहीं । इसका उपाय करने के प्रयास होने लगे । सरकार की ओर से अनेक प्रयास हुए । उनमें से यह “बेटी बचाओ बेटी पढाओ' सूत्र आया ।
आज समाज में यह सूत्र तो स्वीकृत हो गया है परन्तु हम करते क्या हैं ? हम कहने लगे हैं कि हमारे लिये बेटी और बेटा समान है । परन्तु हम बेटी को बेटी के रूप में नहीं स्वीकार कर रहे हैं, बेटी को बेटा बना रहे हैं । अनजान में भी हम बेटी के साथ बेटे जैसा व्यवहार कर रहे हैं । छोटी बेटी को हम लडके की तरह बुलाते हैं । उसके कपड़े उसके खेल, उसकी गतिविधियाँ सब लडके जैसी ही हों ऐसा हम चाहते हैं ।
परीक्षा करके देखें । बेटा और बेटी समान हैं तो बेटे को बेटी की तरह बुलायेंगे ? बेटे को बेटी का वेश पहनायेंगे ? लडकियों के खेल दोनों खेलेंगे ? कभी नहीं । लडके की माता और बहन भी ऐसा करना पसन्द नहीं करेंगी । फिर बेटी को बेटे जैसा क्यों बनाना है ? अर्थात् हमारा बालक बेटी के रूप में भले हीं हो हम उसे बेटे की तरह पालेंगे ।
इसका अर्थ यह हुआ कि हम आज भी बेटी नहीं बेटा ही चाहते हैं ।
बेटी भी बेटा है इस सूत्र को लेकर ही उसका संगोपन होता है, उसकी शिक्षा होती है उसका करिअर बनता है ।
परिवार को और समाज को क्या बेटी की आवश्यकता ही नहीं है ? केवल बेटा ही चाहिये ?
इसका अर्थ यह है कि हम बेटी नहीं बचा रहे हैं बेटी को बेटा बना रहे हैं ।
इसी कारण से अब घर घर नहीं रहे क्योंकि घर तो गृहिणी का होता है । हमार बेटी बेटी ही नहीं रही तो गृहिणी कैसे बनेगी ? मातापिता भी बेटा बेटी समान के चक्कर में घर चलाना नहीं सिखाते । वास्तव में घर स्त्री और पुरुष दोनों से चलता है परन्तु केन्द्र में तो गृहिणी ही रहती है ।
स्मृतिकार कहते हैं, “गृह॑ तु गृहिणी हीन॑ कान्ताराद्तिरिच्यते' अर्थात् बिना गृहिणी के घर जंगल से भी अधिक भयावह होता है । और हम यही कर रहे हैं ।
घर ही नहीं रहा तो संस्कृति की परम्परा ही खण्डित हो जायेगी ।
हम स्त्रीपुरुष समान मानते हैं परन्तु पुरुष के साथ समानता प्राप्त करने के लिये स्त्री को पुरुष जैसा बनना पडता है । स्त्री ख्री रहकर पुरुष के समान नहीं बन सकती यही तो स्त्री की अवमानना है ।
क्या आगे चलकर हम यह करना चाहते हैं कि बेटी विवाह के बाद ससुराल न जाये ? क्योंकि पुरुष जैसा ही बनना है तो वही करना पड़ेगा । पुरुष ससुराल नहीं जाता तो स्त्री क्यों जाय ? आज अब लडकियाँ अपना ही घर बसाना चाहती हैं, ससुराल उसका घर नहीं होता ।
इसलिये बेटी बचाओ बेटी पढाओ का सूत्र ठीक से समझकर बेटी को बेटी बनाने की ओर बेटे को बेटा बनाने की शिक्षा देनी होगी । इसमें उसका स्वयं का भी भला है और समाज का भी ।
प्रश्न २२. शिक्षा ज्ञान की वाहक है । वह बहुत मूल्यवान है । फिर वह निःशुल्क क्यों होनी चाहिये ? (एक अभिभावक का प्रश्न)
उत्तर आज यही कहा जाता है कि जिसका कोई शुल्क नहीं उसका कोई मूल्य नहीं । जो मुफ्त मिलता है उसकी कोई कीमत नहीं होती । इसलिये आप निःशुल्क विद्यालय चलायेंगे तो कोई पढने नहीं आयेगा । आजकल तो ऊँचा शुल्क लेने वाले विद्यालय अच्छे माने जाते हैं ।
हमारी सोच विपरीत बन गई है । पैसा ही सबसे श्रेष्ठ है ऐसा सोचकर ही हम ये बातें करते हैं । वास्तव में सुसंस्कृत और बुद्धिमान लोग जानते हैं कि पैसे से अधिक मूल्यावन बहुत बातें हैं । वे पैसे से नापी ही नहीं जातीं । पैसे से उन्हें तौलना ही उनका मूल्य कम कर देने के बराबर है । इसलिये शिक्षा निःशुल्क होनी चाहिये ।
परन्तु इसका दूसरा पक्ष है । कोई भी मूल्यवान वस्तु बिना माँगे और बिना पात्रता के देने से उसका मूल्य नहीं रहता । इसलिये जिन्हें जानने की इच्छा ही नहीं है, जो पढना ही नहीं चाहता उसे ज्ञान की क्या कीमत होगी ? जिसकी पात्रता नहीं है उसे पढने के लिये बुलाने से वह ज्ञान को मूल्यवान नहीं मानेगा । उसकी अवमानना करेगा ।
पढने के लिये लोग शुल्क देने के लिये तभी तैयार होते हैं जब उन्हें बाद में अधिक पैसा मिलने की आशा है । वे ज्ञान का शुल्क नहीं दे रहे हैं, आगे मिलने वाले पैसे हेतु निवेश कर रहे होते हैं ।
अर्थात् पैसे को केन्द्रस्थान से हटाकर उचित स्थान पर स्थापित करने के लिये शिक्षा निःशुल्क बनानी चाहिये ।
यह कठिन तो है परन्तु भारत को भारत बनना है और हमें धार्मिक बनना है तो ज्ञान की प्रतिष्ठा तो करनी ही होगी और उसे पैसे से उपर का स्थान देना होगा ।
प्रश्न २३. लोग बारबार भगवद्गीता, उपनिषद, वेद आदि की बातें करते रहते हैं । वे तो प्राचीन हैं । उनके होने के खास प्रमाण भी नहीं हैं । वे उस समय प्रासंगिक होंगे । आज के आधुनिक काल में उनकी क्या उपयोगिता है ? उन्हें क्यों पढना चाहिये ? (एक विद्वान प्राध्यापक)
उत्तर इस प्रकार का प्रश्न पूछने वाले आप अकेले नहीं हैं । और भी विट्रज्जन ऐसा प्रश्न पूछते हैं ।
मजेदार बात यह है कि ऐसा प्रश्न पूछने वाले लोगोंं में कई ऐसे होते हैं जिन्होंने ये ग्रन्थ देखे तक नहीं होते, पढ़ने की बात तो दूर की है । वे सुनी सुनाई या काल्पनिक बातें करते हैं । उनका तो खास वजूद नहीं है ।
जिन्होंने पढ़े हैं उनके लिये विषय अवश्य विचारणीय है ।
हम जो सोचते हैं, लिखते है, बोलते हैं उसके दो स्तर होते हैं । एक हिस्सा तो शाश्वत होता है जो काल के प्रवाह में बदलता नहीं है । एक हिस्सा व्यवहार का होता है जो देशकाल परिस्थिति के अनुसार बदलता है । जो शाश्वत है, सनातन है, तात्विक है उसे श्रुति कहते हैं, जो बदलता है उसे स्मृति कहते हैं ।
हमारे साहित्य में दोनों प्रकार के ग्रन्थ हैं । स्मृति कालबाह्ल होती है, श्रुति नहीं ।
वेद, उपनिषद्, भगवद्गीता श्रुति ग्रन्थ हैं इसलिये वे उस समय भी प्रासंगिक थे, आज भी हैं और आगे भी रहेंगे । वे हमारे लिये प्रमाण ग्रन्थ हैं ।
प्रश्न २४. हमारे सारे शास्त्रग्न्थ संस्कृत में लिखे गये हैं । आज हमें संस्कृत आती नहीं है । तब शास्त्रों में क्या लिखा है यह कैसे समझा जा सकता है ? संस्कृत पढ़ना तो कठिन लगता है । फिर क्या करें ?
उत्तर हमें संस्कृत नहीं आती है यह हमारा दुर्दैव है । संस्कृत की हमने हरसम्भव अवमानना की है । हमें लगता है कि संस्कृत कठिन है परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है । भारत की सभी भाषाओं की जननी संस्कृत है इसलिये शब्दकोश की दृष्टि से हमारे लिये बहुत परिचित है । सीखने लगें तो बहुत जल्दी आ सकती है । संस्कृत सिखने में एक सात्त्विक आनन्द भी है । इसलिये छोटी आयु से उसे सिखाने की व्यवस्था करनी चाहिये ।
संस्कृत का परिचय होने के बाद प्रामाणिक अनुवाद की सहायता से हम मूल ग्रन्थ पढ़ सकते हैं ।
धार्मिक जीवनदृष्टि क्या है यह जानने के लिये यदि हमने भगवदूगीता से प्रारम्भ किया तो सरल होता है । एक बार भगवदगीता का कहना क्या है यह समझ लिया तो उसके प्रकाश में अनेक बातें सरलतापूर्वक समझी जा सकती हैं ।
प्रश्न २५. आज सर्वसामान्य लोग नौकरी ही करते हैं । परम्परागत धन्धे भी समाप्त हो गये हैं । धन्धे करने वालों को भी नौकरी करनी पड रही है । नये से धन्धा करने के लिये निवेश के लिये बहुत पैसा चाहिये । उसके बाद भी स्पर्धा में टिकना असम्भव है । फिर सामान्य लोगोंं के लिये जैसी भी मिले नौकरी के अलावा क्या बचा है ? नौकरी का भी तो संकट है । (एक अभिभावक का प्रश्न)
उत्तर आपकी बात ठीक है । उत्पादकों के साथ स्पर्धा में गये तो टिकना असम्भव है । इसलिये विद्यालय के शिक्षक, संचालक और अभिभावकों ने मिलकर उत्पादन, वितरण और निवेश की योजना बनानी चाहिये । उत्पादन के लिये सुरक्षित बाजार निर्माण करना चाहिये । विद्यार्थियों को उत्पादन करना सिखाना इसका मुख्य उद्देश्य है परन्तु उत्पादन की खपत को कुछ समय के लिये सुरक्षित करना होगा । धीरे धीरे बाजार खुला हो जायेगा । परन्तु उत्पादन फिर यन्त्रों के बडे पैमाने पर होने वाले उत्पादनों के साथ स्पर्धा में जा पड़े ऐसी स्थिति नहीं निर्माण करनी चाहिये । उत्पादन के अनेक नैतिक नियमों की चर्चा ग्रन्थ में अन्यत्र की गई है ।
प्रश्न २६. भाषा प्रभुत्व के लिये पुस्तक पढने को आप कितना महत्त्व देते हैं ? (एक अभिभावक का प्रश्न)
उत्तर पुस्तक पढने का महत्त्व बहुत है । बच्चोंं को तीन वर्ष की आयु से पुस्तकों के मध्य में रखना चाहिये । भले ही पुस्तक पढ़ें नहीं, पुस्तकों के साथ सम्बन्ध जुडना चाहिये । धीरे धीरे अपने आप पढ़ना आ जायेगा ।
घर में यदि बडों को पढ़ते हुए देखते हैं तो बच्चे भी पढ़ने में रुचि लेते हैं । बच्चोंं ने पढ़ी हुई पुस्तक पर उनके साथ बातें करना भाषा सीखने में बहुत सहायता करता है ।
अच्छी सारगर्भित भाषा से युक्त पुस्तकें पढने का अभ्यास बच्चोंं को होना चाहिये ।
साथ ही यदि भाषा जानने वाले लोगोंं की बाचतीत सुनने का और उनके साथ बातें करने का भी अवसर उन्हें मिलता है तो जैसे सोने में सुहागा मिला ।
और कुछ बच्चोंं को भाषा अवगत होने का जन्मजात वरदान होता है । उन्हें ये सारे अवसर मिलते हैं तो उनका भाषाप्रभुत्व सहज ही होता है । जिन्हें भाषा अच्छी आती है उन्हें कठिन विषय समझना भी सरल होता है ।
प्रश्न २७. हम पढते थे तब सातवीं में बोर्ड की परीक्षा होती थी और उसे उत्तीर्ण करने पर प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक बना जाता था । माध्यमिक विद्यालय की मैट्रिक में प्रथम श्रेणी मिल गई तो बडी उपलब्धि मानी जाति थी । स्नातक होना बहुत बडी बात थी । आज के स्नातक से भी उस समय के सातवीं पास को अधिक ज्ञान था । आज गडबड कहाँ हुई है ? (एक अभिभावक का प्रश्न)
उत्तर आप दो पीढ़ी पूर्व की बात बता रहे हैं जब आप पढ़ रहे थे । उस समय हजार रूपया वेतन होना भी बहुत बडी बात थी ।
हमने विगत तीस चालीस वर्षा में सारी बातों की गुणवत्ता बहुत कम कर दी है । वस्तुओं का मूल्य भी कम कर दिया है । रूपये का भी मूल्य कम हो गया, परीक्षा में अंकों का कम हो गया |
पहले शिक्षा ज्ञाननिष्ठ थी, अब अर्थनिष्ठ बन गई । अर्थ को अर्थात् पैसे को पैसे के अलावा किसी बात का मूल्य नहीं होता । इसलिये अध्ययन अध्यापन में पैसे कमाने की दृष्टि से चतुराई होने लगी । मैं दूसरे से बेहतर हूँ ऐसा दिखाने के लिये मेरे विद्यार्थी को अधिक अंक देने की रीत बढती गई । मेरे विद्यालय का परीक्षाफल अधिक दिखाई दे इस दृष्टि से अंक बढ़ाने की प्रवृत्ति भी उसका विस्तार है । विद्यालय की संख्या बनी रहे इस दृष्टि से परीक्षालफल देना भी वही है । अधिक अंक देने में मेरा तो कोई नुकसान नहीं है यह सोच है । कसकर परीक्षा लेना भी बन्द हो गया । धीरे धीरे ज्ञान का और परीक्षा के परिणाम का सम्बन्ध विच्छेद् होता गया । शिक्षित होकर हमें अब क्या प्राप्त करना है इसका खास कोई विचार ही नहीं रहा । पढ़लिख कर आप अच्छे बनेंगे क्या ऐसा पूछने पर प्रथम तो प्रश्न ही समझ में नहीं आयेगा । समझेंगे तब कहेंगे कि अब अच्छाई का जमाना नहीं रहा । ज्ञान की बात भी समझ में नहीं आती । शिक्षित होकर पैसा कमायेंगे यह एकमात्र इच्छा बची है परन्तु पैसा कमाने के लिये कैसा पढ़ना चाहिये इसका भान नहीं है । स्वतन्त्र विचार नामक कोई बात नहीं बची |
विगत दौ पीछ़ियों में हमने बडा घालमेल कर दिया है । अब हमें ही रास्ता नहीं सूझ रहा है । ऐसी गुत्थियों से ही हमें मार्ग निकालना है । इसके लिये सभी समझदार लोगोंं ने मिलकर प्रयास करने होंगे । आपका भी सहयोग अपेक्षित है ।
प्रश्न २८. जिस प्रकार सहशि क्षा नहीं होनी चाहिये ऐसा कहा जाता है उसी प्रकार क्यो दोनों को मिलने वाली शिक्षा भी अलग होनी चाहिये ? यदि ऐसा होता है तो समानता कहाँ रही ? (एक विचारक का प्रश्न)
उत्तर हमें आज की शिक्षा के परिणाम स्वरूरप चीजों को उपर उपर से ही देखने की आदत हो गई है । वेश की समानता, काम की समानता, अवसरों की समानता, करिअर की समानता ही हमें समानता लगती है । वास्तव में यह समानता नहीं है, एकरूपता है । एकरूपता सृष्टि में कहीं भी होती नहीं है । एकरूपता का न होना विविधता है और सुन्दरता है । इसलिये हमें समानता के नाम पर हमने एकरूपता के पीछे नहीं जाना चाहिये ।
समानता का गहरा अर्थ है । हरेक के व्यक्तित्व के विशेष गुणों का विकास करने हेतु समान अवसर मिलना ही समानता है ।
लडकी को उत्तम ख्री और लड़के को उत्तम पुरुष होने के समान अवसर प्राप्त होना ही समानता है । स्त्रीत्व के गुर्णों का पूर्ण विकास हो ऐसी शिक्षा लडकी के लिये और पुरुषत्व के गुणों का उत्तम विकास हो ऐसी शिक्षा लडकों के लिये होना समान शिक्षा है । शारीरिक और मानसिक शिक्षा दोनों के लिये अलग ही होगी । दोनों के गुणों के आधार पर दोनों की पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक भूमिका भी भिन्न होगी । उसके अनुसार दोनों की शिक्षा का स्वरूप भी भिन्न होगा ।
बौद्धिक और आत्मिक स्तर की शिक्षा दोनों के लिये समान होगी ।
मुद्दा यह है कि शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आत्मिक आदि स्तरों के पचडे में ही हम नहीं पड़ते और समानता के नाम पर कोलाहल मचाकर बातों को उलझा देते हैं और संकट निर्माण करते हैं ।
प्रश्न २९. एक बात ध्यान में आती है कि स्त्रीत्व के गुणों का विकास हो सके ऐसी शिक्षा की आज कोई व्यवस्था ही नहीं है । में निवृत्त शिक्षक हूँ । क्या मैं इसके लिये कुछ कर सकता हूँ ? (एक शिक्षक का प्रश्न)
उत्तर आपकी ओर से ऐसा प्रस्ताव आना ही शुभ संकेत है । आपके जैसे अन्य सेवानिवृत्त शिक्षक यदि इस बात को प्रधानता देते हैं तो उचित परिप्रेक्ष्या में यह बात आरम्भ होगी । इस दृष्टि से आपको इन चरणों में काम करना होगा ।
- केवल स्त्रीत्व के ही नहीं तो पुरुषत्व के गुणों का सम्यक् विकास होना अपेक्षित है ।
- दोनों के लिये किस प्रकार की शिक्षा चाहिये उसका विचार कर एक रूपरेखा तैयार करना, सामग्री जुटाना और योजना बनाना ।
- कुछ मात्रा में व्यापक प्रवाह कर समाज की मानसिकता बनाना ।
- साथ ही साथ छोटे छोटे समूहों में प्रत्यक्ष शिक्षा का प्रारम्भ करना . लोग जानते नहीं हैं कि उन्हें इस शिक्षा की कितनी अधिक आवश्यकता है । इसलिये प्रारम्भ भले ही छोटा लगता हो, देखते ही देखते इसका व्याप बढ जायेगा ।
इस दृष्टि से अभिभावकों को चाहिये कि वे अपनी सन्तानों को इस शिक्षा के लिये समय मिल सके ऐसे हर सम्भव प्रयास करें ।
यह शिक्षा आठ दस वर्ष की आयु से प्रारम्भ होकर विवाह होने तक हो सकती है । बाद की शिक्षा का स्वरूप कुछ भिन्न रहेगा ।
इस प्रकार की शिक्षा में यदि मातापिता को साथ में जोड़ा जाय तो सुविधा भी होगी, लाभ भी होगा ।
मुख्य रूप से यह शिक्षकों का ही काम है, अभिभावक सहयोगी और धर्माचार्य मार्गदर्शक हो सकते हैं ।
प्रश्न ३०. धार्मिक शिक्षा के पक्षधर सब कहते हैं कि शिक्षा निःशुल्क होनी चाहिये । आज स्थिति एकदम दूसरे छोर की है । अब दोनों छोरों को मिलाने के क्या उपाय हैं ? (एक शिक्षक का प्रश्न)
उत्तर ज्योर्ज वॉर्शिंग्टन कार्वर नामक एक नीग्रो कृषि वैज्ञानिक ने कहा है कि आप जहाँ हैं वहाँ से, जिस स्थिति में हैं वहाँ से आरम्भ करो और कुछ करके दिखाओ । आप शिक्षक हैं । शिक्षकों द्वारा ही इसका प्रास्भ हो सकता है ।
आप वेतन लेना बन्द मत करो । परन्तु आप विद्यार्थियों को पढ़ाते हैं वे यदि अन्य किसी के पास ट्यूशन के लिये जाते हैं तो उनके ट्यूशन बन्द करवाकर अतिरिक्त शिक्षा निःशुल्क देना प्रारम्भ करो । प्रार्भ में अभिभावकों को विश्वास नहीं होगा । वे सॉंचेगे कि आप पैसे नहीं लेते इसलिये दरकार भी कम करेंगे । परन्तु धीरे धीरे विश्वास हो जायेगा । दूसरे शिक्षकों के विद्यार्थियों को मत पढाओ, अपने ही विद्यार्थियों का जिम्मा लो । धीरे धीरे आपके जैसे और शिक्षक भी आपसे मिल जायेंगे ।
महाविद्यालय के विदायर्थियों के साथ चर्चा आरम्भ करो । उनमें भी शिक्षक के स्वभाव के लोग मिलेंगे । उन्हें अपने काम में जोड़ो । यह मत सोचो कि युवा लोग नहीं मिलेंगे । आज भी ऐसे युवा हैं जो अच्छा काम करना चाहते हैं । उनके साथ मिलकर यदि आप विद्यालय आरम्भ कर सकते हैं तो बहुत ही अच्छा । इस विद्यालय को अर्थनिरपेक्ष बनाओ । धार्मिक शिक्षा की अर्थव्यवस्था कैसी होती थी यह समझकर, आज की स्थिति का विचार कर अर्थव्यवस्था बिठाओ । यह प्रयोग अवश्य यशस्वी होगा ।
केवल इतना ध्यान रखो कि यह गरीब, अनाथ, बेचारे विद्यार्थियों के लिये न हो, सम्पन्न घर के विद्यार्थी भी हों । निःशुल्क विद्यालय धर्मादाय व्यवस्था नहीं है, विद्या को अर्थ के उपर उठाने की व्यवस्था है । शिक्षक भिक्षुक नहीं है, गुरु है । वह दया का नहीं, सम्मान का अधिकारी है ।
प्रश्न ३१. शिक्षा को धार्मिक बनाने हेतु हम यदि अध्ययन करना चाहते हैं तो क्या करें ? और अनुसन्धान का क्या तरीका है ? (एक जिज्ञासु)
उत्तर पहली बात तो यह है कि आप विश्वविद्यालय की कोई पदवी या पुरस्कार मिलेगा ऐसी अपेक्षा छोड दो । वर्तमान शिक्षाव्यवस्था से समानान्तर पद्धति विकसित करने की आवश्यकता है । दूसरी बात यह है कि गीता और उपनिषदों का कुछ अध्ययन कर धार्मिक जीवनदृष्टि क्या है इसकी समझ स्पष्ट करने का प्रयास करो । तीसरी बात यह है कि स्वामी विवेकानन्द, श्री अरविन्द, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर, महात्मा गांधी आदि महानुभावों के शिक्षाविषयक विचारों और प्रयोगों का अध्ययन करो । चौथी बात है आज देशभर में धार्मिक शिक्षा के क्षेत्र में समानान्तर कार्य कैसा चल रहा है उसका अध्ययन करो ।
इसके बाद आज क्या किया जा सकता है और क्या करने की आवश्यकता है इसका चिन्तन कर उसके अनुसार योजना बनाना व्यावहारिक अनुसन्धान होता है । ऐसे अध्ययन और अनुसन्धान की आज नितान्त आवश्यकता है । इस दृष्टि से अध्ययन हेतु कुछ ग्रन्थों की, कुछ मार्गदर्शकों की, परामर्शकों की, सहअध्येताओं की सूचियाँ बन सकती हैं । आप देखेंगे कि यह कार्य बहुत अच्छी तरह से हो सकता है और उसमें आनन्द आ सकता है।
प्रश्न ३२. क्या अनुसन्धान का स्वरूप भी धार्मिक हो सकता है ? वर्तमान अनुसन्धान से वह भिन्न है ? (एक जिज्ञासु का प्रश्न)
उत्तर निश्चित रूप से अनुसन्धान का धार्मिक स्वरूप वर्तमान स्वरूप से भिन्न ही है ।
धार्मिक अनुसन्धान के दो प्रकार हैं, अथवा कहें कि दो स्तर हैं । एक है तात्त्विक और दूसरा है व्यावहारिक ।
तात्त्विक अनुसन्धान अनुभूति का क्षेत्र हैं । बौद्धिक जगत से यह परे हैं । यह दर्शन है । धार्मिक ज्ञानधारा के मूल तत्त्वों का ऋषियों को दर्शन हुआ था । आज भी ऐसा हो तो सकता है परन्तु इसके रास्ते बहुत भिन्न हैं ।
व्यावहारिक अनुसन्धान बुद्धि का क्षेत्र है । इसके भी दो स्तर हैं । एक है तत्त्व को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में समझना और समझाना । यह तत्त्व की युगानुकूल प्रस्तुति है ।
दूसरी है व्यवहार के लिये जो रचनायें बनी हैं उनको परिष्कृत करना, कालबाह्म हो गई हैं उनका त्याग करना और नई बनाना ।
तात्विक अनुसन्धान श्रुति का क्षेत्र है, व्यावहारिक स्मृति का ।
थोडा विचार करेंगे तो अनुसन्धान का इतना स्पष्ट, श्रेष्ठ, उच्च स्तरीय विचार भारत के अलावा अन्यत्र कहीं भी नहीं हुआ है ।
यह बडी शोचनीय बात है कि इतना उच्च स्तर छोडकर हम आज अत्यन्त सतही स्तर पर विहार कर रहे हैं और उसे अनुसन्धान का नाम दे रहे हैं । यह अनुसन्धान नहीं, अनुसन्धान का आभास है । भारत की विद्रत्ता को शोभा देने वाली यह बात नहीं है । हमें यह आभासी आवरण को दूर कर सही बातों की पुनर्प्रतिष्ठा करने की आवश्यकता है ।
प्रश्न ३३. विगत कुछ वर्षों से सूत्र चल रहा है “छोटा परिवार सुखी परिवार' अब लोगोंं के ध्यान में आ रहा है कि छोटा परिवार बहुत सुखदायक नहीं होता है । लोग एकदम बडे परिवार बनाने तो नहीं लगे हैं परन्तु विचार तो आरम्भ हुआ है । विद्यालय भी एक परिवार है । आज की स्थिति में तो सूत्र है “बडा विद्यालय अच्छा विद्यालय ।' उचित क्या है, बडा विद्यालय कि छोटा ? (एक संचालक का प्रश्न)
उत्तर “छोटा विद्यालय अच्छा विद्यालय' यही उचित रचना है । इसके कई कारण हैं ।
- एक मुख्याध्यापक को साथी शिक्षक और विद्यालय के लगभग सभी विद्यार्थियों के नाम, उनके गुणदोष, उनकी क्षमताओं , उनकी पारिवारिक स्थिति की भली भाँति जानकारी हो यह अपेक्षित है । यह सम्भव हो इसके लिये विद्यालय छोटा होना चाहिये ।
- विद्यालय का भवन और परिसर यदि छोटा हो तो उसे सम्हालना भी सरल होता है ।
- शैक्षिक योजनाओं का क्रियान्वयन भी अच्छी तरह से होता है ।
- यात्रा आदि कार्यक्रम भी सरलता से होते हैं ।
इन कारणों से छोटा विद्यालय ही अच्छा होता है । फिर कोई कहेगा कि तक्षशिला आदि विद्यापीठों में तो दस हजार विद्यार्थी और एक हजार शिक्षक थे । यह तो बडे विद्यालय का उदाहरण है ।
कुछ ऐसा हो सकता है कि छोटी आयु के विद्यार्थियों के विद्यालय तो छोटे ही हों, महाविद्यालय बडी संख्या के हो सकते हैं परन्तु उनमें छोटी छोटी अनेक स्वायत्त इकाइयाँ होने से सुविधा रहेगी ।
प्रश्न ३४. सभी पूर्व प्राथमिक विद्यालय यदि शैक्षिक दृष्टि से अमान्य हैं तो सरकार उन्हें कानून से प्रतिबन्धित क्यों नहीं कर देती ? (एक अभिभावक का प्रश्न)
उत्तर यह कानून से होनेवाला काम नहीं है । कानून बनाने से सम्बन्धित लोग दूसरे मार्ग खोज निकालते हैं । कुछ वर्ष पूर्व सरकार ने ऐसा कानून बनाया था तब रातोंरात संचालकों ने “पूर्व प्राथमिक विद्यालय लिखे हुए फलक उतार कर “नर्सरी' “झूला घर' “प्ले हाउस' लिखे हुए फलक चढा दिये । संचालक, शिक्षक और अभिभावक कल तक करते थे वही करते रहे । सबने मिलकर सिद्ध कर दिया कि वे विद्यालय नहीं हैं । तात्पर्य यह है कि यह कानून का विषय नहीं है ।
अकेले अभिभावक भी कुछ नहीं कर सकते । यदि पूर्व प्राथमिक विभाग में प्रवेश न लें तो सीधे प्राथमिक में प्रवेश देने से संचालक इनकार कर देते हैं । इसलिये पूर्व प्राथमिक से ही बच्चोंं को विद्यालय भेजने की बाध्यता हो जाती है । कानून है परन्तु कानून को नहीं माना तो कुछ नहीं हो सकता । अकेले संचालक भी कुछ नहीं कर सकते क्योंकि अभिभावकों के आग्रह के आगे सबको झुकना पडता है ।
अधिकांश अभिभावक, संचालक, शिक्षक शैक्षिक सिद्धान्तों की बहुत दरकार भी नहीं करते । सब किसी अज्ञात तत्त्व से अभिमन्त्रित होकर नहीं करने योग्य सब करते रहते हैं और अमाप खर्चा करते हैं ।
इस स्थिति को बदलने के लिये एक ओर तो संगठित प्रयास करने होंगे और दूसरी ओर अभिभावकों के प्रबोधन और शिक्षकों के प्रशिक्षण के प्रयास करने होंगे । समाजमन आज इतना उद्देलित है कि शान्त चित्त से विचार करना बहुत कठित है । इसलिये समाजमन को शान्त करने हेतु भी प्रयास करना आवश्यक है । यह भी अपने आप में बडा विषय है ।
प्रश्न ३५. मैं ब्राह्मण हूँ । क्या ब्राह्मण होने से कोई विशेष शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार मिलता है ? क्या प्राचीन समयमें ब्राह्मण का विशेष अधिकार था ? आज शूट्रों के लिये तो आरक्षण के अन्तर्गत नौकरी सुनिश्चित है, प्रगत अध्ययन के लिये प्रवेश सुनिश्चित है परन्तु ब्राह्मणों की चिन्ता ही नहीं की जाती । क्या यह उचित है ? (एक ब्राह्मण युवक का प्रश्र)
उत्तर एक समय था जब वर्णव्यवस्था हिन्दु समाजव्यवस्था के मूल आधारों में एक थी । परन्तु आज वह पूर्ण रूप से अव्यवस्था में बदल गई है । आज उसका कोई सार्थक उपयोग नहीं रहा ।
आप ब्राह्मण हैं । ब्राह्मण वर्ण का समाज में क्या स्थान है इसका विचार करने से पहले दायित्व क्या है इसका विचार करना चाहिये । ब्राह्मण केवल ब्राह्मण मातापिता के घर में जन्म लेने से नहीं हुआ जाता । प्रत्येक वर्ण के साथ आचार और व्यवसाय का सम्बन्ध है । ब्राह्मण वर्ण के आचार क्या हैं ? पवित्रता, सादगी, संयम, तपश्चर्या ब्राह्मण वर्ण के आचार हैं । अध्ययन और अध्यापन करना, यज्ञ करना और करवाना ब्राह्मण का व्यवसाय है । वैद्य, पुरोहित और अमात्य भी ब्राह्मण होते हैं । परन्तु व्यवसाय का अर्थ पैसा कमाना नहीं है, नोकरी करना नहीं है । केवल अमात्य ही नौकरी करते हैं । अन्य व्यवसाय का लक्ष्य भी अथार्जिन नहीं है, सेवा है । तभी तो ब्राह्मण पृथ्वी पर का देवता है । क्या आप ऐसे ब्राह्मण हैं ? बनना चाहते हैं ? ऐसे ब्राह्मणों की समाज को बहुत आवश्यकता है । समाज आज भी सम्मान करने को इच्छुक है । परन्तु ब्राह्मण नहीं रहना है और ब्राह्मण का सम्मान चाहिये तो सम्मान नहीं, उपहास मिलेगा । वस्तुस्थिति यह है कि आज किसी भी वर्ण में जन्म हुआ हो दस प्रतिशत लोग भी आचार और व्यवसाय से ब्राह्मण बन जाय तो समाज की व्यवस्था सम्हल जायेगी ।
प्रश्न ३६. धार्मिक शिक्षा का बहुत बखान करनेवाले एक बात भूल जाते हैं कि भारत में शिक्षा की व्यवस्था ही नहीं थी । लडकियों को तो पढाया ही नहीं जाता था । शिक्षा का प्रसार तो अब हुआ है । अभी तो प्रयास चल रहे हैं । भारत में ही तो हो रहे हैं । उन्हें क्यों धार्मिक नहीं कहा जाता ? (एक शिक्षाशास्त्री का प्रश्न)
उत्तर निरक्षरता और अशिक्षितता में अन्तर है । इस देश में लिखने पढने को शिक्षा नहीं कहा जाता था, संस्कार और बुद्धि को शिक्षा कहा जाता था । लिखना पढना नहीं जानने वाले कबीर तत्त्वज्ञ, भक्त और कवि थे, लिखना पढना नहीं जाननेवाले व्यापारी करोड़ों रूपये कमाते थे, लिखना पढना नहीं जानने वाले लोग अत्यन्त व्यवहारदृक्ष थे, लिखना पढना नहीं जानने वाले लोग कुशल कारीगर थे । आज लिखना पढ़ना जानने वाले लोगोंं में ज्ञान, संस्कार, व्यवहार कौशल कुछ नहीं होता । अर्थात् साक्षरता से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता तो भी हम उसे ही शिक्षा कह रहे हैं । दूसरी बात यह है कि सरकार की कोई शिक्षा व्यवस्था नहीं होने पर भी इस देश में पाँच लाख प्राथमिक विद्यालय और सैंकडों उच्च शिक्षा के केन्द्र थे इसके तो दस्तावेज भी आपको मिलेंगे । तीसरी बात यह है कि शिक्षा धार्मिक और अधार्मिक कानून और संविधान से नहीं होती, उसके आधार रूप जीवनदृष्टि के कारण होती है । आज भारत में शिक्षा टैकनिकली धार्मिक है, उसकी जीवनदृष्टि पाश्चात्य है । उसे जीवनदृष्टि के रूप में धार्मिक बनाने से वह धार्मिक होगी ।
अभी तो धार्मिक शिक्षा की केवल बातें आरम्भ हुई हैं । देश में हलचल आरम्भ हुई है । योजना और प्रयोग तो होने शेष हैं । हम सबको मिलकर शिक्षा को पूर्ण रूप से धार्मिक बनाने की आवश्यकता है ।
प्रश्न ३७. शिक्षा के तन्त्र में ऐसे कौन से परिवर्तन हैं जो सहजता से किये जा सकते हैं ? जो सहजता से किये नहीं जा सकते उन्हें हम व्यावहारिक कैसे कहेंगे ? (एक विचारक का प्रश्न)
उत्तर प्रथम तो हमें समझना चाहिये कि जो हमें सुविधायुक्त लगता है उसे ही हम व्यावहारिक न कहें । जिन्हें करने में हमें कोई भी कष्ट न हो उसे हम व्यावहारिक न कहें । जो अपने आप हो जाय उसे ही हम व्यावहारिक न कहें । जो तत्त्व के अनुसार हो उसे ही हम व्यावहारिक कहें ।
यह बात ठीक है कि व्यवहार के क्षेत्र में शुरुआत हम सरल बातों से करें, कठिन या असम्भव से नहीं । सरल बातों से शुरु कर क्रमशः कठिन बातों को सरल और असम्भव को कठिन के दायरे में लायें और इस प्रकार असम्भव को भी सरल बना दें । इस दृष्टि से कुछ परिवर्तन इस प्रकार करने होंगे...
- गर्भावस्था से युवावस्था की शिक्षा को एक ही संस्था में लायें अर्थात् एक विश्वविद्यालय ही पूर्ण शिक्षाक्रम का दायित्व सम्हाले । इससे किसी भी विषय के शिक्षाक्रम में सुसूत्रता और आन्तरिक सम्बद्धता निर्माण होगी ।
- घर को एक महत्त्वपूर्ण शिक्षा केन्द्र बनाना होगा । इस दृष्टि से विश्वविद्यालयों में परिवार शिक्षा विभाग आरम्भ करना होगा । इसको लगभग बीस वर्ष तक दो स्तरों पर चलाना होगा एक तो विद्यार्थियों के सामान्य क्रम में जोडना और दूसरा गृहस्थों और वानप्रस्थों के लिये चलाना ।
- अध्यात्मशास्त्र, धर्मशास््र, संस्कृति, गोपालन, अर्थशास्त्र आदि विषयों को सामान्य शिक्षाक्रम का आधार बनाना होगा । मन की शिक्षा को सर्व स्तर पर अनिवार्य विषय बनाना होगा ।
- राष्ट्रीयता की शिक्षा देनी होगी । धार्मिक होने का अर्थ क्या है, भारत की और धार्मिक होने के नाते हमारी विश्व में भूमिका क्या है यह सिखाना होगा ।
यहाँ से शुरुआत की तो शिक्षा की गाडी ठीक पटरी पर चलेगी ।
प्रश्न ३८. सीधा ही प्रश्न है - क्या आप मोबाइल, कम्प्यूटर और टीवी को अमान्य करते हैं ? (एक जिज्ञासु का प्रश्र)
उत्तर आपने जितना सीधा पूछा उतना ही सीधा बताना है तो कहना होगा कि हाँ इन्हें अमान्य करने से ही बचना सम्भव होगा । परन्तु आप कहेंगे मान्य हैं और हम कहेंगे अमान्य हैं इससे न तो कोई खुलासा होगा न हल निकलेगा । इसलिये अमान्य होने के कारण भी बताने होंगे ।
- इन सबके कारण पर्यावरण का प्रदूषण और स्वास्थ्य की बहुत हानि होती है जो कैन्सर तक का कारण बनती है । यह एक मात्र कारण भी इन्हें अमान्य करने हेतु पर्याप्त है ।
- हम “'प्राइवसी' को तो बहुत मानते हैं । इसलिये तो निवास के लिये कमरा अलग माँगते हैं । पत्रव्यवहार गोपनीय रखते हैं । हमारे घर “दरवाजा बन्द घर हो गये हैं । इस इण्टरनेट सभ्यता में सब कुछ “एक्स्पोइड' हो गया है, खुला हो गया है । घर गोपनीय बनाने वाले पूर्ण रूप से खुले हो जाना क्यों पसन्द करते हैं ?
- इन साधनों से मन की शान्ति, एकाग्रता और चिन्तन की गहराई नष्ट हो गई है । यह पागलपन की और गति करना है । यह हमें चलता है क्या ?
- हमारी सम्पर्क व्यवस्था, संवाद पद्धति, सूचना पहुँचाने की प्रक्रिया अत्यन्त विशूंखल हो गई है । पूर्व में जो एक पोस्टकार्ड से हो जाता था वह अब बीसों बार सूचना देने से भी नहीं होता ।
- व्यक्ति की बौद्धिक क्षमता कम हुई है, ध्यान करने की क्षमता भी कम हुई है । मानसिक रूप से हम मारे मारे घूम रहे हैं ।
इन साधनों को अमान्य करने के इतने कारण क्या कम लगते हैं ?
सब प्रयोग करते हैं इसलिये वह सही नहीं हो जाता । आज के वातावरण में कोई सुनेगा नहीं यह सही है परन्तु इतने मात्र से वह सही नहीं हो जाता ।
प्रश्न ३९. जमाने के अनुसार नहीं चलने में क्या व्यावहारिकता है ? धार्मिक शिक्षा के नाम पर अथ से इति सब कुछ नकारना कहाँ तक उचित है ? क्या वर्तमान शिक्षा में सब कुछ छोड देने योग्य है ? (एक प्राध्यापक का प्रश्र)
उत्तर भारत में धार्मिक शिक्षा होनी चाहिये इतना यदि हमने स्वीकर कर लिया तो सारी की सारी बातें परिवर्तनीय हैं यह भी मानना ही पड़ेगा ।
हमें यदि भोपाल से कन्याकुमारी जाना है परन्तु दिल्ली जाने वाली गाडी में बैठ गये हैं तो कोच बदलना, बैठक बदलना, नास्ते के पदार्थ बदलना आदि से काम नहीं चलेगा । हमें गाडी ही बदलनी होगी, इतना ही नहीं तो उल्टी दिशा में जाने वाली गाडी में ही बैठना पड़ेगा ।
हमें यदि अमरुद के वृक्ष से आम की अपेक्षा है तो उसके पत्ते तोडकर आम के पत्ते चिपकाना, वृक्ष की डालियाँ काटना, कहीं कहीं आम के फल लटका देना आदि करने से नहीं चलेगा । पूरा वृक्ष ही नये से बोना पड़ेगा । इसी प्रकार यदि धार्मिक शिक्षा चाहिये तो वर्तमान ढाँचे को पूरा का पूरा छोडकर नया ढाँचा बनाना पड़ेगा।
प्रश्न ४०. सरकारें बदलती हैं, सरकार बनाने वाले राजकीय पक्ष बदलते हैं, नई नई नीतियाँ और आयोग बनते हैं तो भी शिक्षा का प्रश्न तो अधिकाधिक उलझता रहता है इसका कारण क्या है ? (एक जिज्ञासु का प्रश्न)
उत्तर कारण यह है कि जो सरकार का काम नहीं है उससे सारी अपेक्षायें की जा रही हैं । वर्तमान लोकतन्त्र में सरकार मना तो नहीं कर सकती फिर उससे जो बनता है वह करती है । वास्तव में यह तो समाज की जिम्मेदारी है कि वह शिक्षा की व्यवस्था करे । समाज में भी यह जिम्मेदारी हर किसीकी नहीं है, शिक्षकों की है ।
शिक्षा का बहुत बडा अंश घर में होता है । घर में मातापिता की जिम्मेदारी है कि अपने बच्चे के स्वास्थ्य, संस्कार, व्यवहारदृक्षता, कौशल, सामाजिकता आदि सिखायें । शेष शिक्षा विद्यालय में होगी जो शिक्षक की जिम्मेदारी है । मातापिता और शिक्षक दोनों यदि अपनी जिम्मेदारी छोड देते हैं तो सरकार की बाध्यता बन जाती है । फिर शिक्षा का वही होगा जो आज हो रहा है ।
प्रश्न ४१. आज समाज में चारों और ऐसा क्या क्या नहीं है जो नई पीढी का विकास अवरुद्ध करता हो ? उसकी व्यवस्था कैसे की जा सकती है ? (एक जनप्रतिनिधि का प्रश्न)
उत्तर
- आज समाज में व्यायामशालायें नहीं हैं जहाँ जाकर तरुण और युवा व्यायाम करें ।
- आज घरों को आँगन नहीं हैं जहाँ बालअवस्था के बच्चे खेलें । विद्यालयों में मैदान हैं परन्तु खेलने के लिये बच्चोंं के पास समय नहीं है । 'पढाई' पागल कुत्ते की तरह उनके पीछे पडी है ।
- घर में एक से अधिक बच्चे नहीं है जिससे उनकी परिवारभावना का विकास हो ।
- करने के लिये कोई काम नहीं है जिससे उनकी कार्यकुशलता और स्वतन्त्र बुद्धि का विकास हो |
- ऐसा उत्तम मनोरंजन नहीं है जिससे उनके सौन्दर्यबोध और रसिकता का विकास हो ।
- ऐसे रेत और मिट्टी के रास्ते नहीं है और भीड से मुक्त स्थान नहीं हैं जहां वे मुक्त आवनजावन कर सकें ।
- ऐसा भोजन भी नहीं है जिससे उनके शरीर और मन अच्छे बनें ।
वास्तव में आज के विद्यार्थी विकास के अनेक अवसरों से वंचित हैं । पैसा खर्च करके हमने ये सारी बातें उनसे छीन ली हैं ।
प्रश्न ४२. हमारा बालक क्या बनेगा यह कौन निश्चित कर सकता है ? हम, शिक्षक, बालक स्वयं या सरकार ? यदि हमें करना है तो हम कैसे करेंगे? (एक माता का प्रश्र)
उत्तर प्रथम अधिकार और जिम्मेदारी मातापिता की है । उन्हें प्रथम कल्पना करनी चाहिये कि वे कैसा बालक चाहते हैं । उदाहरण के लिये अच्छा चाहिये, स्वस्थ चाहिये, बुद्धिमान चाहिये ऐसा तो सभी मातापिता चाहेंगे ही ।
वह बडा होकर अपनी गृहस्थी बसायेगा, खूब पैसा कमायेगा और समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करेगा ऐसा भी चाहेंगे ।
यह चाह अच्छी है । केवल इसके लिये जो कुछ करना आवश्यक है वह करने से ही हमारी चाह मृत स्वरूप धारण कर सकती है |
रही बात अर्थार्जन की । अर्थार्जन हेतु कैसा व्यवसाय करेगा, उस व्यवसाय के लिये कौन सी शिक्षा प्राप्त करेगा यह तय करने के लिये बालक को आसक्ति छोड़कर जानना होगा । जानने के लिये अनेक जानकार लोग हमारी सहायता कर सकते हैं । शिक्षक भी सहायक बन सकते हैं । बालक को यदि निश्चित करना है तो उसे निश्चित करने की क्या प्रक्रिया होती है यह सिखाना होगा । आज तो सतन्नह वर्ष के तरुण भी कुछ भी निश्चित नहीं कर पाते हैं और मित्र करते हैं वही करते हैं । सत्रह वर्ष में तो वास्तव में अथार्जिन आरम्भ हो जाना चाहिये । करिअर वास्तव में दस वर्ष की आयु में निश्चित हो जानी चाहिये और उसके लिये उचित शिक्षा भी आरम्भ हो जानी चाहिये ।
आज तो हम कुछ भी निश्चित नहीं करते । सब कुछ हो जाता है और हम असहाय होकर देखते रहते हैं, दुःखी होते रहते हैं।
प्रश्न ४३. पन्द्रह सोलह वर्ष के बच्चे आत्महत्या करते हैं । उन्हें कैसे बचायें ? (एक अभिभावक का प्रश्न)
उत्तर इसका कारण मानसिक दुर्बलता है और मातापिता उसके लिये जिम्मेदार हैं । जीवन में कितनी भी कठिनाइयाँ आयें, मन की इच्छा पूरी न हो, समस्या से घिर जायें और मार्ग न दिखाई दे तो भी हिम्मत नहीं हारना, निराश नहीं होना, धैर्यपूर्वक मुसीबतों का सामना करना सिखाना चाहिये । मातापिता कुछ भी सिखाते नहीं, उल्टे हर बात में सब कुछ चाहिये उससे भी अधिक मिलता है, आराम है, सुविधा है, सुरक्षा है । दूसरी और उनकी रुचि, क्षमता आदि से पूर्ण बेखबर रहकर ऊँची अपेक्षायें रखी जाती हैं । हमें लगता है कि पैसे से खरीदी जाने वाली सब व्यवस्था कर देने से परीक्षा में अधिक अंक मिल ही जायेंगे । इन सबसे परेशान होकर उनके लिये बचने का कोई उपाय ही नहीं रहता और वे आत्महत्या करते हैं ।
वास्तव में उन्हें कठिनाई, समस्या, कष्ट आदि का अनुभव मिलना चाहिये, तात्त्विक और व्यावहारिक बुद्धि कसी जानी चाहिये, मन की शिक्षा होनी चाहिये । ऐसा होगा तभी वे सम्हलेंगे । नहीं तो आत्महत्या न करें तो भी तनाव, हताशा, उत्तेजना आदि तो रहता ही है । रक्तचाप, मधुप्रमेह और हृदयाघात की बिमारियाँ बढने का कारण यही है । जो आत्महत्या नहीं करते वे इन रोगों से ग्रस्त हो जाते है ।
मातापिता होकर बहुत कुछ करना होता है । केवल पैसे से सबकुछ नहीं मिल जाता यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिये ।
बच्चे हमारी ही नहीं तो समाज की मूल्यवान सम्पत्ति हैं । उस सम्पत्ति का जतन करना चाहिये ।
प्रश्न ४४. क्या वास्तव में संस्कृत पढने की आवश्यकता है ? यदि हाँ तो विद्यालय में वह कैसे पढाई जाय ?
उत्तर धार्मिकों के लिये संस्कृत पढ़ना अनिवार्य है । इसके कई कारण हैं जिनमें दो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । धार्मिक ज्ञानधारा जिन ग्रन्थों में सुरक्षित है वे सब संस्कृत में रचे गये हैं । उनका प्रत्यक्ष पठन कर सकें इस लिये संस्कृत पढना आवश्यक है । एक धार्मिक को अपनी ही ज्ञानधारा का परिचय न हो यह कैसे सम्भव है ? वह शिक्षित ही कैसे कहा जायेगा ? दूसरा, भारत की सभी भाषाओं की जननी संस्कृत है । अपनी मातृभाषा को उत्तम स्तर की बनाने हेतु संस्कृत का ज्ञान अति आवश्यक है । हर कोई चाहेगा कि वह अपनी भाषा का प्रयोग उत्तम पद्धति से कर सके ।
संस्कृत तो क्या, जगत की कोई भी भाषा प्रथम बोलनी होती है । संस्कृत का प्रारम्भ भी संस्कृत बोलने से होता है । शिशु अवस्था से ही संस्कृत बोलने का अभ्यास आरम्भ करना चाहिये । जब पढ़ने लिखने का क्रम आता है तब लिपि सीखने की आयु में प्रथम लिपि और बाद में पठन आरम्भ करना चाहिये । अच्छा बोलना और पढन अच्छी तरह अवगत होने के बाद लेखन आरम्भ करना चाहिये । पढने हेतु सुन्दर, ललित और शास्त्रीय वाड़्य या तो एकत्रित करना चाहिये, नहीं तो निर्माण करना चाहिये । संस्कृत का अध्ययन आरम्भ करने से पूर्व, अपरिचय के कारण से जो ग्रन्थियाँ होती है वे अध्ययन आरम्भ करने के बाद शीघ्र ही छूट जाती है और आनन्द का अनुभव होता है।
प्रश्न ४५. क्या विद्यालय जाना इतना अनिवार्य है कि उसे संविधान के अन्तर्गत अनिवार्य बनाया जाता है और सबको निःशुल्क पढाने हेतु अभियान चलाया जाता है ?
उत्तर सबके लिये शिक्षा आवश्यक है । शिक्षा ज्ञानप्राप्ति का मार्ग है इसलिये सबके लिये आवश्यक है । परन्तु यह स्वेच्छा और स्वतन्त्रता से ही ग्रहण की जा सकती है,अनिवार्य बनाने से नहीं । निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा यह सरकार का नियम है । शिक्षा निःशुल्क होना तो ठीक ही है परन्तु अनिवार्य बनाना सम्भव नहीं होता । जिस पढ़ाना है उसके मन में इच्छा जगाना ही महत्त्वपूर्ण कार्य है । दूसरा, शिक्षा निःशुल्क होनी चाहिये उस तत्त्व को लेकर वह निःशुल्क नहीं की गई है । जिसे हम अनिवार्य बना रहे हैं उसे निःशुल्क बनाने की बाध्यता हो जाती है इसलिये उसे निःशुल्क रखा गया है । इस प्रकार निःशुल्क और अनिवार्य इन दोनों तत्त्वों में दृष्टिकोण ठीक नहीं होने से अभियान में यश प्राप्त नहीं होता है ।
निःशुल्क और अनिवार्य होने के कारण से ही विद्यालय जाना भी अनिवार्य बन जाता है । व्यवस्था से अनिवार्य बनाई गई बात धीरे धीरे मानस में भी स्थापित हो जाती है । इसका परिणाम यह है कि व्यवस्था और मानसिकता दोनों प्रकार से शिक्षा के लिये विद्यालय अनिवार्य बन गया है । तात्तविक दृष्टि से, शैक्षिक दृष्टि से या व्यावहारिक दृष्टि से विद्यालय जाना अनिवार्य नहीं है । आज कुछ मात्रा में विद्यालय की व्यवस्था की अनिवार्यता समाप्त भी कर दी गई है तथापि सबके मानस में अब विद्यालय जाना अनिवार्य बन गया है ।
जिस प्रकार विद्यालय जाने का अभियान चलाने की आवश्यकता होती है उसी प्रकार से अब विद्यालय जाना अनिवार्य नहीं है इस विषय में भी प्रबोधन की आवश्यकता है ।
परन्तु विद्यालय जाने और नहीं जाने से शिक्षा होगी या नहीं होगी यह निश्चित नहीं है । आज के निःशुल्क, सस्ते या महँगे विद्यालयों की स्थिति को देखते हुए लगता है कि शिक्षा पढने पढ़ाने से होती है, विद्यालय जाने या नहीं जाने से नहीं । इसलिये प्रेरणा और आग्रह पढने पढ़ाने पर होना चाहिये । पढने पढ़ाने का उद्देश्य बन जाने के बाद विद्यालय में पढ़ना है कि विद्यालय से बाहर इसका विचार हो सकता है । शिक्षा का बाहरी नहीं अन्तस्तत्व महत्त्वपूर्ण होता है ।
शिक्षा जहाँ होती है वह विद्यालय होता है, विद्यालय का भवन या उपस्थिति, शुल्क, सुविधायें आदि जहाँ होते हैं वह विद्यालय नहीं होता । ये तो सारे भौतिक आयाम हैं । उनकी सार्थकता तभी बनती है जब पढने पढ़ाने का कार्य सार्थक रूप में होता है । अतः आज के सन्दर्भ में प्रथम तो पढ़ने पढ़ाने की चर्चा करनी चाहिये, बाद में व्यवस्थाओं की ।
जिस प्रकार मकान को घर संज्ञा तभी प्राप्त होती है जब उस मकान में रहनेवाले लोग परिवार के रूप में रहते हैं, उसी प्रकार से मकान को विद्यालय की संज्ञा तभी प्राप्त होती है । जब वहाँ पढने पढाने का कार्य होता हो । इसलिये विद्यालय जाने नहीं जाने की नहीं अपितु पढने पढाने की चर्चा करनी चाहिये ।
प्रश्न ४६. एक व्यावहारिक कठिनाई ऐसी है कि अनेक बार जो बात जिसे बतानी है उसे बताने के स्थान पर दूसरों को ही बताई जाती है । अभिभावक सम्मेलनों में मातापिता को जो बताना चाहिये वह दादादादी को बताया जाता है । घर में दादादादी की बात मातापिता मानते ही नहीं है । मातापिता को सीधे सीधे बताने की क्या व्यवस्था है ? (एक समाजसेवी प्रौढ प्रश्न)
उत्तर आप की बात विचार करने योग्य है । बताना तो मातापिता को ही चाहिये । वे ही जिम्मेदार भी हैं और निर्णय करनेवाले भी हैं ।
स्थिति यह है कि मातापिता अत्यन्त व्यस्त होते हैं । उन्हें विचार करने का समय ही नहीं मिलता । पूर्व पीढी का जमाना अब नहीं रहा और उन्हें आज के जमाने की समझ नहीं है ऐसा उन्हें लगता है इसलिये दादादादी की बात वे नहीं मानते । वे मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं इण्टरनेट से अंग्रेजी में लिखी गई पाश्चात्य लेखकों की पुस्तकोंसे | वहाँ जो बताया जाता है वह हम जो कहते हैं उससे सर्वथा भिन्न होता है । उनका विश्वास उन बातों पर ही होता है, हमारी बातों पर नहीं।
फिर उपाय क्या है ?
पहली बात यह है कि हमें अपनी बात पर श्रद्धा बढानी होगी । श्रद्धा का सामर्थ्य बढाना होगा । चाह भी बढानी होगी । धैर्य बढाना होगा । दूसरी बात यह है कि समझाने के प्रयास भी बढ़ाने होंगे । समझाने की पद्धति बदलनी होगी । तीसरी बात यह है कि अनेक मुखों से एक ही बात बार बार बतानी होगी । केवल हमारे बताने से नहीं होगा ।
कुछ तो युवा मातापिता होते हैं जो हमारी बात मानते हैं, समझते हैं और आचरण में भी लाते हैं । अन्य युवाओं को समझाने का काम ऐसे युवा मातापिता कर सकते हैं ।
अनेक प्रकार के तर्को से युक्त, उदाहरणों से युक्त साहित्य विपुल मात्रा में प्रस्तुत करने से भी कुछ परिणाम हो सकता है ।
प्रश्न ४७. आज चारों ओर जब विपरीत प्रवाह ही चल रहा है तब ये सर्वथा देशी पद्धतियाँ कैसे चलने वाली हैं ? क्या मध्य का रास्ता नहीं है ?
उत्तर महत्त्वपूर्ण बात यह है कि बताने वाले ने समझौते की बात नहीं करनी चाहिये । बताने वाले ने सही बातें बतानी चाहिये । वर्तमान परिस्थिति में वे बहुत विपरीत या अव्यावहारिक लग सकती हैं । परन्तु व्यावहारिकता का विचार कर आधी अधूरी बातें नहीं बतानी चाहिये । मध्य के रास्ते तो लोग स्वयं निकाल लेते हैं । मध्य के रास्ते निकालने भी पड़ते हैं । परन्तु मध्य के रास्ते निकालते समय क्या सही है और क्या नहीं इसके मापदण्ड तो सामने रहने ही चाहिये । ऐसे मापदण्ड सामने रहने से प्रयत्नों की दिशा सही रहती है । आज स्थिति ऐसी है कि जो सही करना चाहते हैं उनके सामने भी आदर्श नहीं है, जानकारी भी नहीं है । हमें प्रथम तो सही जानकारी देनी चाहिये और साथ में उदाहरण भी प्रस्तुत करने चाहिये ।
प्रश्न ४८. हमने एक उक्ति सुनी है, “सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्थ त्यजति पण्डित:' अर्थात् जब सब कुछ नष्ट होने कि स्थिति है तब कुछ आग्रह छोड देने चाहिये । प्रत्यक्ष में यह कैसे किया जाय ?
उत्तर वास्तव में सारे व्यवहारशास्त्र देशकालपरिस्थिति को देखकर ही ऐसे व्यवहार करना चाहिये यह बताते हैं । परन्तु ऐसे व्यवहार के भी कुछ मानक होते हैं । जो विचारशील, निःस्वार्थ, सबका भला चाहने वाले, लोगोंं की क्षमता और मर्यादा जानने वाले, ज्ञानवान लोग होते हैं वे इन सब बातों का विचार करके ही परामर्श देते हैं । ऐसे परामर्शक हमारे पास होने चाहिये । हमें तय भी कर लेना चाहिये कि हमारे परामर्शक कौन हैं । उनकी बात माननी चाहिये । आज कठिनाई यह है कि हमें ऐसे परामर्शक नहीं चाहिये होते हैं जो सही बात बतायें । हमें ऐसे चाहिये होते हैं जो हम चाहते हैं वह बतायें । आजकल ऐसे शिक्षक, ऐसे पण्डित, ऐसे डॉक्टर, ऐसे परामर्शक, ऐसे साधु मिल भी जाते हैं । इसी कारण से समाज संकट में पड गया है । इस स्थिति में हमें अपनी समझ बढानी होगी |
प्रश्न ४९. बाहर का खाना नहीं, प्लास्टिक की बोतल का पानी पीना नहीं, सिन्थेटिक वस्त्र पहनना नहीं, प्रात: जल्दी उठना ये सब कितनी कठिन बातें हैं । आज के जमाने में यह सब कैसे सम्भव है ?
उत्तर कठिन और सरल होना तो मनःस्थिति पर निर्भर करता है । जो भी हमें जँच जाता है उसे व्यवहारिक बनाने की अनुकूलता हम बना ही लेते हैं ।
जो बात आज के जमाने में नाम पर हमें अव्यावहारिक लगती है वे तो वैज्ञानिक तथ्य हैं और सांस्कृतिक सत्य हैं । उन्हें छोडने के स्थान पर हमें उनके अनुकूल हमारी व्यवस्थायें बदलनी चाहिये । इतनी एक बात हमारी समझ में आ जाती है तो सरल और कठिन का प्रश्न ही नहीं रह जाता ।
प्रश्न ५०. शिक्षा के अनेक प्रश्न ऐसे हैं जो बुरी तरह से उलझ गये हैं । सरकार, संचालक, शिक्षक, अभिभावक और विद्यार्थी शिक्षा से सम्बन्धित वर्ग हैं । इनमें सर्वप्रथम किसे ठीक करने का प्रयास करना चाहिये ?
उत्तर शिक्षा के विभिन्न प्रश्नों के लिये विभिन्न वर्गों के साथ बात करनी चाहिये । उदाहरण के लिये शिक्षानीति की बात सरकार से, विद्यालय की व्यवस्थाओं की बात संचालकों से, अध्यापन पद्धतियों की बात शिक्षकों से, बालकों के संगोपन की बात अभिभावकों से और विनयशील आचरण की बात विद्यार्थियों से करनी चाहिये ।
तथापि शिक्षाविषयक किसी भी प्रश्न की चर्चा करने का केन्द्रवर्ती स्थान शिक्षक ही है । समस्या और समस्या के निराकरण का प्रारम्भ बिन्दु शिक्षक है । वह यदि बातों को ठीक से समझता है तो समस्यायें सुलझने लगती है ।
प्रश्न ५१. आज के युवा ब्रह्मचर्य का पालन कर सकें ऐसी स्थिति ही नहीं है । इसका परिणाम तो बहुत विपरीत होता है, परन्तु बचने का उपाय क्या है ?
उत्तर विषय तो कठिन है ही । मन पर चारों ओर से भीषण आक्रमण होते हैं । मन को सम्हालने की शक्ति नहीं है । मन की शक्ति बढ़े ऐसे कोई उपाय नहीं किये जाते । छोटी आयु से उपाय नहीं किये जाते इसलिये युवावस्था तक पहुँचते पहुँचते बातें अधिक कठिन हो जाती हैं । इसके तत्काल और दीर्घकालीन दोनों उपाय करने चाहिये ?
- कक्षाकक्षों में उपस्थिति अनिवार्य होना ।
- युवा विद्यार्थियों के लिये भी गृहकार्य देना और उसे अनिवार्य बनाना ।
- अध्यापकों द्वारा विद्यार्थियों को व्यक्तिगत परामर्श देना ।
- विद्यार्थियों के अभिभावकों के साथ अध्यापकों का सम्पर्क होना ।
- व्यायाम अनिवार्य बनाना ।
साथ ही प्रबोधनात्मक आग्रह बढ़ने चाहिये जैसे कि..
- बाइकसवारी छोड़कर साइकिल का प्रयोग करना ।
- तंग कपडों का त्याग करना ।
- मनोरंजन और अध्ययन का सन्तुलन बनाना ।
- अधथर्जिन और गृहस्थाश्रम के बारे में विचार करना ।
- विनयशील होना ।
आज देखा यह जाता है कि युवा विद्यार्थियों के मातापिता चिन्तित भी हैं और अज्ञान भी । महाविद्यालयों ने अभिभावकों के साथ संवाद की व्यवस्था बनानी चाहिये । अध्यापक और मातापिता दोनों ने मिलकर विद्यार्थियों के चरित्र के बारे में चिन्तन और उपाय करने चाहिये ।
महाविद्यालयों में युवाओं के लिये योगवर्गों और चिन्तनवर्गों का आयोजन होना चाहिये । बिना कोई प्रयास किये इन वर्गों में उपस्थिति नहीं रहेगी । अतः उपस्थिति के लिये सम्पर्क और आग्रह बनाना चाहिये । परीक्षा में अंक मिलने के आमिष या आदेश या दण्ड के भय का प्रयोग नहीं करना चाहिये । स्वेच्छा और स्वतन्त्रतापूर्वक की उपस्थिति का ही महत्त्व है । ऐसे प्रयासों से महाविद्यालयों का प्रभाव बढ़ेगा । बौद्धिकवर्गों के विषयों का चयन सावधानीपूर्वक करना चाहिये । हमारा उद्देश्य युवाओं के चरित्र का विकास करना है यह स्मरण में रखना चाहिये ।
प्रश्न ५२. युवाओं में युवक और युवती दोनों का समावेश होता है । चिन्ता दोनों की करनी चाहिये यह बात सच है । परन्तु आज तो युवतियों की चिन्ता करने की अधिक आवश्यकता लगती है । इसका क्या करें ?
उत्तर आपकी बात सही है । हम कल्पना करते हैं उससे भी युवतियों का प्रश्न अधिक गम्भीर है । युवतियों के सामने युवक की बराबरी करने की बडी चुनौती है । यह चुनौती उन्होंने स्वयं ही स्वीकार कर ली हैं । उन्हें इस चुनौती को स्वीकार करने हेतु समाज ने ही बाध्य किया है । पुरुष करता है वह सब कर दिखाने पर ही स्त्री को सम्मानित किया जाता है । ख्री को पुरुष जैसा बनने के अर्थात् अपना विकास करने के, सारे अवसर दिये जाते हैं । ऐसे अवसर देने में तो कोई बुराई नहीं है परन्तु पुरुष जैसा बनने में ही विकास है यह कहने में बहुत बडा दोष है । जिस समाज ने स्त्री को स्त्री के रूप में हेय माना, नीचा माना, अविकसित माना उस समाज का बडा दोष है । इसलिये युवतियों को सही मार्ग दिखाने से पूर्व समाज के स्तर पर चिन्तन बदलने की आवश्यकता है । यह मार्ग भी कम उलझा हुआ नहीं है । जो भी उपाय करना है वह सामाजिक स्तर पर ही करना होगा ।
युवा वर्ग के लिये आदेश का मार्ग तो है ही नहीं । संवाद का ही मार्ग है । समाजप्रबोधन के साथ साथ युवाओं से संवाद का मार्ग भी अपनाना चाहिये ।
समाज और संस्कृति चिन्तन के ये विषय हैं । विश्वविद्यालयों के समाजशास्त्र विभाग के ये महत्त्वपूर्ण विषय बनने चाहिये ।
प्रश्न ५३. सम्पूर्ण विद्यार्थी वर्ग को आज किन बातों से मुक्त करने की और बचाने की आवश्यकता है ?
उत्तर व्यवहारदृक्ष लोग कहते हैं कि अपने प्रयासों में यशस्वी होना है तो सरल बातों की ओर पहले ध्यान देना चाहिये । ऐसा करने से कठिन बातें क्रमशः सरल होती जाती हैं ।
इसलिये सर्वस्तरों पर प्रथम तो स्पर्धा बहिष्कृत करना चाहिये । इस विषय की शास्त्रीय चर्चा करने का यह समय नहीं है, परन्तु स्पर्धा बडा अनिष्ट है यह मानना चाहिये ।
दूसरी बात अनिवार्यताओं को कम करने की है । स्वेच्छा और स्वतन्त्रता के बातावरण में अनेक आवश्यक बातों का आग्रह बढाना चाहिये ।
विद्यार्थियों में विश्वास व्यक्त करना भी आवश्यक है । विश्वास के साथ सदूभाव भी होना चाहिये ।
बिना किसी लालच, स्वार्थ या भय से अनेक आवश्यक बातें की जाती हैं, की जानी चाहिये ऐसा वातावरण, विद्यालयों में बनाना चाहिये और घरों में बनाने हेतु विद्यालयों ने मार्गदर्शन करना चाहिये ।
विद्यार्थियों को अकर्मण्यता से बचाना चाहिये । शरीर, मन, बुद्धि को सक्रिय बनाने से ही सही विकास होता है यह समझने और समझाने की आवश्यकता है ।
विद्यार्थियों को गैरजिम्मेदारी से बचाना चाहिये ।
विद्यार्थियों को बौद्धिक स्वावलम्बन सिखाना चाहिये । बौद्धिक परावलम्बन बड़ों बडों का रोग है । विद्यार्थियों को यह न लग जाय इसका ध्यान रखना चाहिये ।
प्रश्न ५४. ऐसी पाँच बातें बताइये जो हमें कठोरतापूर्वक हमारे दस से पन्द्रह वर्षों के बच्चोंं के लिये लागू करनी चाहिये ।
उत्तर
- होटेलिंग शत प्रतिशत बन्द |
- ट्यूशन और गाईड बुक्स बन्द |
- प्रतिदिन एक घण्टा मैदानमें खेलना ।
- प्रतिदिन एक घंटा घर का कोई भी काम जिम्मेदारी से करना।
- सूती कपड़े पहनना।
प्रश्न ५५. ऐसी पाँच बातें बताइयें जो हमें माध्यमिक विद्यालय के विद्यार्थियों से अनिवार्य रूप से करवानी चाहिये । (एक शिक्षक का प्रश्न)
उत्तर
- प्रतिदिन बीस वाक्य मौलिकतापूर्वक शुद्ध भाषा में लिखना ।
- प्रतिदिन निश्चित की हुई पुस्तक के बीस पृष्ठ पढना ।
- विद्यालय की सेवा हेतु प्रतिदिन आधा घण्टा काम करना ।
- पैदल चलकर अथवा साइकिल पर ही विद्यालय आना |
- सप्ताह में एक दिन टीवी नहीं देखना ।
प्रश्न ५६. ऐसी पाँच बातें बताइये जो अच्छे शिक्षक बनने हेतु हमें आग्रहपूर्वक करनी चाहिये । (एक शिक्षक का प्रश्न)
उत्तर
- प्रतिमास धार्मिक शिक्षाविषयक एक पुस्तक पढना।
- वर्ष में कम से कम एक बार शिक्षकों की गोष्ठी आयोजित करना अथवा उसमें जाना ।
- भाषा के अलावा शेष सारे विषय बिना पुस्तक के पढ़ाना ।
- वर्ष में एक बार अपने विद्यार्थी के घर जाना ।
- अभिभावकों की सभा में भाषण करना ।
प्रश्न ५७. ऐसी एक पुस्तक का नाम दें जो भारत के हर शिक्षित व्यक्ति को पढनी और समझनी चाहिये । (एक जिज्ञासु का प्रश्र)
उत्तर श्रीमद भगवदगीता ।
प्रश्न ५८. क्या अंग्रेजी बोलने वाले और मातृभषा नहीं बोलने वाले कम देशभक्त होते हैं ? (एक जिज्ञासु का प्रश्र)
उत्तर निश्चित !
प्रश्न ५९. क्या भारत में शिक्षा धार्मिक होगी ? यह सम्भव है ? (एक जिज्ञासु का प्रश्न)
उत्तर निश्चितरूप से भारतमें धार्मिक शिक्षा प्रतिष्ठित होगी । यह विश्व की आवश्यकता है और भारत की नियति ।
प्रश्न ६०. शिक्षा पुन: धार्मिक हो इसके लिये किसे काम करना होगा ?
उत्तर हम में से कोई बाकी न रहे । हम सबको काम करना होगा ।
References
- ↑ धार्मिक शिक्षा : धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ३), पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे