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पंचतंत्र जिन कथाओं का संग्रह है वे भारत में नितांत प्राचीन हैं। पंचतंत्र के भिन्न-भिन्न शताब्दियों में तथा भिन्न भिन्न प्रांतों में अनेक संस्करण हुए। कुछ तो आज भी उपलब्ध हैं। इनमें सबसे प्राचीन संस्करण तंत्राख्यायिका के नाम से विख्यात है जिसका मूल स्थान काश्मीर है।[2]
 
पंचतंत्र जिन कथाओं का संग्रह है वे भारत में नितांत प्राचीन हैं। पंचतंत्र के भिन्न-भिन्न शताब्दियों में तथा भिन्न भिन्न प्रांतों में अनेक संस्करण हुए। कुछ तो आज भी उपलब्ध हैं। इनमें सबसे प्राचीन संस्करण तंत्राख्यायिका के नाम से विख्यात है जिसका मूल स्थान काश्मीर है।[2]
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पंचतंत्र में पांच तंत्र हैं (तंत्र का अर्थ है भाग) – मित्रभेद, मित्रलाभ, संधिविग्रह, लब्धप्रणाश तथा अपरीक्षित कारक। इसमें पांच मुख्य कथाएं हैं प्रत्येक कथा में अनेक उपकथाएं हैं। इनका संयोजन इस प्रकार है - [3]
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पंचतंत्र में पांच तंत्र हैं (तंत्र का अर्थ है भाग) – मित्रभेद, मित्रलाभ, संधिविग्रह, लब्धप्रणाश तथा अपरीक्षित कारक। इसमें पांच मुख्य कथाएं हैं प्रत्येक कथा में अनेक उपकथाएं हैं। इनका संयोजन इस प्रकार है -<ref>डॉ० कपिलदेव द्विवेदी, [https://archive.org/details/sanskrit-sahitya-ka-samikshatmak-itihas-dr-kapildeva-dwivedi_compress/page/n593/mode/1up संस्कृत साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास], (पृ० ५७८)।</ref>
 
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|क्र०सं०
 
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|मुख्यकथा
 
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| उपकथाएं
 
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==पंचतंत्र में सामाजिक व्यवस्था==
 
==पंचतंत्र में सामाजिक व्यवस्था==
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भारतीय समाज को योजनाबद्ध व्यवस्थित और सुसंगठित सामाजिक संस्थाओं (वर्णव्यवस्था, वर्णाश्रम-व्यवस्था, संस्कार) के द्वारा संतुलित किया गया है। इन सामाजिक संस्थाओं का विकास उस समय भारतीय समाज को सुनियोजित कर रहा था।<ref>https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/431831/7/07_chapter3.pdf</ref>
    
==पंचतंत्र में राजनीतिक व्यवस्था==
 
==पंचतंत्र में राजनीतिक व्यवस्था==
किसी भी देश समाज की राजनीति वहाँ के लोगों के सम्पूर्ण जीवन को प्रभावित करती है। यथा राजा तथा प्रजा जैसी अनेक उक्तियाँ प्रख्यात है। प्रजा को राजा का अनुगमन करना पडता है। अतीत का सम्पूर्ण इतिहास तथा प्रत्येक व्यक्ति का जीवन क्रम में इस बात को प्रमाणित करता है कि जिस प्रकार के विचार धर्म, नीति से सम्बद्ध शासक होता है। प्रजा को उसके अनुकूल ढलना ही पडता है। उसके विपरीत आचरण करने वालों को उसके शासन में संकुचित होकर रहना पडता है। पञ्चतन्त्र का काल पूर्णरूप से राजतन्त्र का काल था। अतः पञ्चतन्त्र में राजा के महत्व पर विशेष बल दिया गया है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि बिना शासक के प्रजा की स्थिति बिना नाविक के सागर में फँसी नाव की तरह होती है -<ref>शोधगंगा-विनोद कुमार सिंह, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/431831/8/08_chapter4.pdf पञ्चतन्त्र में निहित सांस्कृतिक एवं आयुर्वेदीय तत्वों का अध्ययन], सन् २०२१, शोधकेन्द्र-काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० १५५)।</ref> <blockquote>यदि न स्यान्नरपतिः सम्यङ्नेता ततः प्रजा। अकर्णधारा जलधौ विप्लवेतेह नौरिव॥ (पञ्चतन्त्र, काकोलूकीय, १/७२)</blockquote>इस प्रकार पञ्चतन्त्र के सर्वांगीण समीक्षण से यह स्पष्ट होता है कि इसमें राजनीतिक तत्त्वों का समावेश पूर्णरूपेण हुआ है, जो एक सुव्यवस्थित राज्य, कुशल प्रशासक तथा योग्य प्रजा के लिए अत्यन्त उपयुक्त है।  
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किसी भी देश समाज की राजनीति वहाँ के लोगों के सम्पूर्ण जीवन को प्रभावित करती है। यथा राजा तथा प्रजा जैसी अनेक उक्तियाँ प्रख्यात है। प्रजा को राजा का अनुगमन करना पडता है। अतीत का सम्पूर्ण इतिहास तथा प्रत्येक व्यक्ति का जीवन क्रम में इस बात को प्रमाणित करता है कि जिस प्रकार के विचार धर्म, नीति से सम्बद्ध शासक होता है। प्रजा को उसके अनुकूल ढलना ही पडता है। उसके विपरीत आचरण करने वालों को उसके शासन में संकुचित होकर रहना पडता है। पञ्चतन्त्र का काल पूर्णरूप से राजतन्त्र का काल था। अतः पञ्चतन्त्र में राजा के महत्व पर विशेष बल दिया गया है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि बिना शासक के प्रजा की स्थिति बिना नाविक के सागर में फँसी नाव की तरह होती है -<ref>शोधगंगा-विनोद कुमार सिंह, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/431831/8/08_chapter4.pdf पञ्चतन्त्र में निहित सांस्कृतिक एवं आयुर्वेदीय तत्वों का अध्ययन], सन् २०२१, शोधकेन्द्र-काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० १५५)।</ref> <blockquote>यदि न स्यान्नरपतिः सम्यङ्नेता ततः प्रजा। अकर्णधारा जलधौ विप्लवेतेह नौरिव॥ (पञ्चतन्त्र, काकोलूकीय, १/७२)</blockquote>इस प्रकार पञ्चतन्त्र के सर्वांगीण समीक्षण से यह स्पष्ट होता है कि इसमें राजनीतिक तत्त्वों का समावेश पूर्णरूपेण हुआ है, जो एक सुव्यवस्थित राज्य, कुशल प्रशासक तथा योग्य प्रजा के लिए अत्यन्त उपयुक्त है।<ref>शोध गंगा-विनोद कुमार सिंह, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/431831 पञ्चतन्त्र में निहित सांस्कृतिक एवं आयुर्वेदीय तत्वो का अध्ययन], सन् २०२१, शोध केन्द्र - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, (पृ० १३६)।</ref>
    
*'''राजधर्म -''' राजा-प्रजा , कूटनीति या उपाय का महत्व
 
*'''राजधर्म -''' राजा-प्रजा , कूटनीति या उपाय का महत्व
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*'''दुर्ग'''
 
*'''दुर्ग'''
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== पंचतंत्र में निहित सांस्कृतिक तत्व ==
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==पंचतंत्र में निहित सांस्कृतिक तत्व==
    
==पञ्चतंत्रकार-आचार्य विष्णुशर्मा==
 
==पञ्चतंत्रकार-आचार्य विष्णुशर्मा==
पंचतन्त्र के लेखक के विषय में भी विद्वान् मतैक्य नहीं हैं। पञ्चतन्त्र के लेखक विष्णु शर्मा हैं। पञ्चतन्त्र के कथामुख में लेखक ने स्वयं इस बात का उल्लेख किया है, कि - <blockquote>सकलार्थशास्त्रसारं जगति समालोक्य विष्णुशर्मेदम्। तन्त्रैः पञ्चभिरेतच्चकार सुमनोहरं शास्त्रम्॥</blockquote>अर्थात् मैं विष्णु शर्मा, संसार में उपलब्ध सभी अर्थशास्त्रों (नीतिशास्त्रों) के तत्वों को भली प्रकार समीक्षा करके पांच तन्त्रों से युक्त इस मनोहारी (लोकव्यवहारोपकारी) शास्त्र की रचना कर रहा हूँ।
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पंचतन्त्र के लेखक के विषय में भी विद्वान् मतैक्य नहीं हैं। पञ्चतन्त्र के लेखक विष्णु शर्मा हैं। पञ्चतन्त्र के कथामुख में लेखक ने स्वयं इस बात का उल्लेख किया है, कि -<ref>शोधगंगा-अनूप कुमार द्विवेदी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/447119/5/05_chapter1.pdf पञ्चतन्त्र में प्रतिपादित लोक संस्कृति], सन् २०२२, शोधकेन्द्र-काशी हिन्दू विशविद्यालय, वाराणसी (पृ० ३)।</ref> <blockquote>सकलार्थशास्त्रसारं जगति समालोक्य विष्णुशर्मेदम्। तन्त्रैः पञ्चभिरेतच्चकार सुमनोहरं शास्त्रम्॥</blockquote>अर्थात् मैं विष्णु शर्मा, संसार में उपलब्ध सभी अर्थशास्त्रों (नीतिशास्त्रों) के तत्वों को भली प्रकार समीक्षा करके पांच तन्त्रों से युक्त इस मनोहारी (लोकव्यवहारोपकारी) शास्त्र की रचना कर रहा हूँ।
    
प्राचीन समय से ही संस्कृत के कवियों की लेखकों की यह परम्परा रही है कि प्रायः वे अपने जीवन के विषय में कुछ नहीं लिखते थे। सम्भवतः पञ्चतन्त्र के लेखक विष्णु शर्मा ने भी इसी मत का आश्रय लिया है। पञ्चतन्त्र के कथा मुख से हमें लेखक के विषय में कुछ जानकारी प्राप्त होती है -  
 
प्राचीन समय से ही संस्कृत के कवियों की लेखकों की यह परम्परा रही है कि प्रायः वे अपने जीवन के विषय में कुछ नहीं लिखते थे। सम्भवतः पञ्चतन्त्र के लेखक विष्णु शर्मा ने भी इसी मत का आश्रय लिया है। पञ्चतन्त्र के कथा मुख से हमें लेखक के विषय में कुछ जानकारी प्राप्त होती है -  
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