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===मित्रभेद '''   '''===
 
===मित्रभेद '''   '''===
मित्रभेद नामक इस तंत्र के आद्य श्लोक में ही कथा की जिज्ञासा होती है –<blockquote>वर्धमानो महान्स्नेहः सिंहगोवृषयोर्वने। पिशुनेनातिलुब्धेन जंबुकेन विनाशितः॥ </blockquote>वन में एक सिंह और एक बैल के बीच अत्यंत गहरी मित्रता थी जिसे अत्यंत लालची और चुगलखोर गीदड़ ने नष्ट कर दिया।
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मित्रभेद नामक इस तंत्र के आद्य श्लोक में ही कथा की जिज्ञासा होती है –<blockquote>वर्धमानो महान्स्नेहः सिंहगोवृषयोर्वने। पिशुनेनातिलुब्धेन जंबुकेन विनाशितः॥ </blockquote>वन में एक सिंह और एक बैल के बीच अत्यंत गहरी मित्रता थी जिसे अत्यंत लालची और चुगलखोर गीदड़ ने नष्ट कर दिया। मित्रभेद में एक मुख्य कथा तथा इस कथा के अंतर्गत 23 उपकथाएं हैं जो इस प्रकार हैं – [6]<ref name=":0">https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/431831/5/05_chapter1.pdf</ref>{{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;|
 
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मित्रभेद में एक मुख्य कथा तथा इस कथा के अंतर्गत 23 उपकथाएं हैं जो इस प्रकार हैं – [6]{{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;|
      
# मूर्खवानर कथा
 
# मूर्खवानर कथा
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अप्रियाण्यपि पथ्यानि ये वदंति नृणामिह। त एव सुहृदः प्रोक्ता अन्ये स्युर्नामधारकाः॥ (पंचतंत्र, मित्रसंप्राप्ति, श्लोक- 167)
 
अप्रियाण्यपि पथ्यानि ये वदंति नृणामिह। त एव सुहृदः प्रोक्ता अन्ये स्युर्नामधारकाः॥ (पंचतंत्र, मित्रसंप्राप्ति, श्लोक- 167)
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उपर्युक्त उक्तियों से प्रतीत होता है कि मित्र संप्राप्ति अर्थात ‘मित्रस्य संप्राप्तिः’ सच्चे मित्र की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। उसके लिए जो भी विधि अपनानी पड़े। अपनाना चाहिए। मित्रसंप्राप्ति में सात कथा हैं जो इस प्रकार हैं – {{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;|
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उपर्युक्त उक्तियों से प्रतीत होता है कि मित्र संप्राप्ति अर्थात ‘मित्रस्य संप्राप्तिः’ सच्चे मित्र की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। उसके लिए जो भी विधि अपनानी पड़े। अपनाना चाहिए। मित्रसंप्राप्ति में सात कथा हैं जो इस प्रकार हैं –<ref name=":0" /> {{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;|
    
# लुब्धक-चित्रग्रीव-हिरण्यक-कथा  
 
# लुब्धक-चित्रग्रीव-हिरण्यक-कथा  
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# वृषभानुशृगाल-कथा।}}  
 
# वृषभानुशृगाल-कथा।}}  
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===काकोलूकीय===
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===काकोलूकीय ===
 
इस तंत्र में एक मुख्य कथा तथा 17 उपकथाएं हैं। इसमें विग्रह (युद्ध) तथा संधि का वर्णन है। मुख्य कथा के अंतर्गत कौवों के राजा मेघवर्ण एवं उल्लुओं के राजा अरिमर्दन की कथा है।
 
इस तंत्र में एक मुख्य कथा तथा 17 उपकथाएं हैं। इसमें विग्रह (युद्ध) तथा संधि का वर्णन है। मुख्य कथा के अंतर्गत कौवों के राजा मेघवर्ण एवं उल्लुओं के राजा अरिमर्दन की कथा है।
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काकोलूकीयम् में एक मुख्य कथा तथा उसके अंतर्गत 17 उपकथाएं हैं। सत्रहों उपकथा इस प्रकार हैं – {{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;|
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काकोलूकीयम् में एक मुख्य कथा तथा उसके अंतर्गत 17 उपकथाएं हैं। सत्रहों उपकथा इस प्रकार हैं –<ref name=":0" /> {{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;|
    
# काकोलूकवैर-कथा  
 
# काकोलूकवैर-कथा  
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काकोलूकीय के बाद चतुर्थ तंत्र लब्धप्रणाश अर्थात “प्राप्त के नाश”। इसमें यह बतलाया गया है कि प्राप्त हुई वस्तु को सम्यक् प्रकार न रखने से वह कैसे विनाश से वह कैसे विनाश को प्राप्त होता है। इसमें वानर एवं मकर ध्वज की मुख्य कथा है। दोनों की कथा इस प्रकार है – <blockquote>समुत्पन्नेषु कार्येषु बुद्धिर्यस्य न हीयते। स एव दुर्ग तरति जलस्थो वानरो यथा॥ (पंचतंत्र, लब्धप्रणाश, श्लोक-1)[7] </blockquote>
 
काकोलूकीय के बाद चतुर्थ तंत्र लब्धप्रणाश अर्थात “प्राप्त के नाश”। इसमें यह बतलाया गया है कि प्राप्त हुई वस्तु को सम्यक् प्रकार न रखने से वह कैसे विनाश से वह कैसे विनाश को प्राप्त होता है। इसमें वानर एवं मकर ध्वज की मुख्य कथा है। दोनों की कथा इस प्रकार है – <blockquote>समुत्पन्नेषु कार्येषु बुद्धिर्यस्य न हीयते। स एव दुर्ग तरति जलस्थो वानरो यथा॥ (पंचतंत्र, लब्धप्रणाश, श्लोक-1)[7] </blockquote>
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इस तंत्र में वानर-मकरध्वज की मुख्य कथा है तथा इसके अंतर्गत ग्यारह (11) उपकथाएं हैं, जो इस प्रकार है – {{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;|
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इस तंत्र में वानर-मकरध्वज की मुख्य कथा है तथा इसके अंतर्गत ग्यारह (11) उपकथाएं हैं, जो इस प्रकार है –<ref name=":0" /> {{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;|
    
# मंडूकराज गंगदत्त की कथा  
 
# मंडूकराज गंगदत्त की कथा  
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पंचतंत्र का पांचवा तंत्र अपरीक्षिकारक है। जिसमें मुख्यतया विचारपूर्वक सुपरीक्षित कार्य करने की नीति पर ग्रंथकार ने बल दिया है। इसके नामकरण के कारण का स्पष्टीकरण करते हुए बताया गया है कि बिना भली-भांति विचार किए एवं बिना अच्छी तरह से देखे-सुने गये किसी कार्य को करने वाले व्यक्ति को कार्य में सफलता नहीं प्राप्त होती, बल्कि जीवन के अनेक कठिनाइयों का अनुभव करना पड़ता है। अतः अंधानुकरण करने का फल समुचित नहीं होता है।  
 
पंचतंत्र का पांचवा तंत्र अपरीक्षिकारक है। जिसमें मुख्यतया विचारपूर्वक सुपरीक्षित कार्य करने की नीति पर ग्रंथकार ने बल दिया है। इसके नामकरण के कारण का स्पष्टीकरण करते हुए बताया गया है कि बिना भली-भांति विचार किए एवं बिना अच्छी तरह से देखे-सुने गये किसी कार्य को करने वाले व्यक्ति को कार्य में सफलता नहीं प्राप्त होती, बल्कि जीवन के अनेक कठिनाइयों का अनुभव करना पड़ता है। अतः अंधानुकरण करने का फल समुचित नहीं होता है।  
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अपरीक्षितकारक में कुल 15 कथाएं हैं, जिनका शीर्षक एवं संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है – {{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;|
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अपरीक्षितकारक में कुल 15 कथाएं हैं, जिनका शीर्षक एवं संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है –<ref name=":0" /> {{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;|
    
# क्षपणक-कथा  
 
# क्षपणक-कथा  
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भारतीय समाज को योजनाबद्ध व्यवस्थित और सुसंगठित सामाजिक संस्थाओं (वर्णव्यवस्था, वर्णाश्रम-व्यवस्था, संस्कार) के द्वारा संतुलित किया गया है। इन सामाजिक संस्थाओं का विकास उस समय भारतीय समाज को सुनियोजित कर रहा था।<ref>https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/431831/7/07_chapter3.pdf</ref>
 
भारतीय समाज को योजनाबद्ध व्यवस्थित और सुसंगठित सामाजिक संस्थाओं (वर्णव्यवस्था, वर्णाश्रम-व्यवस्था, संस्कार) के द्वारा संतुलित किया गया है। इन सामाजिक संस्थाओं का विकास उस समय भारतीय समाज को सुनियोजित कर रहा था।<ref>https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/431831/7/07_chapter3.pdf</ref>
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==पंचतंत्र में राजनीतिक व्यवस्था==
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== पंचतंत्र में राजनीतिक व्यवस्था==
 
किसी भी देश समाज की राजनीति वहाँ के लोगों के सम्पूर्ण जीवन को प्रभावित करती है। यथा राजा तथा प्रजा जैसी अनेक उक्तियाँ प्रख्यात है। प्रजा को राजा का अनुगमन करना पडता है। अतीत का सम्पूर्ण इतिहास तथा प्रत्येक व्यक्ति का जीवन क्रम में इस बात को प्रमाणित करता है कि जिस प्रकार के विचार धर्म, नीति से सम्बद्ध शासक होता है। प्रजा को उसके अनुकूल ढलना ही पडता है। उसके विपरीत आचरण करने वालों को उसके शासन में संकुचित होकर रहना पडता है। पञ्चतन्त्र का काल पूर्णरूप से राजतन्त्र का काल था। अतः पञ्चतन्त्र में राजा के महत्व पर विशेष बल दिया गया है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि बिना शासक के प्रजा की स्थिति बिना नाविक के सागर में फँसी नाव की तरह होती है -<ref>शोधगंगा-विनोद कुमार सिंह, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/431831/8/08_chapter4.pdf पञ्चतन्त्र में निहित सांस्कृतिक एवं आयुर्वेदीय तत्वों का अध्ययन], सन् २०२१, शोधकेन्द्र-काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० १५५)।</ref> <blockquote>यदि न स्यान्नरपतिः सम्यङ्नेता ततः प्रजा। अकर्णधारा जलधौ विप्लवेतेह नौरिव॥ (पञ्चतन्त्र, काकोलूकीय, १/७२)</blockquote>इस प्रकार पञ्चतन्त्र के सर्वांगीण समीक्षण से यह स्पष्ट होता है कि इसमें राजनीतिक तत्त्वों का समावेश पूर्णरूपेण हुआ है, जो एक सुव्यवस्थित राज्य, कुशल प्रशासक तथा योग्य प्रजा के लिए अत्यन्त उपयुक्त है।<ref>शोध गंगा-विनोद कुमार सिंह, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/431831 पञ्चतन्त्र में निहित सांस्कृतिक एवं आयुर्वेदीय तत्वो का अध्ययन], सन् २०२१, शोध केन्द्र - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, (पृ० १३६)।</ref>  
 
किसी भी देश समाज की राजनीति वहाँ के लोगों के सम्पूर्ण जीवन को प्रभावित करती है। यथा राजा तथा प्रजा जैसी अनेक उक्तियाँ प्रख्यात है। प्रजा को राजा का अनुगमन करना पडता है। अतीत का सम्पूर्ण इतिहास तथा प्रत्येक व्यक्ति का जीवन क्रम में इस बात को प्रमाणित करता है कि जिस प्रकार के विचार धर्म, नीति से सम्बद्ध शासक होता है। प्रजा को उसके अनुकूल ढलना ही पडता है। उसके विपरीत आचरण करने वालों को उसके शासन में संकुचित होकर रहना पडता है। पञ्चतन्त्र का काल पूर्णरूप से राजतन्त्र का काल था। अतः पञ्चतन्त्र में राजा के महत्व पर विशेष बल दिया गया है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि बिना शासक के प्रजा की स्थिति बिना नाविक के सागर में फँसी नाव की तरह होती है -<ref>शोधगंगा-विनोद कुमार सिंह, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/431831/8/08_chapter4.pdf पञ्चतन्त्र में निहित सांस्कृतिक एवं आयुर्वेदीय तत्वों का अध्ययन], सन् २०२१, शोधकेन्द्र-काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० १५५)।</ref> <blockquote>यदि न स्यान्नरपतिः सम्यङ्नेता ततः प्रजा। अकर्णधारा जलधौ विप्लवेतेह नौरिव॥ (पञ्चतन्त्र, काकोलूकीय, १/७२)</blockquote>इस प्रकार पञ्चतन्त्र के सर्वांगीण समीक्षण से यह स्पष्ट होता है कि इसमें राजनीतिक तत्त्वों का समावेश पूर्णरूपेण हुआ है, जो एक सुव्यवस्थित राज्य, कुशल प्रशासक तथा योग्य प्रजा के लिए अत्यन्त उपयुक्त है।<ref>शोध गंगा-विनोद कुमार सिंह, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/431831 पञ्चतन्त्र में निहित सांस्कृतिक एवं आयुर्वेदीय तत्वो का अध्ययन], सन् २०२१, शोध केन्द्र - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, (पृ० १३६)।</ref>  
  
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