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− | कथा साहित्य का सर्वप्रथम उदय भारतवर्ष में ही हुआ है। विश्व-साहित्य के लिए भारतीय साहित्य की लोकप्रिय कथा की देन नीति कथा की दृष्टि से विशेष महत्व रखती है। षष्ठ शताब्दी में प्राप्त कथाओं की लोकप्रियता के लिए लोकप्रिय पंचतंत्र अपना एक विशिष्ट स्थान धारण करता है।
| + | विश्व-साहित्य के लिए भारतीय साहित्य की लोकप्रिय कथा की देन नीति कथा की दृष्टि से विशेष महत्व रखती है। षष्ठ शताब्दी में प्राप्त कथाओं की लोकप्रियता के लिए लोकप्रिय पंचतंत्र अपना एक विशिष्ट स्थान धारण करता है। इन पशु-पक्षियों की एवं मानवपरक छोटी-छोटी कहानियों के सुन्दरतम कलेवर में सामाजिक व्यवहारहारपरक, राजनीतिपरक, सदाचारमूलक एवं लोकनीतिविषयक शिक्षापरक वैशिष्ट्य से मूर्खों को भी व्यवहारकुशल, सदाचार-संपन्न एवं नीतिपटु बनाने वाले हैं। |
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− | == परिचय == | + | ==परिचय== |
| पंचतंत्र में संग्रहीत कथायें अत्यंत प्राचीन हैं। पंचतंत्र के भिन्न-भिन्न शताब्दियों में भिन्न-भिन्न प्रांतों में अनेक संस्करण संपादित हुए, जिनमें चार संस्करण उपलब्ध हैं – | | पंचतंत्र में संग्रहीत कथायें अत्यंत प्राचीन हैं। पंचतंत्र के भिन्न-भिन्न शताब्दियों में भिन्न-भिन्न प्रांतों में अनेक संस्करण संपादित हुए, जिनमें चार संस्करण उपलब्ध हैं – |
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− | # पंचतंत्र का पहलवी अनुवाद | + | #पंचतंत्र का पहलवी अनुवाद |
− | # गुणाढ्य की बृहत्कथा में अंतरनिर्दिष्ट | + | #गुणाढ्य की बृहत्कथा में अंतरनिर्दिष्ट |
− | # तंत्राख्यायिका | + | #तंत्राख्यायिका |
− | # दक्षिणी पंचतंत्र मूलरूप | + | #दक्षिणी पंचतंत्र मूलरूप |
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| इस प्रकार पंचतंत्र एक सामान्य ग्रंथ न होकर एक विपुल साहित्य का प्रतिनिधि ग्रंथ है। पंचतंत्र में मित्रभेद, मित्रलाभ, संधि-विग्रह, लब्धप्रणाश तथा अपरीक्षितकारक नामक पांचतंत्र हैं। प्रत्येक तंत्र में एक ही कथा को पुष्ट करने के लिए अनेक गौण कथायें वर्णित की गई हैं। प्रारंभ से ही ग्रंथ में ग्रंथकार का मुख्य उद्देश्य सदाचार और नीति का शिक्षण प्रदान करना रहा है। ग्रंथानुसार दक्षिण के महिलारोप्य नामक नगर में अमरकीर्ति नामक राजा, जिनके तीन पुत्रों को विद्वान् तथा नीति-सम्पन्न बनाने के लिए योग्य शिक्षक की आवश्यकता थी, उन्होंने लोक एवं शास्त्र में पारंगत विष्णु शर्मा नामक योग्य गुरु से प्रार्थना की, जिन्होंने मात्र छः माह में ही राजपुत्रों को व्यवहारकुशल, सदाचार सम्पन्न तथा नीतिनिपुण बना दिया। | | इस प्रकार पंचतंत्र एक सामान्य ग्रंथ न होकर एक विपुल साहित्य का प्रतिनिधि ग्रंथ है। पंचतंत्र में मित्रभेद, मित्रलाभ, संधि-विग्रह, लब्धप्रणाश तथा अपरीक्षितकारक नामक पांचतंत्र हैं। प्रत्येक तंत्र में एक ही कथा को पुष्ट करने के लिए अनेक गौण कथायें वर्णित की गई हैं। प्रारंभ से ही ग्रंथ में ग्रंथकार का मुख्य उद्देश्य सदाचार और नीति का शिक्षण प्रदान करना रहा है। ग्रंथानुसार दक्षिण के महिलारोप्य नामक नगर में अमरकीर्ति नामक राजा, जिनके तीन पुत्रों को विद्वान् तथा नीति-सम्पन्न बनाने के लिए योग्य शिक्षक की आवश्यकता थी, उन्होंने लोक एवं शास्त्र में पारंगत विष्णु शर्मा नामक योग्य गुरु से प्रार्थना की, जिन्होंने मात्र छः माह में ही राजपुत्रों को व्यवहारकुशल, सदाचार सम्पन्न तथा नीतिनिपुण बना दिया। |
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− | == पंचतंत्र का महत्व == | + | ==पंचतंत्र का महत्व== |
− | पंचतंत्र की भाषा सीधी-सादी, मुहावरेदार तथा विनोदप्रियता से परिपूर्ण है। विन्यास में दुरूहता कहीं भी दृष्टिगत नहीं होती है और न भावों के अनुभव करने में दुर्बोधता के दर्शन। कथानक गद्य में उपनिबद्ध किया गया है तथा उपदेशात्मक सूक्तियां पद्य में पिरोयी गई हैं तथा प्रायः अधिकांश पद्य रामायण, महाभारत तथा अन्य विभिन्न नीति-ग्रंथो से संग्रहीत किये गये हैं। विश्वव्यापी प्रभाव से समन्वित पंचतंत्र मात्र भारतीय साहित्य का ही अङ्ग न होकर आज विश्व-साहित्य का एक लोकप्रिय सुप्रसिद्ध महानीय अंग है। पंचतंत्र के पांचों तंत्रों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है –[1] | + | पंचतंत्र की भाषा सीधी-सादी, मुहावरेदार तथा विनोदप्रियता से परिपूर्ण है। विन्यास में दुरूहता कहीं भी दृष्टिगत नहीं होती है और न भावों के अनुभव करने में दुर्बोधता के दर्शन। कथानक गद्य में उपनिबद्ध किया गया है तथा उपदेशात्मक सूक्तियां पद्य में पिरोयी गई हैं तथा प्रायः अधिकांश पद्य रामायण, महाभारत तथा अन्य विभिन्न नीति-ग्रंथो से संग्रहीत किये गये हैं। विश्वव्यापी प्रभाव से समन्वित पंचतंत्र मात्र भारतीय साहित्य का ही अङ्ग न होकर आज विश्व-साहित्य का एक लोकप्रिय सुप्रसिद्ध महानीय अंग है। पंचतंत्र के पांचों तंत्रों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है –<ref>शोधगंगा - डॉ० नमिता, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/327791/6/06%20chapter%203.pdf पंचतन्त्र एवं हितोपदेश में निहित शैक्षिक विचारों का तुलनात्मक अध्ययन एवं वर्तमान सन्दर्भ में उनकी उपादेयता], सन- २०१५, शोधकेन्द्र - राजा बलवन्त सिंह महाविद्यालय, आगरा (पृ० ३४)।</ref> |
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− | * प्रथम तंत्रम (मित्रभेदः) | + | *'''प्रथम तंत्र-मित्रभेद''' - प्रथम तन्त्र में मित्रभेद (प्रकार) को आधार बनाकर विभिन्न कथाओं के सच्चे मित्र तथा सच्चे मित्र की सङ्गति से लाभ को विभिन्न कथाओं तथा नीतिपूर्ण श्लोकों से उकेरा गया है तथा इसके विपरीत धोखेबाज मित्र, अगुणी मित्र तथा बुरी सङ्गति से प्राप्त हानि अपमान को भी स्पष्ट किया गया है। |
− | * द्वितीय तंत्रम् (मित्र संप्राप्तिः) | + | *'''द्वितीय तंत्र-मित्रसंप्राप्ति''' - मित्रसम्प्राप्ति नामक द्वितीय तन्त्र में मित्र पर विशेष बल दिया गया है कि मित्र-संग्रह करना जीवन की सफलता में बड़ा सहायक है तथा विवेकी मनुष्य को सदा मित्र प्राप्ति में प्रयत्नशील रहना चाहिए। |
− | * तृतीय तंत्रम् (काकोलूकीयम्) | + | *'''तृतीय तंत्र-काकोलूकीय''' - काकोलूकीय नामक तृतीय तन्त्र है। इस तन्त्र में कौवे तथा उल्लू के स्वाभाविक वैर को आधार बनाकर अनेक कथाऐं रची गयी हैं तथा इन कथाओं के माध्यम से शत्रु के बारे में बताया गया है तथा उनके प्रतिकार के विषय में उपाय बताये गये हैं |
− | * चतुर्थ तंत्रम् (लब्धप्रणाशम्) | + | *'''चतुर्थ तंत्र-लब्धप्रणाश''' - पञ्चतन्त्र के चतुर्थ तन्त्र लब्धप्रणाशम् है। लब्धप्रणांशम् का अर्थ है प्राप्त होकर नष्ट हो जाना। इस तन्त्र में विभिन्न कथाओं के माध्यम से यह बताया गया है कि प्राणी को लोभवश कोई कार्य नहीं करना चाहिए, अन्यथा उसका परिणाम विपरीत होता है। |
− | * पंचम तंत्रम् (अपरीक्षित कारकम्) | + | *'''पंचम तंत्र-अपरीक्षितकारक''' - पञ्चतन्त्र का अन्तिम तन्त्र अपरीक्षित कारक है। अपरीक्षित का अर्थ है बिना सोचे समझे कार्य करना। इस तन्त्र में विभिन्न कथाओं के द्वारा यह बताया गया है कि बिना सोचे समझे कोई भी कार्य करने से उसका बुरा परिणाम भुगतना पड़ता है। |
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− | == पंचतंत्र का वैशिष्ट्य == | + | ==पंचतंत्र का वैशिष्ट्य== |
| पंचतंत्र जिन कथाओं का संग्रह है वे भारत में नितांत प्राचीन हैं। पंचतंत्र के भिन्न-भिन्न शताब्दियों में तथा भिन्न भिन्न प्रांतों में अनेक संस्करण हुए। कुछ तो आज भी उपलब्ध हैं। इनमें सबसे प्राचीन संस्करण तंत्राख्यायिका के नाम से विख्यात है जिसका मूल स्थान काश्मीर है।[2] | | पंचतंत्र जिन कथाओं का संग्रह है वे भारत में नितांत प्राचीन हैं। पंचतंत्र के भिन्न-भिन्न शताब्दियों में तथा भिन्न भिन्न प्रांतों में अनेक संस्करण हुए। कुछ तो आज भी उपलब्ध हैं। इनमें सबसे प्राचीन संस्करण तंत्राख्यायिका के नाम से विख्यात है जिसका मूल स्थान काश्मीर है।[2] |
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| |क्र०सं० | | |क्र०सं० |
| |तंत्रनाम | | |तंत्रनाम |
− | |मुख्यकथा | + | |मुख्यकथा |
| |उपकथाएं | | |उपकथाएं |
| |श्लोक संख्या | | |श्लोक संख्या |
| |- | | |- |
| |1. | | |1. |
− | |मित्रभेद | + | |मित्रभेद |
− | |सिंह और बैल की मित्रता तुड़वाने की कथा | + | |सिंह और बैल की मित्रता तुड़वाने की कथा |
− | |23 | + | |23 |
− | |461 | + | |461 |
| |- | | |- |
| |2. | | |2. |
| |मित्रसंप्राप्ति | | |मित्रसंप्राप्ति |
− | |काक, कूर्म, मृग और चूहे की मित्रता की कथा | + | |काक, कूर्म, मृग और चूहे की मित्रता की कथा |
− | |7 | + | |7 |
− | |196 | + | |196 |
| |- | | |- |
| |3. | | |3. |
− | |काकोलुकीय | + | |काकोलुकीय |
− | |कौए और उल्लू की कथा | + | |कौए और उल्लू की कथा |
− | |17 | + | |17 |
− | |256 | + | |256 |
| |- | | |- |
| |4. | | |4. |
− | |लब्धप्रणाश | + | |लब्धप्रणाश |
− | |वानर और मगर की कथा | + | |वानर और मगर की कथा |
− | |11 | + | |11 |
− | |80 | + | |80 |
| |- | | |- |
| |5. | | |5. |
− | |अपरीक्षितकारकम् | + | |अपरीक्षितकारकम् |
| |ब्राह्मणी और नेवले की कथा | | |ब्राह्मणी और नेवले की कथा |
− | |14 | + | |14 |
− | |98 | + | |98 |
| |} | | |} |
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− | == कथासार == | + | ==पंचतंत्र का संक्षिप्त कथासार== |
− | पंचतंत्र के पाँच तंत्र प्राप्त होते हैं। तंत्र शब्द इस ग्रंथ के पांच भागों में विभाजित होने के द्योतक हैं। इसमें नीतियुक्त शासन विधि के पांच विधि (गुण) बताए गए हैं। ग्रंथ के आरंभ में मंगलाचरण के उपरांत मनु, वाचस्पति, शुक्र, पाराशर, व्यास, चाणक्य की स्तुति की गई है।[4] | + | पंचतंत्र के पाँच तंत्र प्राप्त होते हैं। तंत्र शब्द इस ग्रंथ के पांच भागों में विभाजित होने के द्योतक हैं। इसमें नीतियुक्त शासन विधि के पांच विधि (गुण) बताए गए हैं। ग्रंथ के आरंभ में मंगलाचरण के उपरांत मनु, वाचस्पति, शुक्र, पाराशर, व्यास, चाणक्य की स्तुति की गई है।[4] पञ्चतंत्र के लेखक के विषय में भी विद्वान मतैक्य नहीं हैं। पंचतंत्र के लेखक विष्णु शर्मा हैं। पञ्चतंत्र के कथामुख में लेखक ने स्वयं इस बात का उल्लेख किया है, कि – [5] <blockquote>सकलार्थशास्त्रसारं जगति समालोक्य विष्णुशर्मेदम्। तंत्रैः पञ्चभिरेतच्चकार सुमनोहरं शास्त्रम्॥ (पंचतंत्र कथामुख-3) </blockquote>अर्थात मै विष्णु शर्मा, संसार में उपलब्ध सभी अर्थशास्त्रों (नीतिशास्त्रों) के तत्वों को भली प्रकार समीक्षा करके पांच तंत्रों से युक्त इस मनोहारी (लोकव्यवहारोपकारी) शास्त्र की रचना कर रहा हूं। |
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− | पञ्चतंत्र के लेखक के विषय में भी विद्वान मतैक्य नहीं हैं। पंचतंत्र के लेखक विष्णु शर्मा हैं। पञ्चतंत्र के कथामुख में लेखक ने स्वयं इस बात का उल्लेख किया है, कि – [5]
| + | प्रथम तंत्र की अंगी कथा के पूर्व राजा अमरशक्ति के पुत्रों का आख्यान है। वह उन्हें विष्णुशर्मा को उनकी प्रतिज्ञा पर सौंप देते हैं कि वह उन्हें छः माह में राजनीति का ज्ञान करा देंगे। तदनंतर – <blockquote>अधीते य इदं नित्यं नीतिशास्त्रं शृणोति च। न पराभवमाप्नोति शक्रादपि कदाचन॥(पंचतंत्र, मित्रभेद, 1/1)</blockquote>जो इस नीतिशास्त्र का नित्य अध्ययन करता है अथवा श्रवण करता है वह देवराज इन्द्र से भी कभी पराजित नहीं हो सकता है। इस वाक्य के द्वारा कथामुख समाप्त होता है तत्पश्चात मित्रभेद नामक तंत्र प्रारंभ होता है जो अतिसंक्षेप में प्रस्तुत है। |
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− | सकलार्थशास्त्रसारं जगति समालोक्य विष्णुशर्मेदम्। तंत्रैः पञ्चभिरेतच्चकार सुमनोहरं शास्त्रम्॥ (पंचतंत्र कथामुख-3)
| + | ===मित्रभेद ''' '''=== |
− | | + | मित्रभेद नामक इस तंत्र के आद्य श्लोक में ही कथा की जिज्ञासा होती है –<blockquote>वर्धमानो महान्स्नेहः सिंहगोवृषयोर्वने। पिशुनेनातिलुब्धेन जंबुकेन विनाशितः॥ </blockquote>वन में एक सिंह और एक बैल के बीच अत्यंत गहरी मित्रता थी जिसे अत्यंत लालची और चुगलखोर गीदड़ ने नष्ट कर दिया। |
− | अर्थात मै विष्णु शर्मा, संसार में उपलब्ध सभी अर्थशास्त्रों (नीतिशास्त्रों) के तत्वों को भली प्रकार समीक्षा करके पांच तंत्रों से युक्त इस मनोहारी (लोकव्यवहारोपकारी) शास्त्र की रचना कर रहा हूं।
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− | | |
− | पंचतंत्र का संक्षिप्त कथासार
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− | प्रथम तंत्र की अंगी कथा के पूर्व राजा अमरशक्ति के पुत्रों का आख्यान है। वह उन्हें विष्णुशर्मा को उनकी प्रतिज्ञा पर सौंप देते हैं कि वह उन्हें छः माह में राजनीति का ज्ञान करा देंगे। तदनंतर –
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− | अधीते य इदं नित्यं नीतिशास्त्रं शृणोति च। न पराभवमाप्नोति शक्रादपि कदाचन॥(पंचतंत्र, मित्रभेद, 1/1)
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− | जो इस नीतिशास्त्र का नित्य अध्ययन करता है अथवा श्रवण करता है वह देवराज इन्द्र से भी कभी पराजित नहीं हो सकता है। इस वाक्य के द्वारा कथामुख समाप्त होता है तत्पश्चात मित्रभेद नामक तंत्र प्रारंभ होता है जो अतिसंक्षेप में प्रस्तुत है।
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− | '''मित्रभेद - '''मित्रभेद नामक इस तंत्र के आद्य श्लोक में ही कथा की जिज्ञासा होती है – | |
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− | वर्धमानो महान्स्नेहः सिंहगोवृषयोर्वने। पिशुनेनातिलुब्धेन जंबुकेन विनाशितः॥ | |
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− | वन में एक सिंह और एक बैल के बीच अत्यंत गहरी मित्रता थी जिसे अत्यंत लालची और चुगलखोर गीदड़ ने नष्ट कर दिया। | |
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| मित्रभेद में एक मुख्य कथा तथा इस कथा के अंतर्गत 23 उपकथाएं हैं जो इस प्रकार हैं – [6]{{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;| | | मित्रभेद में एक मुख्य कथा तथा इस कथा के अंतर्गत 23 उपकथाएं हैं जो इस प्रकार हैं – [6]{{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;| |
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| ===लब्धप्रणाश=== | | ===लब्धप्रणाश=== |
− | काकोलूकीय के बाद चतुर्थ तंत्र लब्धप्रणाश अर्थात “प्राप्त के नाश”। इसमें यह बतलाया गया है कि प्राप्त हुई वस्तु को सम्यक् प्रकार न रखने से वह कैसे विनाश से वह कैसे विनाश को प्राप्त होता है। इसमें वानर एवं मकर ध्वज की मुख्य कथा है। दोनों की कथा इस प्रकार है – | + | काकोलूकीय के बाद चतुर्थ तंत्र लब्धप्रणाश अर्थात “प्राप्त के नाश”। इसमें यह बतलाया गया है कि प्राप्त हुई वस्तु को सम्यक् प्रकार न रखने से वह कैसे विनाश से वह कैसे विनाश को प्राप्त होता है। इसमें वानर एवं मकर ध्वज की मुख्य कथा है। दोनों की कथा इस प्रकार है – <blockquote>समुत्पन्नेषु कार्येषु बुद्धिर्यस्य न हीयते। स एव दुर्ग तरति जलस्थो वानरो यथा॥ (पंचतंत्र, लब्धप्रणाश, श्लोक-1)[7] </blockquote> |
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− | समुत्पन्नेषु कार्येषु बुद्धिर्यस्य न हीयते। स एव दुर्ग तरति जलस्थो वानरो यथा॥ (पंचतंत्र, लब्धप्रणाश, श्लोक-1)[7] | |
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| इस तंत्र में वानर-मकरध्वज की मुख्य कथा है तथा इसके अंतर्गत ग्यारह (11) उपकथाएं हैं, जो इस प्रकार है – {{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;| | | इस तंत्र में वानर-मकरध्वज की मुख्य कथा है तथा इसके अंतर्गत ग्यारह (11) उपकथाएं हैं, जो इस प्रकार है – {{columns-list|colwidth=10em|style=width: 600px; font-style: Normal;| |
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| # चित्रांगसारमेय-कथा }} | | # चित्रांगसारमेय-कथा }} |
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− | === अपरीक्षितकारक=== | + | ===अपरीक्षितकारक=== |
| पंचतंत्र का पांचवा तंत्र अपरीक्षिकारक है। जिसमें मुख्यतया विचारपूर्वक सुपरीक्षित कार्य करने की नीति पर ग्रंथकार ने बल दिया है। इसके नामकरण के कारण का स्पष्टीकरण करते हुए बताया गया है कि बिना भली-भांति विचार किए एवं बिना अच्छी तरह से देखे-सुने गये किसी कार्य को करने वाले व्यक्ति को कार्य में सफलता नहीं प्राप्त होती, बल्कि जीवन के अनेक कठिनाइयों का अनुभव करना पड़ता है। अतः अंधानुकरण करने का फल समुचित नहीं होता है। | | पंचतंत्र का पांचवा तंत्र अपरीक्षिकारक है। जिसमें मुख्यतया विचारपूर्वक सुपरीक्षित कार्य करने की नीति पर ग्रंथकार ने बल दिया है। इसके नामकरण के कारण का स्पष्टीकरण करते हुए बताया गया है कि बिना भली-भांति विचार किए एवं बिना अच्छी तरह से देखे-सुने गये किसी कार्य को करने वाले व्यक्ति को कार्य में सफलता नहीं प्राप्त होती, बल्कि जीवन के अनेक कठिनाइयों का अनुभव करना पड़ता है। अतः अंधानुकरण करने का फल समुचित नहीं होता है। |
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| ==पंचतंत्र में राजनीतिक व्यवस्था== | | ==पंचतंत्र में राजनीतिक व्यवस्था== |
| + | किसी भी देश समाज की राजनीति वहाँ के लोगों के सम्पूर्ण जीवन को प्रभावित करती है। यथा राजा तथा प्रजा जैसी अनेक उक्तियाँ प्रख्यात है। प्रजा को राजा का अनुगमन करना पडता है। अतीत का सम्पूर्ण इतिहास तथा प्रत्येक व्यक्ति का जीवन क्रम में इस बात को प्रमाणित करता है कि जिस प्रकार के विचार धर्म, नीति से सम्बद्ध शासक होता है। प्रजा को उसके अनुकूल ढलना ही पडता है। उसके विपरीत आचरण करने वालों को उसके शासन में संकुचित होकर रहना पडता है। पञ्चतन्त्र का काल पूर्णरूप से राजतन्त्र का काल था। अतः पञ्चतन्त्र में राजा के महत्व पर विशेष बल दिया गया है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि बिना शासक के प्रजा की स्थिति बिना नाविक के सागर में फँसी नाव की तरह होती है -<ref>शोधगंगा-विनोद कुमार सिंह, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/431831/8/08_chapter4.pdf पञ्चतन्त्र में निहित सांस्कृतिक एवं आयुर्वेदीय तत्वों का अध्ययन], सन् २०२१, शोधकेन्द्र-काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० १५५)।</ref> <blockquote>यदि न स्यान्नरपतिः सम्यङ्नेता ततः प्रजा। अकर्णधारा जलधौ विप्लवेतेह नौरिव॥ (पञ्चतन्त्र, काकोलूकीय, १/७२)</blockquote>इस प्रकार पञ्चतन्त्र के सर्वांगीण समीक्षण से यह स्पष्ट होता है कि इसमें राजनीतिक तत्त्वों का समावेश पूर्णरूपेण हुआ है, जो एक सुव्यवस्थित राज्य, कुशल प्रशासक तथा योग्य प्रजा के लिए अत्यन्त उपयुक्त है। |
| + | |
| + | *'''राजधर्म -''' राजा-प्रजा , कूटनीति या उपाय का महत्व |
| + | *'''राष्ट्रीय और अनतर्राष्ट्रीय शक्ति के विकास के लिए राजा के पास तीन माध्यम होना आवश्यक है -''' |
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− | ==पंचतंत्र में निहित सांस्कृतिक तत्व== | + | #शक्ति |
| + | #बल |
| + | #उपाय या नीति |
| + | |
| + | *'''राज्य संरक्षण के उपाय -''' साम नीति, दाम नीति, भेद नीति, दण्ड नीति। |
| + | *'''षाड्गुण्य -''' संधि, विग्रह, आसन, यान, संश्रय, द्वैधी भाव। |
| + | *'''अमात्य -''' |
| + | *'''गुप्तचर -''' स्थायी गुप्तचर एवं भ्रमणशील गुप्तचर। |
| + | *'''दुर्ग''' |
| + | |
| + | == पंचतंत्र में निहित सांस्कृतिक तत्व == |
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| ==पञ्चतंत्रकार-आचार्य विष्णुशर्मा== | | ==पञ्चतंत्रकार-आचार्य विष्णुशर्मा== |
| + | पंचतन्त्र के लेखक के विषय में भी विद्वान् मतैक्य नहीं हैं। पञ्चतन्त्र के लेखक विष्णु शर्मा हैं। पञ्चतन्त्र के कथामुख में लेखक ने स्वयं इस बात का उल्लेख किया है, कि - <blockquote>सकलार्थशास्त्रसारं जगति समालोक्य विष्णुशर्मेदम्। तन्त्रैः पञ्चभिरेतच्चकार सुमनोहरं शास्त्रम्॥</blockquote>अर्थात् मैं विष्णु शर्मा, संसार में उपलब्ध सभी अर्थशास्त्रों (नीतिशास्त्रों) के तत्वों को भली प्रकार समीक्षा करके पांच तन्त्रों से युक्त इस मनोहारी (लोकव्यवहारोपकारी) शास्त्र की रचना कर रहा हूँ। |
| + | |
| + | प्राचीन समय से ही संस्कृत के कवियों की लेखकों की यह परम्परा रही है कि प्रायः वे अपने जीवन के विषय में कुछ नहीं लिखते थे। सम्भवतः पञ्चतन्त्र के लेखक विष्णु शर्मा ने भी इसी मत का आश्रय लिया है। पञ्चतन्त्र के कथा मुख से हमें लेखक के विषय में कुछ जानकारी प्राप्त होती है - |
| + | |
| + | तद्यथाऽनुश्रूयते अस्ति दक्षिणात्ये जनपदे महिलारोप्यं नाम नगरम्। तत्र सकलार्थिकल्पद्रुमः प्रवरमुकुटमणिमरीचिमञ्जरीचर्चित चरणयुगलः सकलकलापारंगतोऽमरशक्तिर्नाम राजा बभूव। तस्य त्रयः पुत्राः परमदुर्मेधसोबहुशक्तिरुग्रशक्तिरनन्तशक्तिश्चेतिनामानो बभूवुः। (पञ्चतंत्र, कथामुख, गद्यभाग, पृ० ३) |
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| ==सारांश== | | ==सारांश== |
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| <nowiki>https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/447119</nowiki> | | <nowiki>https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/447119</nowiki> |
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| + | <references /> |