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केवल अन्न, वस्त्र, कामप्रवृत्ति से मनुष्य श्रेष्ठ नहीं बनता । ये तो शारीरिक और प्राणिक स्तर की प्रवृत्तियाँ हैं । अन्य प्राणी भी यह सब करते हैं। उनका जीवन इन प्रवृत्तियों में ही समाहित हो जाता है । हम भारतवासी मनुष्य को इनसे श्रेष्ठ मानते हैं। आपके देशों में भी मनुष्य इन प्राणियों से श्रेष्ठ ही है। मनुष्य का श्रेष्ठत्व किस में है ? भौतिक पदार्थों का अनापशनाप. शोषणकारी प्रयोग और प्राणियों को अपना दास बनाने में, अपना आहार बनाने में श्रेष्ठत्व नहीं है। अपनी अन्तःकरण की प्रवृत्तियों को परिष्कृत और व्यवस्थित करने में ही श्रेष्ठत्व है। शिक्षा इसका प्रमुख साधन है। अतः शिक्षा के सारे प्रयासों को इस स्तर पर स्थापित करने की आवश्यकता है।
 
केवल अन्न, वस्त्र, कामप्रवृत्ति से मनुष्य श्रेष्ठ नहीं बनता । ये तो शारीरिक और प्राणिक स्तर की प्रवृत्तियाँ हैं । अन्य प्राणी भी यह सब करते हैं। उनका जीवन इन प्रवृत्तियों में ही समाहित हो जाता है । हम भारतवासी मनुष्य को इनसे श्रेष्ठ मानते हैं। आपके देशों में भी मनुष्य इन प्राणियों से श्रेष्ठ ही है। मनुष्य का श्रेष्ठत्व किस में है ? भौतिक पदार्थों का अनापशनाप. शोषणकारी प्रयोग और प्राणियों को अपना दास बनाने में, अपना आहार बनाने में श्रेष्ठत्व नहीं है। अपनी अन्तःकरण की प्रवृत्तियों को परिष्कृत और व्यवस्थित करने में ही श्रेष्ठत्व है। शिक्षा इसका प्रमुख साधन है। अतः शिक्षा के सारे प्रयासों को इस स्तर पर स्थापित करने की आवश्यकता है।
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यह अन्तःकरण क्या है ? अन्तःकरण में मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त का समावेश होता है । आप भी माइण्ड, इण्टेलेक्ट, ईगो और कॉन्सियन्स के रूप में इन्हें जानते ही हैं । हाँ, यह मुद्दा भी महत्त्वपूर्ण है कि इन शब्दों के आपके और हमारे अर्थ और व्याप्ति भिन्न है। यह भिन्नता संस्कृतियों की भिन्नता है यह भी सच है। परन्तु इन
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यह अन्तःकरण क्या है ? अन्तःकरण में मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त का समावेश होता है । आप भी माइण्ड, इण्टेलेक्ट, ईगो और कॉन्सियन्स के रूप में इन्हें जानते ही हैं । हाँ, यह मुद्दा भी महत्त्वपूर्ण है कि इन शब्दों के आपके और हमारे अर्थ और व्याप्ति भिन्न है। यह भिन्नता संस्कृतियों की भिन्नता है यह भी सच है। परन्तु इन संज्ञाओं के कोर एलिमेण्ट-केन्द्रवर्ती तत्त्व-कदाचित एक ही है। संक्षेप में ही समझें तो मन समस्त कामप्रवृत्ति का उद्गम स्थान है। आप भी समझ रहे होंगे कि मन की काम प्रवृत्ति को नष्ट तो नहीं करना चाहिये । इसे नष्ट करने से तो मनुष्य की सृजनशीलता का साधन ही नष्ट हो जायेगा । मन अत्यन्त शक्तिशाली करण है। कामप्रवृत्ति को भी शक्ति के एक आयाम के रूप में स्वीकार कर उसे नियमन में रखना, नियन्त्रित करना और एकाग्र बनाना चाहिये । इसके लिये शिक्षा को प्रयुक्त करना चाहिये । जगत में किये जाने वाले सारे मानवीय व्यवहार की अच्छाई और बुराई का सम्बन्ध मन के साथ है। इसलिये मनुष्य को बुराई से मुक्त करना और अच्छा बनाना शिक्षा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आयाम है।
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कितने आश्चर्य की बात है कि आज विश्व में कामप्रवृत्ति की शिक्षा तो दी जाती है परन्तु अच्छा बनने की नहीं दी जाती। अच्छा बनने की आवश्यकता का अनुभव तो सब करते हैं । अच्छाई के आधार पर ही दुनिया चलती है यह बात भी सब समझते हैं परन्तु अच्छा बना कैसे जाता है इसकी ओर ध्यान नहीं दिया जाता । अच्छाई या तो गृहीत मानी जाती है अथवा इसे चर्च के अधीन कर दिया जाता है, अथवा इसे कानून के दायरे में रखा जाता है। कभी कभी तो ऐसी भी मान्यता दिखाई देती है कि हम ईसाई अथवा मुसलमान हैं इसी कारण से हम अच्छे हैं। यह बात और सम्प्रदायों के साथ भी हो सकती है। परन्तु अच्छाई को सम्प्रदाय के साथ जोड दिया जाता है। हम देखते हैं कि सम्प्रदाय को कानून के अधीन करने से अथवा उसे गृहीत मानने से कोई अच्छा नहीं बनता। मन की सम्यक् शिक्षा की व्यवस्था करना ही एक मात्र उपाय है। यह बात सत्य है कि घर में, देवालय में, विद्यालय में, कार्यालय में, कारखाने में - कहीं पर भी इसकी व्यवस्था की जा सकती है । कैसे भी करें, करना अनिवार्य है।
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हमारे स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि मन को एकाग्रता और ब्रह्मचर्य की शिक्षा देना ही मुख्य कार्य है। अब तो आप योग को भी अपना चुके हैं। योग एक अत्यन्त श्रेष्ठ विद्या है इसमें तो कोई सन्देह नहीं है परन्तु
    
==References==
 
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