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कितने आश्चर्य की बात है कि आज विश्व में कामप्रवृत्ति की शिक्षा तो दी जाती है परन्तु अच्छा बनने की नहीं दी जाती। अच्छा बनने की आवश्यकता का अनुभव तो सब करते हैं । अच्छाई के आधार पर ही दुनिया चलती है यह बात भी सब समझते हैं परन्तु अच्छा बना कैसे जाता है इसकी ओर ध्यान नहीं दिया जाता । अच्छाई या तो गृहीत मानी जाती है अथवा इसे चर्च के अधीन कर दिया जाता है, अथवा इसे कानून के दायरे में रखा जाता है। कभी कभी तो ऐसी भी मान्यता दिखाई देती है कि हम ईसाई अथवा मुसलमान हैं इसी कारण से हम अच्छे हैं। यह बात और सम्प्रदायों के साथ भी हो सकती है। परन्तु अच्छाई को सम्प्रदाय के साथ जोड दिया जाता है। हम देखते हैं कि सम्प्रदाय को कानून के अधीन करने से अथवा उसे गृहीत मानने से कोई अच्छा नहीं बनता। मन की सम्यक् शिक्षा की व्यवस्था करना ही एक मात्र उपाय है। यह बात सत्य है कि घर में, देवालय में, विद्यालय में, कार्यालय में, कारखाने में - कहीं पर भी इसकी व्यवस्था की जा सकती है । कैसे भी करें, करना अनिवार्य है।
 
कितने आश्चर्य की बात है कि आज विश्व में कामप्रवृत्ति की शिक्षा तो दी जाती है परन्तु अच्छा बनने की नहीं दी जाती। अच्छा बनने की आवश्यकता का अनुभव तो सब करते हैं । अच्छाई के आधार पर ही दुनिया चलती है यह बात भी सब समझते हैं परन्तु अच्छा बना कैसे जाता है इसकी ओर ध्यान नहीं दिया जाता । अच्छाई या तो गृहीत मानी जाती है अथवा इसे चर्च के अधीन कर दिया जाता है, अथवा इसे कानून के दायरे में रखा जाता है। कभी कभी तो ऐसी भी मान्यता दिखाई देती है कि हम ईसाई अथवा मुसलमान हैं इसी कारण से हम अच्छे हैं। यह बात और सम्प्रदायों के साथ भी हो सकती है। परन्तु अच्छाई को सम्प्रदाय के साथ जोड दिया जाता है। हम देखते हैं कि सम्प्रदाय को कानून के अधीन करने से अथवा उसे गृहीत मानने से कोई अच्छा नहीं बनता। मन की सम्यक् शिक्षा की व्यवस्था करना ही एक मात्र उपाय है। यह बात सत्य है कि घर में, देवालय में, विद्यालय में, कार्यालय में, कारखाने में - कहीं पर भी इसकी व्यवस्था की जा सकती है । कैसे भी करें, करना अनिवार्य है।
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हमारे स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि मन को एकाग्रता और ब्रह्मचर्य की शिक्षा देना ही मुख्य कार्य है। अब तो आप योग को भी अपना चुके हैं। योग एक अत्यन्त श्रेष्ठ विद्या है इसमें तो कोई सन्देह नहीं है परन्तु
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हमारे स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि मन को एकाग्रता और ब्रह्मचर्य की शिक्षा देना ही मुख्य कार्य है। अब तो आप योग को भी अपना चुके हैं। योग एक अत्यन्त श्रेष्ठ विद्या है इसमें तो कोई सन्देह नहीं है परन्तु अब आपको विचार करना है कि भौतिकता को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानने के कारण आपने योग को भी भौतिक स्तर पर उतार दिया है जबकि उसका सम्बन्ध अन्तःकरण के साथ है । पातंजल योगसूत्र योगशास्त्र का आधारभूत ग्रन्थ है। उसमें योग को चित्तवृत्तिनिरोधः कहा गया है। चित्त को समस्त अन्तःकरण के रूप में प्रयुक्त किया गया है। चित्तवृत्तियों का निरोध करने का प्रारम्भ मन को सज्जन बनाने, शान्त बनाने और एकाग्न बनाने से होता है। आपने उसे आसन, प्राणायाम, मुद्रा आदि में बद्ध कर दिया, उसे भौतिक स्वरूप दे दिया । योग भौतिक स्तर का विषय ही नहीं है। अतः पहली बात तो यह है कि मन की शिक्षा की व्यवस्था करें। विश्वस्तर पर मन की शिक्षा को प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है। यदि आप ठीक समझें तो संयुक्त राष्ट्र संघ में यह मुद्दा उठाया जा सकता है। विश्व को अच्छाई के बिना चल ही नहीं सकता यह तो आप समझ ही सकते हैं ।
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एक बार अच्छाई की शिक्षा को आधार बना लिया तो आगे का मार्ग सही हो जाता है। अब आपको मन की अनन्त शक्तियों के विकास की ओर ध्यान देना है। आपने मन की कामप्रवृत्ति को केन्द्रवर्ती मुद्दा बनाकर मन की सारी क्षमताओं का क्षरण होने दिया है। अब काम प्रवृत्ति के स्थान पर सज्जनता को केन्द्रवर्ती विषय बनाने से शक्तियों का क्षरण रुक जायेगा । अब योग, संगीत, खेल आदि का बहुत अधिक उपयोग होगा । मन की शक्तियों में वृद्धि होने से और उनको सज्जनता का आधार मिलने से आपको एक अलग ही प्रकार की अलग ही स्तर की दुनिया में प्रवेश मिलेगा जिसमें अद्भुत रोमांच होगा। आज भी आप रोमांच की निरन्तर खोज में रहते हैं । नित्य नई नई बातों की चाह आपको रहती है । योग, संगीत और मन की शान्त अवस्था में प्राप्त नई दुनिया के प्रवेश में आपको स्थायी रोमांच का अनुभव होगा जिसमें आपको स्पर्धा नहीं करनी पड़ेगी तनाव ग्रस्त नहीं होना पड़ेगा और पैसा खर्च नहीं करना पड़ेगा। शिक्षा आपको यह रास्ता दिखा सकती है।
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मन को शिक्षित करने के बाद बुद्धि के विकास का मार्ग भी प्रशस्त होता है । आप का विश्व बुद्धि का महत्त्व तो खूब समझता है । बुद्धि को ही तो आप विभिन्न प्रकार के अनुसन्धानों हेतु और उनके माध्यम से दुनिया को वश में करने के काम में लगाते हैं। परन्तु सज्जन मन के सहयोग से बुद्धि तेजस्वी, कुशाग्र और विशाल बनती है इस बात का अनुभव करना शेष है। साथ ही आपके अहंकार को दायित्वबोध सिखाना है। चित्त तो सर्व प्रकार के अनुभवों का - जिन्हें हम संस्कार कहते हैं - संग्रहस्थान है । उसे शुद्ध करना यह भी आपको सीखना चाहिये । इसके बाद ही आपकी सृजनशीलता का विकास होगा। तब आपको स्वतन्त्रता, अभय, प्रेम, सौन्दर्यबोध आदि संकल्पनाओं का सही अर्थ समझ में आयेगा। आज तो इन संज्ञाओं को अर्थ मन की कामप्रवृत्ति और भौतिकता के आकर्षण की सलाखों में कैद होकर विपरीत ही अर्थ धारण किये हुए है। इन्हें मुक्त करने पर आपका भी अनुभव विश्व अलग ही होगा।
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इस अन्तःकरण के स्तर को प्राप्त करने हेतु शिक्षा को आप प्रयुक्त कर सकें इसमें भारत आपकी हर सम्भव सहायता करने को सिद्ध है।
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==== शिक्षाप्रक्रियाओं को समझना ====
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शिक्षिाप्रक्रियाओं को समझना भी एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। आप जिस प्रकार शिक्षा संकल्पना को भौतिकता से मुक्त करेंगे उसी प्रकार उसे यान्त्रिकता से भी मुक्त करेंगे। यान्त्रिकता निर्जीव पदार्थ का गुण है । शिक्षा निर्जीव पदार्थ नहीं है, निदा प्रक्रिया है। अतः शिक्षा प्रक्रिया को जिन्दा बनाने का अर्थ आपको समझना है। आपको समझने लायक कुछ बातें इस प्रकार हैं...
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(१) आपको शिक्षक और विद्यार्थी के सम्बन्ध को व्यवस्थित करना होगा । अब तो आप शिक्षकों को 'हायर' करते हैं। वह एक व्यापारी की अथवा सेल्समैन की हैसियत से नॉलेज को पैसे के बदले में बेच रहा है और आप खरीद रहे हैं। आप इतने शक्तिशाली बन गये हैं कि सारी दुनिया आपसे यही सीख रही है। हमारे देश में भी बहुत बडा वर्ग ऐसा ही करना सीख गया है । परन्तु शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध ऐसा नहीं होना चाहिये । उसे अर्थनिरपेक्ष और आदर और स्नेह पर आधारित बनाना
    
==References==
 
==References==
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