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'''याग-''' इष्टदेव के पूजन को याग कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है- अन्तर्याग तथा बहिर्याग। अन्तर्याग में अपने देहमयपीठ पर पीठदेवता, पीठशक्तियों एवं आवरण देवताओं के साथ मानसोपचारों से इष्टदेव का पूजन किया जाता है।
 
'''याग-''' इष्टदेव के पूजन को याग कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है- अन्तर्याग तथा बहिर्याग। अन्तर्याग में अपने देहमयपीठ पर पीठदेवता, पीठशक्तियों एवं आवरण देवताओं के साथ मानसोपचारों से इष्टदेव का पूजन किया जाता है।
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'''जप-'''
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'''जप-''' मन्त्र की बार-बार आवृत्ति करने को जप कहते हैं। यह तीन प्रकार का होता है- मानसिक, उपांशु एवं वाचिक। वाचिक जप का फल यज्ञतुल्य होता है। इसकी अपेक्षा उपांशुजप सौ गुना तथा उसकी अपेक्षा मानसिकजप हजार गुना अधिक फलदायी होता है।
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'''ध्यान-'''
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'''ध्यान-''' मन्त्रसाधना में ध्यान भाव-प्रधान होता है। कारण यह है कि कारण एवं कार्यब्रह्म दोनों ही भावमय होते हैं परन्तु मन एवं वाणी से अगोचर कारणब्रह्म केवल भावगम्य होता है। जिस प्रकार मन्त्र शब्द से सम्बद्ध होता है, उसी प्रकार शब्द अर्थ से, अर्थ भाव से और भाव रूप से सम्बद्ध होता है। इसीलिये प्रत्येक मन्त्र का एक विशेष अर्थ, भाव एवं रूप होने के कारण उनका ध्यान भी विशिष्ट होता है।
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'''समाधि-'''
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'''समाधि-''' जिस प्रकार लययोग की समाधि महालय तथा हठयोग की समाधि महाबोध मानी जाती है, उसी प्रकार मन्त्रयोग की समाधि महाभाव कहते हैं। मन, मन्त्र एवं देवता इन तीनों की जबतक पृथक्-पृथक् सत्ता रहती है तबतक उसे ध्यान कहा जाता है। इन तीनों के एक भाव में मिलते ही समाधि प्रारम्भ होती है।
    
==मन्त्र के प्रकार==
 
==मन्त्र के प्रकार==
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