'''तर्पण-''' तर्पण करने से देवता शीघ्र सन्तुष्ट एवं प्रसन्न होते हैं। यह तर्पण सकाम एवं निष्काम भेद से दो प्रकार का होता है।
'''तर्पण-''' तर्पण करने से देवता शीघ्र सन्तुष्ट एवं प्रसन्न होते हैं। यह तर्पण सकाम एवं निष्काम भेद से दो प्रकार का होता है।
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'''हवन-'''
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'''हवन-''' जप के बिना मन्त्र सिद्ध नहीं होता तथा हवन के बिना वह फल नहीं देता। अतः अभीष्ट फल प्राप्ति हेतु साधक को श्रद्धापूर्वक हवन करना चाहिये। काम्य एवं निष्काम दोनों प्रकार के प्रयोगों में हवन किया जाता है। काम्य प्रयोंगों में तत्तद् द्रव्यों से तथा निष्काम प्रयोगों में यथा उपलब्ध द्रव्यों से हवन किया जाता है।
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'''बलि-'''
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'''बलि-''' देवता के लिये द्रव्य का समर्पण बलिदान कहलाता है। बलिदान करने से विघ्नों की शान्ति होती है तथा साधक निरापद होकर साध्य या सिद्धि को प्राप्त करता है। अतः अन्तर्याग एवं बहिर्यागदोनों में ही बलि की अनिवार्यता मानी गयी है। अन्तर्याग में आत्मबलि को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इसके करने से साधक का अहंकार नष्ट हो जाता है और फिर वह अपने उद्देश्य में सफल हो जाता है। बलिदानों में काम, क्रोध, आत्म आदि शत्रुओं की बलि देना कहा गया है।
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'''याग-'''
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'''याग-''' इष्टदेव के पूजन को याग कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है- अन्तर्याग तथा बहिर्याग। अन्तर्याग में अपने देहमयपीठ पर पीठदेवता, पीठशक्तियों एवं आवरण देवताओं के साथ मानसोपचारों से इष्टदेव का पूजन किया जाता है।