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| १७. बीमार नहीं होना और कमजोर नहीं रहना अत्यन्त आवश्यक है । बीमार होने से सरलता से चल रहे जीवन में व्यवधान निर्माण होते हैं और कमजोर रहने से अनेक काम हम कर ही नहीं सकते हैं । | | १७. बीमार नहीं होना और कमजोर नहीं रहना अत्यन्त आवश्यक है । बीमार होने से सरलता से चल रहे जीवन में व्यवधान निर्माण होते हैं और कमजोर रहने से अनेक काम हम कर ही नहीं सकते हैं । |
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− | १८. वयोवृद्ध, कर्तृत्ववृद्ध, अनुभववृद्ध और ज्ञानवृद्ध के प्रति विनयशील होना, उनकी सेवा करना और उनके कृपापात्र बनकर उनसे सीखना छोटी आयु से ही शुरू हो जाना चाहिये । यदि अपने मातापिता और शिक्षकों से यह नहीं सीखे हैं तो होश सम्हालते ही सीखना शुरू करना चाहिये । | + | १८. वयोवृद्ध, कर्तृत्ववृद्ध, अनुभववृद्ध और ज्ञानवृद्ध के प्रति विनयशील होना, उनकी सेवा करना और उनके कृपापात्र बनकर उनसे सीखना छोटी आयु से ही आरम्भ हो जाना चाहिये । यदि अपने मातापिता और शिक्षकों से यह नहीं सीखे हैं तो होश सम्हालते ही सीखना आरम्भ करना चाहिये । |
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| १९. हमारा कोई न कोई जीवनकार्य बनना चाहिये । अर्थार्जन हेतु किया जाने वाला व्यवसाय भी जीवनकार्य बन सकता है । जिस कार्य में स्वार्थ केन्द्र में नहीं है वही जीवनकार्य होता है । ऐसे जीवनकार्य के प्रति निष्ठा नहीं रही तो वह जीवनकार्य नहीं कहा जाता । | | १९. हमारा कोई न कोई जीवनकार्य बनना चाहिये । अर्थार्जन हेतु किया जाने वाला व्यवसाय भी जीवनकार्य बन सकता है । जिस कार्य में स्वार्थ केन्द्र में नहीं है वही जीवनकार्य होता है । ऐसे जीवनकार्य के प्रति निष्ठा नहीं रही तो वह जीवनकार्य नहीं कहा जाता । |
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| ३८. जीवन के किसी पडाव पर नौकरी करना अनिवार्य बन गया है तो एक और अनिवार्यता समाप्त करना और दूसरी और नौकरी को सेवा में परिवर्तित करना चाहिये । यद्यपि यह अत्यन्त कठिन काम है परन्तु दिशा तो यही है । यह आचरण व्यक्तिगत है परन्तु उसका प्रभाव सार्वत्रिक है । | | ३८. जीवन के किसी पडाव पर नौकरी करना अनिवार्य बन गया है तो एक और अनिवार्यता समाप्त करना और दूसरी और नौकरी को सेवा में परिवर्तित करना चाहिये । यद्यपि यह अत्यन्त कठिन काम है परन्तु दिशा तो यही है । यह आचरण व्यक्तिगत है परन्तु उसका प्रभाव सार्वत्रिक है । |
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− | ३९. अर्थार्जन हेतु नौकरी नहीं करने का संकल्प यदि शिक्षकों और मातापिता के द्वारा हुई शिक्षा से नहीं बना है तो जबसे हमारा स्वतन्त्र विचार शुरू हुआ है तबसे बनना चाहिये । अर्थार्जन प्रारम्भ होने तक उसकी तैयारी करने में हमारी बुद्धि और शक्ति का विनियोग होना चाहिये । | + | ३९. अर्थार्जन हेतु नौकरी नहीं करने का संकल्प यदि शिक्षकों और मातापिता के द्वारा हुई शिक्षा से नहीं बना है तो जबसे हमारा स्वतन्त्र विचार आरम्भ हुआ है तबसे बनना चाहिये । अर्थार्जन प्रारम्भ होने तक उसकी तैयारी करने में हमारी बुद्धि और शक्ति का विनियोग होना चाहिये । |
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| ४०. निष्ठा, सेवा, श्रद्धा और विश्वास के गुण अत्यन्त परिश्रमपूर्वक विकसित करना चाहिये । प्रथम इस गुर्णों का उदय हमारे अन्दर होगा और उसके बाद हम अपने में दूसरों की निष्ठा आदि जाग्रत कर सकेंगे । | | ४०. निष्ठा, सेवा, श्रद्धा और विश्वास के गुण अत्यन्त परिश्रमपूर्वक विकसित करना चाहिये । प्रथम इस गुर्णों का उदय हमारे अन्दर होगा और उसके बाद हम अपने में दूसरों की निष्ठा आदि जाग्रत कर सकेंगे । |
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| ७९. यह सब करना धर्म का पालन करना है । धर्म का पालन करने से ही धर्म की रक्षा होती है । शिक्षा धर्म सिखाती है । धार्मिक शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु व्यक्तिगत स्तर पर यह सब करणीय कार्य है । | | ७९. यह सब करना धर्म का पालन करना है । धर्म का पालन करने से ही धर्म की रक्षा होती है । शिक्षा धर्म सिखाती है । धार्मिक शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु व्यक्तिगत स्तर पर यह सब करणीय कार्य है । |
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− | ८०. कुशलता के कितने काम अधिक से अधिक मात्रा में हम कर सकते हैं इसका ध्यान रखना चाहिये । बहुत छोटे से कामों से शुरू कर बडे बडे और कठिन कामों | + | ८०. कुशलता के कितने काम अधिक से अधिक मात्रा में हम कर सकते हैं इसका ध्यान रखना चाहिये । बहुत छोटे से कामों से आरम्भ कर बडे बडे और कठिन कामों |
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| ८४. किसी भी रूप में, किसी भी भाषा में श्रीमदू भगवदूगीता न पढ़ी और न समझी हो यह भी किसी के लिये सम्भव नहीं होना चाहिये । | | ८४. किसी भी रूप में, किसी भी भाषा में श्रीमदू भगवदूगीता न पढ़ी और न समझी हो यह भी किसी के लिये सम्भव नहीं होना चाहिये । |
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− | ८५. रामायण, महाभारत, भागवत आदि की कथाओं का श्रवण करने का प्रारम्भ बचपन से शुरू हो जाना चाहिये । जैसे जैसे आयु बढती जाती है उनका विस्तार और उनका मर्म समझने की क्षमता भी विकसित होनी चाहिये । उनमें कथा के अलावा और शाख््र हैं उनका परिचय होना चाहिये और कथा सुनाने की वृत्ति और क्षमता भी प्राप्त होनी चाहिये । | + | ८५. रामायण, महाभारत, भागवत आदि की कथाओं का श्रवण करने का प्रारम्भ बचपन से आरम्भ हो जाना चाहिये । जैसे जैसे आयु बढती जाती है उनका विस्तार और उनका मर्म समझने की क्षमता भी विकसित होनी चाहिये । उनमें कथा के अलावा और शाख््र हैं उनका परिचय होना चाहिये और कथा सुनाने की वृत्ति और क्षमता भी प्राप्त होनी चाहिये । |
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| ८६. अपनी भाषा बोलना हर व्यक्ति को आना ही चाहिये । पढ़ना या लिखना न भी आता हो तो इतना नुकसान नहीं है परन्तु सुनना और बोलना आना ही चाहिये । सुनने का अर्थ कानों से सुनना नहीं है, सुनकर समझना है और बोलने का अर्थ सुनकर तोते जैसा बोलना नहीं है, समझकर किसी को समझाने हेतु बोलना है । | | ८६. अपनी भाषा बोलना हर व्यक्ति को आना ही चाहिये । पढ़ना या लिखना न भी आता हो तो इतना नुकसान नहीं है परन्तु सुनना और बोलना आना ही चाहिये । सुनने का अर्थ कानों से सुनना नहीं है, सुनकर समझना है और बोलने का अर्थ सुनकर तोते जैसा बोलना नहीं है, समझकर किसी को समझाने हेतु बोलना है । |