धार्मिक शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु करणीय कार्य व्यक्तिगत जीवन

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आस्वस्थ्य हों तो दिन में सोने की अनुमति है । स्वस्थ व्यक्ति के लिये भोजन के बाद वामकुक्षी अर्थात्‌ बायीं करवट लेटने की अनुमति है । वह आवश्यक है ।

१०. किसी भी कारण से स्वस्थ व्यक्ति को दिन में गद्दे के बिस्तर पर नहीं लेटना चाहिये, केवल बीमार व्यक्ति के लिये ही इस प्रकार सोने की अनुमति है । स्वस्थ व्यक्ति की क्षमताओं का हास होता है ।

११. दिन में सूर्योदय के बाद दो घडी बीतने पर, दोपहर में मध्याहन के एक घडी पूर्व और सायंकाल सूर्यास्त से एक घडी पूर्व भोजन करना चाहिये । यह स्वास्थ्य का सबसे महत्त्वपूर्ण नियम है । एक घडी २४ मिनट की होती है ।

१२. सूर्यॉस्त के तीन घण्टे बाद का भोजन तो नहीं ही करना चाहिये । इससे अपरिमित हानि होती है । भूखे रहने से हानि नहीं होती है ।

१३. समाजसेवा का कोई न कोई कार्य अपनी दिनचर्या का अविभाज्य अंग बने यह आवश्यक है । यह भी स्मरण में रहे कि सेवा उसीको कहते हैं जो किसी भी प्रकार के बदले की अपेक्षा किये बिना दूसरों के लिये की जाती है ।

१४. रात्रि में जल्दी सोना ब्रह्मुदूर्त में उठने जितना ही महत्त्वपूर्ण है । आज के वातावरण में यह कठिन काम है, परन्तु वैसा करने में अगणित लाभ हैं ।करेंगे तो उसका अनुभव भी होगा ।

१५. वातानुकूलित वाहनों में यात्रा नहीं करना क्योंकि वातानुकूलन से बाहर की गर्मी और भी बढती है, अन्यों के लिये वह अधिक त्रासदायक होती है, हम परपीडा के निमित्त बनते हैं । इसका एक संकेत तो गर्मी सहन करने का है परन्तु दूसरा पर्यायी व्यवस्था निर्माण करने का है । इस दूसरे संकेत को सम्भव बनाने लायक हमारी बुद्धि सृजनशील बनने की आवश्यकता है । यह सम्भव है ऐसा विश्वास उत्पन्न करना चाहिये ।

१६. अपनी अपनी रुचि और क्षमता के अनुसार व्रत, उपवास, जप. आदि. करना चाहिये । मन की शक्ति बढाने के लिये यह अत्यन्त उपयोगी है । मन को वश रखने के नित्य नये तरीके भी ढूँढते रहना चाहिये ।

१७. बीमार नहीं होना और कमजोर नहीं रहना अत्यन्त आवश्यक है । बीमार होने से सरलता से चल रहे जीवन में व्यवधान निर्माण होते हैं और कमजोर रहने से अनेक काम हम कर ही नहीं सकते हैं ।

१८. वयोवृद्ध, कर्तृत्ववृद्ध, अनुभववृद्ध और ज्ञानवृद्ध के प्रति विनयशील होना, उनकी सेवा करना और उनके कृपापात्र बनकर उनसे सीखना छोटी आयु से ही आरम्भ हो जाना चाहिये । यदि अपने मातापिता और शिक्षकों से यह नहीं सीखे हैं तो होश सम्हालते ही सीखना आरम्भ करना चाहिये ।

१९. हमारा कोई न कोई जीवनकार्य बनना चाहिये । अर्थार्जन हेतु किया जाने वाला व्यवसाय भी जीवनकार्य बन सकता है । जिस कार्य में स्वार्थ केन्द्र में नहीं है वही जीवनकार्य होता है । ऐसे जीवनकार्य के प्रति निष्ठा नहीं रही तो वह जीवनकार्य नहीं कहा जाता ।

२०. हमारे ध्यान में आयेगा कि धार्मिक समाजव्यवस्था में प्रत्येक व्यवसाय को जीवनकार्य का श्रेष्ठ दर्जा ही प्राप्त था । उसे परमात्मा की अर्चना ही माना जाता था । उससे मोक्ष प्राप्त होने की सम्भावना थी । इसलिये उसे छोटा या क्षुद्र नहीं माना जाता था और किसी की उसे छोडने की वृत्ति नहीं बनती थी । भारत की मनीषा की अध्यात्मनिष्ठ व्यवहारबुद्धि का यह विलक्षण उदाहरण है ।

२१. हमें खोया हुआ वैभव पुनः प्राप्त करना है। यह वैभव ज्ञान, संस्कार, व्यवहार, व्यवस्था और भौतिक समृद्धि का है । यह सब सामाजिक स्तर पर ही प्राप्त हो सकता है, सामाजिकता को अपनाने पर ही हो सकता है । समाज यह सब प्राप्त कर सके इस दृष्टि से व्यक्तिगत स्तर पर हमारा योगदान क्या हो सकता है इसका विचार करने पर जीवनकार्य निश्चित हो सकता

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है ।

२२. प्रत्यक्ष प्लास्टिक और सिन्थेटिक पदार्थों का प्रयोग नहीं करने पर भी हम ऐसी अनेक बातों में व्यक्तिगत स्तर पर भी सहभागी बनते हैं जो सामाजिकता को हानि पहुँचाती हैं । ऐसी बातों में सहभागी होने से बचना चाहिये ।

दृष्टिकोण

२३. हमारी प्रत्यक्ष उपभोग की वस्तुयें स्वदेशी ही हों यह आवश्यक है । प्रथम दृष्टि से तो ये स्वदेशी संस्थानों ट्वारा उत्पादित होनी चाहिये यह समझना सरल है परन्तु आगे चलकर स्वदेशी सिद्धान्तों से उत्पादित हों यह भी आवश्यक है ।

२४. व्यक्गित जीवन में सत्य, अहिंसा, संयम, सदाचार, शुचिता, पवित्रता आदि का होना शिक्षा का अनिवार्य अंग है। इनके व्यक्तिगत आचरण से ही समाज व्यवस्था संस्कृतिरक्षा और ज्ञानप्रतिष्ठा का भवन खडा रह सकता है ।

२५. दया, करुणा, अनुकम्पा, क्षमाशीलता, उदारता, सहायता ये दूसरों के साथ के व्यवहार के आधारभूत सूत्र हैं। व्यक्तिगत स्तर पर इनका आचरण अन्तःकरण की उदारता के स्रोत से आता है ।

२६. परीक्षा में नकल नहीं करना, करचोरी नहीं करना, असत्य भाषा नहीं करना, कपट नहीं करना व्यक्ति के लिये स्वाभाविक बनना चाहिये ।

२७. तप के बिना सिद्धि नहीं होती । शारीरिक, वाचिक, मानसिक आदि विविध प्रकार के तप भगवदूगीता में बताये गये हैं। इन्हें अपनाना विकास के लिये आवश्यक है ।

२८. शिष्ट व्यवहार सामाजिकता का खास लक्षण है । शिष्ट भाषा, शिष्ट वेश, शिष्ट भूषा, शिष्ट देहबोली, शिष्ट मनोरंजन ही शिक्षित मनुष्य में अपेक्षित है ।

२९. स्त्री और पुरुष दोनों ने अपने अपने शील की रक्षा करनी चाहिये । आजकल ऐसा माना जाता है कि शील स्त्रियों का ही होता है और शीलरक्षा खियों की ही समस्या है परन्तु यह ठीक नहीं है । पुरुषों का भी शील होता है और उसकी भी रक्षा करनी चाहिये ।

३०. पुरुष ने पुरुषत्व तथा स्त्रीने स्रीत्व की रक्षा करना भी जीवनप्रवाह की स्वस्थ निरन्तरता की दृष्टि से आवश्यक है । आज इस बात की घोर उपेक्षा हो रही है इसलिये इसकी ओर अधिक ध्यान देना चाहिये ।

३१. वेद, उपनिषद्‌, श्रीमदू भगवदूगीता, पुराण, रामायण, महाभारत आदि में से किसी का भी परिचय नहीं होना बहुत बडी कमी है । किसी भी आयु में इस कमी को पूरी करने की तत्परता होनी चाहिये ।

३२. दूसरों के गुणों की प्रशंसा करना भी आना चाहिये परन्तु यह प्रशंसा निहेंतुक हो यह आवश्यक है। किसी भी प्रकार के स्वार्थ से की गई प्रशंसा अनिष्ट है |

३३. दूसरों के अवगुणों को जानना आवश्यक है परन्तु उनको सर्वत्र बताते रहना अच्छा नहीं है । उनका लाभ उठाना तो अनिष्ट ही है ।

३४. केलव दुर्बलों की, दीनों की, अनाथों की ही रक्षा करनी होती है ऐसा नहीं है, सज्जनों और संन्तों की भी रक्षा करनी होती है । एक भी दयाभाव से और दूसरे की पूज्यभाव से इतना ही अन्तर है । इसके लिये तत्पर रहना हमारा कर्तव्य है ।

३५. गोस्वामी तुलसीदासजीने कहा है, 'परहित सरिस घरम नहीं भाई, परपीडा सम नहीं अधमाई' । दूसरों के प्रति हमारे व्यवहार का यह सारसूत्र है। इस सूत्र को चरितार्थ करने की दिशा में हमारे सारे प्रयास होना अपेक्षित है ।

३६. सब करते हैं तो हम क्यों न करें या हमारे अकेले के करने से क्‍या होनेवाला है ऐसा विचार छोड़ना चाहिये । कितना भी अल्प हो, अच्छाई में या भलाई में हमारा योगदान मूल्यवान है ।

३७. हम अकेले यह सब करेंगे तो समूह से अलग पड जायेंगे कोई हमें हँसेगा, मजाक उडायेगा या हमारा प्रभाव कम हो जायेगा ऐसा नहीं सोचना चाहिये । इसे अव्यवहारिकता नहीं कहना चाहिये । इसे मुद्दा

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बनाये बिना भी इसका दूढतापूर्वक पालन करना चाहिये ।

३८. जीवन के किसी पडाव पर नौकरी करना अनिवार्य बन गया है तो एक और अनिवार्यता समाप्त करना और दूसरी और नौकरी को सेवा में परिवर्तित करना चाहिये । यद्यपि यह अत्यन्त कठिन काम है परन्तु दिशा तो यही है । यह आचरण व्यक्तिगत है परन्तु उसका प्रभाव सार्वत्रिक है ।

३९. अर्थार्जन हेतु नौकरी नहीं करने का संकल्प यदि शिक्षकों और मातापिता के द्वारा हुई शिक्षा से नहीं बना है तो जबसे हमारा स्वतन्त्र विचार आरम्भ हुआ है तबसे बनना चाहिये । अर्थार्जन प्रारम्भ होने तक उसकी तैयारी करने में हमारी बुद्धि और शक्ति का विनियोग होना चाहिये ।

४०. निष्ठा, सेवा, श्रद्धा और विश्वास के गुण अत्यन्त परिश्रमपूर्वक विकसित करना चाहिये । प्रथम इस गुर्णों का उदय हमारे अन्दर होगा और उसके बाद हम अपने में दूसरों की निष्ठा आदि जाग्रत कर सकेंगे ।

४१. किसी व्यक्ति में, विचार में और तत्त्व में निष्ठा, श्रद्धा आदि गुणों का विकास होना चाहिये । ये गुण कितने अचल है इसकी परीक्षा भी करना चाहिये ।

४२. इसी प्रकार स्वमान, स्वगौरव, स्वाधीनता और स्वतन्त्रता का आग्रह भी विकसित होना चाहिये । यह भी ध्यान में रहना चाहिये कि यदि इनकी समझ सही नहीं रही तो ये विकृतियों में परिवर्तित हो जाते हैं और सामाजिकता का नाश करते हैं ।

४३. बुद्धिमानों के लिये धार्मिक शास्त्रग्रन्थों को प्रमाण मानने की निष्ठा विकसित होना आवश्यक है । शास्त्रों की समझ नहीं है तो शास्त्र जाननेवालों को आप अर्थात्‌ श्रद्धा के पात्र मानना चाहिये | शास्त्र जानने वालों का चयन विचारपूर्वक करना चाहिये ।

४४. ऐसा चयन यदि नहीं कर सकते तो सन्तों और सजऊ्जनों की शरण में जाना चाहिये । हमारी बुद्धि यदि निःस्वार्थ है तो शासख्त्रज्ञ, सन्त, सज्जन को पहचानना बहुत कठिन नहीं होता है ।

४५. जूते, कपड़े तथा अन्य वस्तुयें मनुष्य द्वारा उत्पादित और मनुष्य का स्वामित्व जिसमें बाधित न होता हो ऐसी व्यवस्था से उत्पादित हो ऐसा आग्रह होना चाहिये । उदाहरण के लिये दर्जी द्वारा सीले गये कपड़े पहनना चाहिये परन्तु दर्जी जिसमें नौकर है ऐसे कारखानें में बने कपड़े नहीं पहनने चाहिये । मोची द्वारा बने जूते पहनना चाहिये परन्तु मोची जहाँ यन्त्र चलाने वाला नौकर है ऐसे कारखाने में बने जूते नहीं पहनने चाहिये ।

४६. सम्पूर्ण समाज की व्यवस्था बनी रहे इस दृष्टि से भिन्न भिन्न व्यक्तियों को भिन्न भिन्न काम करने होते हैं । इन कामों के विभिन्न स्तर और प्रकार होते हैं । व्यक्ति को समझ लेना आवश्यक है कि स्वयं जो काम कर रहा है या करना चाहता है उसका समाजव्यवस्था में क्या स्थान है। उस स्थान के अनुसार अपनी मनोभूमिका बनाना उसका कर्तव्य है ।

४६. उच्च और नीच श्रेणी केवल व्यावहारिक व्यवस्थाओं के लिये होती है, सज्जनता, सद्गुण, चरित्र, ईश्वर साक्षात्कार, मोक्ष आदि के लिये इनका कोई श्रेष्ठत्व का निष्ठत्व नहीं होता ।

४७. सत्य, न्याय, ज्ञान और धर्म की रक्षा के लिये कुछ भी कर सकते हैं, कुछ भी छोड सकते हैं, कुछ भी सह सकते हैं ऐसी मानसिकता का विकास होना आवश्यक है ।

४८. महात्मा विदुर ने सभा में बैठने के नियम बताये हैं । वे सब व्यक्ति को सभा में बैठने लायक अर्थात्‌ सभ्य बनाते हैं। सभ्यता ही शिष्टता है। इसी प्रकार रसिकता अश्लीलता में परिणत न हो जाय इसकी सावधानी बरतनी चाहिये ।

४९. प्राप्त क्षमता और प्राप्त अधिकार का पूर्ण उपयोग करने की क्षमता और वृत्ति होनी चाहिये । प्रमाद आलस्य, उदासीनता आदि का त्याग करना चाहिये |

५०. गरीबी, असुन्दरता, क्षमताओं का अभाव आदि से लज्नित नहीं होना चाहिये परन्तु चरित्र के अभाव से अवश्य लज्नित होना चाहिये । अर्थात्‌ किस बात की

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वरीयता कितनी है यह ध्यान में आना चाहिये ।

५१. सादगी, सेवा और तप भी व्यक्तिगत जीवन का अंग बनना अपेक्षित है । उसके साथ ही सौन्दर्यबोध, रसिकता और उच्च स्तर का उपभोग भी अपेक्षित है । यह समझ भी बननी चाहिये कि ये सब एकदूसरे के विरोधी नहीं है ।

५१. विदेशी भाषा, विदेशी रहनसहन, विदेशी वस्तुओं के मोह में नहीं फैँसना चाहिये । विदेशों में हमारी पहचान एक सच्चे धार्मिक के नाते कैसी बने इसकी स्पष्ट कल्पना बननी चाहिये ।

५२. एक व्यक्ति के नाते स्वकेन्द्री बनकर दुनिया का विचार नहीं करना चाहिये । दुनिया मेरे लिये कितनी उपयोगी हो सकती है यह अधार्मिक विचार है, मैं दुनिया के लिये कितना उपयोगी बन सकता हूँ यह धार्मिक विचार है । अपने व्यक्तिगत जीवन की रचना इस सूत्र पर आधारित होनी चाहिये ।

५३. जात-पाँत का भेद नहीं रखना चाहिये । सभी जातियों का सम्मान करना चाहिये |

५४. अपना कोई न कोई सम्प्रदाय अवश्य होना चाहिये । उस सम्प्रदाय के आचारों का पालन शुद्दता, कौशल और निष्ठापूर्वक करना चाहिये । सम्प्रदाय के विषय में ज्ञान भी होना चाहिये ।

५५. परन्तु सम्प्रदायनिष्ठा धर्म के अविरोधी होनी चाहिये । सम्प्रदाय को धर्म नहीं अपितु धर्म का एक आयाम मानना चाहिये और उस व्यापक धर्म के प्रति प्रथम निष्ठा होनी चाहिये । धर्म के प्रकाश में सम्प्रदाय को देखना चाहिये ।

५६. अपने सम्प्रदाय के नैतिक आचरण के साथ ही अन्य सम्प्रदायों के प्रति समादर का भाव और आचरण होना चाहिये । भिन्नता का स्वीकार और आदर करना ही विकसित अन्तःकरण का लक्षण है ।

५७. अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा करनी चाहिये, साथ ही दूसरों की स्वतन्त्रता भी नहीं छीननी चाहिये । दुर्बलों की स्वतन्त्रता को रक्षा करने हेतु सहायता करनी चाहिये ।

५८. ब्रिटीशों ने हमारे, राष्ट्र, धर्म, ज्ञान, परम्परा, व्यवस्था आदि का कितना घोर अपमान और नाश किया है इसका भान होना चाहिये । इस अपमान को ही पुष्ठ करने वाली शिक्षा हम ग्रहण कर रहे हैं इसका भी भान होना चाहिये और उसका अनुसरण कर भारत को अभारत बनाने की प्रक्रिया में हम साधन बन रहे हैं इसका बोध भी होना चाहिये ।

५९. इस नाश से और अपमान से हुई हानि को भरपाई करने हेतु मैं क्या कर सकता हूँ, और जो प्रयास देश में चल रहे हैं उनमें मेरा क्या योगदान हो सकता है इसका भी निरन्तर विचार रहे यह आवश्यक है ।

६०. परिवार के हम अंग हैं । परिवार में कुछ भी करना सेवा नहीं है, वह अपना ही काम है और हम स्वाभाविक रूप से करते हैं । वह हमारा कर्तव्य है ।

६१. कर्तव्य के या सेवा के रूप में किये गये काम का कोई हिसाब नहीं रखा जाता । उसकी किसी भी प्रकार से, किसी भी रूप में कीमत चुकाई जानी चाहिये ऐसी अपेक्षा करना सेवाभाव को क्षीण करना है |

६२. बुद्धि, रूप, धन, कुशलता आदि का अहंकार करने और दूसरों के समक्ष उसे प्रकट करते रहने से हमारा सामर्थ्य और प्रभाव कम होते हैं । उससे सदा बचना चाहिये ।

६३. परिवार में और समाज में हमारी विशिष्ट भूमिका होती है । उस भूमिका के अनुरूप हमारा व्यवहार बने इस दृष्टि से अपने आपको बहुत कुछ सिखाना होता है । हम स्वयं अपने शिक्षक बनकर यह सब सिखायें यह अपेक्षित है ।

६४. हम वैसे ही होते हैं जैसा भगवान ने हमें बनाया है । हम वैसे भी होते हैं जैसा लोग हमे जानते हैं, और हम वैसे भी होते हैं जैसा हम अपने आपको मानते हैं। तीनों में अन्तर जितना कम होगा उतना ही हमारा विकास हुआ है ऐसा समझना चाहिये ।

६५. सत्य, न्याय, ज्ञान और धर्म का पक्ष लेना जितना

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आवश्यक है उतना ही असत्य, अज्ञान, अन्याय और अधर्म का विरोध करना भी आवश्यक है ।

६६. हम सीखते जाते हैं और अनुभव प्राप्त करते जाते हैं । तब हमें सिखाने की भी इच्छा होती है और अपने चरित्र तथा व्यवहार से अनेक लोगोंं को अनेक बातें सिखाते भी हैं । उनका कल्याण होता है । फिर एक समय ऐसा आता है जब सिखाने की इच्छा भी नहीं रहती और हम प्रयास भी नहीं करते । तो भी लोग हम से सीखते ही है ।

६७. नदी किसी को पोनी देने के लिये नहीं बहती तथापि लोगोंं को नदी से पानी मिलता ही है उसी प्रकार लोग हमसे सीखते ही है । ऐसी अवस्था को पहुँचना हमारा लक्ष्य है कि नहीं इसका विचार करना चाहिये । शिक्षा इसी के लिये होती है ।

६८. हमारा शरीर बहुत ही अच्छा आज्ञाकारी चाकर है, बहुत ही कुशल यन्त्र है । उसे हम मन का चाकर बनाते हैं या बुद्धि का यह समझ लेना चाहिये । यदि वह मन का चाकर है तो उसे उससे मुक्त कर बुद्धि के अधीन बनाना चाहिये ।

६९. मन केवल शरीर को ही नहीं तो बुद्धि को भी अपना चाकर बनाना चाहता है । हमें पता ही नहीं चलता और वह बुद्धि को अपना चाकर बना लेता है । यह अनर्थकारी है । सावधानीपूर्वक मन को ही बुद्धि का सहयोगी चाकर बनाना चाहिये । यही सामर्थ्य है ।

७०. शरीर को गुणवान चाकर मानकर उसका रक्षण और पोषण करना, मन को मित्र मानकर उसे सज्जन बनाना और बुद्धि को आत्मनिष्ठ बनाना अच्छी शिक्षा का स्वाभाविक परिणाम है ।

७१. जो दूसरों के अनुभवों से नहीं सीखता वह समझदार नहीं है परन्तु जो अपने स्वयं के अनुभव से भी नहीं सीखता वह मूर्ख है । जो बार बार के अपने स्वयं के अनुभवों से भी नहीं सीखता वह तो महामूर्ख है ।

७२. क्षणिक आवेग और क्षणिक आवेश से प्रेरित होकर कुछ भी नहीं करना चाहिये । उस अवस्था के निर्णय गलत होने की ही अधिक सम्भावना होती है ।

७३. किसी भी पदार्थ या पद की बिना योग्यता प्राप्त किये अपेक्षा करना ना समझी है । उसे प्राप्त करने का प्रयास करना अनीति है । प्राप्त कर लेना और उसका उपभोग करना अन्याय है । उससे बचना चाहिये |

७४. बलवान से दबना नहीं और दुर्बल को दबाना नहीं यह नीति है। धनी की खुशामद करना नहीं और निर्धन का तिरस्कार करना नहीं यह नीति है। सदाचारी का सम्मान करना और दुराचारी की अवमानना करना भी नीति ही है ।

७५. 'मुझसे जो अपेक्षित था वह मैंने किया और अच्छी तरह से किया'' ऐसी इतिकर्तव्यता का अनुभव भाग्यवान को ही होता है । ऐसे भाग्यवान बनने की अपेक्षा करनी चाहिये ।

७६. 'मैं जिसके योग्य था वह सब मुझे प्राप्त हुआ है' ऐसा सन्तोष भी भाग्यवान को ही मिलता है । ऐसे सन्तोष की कामना करनी चाहिये ।

७७. भौतिक पदार्थों का परिग्रह नहीं करना चाहिये यह तो समझ में आनेवाली बात है परन्तु मानसिक अपरिग्रह भी उतना ही लाभकारी है इसकी प्रतीति भी भाग्यवान को ही होती है । ऐसे भाग्य के भी अधिकारी बनना चाहिये ।

७८. स्वस्थ शरीर, सज्जन मन और विवेकशील बुद्धि व्यक्ति की सच्ची सम्पत्ति है। ऐसे सम्पन्न व्यक्ति समाज की सच्ची सम्पत्ति है । ऐसा सम्पन्न समाज ही भारत को अपेक्षित है । इस अपेक्षा को पूर्ण करना व्यक्ति का दायित्व है, उसकी शिक्षा का सार है ।

७९. यह सब करना धर्म का पालन करना है । धर्म का पालन करने से ही धर्म की रक्षा होती है । शिक्षा धर्म सिखाती है । धार्मिक शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु व्यक्तिगत स्तर पर यह सब करणीय कार्य है ।

८०. कुशलता के कितने काम अधिक से अधिक मात्रा में हम कर सकते हैं इसका ध्यान रखना चाहिये । बहुत छोटे से कामों से आरम्भ कर बडे बडे और कठिन कामों

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को करने की कुशलता प्राप्त करनी चाहिये । ध्यान में रहे कि न केवल परिवार की अपितु देश की समृद्धि का आधार भी इस बात पर है ।

८१. अनेक प्रकार से सोचसमझकर खरीदी करने का कौशल विकसित करना चाहिये । खरीदी के बाद उपभोग केवल हम करते होंगे परन्तु परिणाम अनेक लोगोंं पर होता है यह समझ भी विकसित होना आवश्यक है ।

८२. बुद्धि मानों में ही ऐसी समझ का विकास होता है इसलिये अपनी बुद्धि का विकास हो इसलिये नित्य प्रयासरत रहना चाहिये ।

८३. स्तोत्र, मंत्र, भोजन आदि न आते हों यह कल्पना भी नहीं बननी चाहिये । संस्कृत के ही स्तोत्र आदि आते हों तो अच्छा ही है परन्तु अनिवार्य नहीं है । अपनी भाषा के आना अनिवार्य है । इनका पाठ करना भी आवश्यक है ।

८४. किसी भी रूप में, किसी भी भाषा में श्रीमदू भगवदूगीता न पढ़ी और न समझी हो यह भी किसी के लिये सम्भव नहीं होना चाहिये ।

८५. रामायण, महाभारत, भागवत आदि की कथाओं का श्रवण करने का प्रारम्भ बचपन से आरम्भ हो जाना चाहिये । जैसे जैसे आयु बढती जाती है उनका विस्तार और उनका मर्म समझने की क्षमता भी विकसित होनी चाहिये । उनमें कथा के अलावा और शाख््र हैं उनका परिचय होना चाहिये और कथा सुनाने की वृत्ति और क्षमता भी प्राप्त होनी चाहिये ।

८६. अपनी भाषा बोलना हर व्यक्ति को आना ही चाहिये । पढ़ना या लिखना न भी आता हो तो इतना नुकसान नहीं है परन्तु सुनना और बोलना आना ही चाहिये । सुनने का अर्थ कानों से सुनना नहीं है, सुनकर समझना है और बोलने का अर्थ सुनकर तोते जैसा बोलना नहीं है, समझकर किसी को समझाने हेतु बोलना है ।

८७. ऐसा सुनने और बोलने के लिये प्रमाण भाषा ही अनिवार्य नहीं है, अपने अपने स्तर की भाषा भी चल सकती है । भाषा जीवन से सम्बन्धित होनी चाहिये, पुस्तकों से नहीं ।

८८. जो भौतिक पदार्थों के उत्पादन से सम्बन्धित व्यक्ति है उसकी भाषा शास्त्रीय दृष्टि से प्रमाणभाषा नहीं होने पर भी जीवननिष्ठ हो सकती है परन्तु जो जीवन के सांस्कृतिक पक्ष से जुडा है, शास्त्रों से जुडा है उसकी भाषा प्रमाण भाषा ही होनी चाहिये । उसे शुद्ध, मधुर, लालित्यपूर्ण, सरल, प्रौद, भाषा का वाचिक और लिखित रूप में प्रयोग करना आना चाहिये ।

८९. उदाहरण के लिये किसान, कुम्हार, व्यापारी, सैनिक आदि को प्रमाण भाषा नहीं आती तो कोई हानि नहीं परन्तु शिक्षक, वैद्य, अमात्य, शासक आदि को प्रमाण भाषा आनी ही चाहिये ।

९०. शुश्रुषा और परिचर्या करना, भोजन बनाना और करवाना, स्वच्छता के विभिन्न काम करना, व्यवहार कुशल होना सबको आना चाहिये । ऐसे अनेक काम हैं जिनमें ख्त्री-पुरुष, गरीब-अमीर, शिक्षित- अशिक्षित, राजा-रंक होने से कोई फरक नहीं होता । जीवन में वे करने की बाध्यता हो या न हो तो भी वे काम करने आना आवश्यक है ।

९१. इन श्रेणियों में उच्चता और कनिष्ठता होती है । उच्च श्रेणी के व्यक्ति को नीचे की श्रेणियों के काम समझते हैं परन्तु नीचली श्रेणियों की व्यक्तियों को उपर की श्रेणी नहीं समझती है । उच्च श्रेणी के भी सभी व्यक्तियों को नीचे जे सभी काम उतने कुशलतापूर्वक न आते हों यह सम्भव है । परन्तु उच्च श्रेणी में कुछ तो ऐसे होने ही चाहिये जिन्हें नीचे तक के सारे काम आते ही हों । स्वयं ऐसा व्यक्ति है कि नहीं यह भी समझ लेने की आवश्यकता है ।

९२. उदाहरण के लिये समाज में शास्त्रों की रचना करने वाले, शास््र जानने वाले, शास्त्र सिखाने वाले, शास्त्रों के अनुसार व्यवहार करने वाले, ऐसे विभिन्न श्रेणियों के लोग होते हैं । हर व्यक्ति को अपनी श्रेणी कौनसी है यह समझना चाहिये, अपनी श्रेणी के उत्तम और

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निष्ठावान घटक बनना चाहिये और दूसरी श्रेणी के कार्य में अनधिकार दखल नहीं देनी चाहिये । यह व्यक्तिगत व्यवहार का आवश्यक अंग है ।

९३. घर में, समाज में, व्यवसाय में, किसी भी आयोजन में हमें प्राप्त भूमिका के कर्तव्यों और अधिकारों को ठीक से समझकर उसके लायक बनना हर व्यक्ति से अपेक्षित है ।

९४. संस्कृत नहीं जानना धार्मिक जीवनविचार के ज्ञान की दृष्टि से बडी कमी है । किसी भी आयु में उसका ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिये ।

९५. हमारी पहचान विचारशील, बुद्धिमान, कर्तव्य परायण, सेवाभावी व्यक्ति के रूप में है या उसके विपरीत इसका पता हमें चलना चाहिये ।

९६. भगवान शंकराचार्य ने कहा है कि तत्त्वज्ञ वही होता है जो विद्वानों की सभा में शास्त्रारथ कर सकता है, साथ ही जंगल में जाकर लकडी काटकर भी ला सकता है और बाजार में उचित दाम पर बेचकर अपना निर्वाह भी कुशलतापूर्वक कर सकता है ।

९७. आयु के अनुसार जो व्यवहार उचित होता है वही हमें शोभा देता है । वैसा व्यवहार हम करते हैं कि नहीं यह देखना चाहिये ।

९९. वाणी, व्यवहार और अंगविन्यास से दूसरे को शीघ्र ही पहचान लेना और उसीके अनुरूप उसके साथ व्यवहार करना चतुराई है । चतुर होना भी सर्वथा हेय नहीं है ।

१००, हम चाहें तो दूसरा तुरन्त हमारा सही रूप जान सके इतना सरल होना और हम चाहें तो चतुर व्यक्ति भी हमें जान न सके इतना कुशल होना भी चतुराई है ।

१०१, हमारी सामाजिक संस्थायें क्या कर रही हैं और उनका क्या परिणाम हो रहा है इसका आकलन होना चाहिये । ऐसा आकलन केवल पण्डित को होता है ऐसा नहीं है, जिसे जीवन का अनुभव है ओर जो निःस्वार्थ है उसे सही आकलन होता है। इस आकलन के आधार पर उनके साथ कैसा व्यवहार करना यह निश्चित करना चाहिये ।

१०२. विश्व में हमारे देश की क्या स्थिति है और क्या भूमिका है इसका आकलन होना भी आवश्यक है । उसके साथ हमारे व्यवहार का उचित समायोजन होना चाहिये ।

१०३, साधु और सन्त असली भी होते हैं और नकली भी । असली सन्त समाज का उपकार करते हैं, नकली अपकार । असली और नकली की परख होना प्रथम आवश्यकता है और नकली से लोगोंं को सावधान करना और बचाना दूसरी आवश्यकता है ।

१०४. हमारे देश में आज कौन से संकट हैं इसकी जानकारी हमें होनी चाहिये । इन संकटों के कारण और परिणाम क्या हैं इसका भी आकलन होना चाहिये । ऐसा आकलन होने के लिये केवल बुद्धि की नहीं तो हृदय की आवश्यकता होती है ।

१०५, हमारा इस जन्म का जीवन कैसा है इसको पहचान कर हमारा पूर्वजन्म कैसा होगा इसका और हमारा अगला जन्म कैसा होगा इसका भी अनुमान लगाना चाहिये, क्योंकि हमारा इस जन्म का जीवन पूर्वजन्म का परिणाम है और अगला जन्म इस जन्म का परिणाम होगा ।

१०६, एक धार्मिक सदा मोक्ष चाहता है । मोक्ष का अर्थ है मुक्ति । हम किन किन बातों से मुक्ति चाहते हैं इसकी ही प्रथम तो स्पष्टता कर लेनी चाहिये । वह चाह कितनी स्थिर है यह भी देखना चाहिये । यह चाह कितनी उचित है इसका भी विवेक होना चाहिये । इसके बाद मुक्ति की चाह पूर्ण कैसे होगी उसका विचार होगा और उसे प्राप्त करने हेतु प्रयास भी होगा ।

कौशलविकास

१०७. समझदार लोग कहते हैं कि समाज में सक्रिय दुर्जनों के कारण जितने संकट पैदा होते हैं उसकी अपेक्षा निष्क्रिय सज्जनों से अधिक होते हैं । इसलिये सज्जन होने के साथ साथ सक्रिय भी होना चाहिये और सामर्थ्यवान भी ।