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३८. इस दृष्टि से हमें मानसिक और बौद्धिक स्तर पर उपाय करने होंगे । अपने आपको बदलने का पुरुषार्थ करना होगा । ज्ञानसाधना करनी होगी । आगामी अध्यायों में इसी विषय की चर्चा होगी । | ३८. इस दृष्टि से हमें मानसिक और बौद्धिक स्तर पर उपाय करने होंगे । अपने आपको बदलने का पुरुषार्थ करना होगा । ज्ञानसाधना करनी होगी । आगामी अध्यायों में इसी विषय की चर्चा होगी । | ||
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भारत में ब्रिटिशों के उद्देश्य
१. ब्रिटीश ईस्ट इण्डिया कम्पनी नामक व्यापारी संस्थान के रूप में सन १६०० अर्थात् सत्रहवीं शताब्दी के प्रारूभ में भारत में आये । १९४७ तक रहे । भारत में व्यापार करना और विपुल धन कमाना उनका उद्देश्य था । येन केन प्रकारेण धन कमाना उनकी रीत थी । उसे ही वे नीति भी कहते थे । उनकी धन कमाने की नीतिरीति को लूट ही कहा जा सकता है ऐसे उनके कारनामे थे ।
२. दूसरा उद्देश्य था राज्यसत्ता प्राप्त करने का । इसे लूट का आनुषंगिक उद्देश्य भी कह सकते हैं क्योंकि सत्ता प्राप्त करने से लुट निर्विघ्न हो जाती है । वे शासक थे भारत में जहाँ जहाँ ब्रिटिश राज हुआ उसभाग को ब्रिटीश इण्डिया कहा जाता था । सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से उन्होंने राज्यों में दखल देना शुरू किया और १८५७ तक भारत के बडे हिस्से पर कब्जा तो कर लिया परन्तु १८५७ के स्वातन्त्रय संग्राम में उन्होंने जो मार खाई उसके परिणाम स्वरूप १८५८ से भारत सीधे रानी विक्टोरिया के अर्थात् ब्रिटीश शासन के अन्तर्गत चला गया । १८५८ से १९४७ तक रानी का राज था ।
३. भारत का इसाईकरण करना उनका तीसरा उद्देश्य था । इस कार्य में उन्हें ईस्ट इण्डिया कम्पनी की और ब्रिटीश राज्य की प्रगट और प्रच्छन्न दोनों रूप से सहायता मिलती थी ।
४. भारत का अंग्रेजीकरण करना उनका चौथा उद्देश्य था । अंग्रेजीकरण को ही हम यूरोपीकरण कहते हैं । आज उसे युरोअमेरिकीकरण कहा जाता है। कभी कभी उसे केवल अमेरिकीकरण कहा जाता है। उसीके लिये और व्यापक संज्ञा पश्चिमीकरण है । उन्होंने भारत को पूर्व कहा इसलिये हम उसे पश्चिम कहते हैं ।
५. ये चारों उद्देश्य एकदूसरे से जुडे हुए हैं परन्तु उनका केन्द्रवर्ती उद्देश्य धन की लूट ही है । लूट का मार्ग प्रशस्त करने हेतु शेष तीनों का अवलम्बन किया गया है। इन चारों के भारत पर जो परिणाम हुए उनमें सबसे विनाशक और दूरगामी परिणाम यूरोपीकरण का है । आज भी हम उससे मुक्त नहीं हुए हैं ।
६. भारत की समृद्धि की लूट तो हुई परन्तु उसके बाद भी भारत की समृद्धि का सर्वनाश नहीं हुआ क्योंकि उसके स्रोत बने रहे । राज्यसत्ता ग्रहण की परन्तु १९४७ में उन्हें सत्ता छोडनी पडी और जाना पडा । उन्होंने इसाईकरण करना शुरू किया, अनेक लोगों को इसाई बनाया, आज भी इसाईकरण का काम अनेक मिशनों के माध्यम से चल रहा है परन्तु सारा भारत इसाई नहीं हुआ है यह तो हम देख ही रहे हैं ।
७. परन्तु यूरोपीकरण का परिणाम बहुत विनाशकारी हुआ । सम्पूर्ण भारत उस दुष्चक्र के आज भी फँसा हुआ हैं और यातना भुगत रहा है । इस उद्देश्य में सौ प्रतिशत तो नहीं परन्तु लगभग सत्तर प्रतिशत तो सफलता उन्हें मिली है। उनकी सफलता से भी अधिक चिन्ता की बात हमारी रोगग्रस्तता की है । यूरोपीकरण के रोग से मुक्त होना १९४७ की राजकीय मुक्ति से भी कठिन चुनौती है ।
८. भारत के पश्चिमीकरण की प्रक्रिया का सबसे प्रभावी साधन था शिक्षा । शिक्षा से भी पूर्व अन्य अनेक साधन थे । वे भी अमानुषी और भयंकर ही थे परन्तु शिक्षा का पश्चिमीकरण सबसे प्रभावी सिद्ध हुआ ।
९. भारत के उद्योग धन्धों का नाश करना उनका एक माध्यम था । तकनीकी के क्षेत्र में, व्यापार के क्षेत्र में, कारीगरी के क्षेत्र में, भौतिक पदार्थों के उत्पादन के क्षेत्र में, कृषि के क्षेत्र में भारत इतना विकसित था और उसके परिणाम स्वरूप इतना समृद्ध भी था कि विश्व उसका लोहा मानता था । ब्रिटीशों ने इन उद्योग धन्धों का नाश किया जिससे भारत की भूमि तो समृद्धि की खान रही परन्तु समृद्धि को निर्माण करने वाले साधन ही नष्ट हो गये और प्रजा गरीब होने लगी, भूखों मरने लगी । व्यापार सारा कम्पनी के हाथ में चला गया ।
१०. अत्याचार और शोषण उनका दूसरा माध्यम था । मार, भूख और शोषण से त्रस्त प्रजा शारीरिक और मानसिक रूप से टूट गई, हताश हो गई, भयभीत हो गई, गुलाम बन गई, दास बन गई । चाकरी करने के लिये विवश हो गई । शासक केवल अत्याचारी नहीं था, विदेशी भी था । भारत के प्रदीर्घ इतिहास में अनेक अत्याचारी शासक हुए थे । परन्तु वे सब धार्मिक थे । ब्रिटीश अत्याचारी होने के साथ साथ विदेशी भी थे इसलिये उनकी रीतिनीति की यहाँ की प्रजा को कल्पना भी नहीं होती थी । वे उन्हें समझ ही नहीं पाते थे ।
११. अंग्रेजों ने जब राज्य छीन लिये तब वह केवल राज्यसत्ता का हस्तान्तरण नहीं था, व्यवस्थाओं में परिवर्तन का प्रारम्भ भी था । राज्य चलाने की पद्धति भी ब्रिटीश होने लगी ।. प्रशासन व्यवस्था, करव्यवस्था, न्यायव्यवस्था, दण्डव्यवस्था बदल गई । उन्होंने न केवल ब्रिटन में थीं वैसी व्यवस्थायें बनाई, अपने लिये अनूकूल थीं वैसी बनाई । भारत में राजा और प्रजा के मध्य जिस प्रकार के सम्बन्धों की कल्पना की गई है इसका अंशमात्र उसमें नहीं था ।
१२. इन व्यवस्थाओं का परिणाम समाजजीवन पर होना ही था । सामाजिक रीतिरिवाज, स्थानिक स्तर पर न्याय और दण्ड की व्यवस्था, आपसी अर्थव्यवहार और लेनदेन की पद्धति, विवाह तथा कुट्म्ब व्यवस्था, रहनसहन आदि में भी परिवर्तन हुआ क्योंकि अब वे अपनी दृष्टि से इन व्यवस्थाओं को देखते थे, जहाँ भी उनका सम्बन्ध आता था वहाँ परिवर्तन करवाते थे और अन्य बातों की आलोचना, उपहास और तिरस्कार करते थे ।
१३. इन सबका सिरमौर था शिक्षाव्यवस्था का नाश और परिवर्तन । शेष सारे परिवर्तनों को स्थायीरूप देने वाला यह परिवर्तन था । प्रथम उन्होंने भारत की शिक्षा और शिक्षाव्यवस्था को नष्ट किया और फिर अपनी शिक्षा और अपनी व्यवस्था प्रस्थापित की । यदि शिक्षा और शिक्षाव्यवस्था में परिवर्तन नहीं किया होता तो हम शेष व्यवस्थाओं को तो शीघ्र ही पुर्पस्थापित कर देते। परन्तु शिक्षा और शिक्षाव्यवस्था के पश्चिमीकरण से वे सारी व्यवस्थायें दृढमूल हो गईं । सम्पूर्ण देश में बाह्य रूप में और हमारे मन और बुद्धि में आन्तरिक रूप में उसने aS जमा लीं । उससे आज भी हम मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। यदि वह केवल बाह्म रूप में ही स्थापित हुई होती तो उन्हें बदलना इतना कठिन नहीं होता वह मन और बुद्धि में बैठ गई है इसलिये कठिन लग रहा हैं |
१४. शिक्षा और शिक्षाव्यवस्था ऐसे दो शब्दों से क्या तात्पर्य है ? शिक्षा से तात्पर्य है वह विषयवस्तु, वह ज्ञान जो विषयों, पाठ्यक्रमों, पुस्तकों के माध्यम से दिया जाता है। दृष्टि, दृष्टिकोण, विचारधारा, सिद्धान्त, जानकारी आदि का समावेश इसमें होता है । शिक्षाव्यवस्था से तात्पर्य है भौतिक सुविधायें, साधनसामग्री, पाठनपद्धति, अर्थव्यवस्था, संचालन, नियमावली आदि । शिक्षा में जब परिवर्तन हुआ तो ये सारी बातें बदल गई । यह आमूलचूल परिवर्तन था । इसके परिणाम स्वरूप शेष सारी बातें दृढमूल हो गईं ।
१५. आज स्थिति यह है कि ब्रिटीश राज्य समाप्त हुआ, राज्य के अधीन होती हैं ऐसी सारी बातें हमारे आधीन हो गईं । परन्तु शिक्षा और शिक्षाव्यवस्था में परिवर्तन नहीं हुआ । इस कारण से शेष सारी व्यवस्थायें तान्त्रिक रूप से धार्मिक होने पर भी मान्त्रिक रूप से अर्थात् वैचारिक रूप से धार्मिक नहीं बनीं ।
बुद्धि विश्रम : कारण और परिणाम
१६. हमारे मन और बुद्धि पर ब्रिटीश शिक्षा का जो परिणाम हुआ है उसका एक भाग हमने अभी अभी देखा । अब बुद्धि कैसे दूषित हुई है इसे भी समझें ।
१७. बुद्धि का कार्य है विवेक । घटना, स्थिति, पदार्थ को उसके यथार्थ रूप में जानना ही विवेक है । परन्तु बुद्धि का अधिष्ठान है चिति और आलम्बन है जीवन दृष्टि । चिति देश का स्वभाव है और जीवनदृष्टि उसका बौद्धिक रूप । आज देश के स्वभाव ओर जीवनदृष्टि में विच्छेदू हो गया है इसलिये हम यथार्थबोध प्राप्त नहीं करते हैं ।
१८. हमारी बुद्धि का विश्रम होने का प्रथम और मूलगत आयाम है विजातीय जीवनदृष्टि का आरोपण । पश्चिम भी भारत के चार्वाक की तरह देहात्मवादी है । देह को आधार बनाकर सारी बातें देखता है, समझता है और उसके अनुसार व्यवहार करता है। देह पंचमहाभूतात्मक है इसलिये उसे भौतिकवादी कहा जाता है । भौतिक को जड कहा जाता है इसलिये वह जडवादी है । जड या भौतिक या देह के प्रकाश में जीवन और जगत को देखना और उसके साथ व्यवहार करना पश्चिमी दृष्टि है । भारत ठीक उससे विपरीत व्यवहार करता है । भारत आत्मतत्त्व के प्रकाश में जीवन और जगत को देखता है, समझता है, ग्रहण करता है और उसके अनुसार व्यवहार करता है । इसलिये वह आत्मवादी है । भारत में आज जडवादी दृष्टि का ही बुद्धि के क्षेत्र में साम्राज्य है यह ब्रिटिश शिक्षा का परिणाम है ।
१९. दृष्टि बदलने के कारण सारी बातें बदल जाती हैं । हम सही को गलत और गलत को सही, उचित को अनुचित और अनुचित को उचित कहने लगते हैं, अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा कहने लगते हैं । हमारी दृष्टि बदल जाने से स्थिति तो नहीं बदल जाती इसलिये सभी बातों की ऐसी घालमेल हो जाती है कि हमें सूझना भी बन्द हो जाता है। हम प्रवाहपतित की तरह व्यवहार करने लगते हैं ।
२०. शेष सारे बदल इस दृष्टिपरिवर्तन के परिणाम स्वरूप हुए हैं यह कहना अनुचित नहीं होगा । हम अब व्यक्ति केन्द्रित बन गये हैं । हम सम्पूर्ण सृष्टि को एकात्म मानने वाले हैं इसलिये व्यक्ति को मूल आत्मरूप मानकर सम्पूर्ण सृष्टि के परिप्रेक्ष्य में देखते थे । परन्तु अब व्यक्ति को केन्द्र में रखकर सम्पूर्ण सृष्टि को देखने वाले बन गये हैं । इसलिये सृष्टि व्यक्ति के लिये है, न कि व्यक्ति सृष्टि के लिये ऐसा हमारा व्यवहार सिद्धान्त बना है । मैं सृष्टि के लिये कैसे उपयोगी बनूँ ऐसा विचार करने के स्थान पर मैं मेरे सुख के लिये सृष्टि का कैसा और कितना उपयोग कर सकता हूँ ऐसा विचार करते हैं ।
२१. इसमें से शोषण, प्रदूषण और संकटों की परम्परा निर्माण हो जाती है । पंचमहाभूत हमारे दास हैं, हमारे उपभोग के लिये ही बने हैं ऐसी समझ बन जाने के कारण हम भूमि, जल आदि का शोषण करते हैं जिससे प्रदूषण का संकट निर्माण होता है । स्वास्थ्य की समस्या पैदा होती है। प्रकृति का संन्तुलन बिगडने के कारण प्राकृतिक आपदार्ये आती हैं । क्तुचक्र प्रभावित होता है, तापमान अप्राकृतिक पद्धति से बढता घटता है । प्राणियों का नाश होता है । रोग फले हैं । समृद्धि का क्षरण होने लगता है । हमारी मूल धारणा ही इसके लिये कारणभूत होती है परन्तु हमें यह समझ में नहीं आता, केवल संकट ही दिखाई देते हैं ।
२२. आज हमारी बुद्धि को संकटों के निवारण के मूल तक न जा कर समस्याओं को अधिक विकट बनाने वाले उपाय ही सूझते हैं क्योंकि बुद्धि भ्रमित हो गई है । उदाहरण के लिये एक व्यक्ति को कोकाकोला पीकर एसीडीटी होती है, वह एसीडीटी को शान्त करने के लिये जो दवाई खाता है उससे उसे चक्कर आती है और सरदर्द होता है, सरदर्द के लिये जो दवाई खाता है उससे सरदर्द तो दब जाता है परन्तु रक्तचाप बढता है। यह सब वह करता है, परेशान होता है, शिकायतें करता है परन्तु कोकाकोला पीना बन्द नहीं करता । यदि वह एक ही बात करता है तो शेष सारी बातें अपने आप निर्मूल हो जाती हैं । उसी प्रकार अपनी दृष्टि ठीक कर ले तो सारी समस्यायें निर्मूल हो जायेंगी ऐसा इस बुद्धि में नहीं उतरता । व्यक्ति - केन्द्रितता को हम नहीं छोड़ते ।
२३. व्यक्ति केन्द्रिता को हमने अच्छे अच्छे शब्दों में निरूपित कर हमारे संकट को और बढ़ा दिया है । हम व्यक्ति स्वातन्य की बात करते हैं। व्यक्ति के अधिकार की बात करते हैं । व्यक्ति के विकास की बात करते हैं । व्यक्ति अपने सुख की चिन्ता करे उसे स्वाभाविक मानते है । व्यक्ति अपने सुख के लिये दूसरों का उपयोग करे उसे उचित मानते हैं । भारत की जीवनदृष्टि कहती है कि दूसरों का विचार पहले करो, अपना बाद में । परन्तु हम उसे नहीं मानते हैं । उलटे यह थो अस्वाभाविक है और अव्यावहारिक है ऐसा ही कहते हैं ।
२४. व्यक्ति का सुख, व्यक्ति का विकास, व्यक्ति की स्वतन्त्रता सबके सुख, सबका विकास, सबकी स्वतन्त्रता के बिना सम्भव ही नहीं है ऐसा तार्किक रूप में बहुत समझाने पर भी हमारी बुद्धि नहीं समझती केवल तार्किक रूप में ही नहीं तो युगो का अनुभव भी इसी तथ्य को सिद्ध करता है यह कहने पर भी इसे समझ में नहीं आता । इसका कारण यह है कि व्यक्ति स्वार्थी होता है और स्व के परे जाकर न इतिहास में देख सकता है न जगत के विस्तार में ।
२५. और आज तो बुद्धि में स्थापित नहीं होने का कारण यह भी है कि अपने ही देश के अतीत की उसे जानकारी ही नहीं है, न तत्त्वज्ञान की जानकारी न शास्त्रों की, न व्यवस्थाओं की न व्यवहारों की । मन के स्तर पर हीनताबोध से ग्रस्त होने के कारण पश्चिम जो कहता है वही ठीक है ऐसा निश्चय हो जाता है इसलिये किसी भी विषय का विश्लेषण करने की, परीक्षण करने की, बौद्धिक रूप में परखने की आवश्यकता भी नहीं लगती । वे कहते हैं इसलिये हमारे शाख््र कनिष्ठ हैं, प्राचीन है इसीलिये त्याज्य है, परम्परा का कोई मूल्य नहीं है पारम्परिक है इसीलिये त्याज्य है ऐसा अतार्किक, अशास्त्रीय तर्क प्रतिष्ठित हो जाता है । यही तो बुद्धिविश्रम है ।
२६. व्यक्ति केन्द्रिता के कारण परिवार भावना का महत्त्व नष्ट हुआ । परस्परावलम्बिता के स्थान पर दूसरों की आश्रितता का भाव स्थापित हो गया । आश्रित न होना पडे इस दृष्टि से स्वतन्त्रता का भाव आ गया स्वतन्त्रता मन का अधिष्ठान पाकर स्वैराचार बन गई और हम भटक गये । दिशा गलत होने के कारण आगे क्या क्या होगा इसकी कल्पना करना कठिन हो गया । परिवार विघटन आगे समाज के विघटन तक पहुँच गया । आज उस अनवस्था की स्थिति में हम पहुँच गये हैं ।
२७. व्यक्ति केन्ट्रितता के साथ ही दूसरा है भौतिकवाद । भौतिकवाद के कारण हम देहात्मवादी भी हैं । इसलिये समृद्धि की कल्पना भौतिक है । समृद्धि का मूल प्रेरक तत्त्व काम है । हम कामपूर्ति को मुख्य और केन्द्रवर्ती पुरुषार्थ मानने लगे । इससे उपभोग प्रधान जीवनशैली स्वाभाविक बन गई । अधिकाधिक उपभोग में सुख की अधिकता मानने लगे, भले ही प्रत्यक्ष कष्टों का अनुभव कर रहे हों । कामपूर्ति हेतु सामग्री जुटाना अर्थपुरुषार्थ का पर्याय बन गया । अधिकतम सामग्री जुटाने को सफलता मानने लगे और यह सफलता विकास का पर्याय बन गई । इसे हमने विकास का सिद्धान्त बना लिया । बुद्धि के भटकने का यह स्पष्ट लक्षण है ।
२८. भौतिकता को आधार मानने से दिशा उल्टी हो गई । अब हमें यह समझ में नहीं आता कि आत्मतत्त्व ने सृष्टिरप बनकर जब अपने आपका विस्तार शुरू किया तब उसका अन्तिम छोर पंचमहाभूतात्मक स्थूल जगत था । आधार और मूल आत्मतत्त्व है, महाभूत नहीं । केवल बुद्धि से ही समझें तो भी आत्मतत्त्व को अधिष्ठान मानने से जीवन और जगत के सभी व्यवहारों का खुलासा होता है, भौतिकता को मानने से नहीं होता यह समझना सरल है । परन्तु हमारी बुद्धि आत्मतत्त्व तक पहुँचती ही नहीं है । आत्मतत्व के प्रकाश में सबकुछ देखने से सबकुछ सरल हो जाता है यही स्वीकार्य नहीं होता । “आत्मा' या “आत्मतत्त्व' का स्वीकार किया भी तो उसे बुद्धि से असम्बन्धित ऐसा कुछ मानने लगते है ।
संकल्पनात्मक शब्द
२९. हमने धार्मिक जीवनविचार के अत्यन्त मूल्यवान , श्रेष्ठ अर्थवाले, श्रेष्ठ सन्दर्भवाले संकल्पनात्मक शब्दों को उल्टे ही अर्थों के साथ जोडकर न केवल विपरीत अर्थवाले बना दिये हैं अपितु उलझा भी दिये हैं। कभी बुद्धि के क्षेत्रगं उलझा दिये कभी बुद्धि और व्यवहार दोनों में । उदाहरण के लिये धर्म, आत्मा, संस्कृति, राष्ट्र, आधुनिकता, विज्ञान, वैज्ञानिकता, वैश्विकता, श्रद्धा, प्रेम, आनन्द, चित्त आदि अनेक संकल्पनायें उलझ गई हैं । लोकतन्त्र, समाज, वर्ण, जाति आश्रम, परिवार शिक्षा आदि को भी मूल स्वरूप में ही विपरीत अर्थ प्रदान कर दिये हैं । धार्मिक सन्दूर्भों में जो जिनके अर्थ हैं ही नहीं ऐसे अर्थ उन्हें प्राप्त हो गये हैं ।
३०. ऐसी एक संकल्पना स्वतन्त्रता और स्वायत्तता की है । धार्मिक जीवनविचार में प्रत्येक पदार्थ का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है और उसका प्रयोजन है इसका स्वीकार किया गया है। हम पदार्थों, प्राणियों, वनस्पति और मनुष्यों की स्वतन्त्रता का स्वीकार, सम्मान और रक्षण करने वाले हैं इसे न समझकर हम स्वतन्त्रता की पश्चिमी संकल्पना को स्वीकार कर बैठे हैं जो प्रत्येक व्यक्ति की स्वतन्त्रता को एकदूसरे के विरोधी मानती है और मनुष्य के अलावा और किसी की स्वतन्त्रता को तो मान्यता ही नहीं देती । श्रेष्ठता कनिष्ठ बनकर गर्व का अनुभव करती है यह कितनी विचित्र बात है ।
३१. व्यक्ति केन्द्रित विकास की संकल्पना से स्पर्धा निर्माण होती है । स्पर्धा को विकास का कारक तत्त्व मानना उल्टी बुद्धि का द्योतक है। स्वस्थ स्पर्धा यह शब्द्प्रयोग ही “आकाशकुसुम' जैसा असम्भव प्रयोग है । आकाश में जिस प्रकार फूल नहीं ऊगता उसी प्रकार स्पर्धा कभी स्वस्थ नहीं हो सकती । स्पर्धा से संघर्ष, संघर्ष से हिंसा और हिंसा से विनाश यही गति है। परन्तु हमने स्पर्धा को व्यवहार का dad तत्त्व बना दिया, स्पर्धा के साथ पुरस्कार को जोड दिया, श्रेष्ठत्व का निदर्शक बना दिया |
३२. विनाश को विकास, जहर को अमृत, कामनापूर्ति को अन्तिम उद्देश्य मानने वाली बुद्धि कभी भी वास्तविक रूप में कल्याण नहीं कर सकती । सारी परस्पर विरोधी बातें एक साथ करना अत्यन्त मूढ़ बुद्धि का लक्षण है । वातानुकूलित कक्ष में बैठकर पर्यावरण की चिन्ता करना, तामसी आहार का सेवन करते हुए सात्विकता और संस्कार की बात करना, नागपुर से दिल्ली जाने बाली गाडी में बैठकर कन्याकुमारी जाने की अपेक्षा करना, रासायनिक खाद से ऊगा अनाज खाकर स्वास्थ्य की अपेक्षा करना और निरन्तर मोबाईल और इण्टरनैट का प्रयोग कर बुद्धि की तेजस्विता की आशा करना अनिवार्य रूप से असम्भव है ऐसा हमारी बुद्धि में नहीं आता है ।
३३. पश्चिमी शिक्षा से छिन्नविच्छिन्न हुई बुद्धि ने हमारे सभी सामाजिक सांस्कृतिक शासख्रों के अर्थों को अनर्थों में और सिद्धान्तों को विध्वंसकों में बदल दिया है । हमारा अर्थशास्त्र धर्म के अविरोधी होने के स्थान पर कामानुसारी और शिक्षा, राज्य, धर्म आदि सभी व्यवस्थाओं का नियन्त्रक बन गया है । हमारा मनोविज्ञान आत्मानुसारी होने के स्थान पर देहानुसारी हो गया है । हमारा समाजशास्त्र करार सिद्धान्त के आधार वाला हो गया है । शिक्षा धर्म सिखाने की व्यवस्था होने के स्थान पर बाजार में विकने वाले ज्ञान की व्यवस्था हो गई हैं । जिस प्रकार किसी अनिष्ट पदार्थ का स्पर्श होते ही सारा शरीरतन्त्र, आस्तव्यस्त हो जाता है उसी प्रकार पश्चिमी बुद्धि के प्रभाव में हमारी बुद्धि क्षतविक्षत होकर व्यवस्थाओं को अनवस्था में बदल रही है ।
३४. विकास की वृत्तीय संकल्पना के स्थान पर एकरेखीय संकल्पना का. स्वीकार करना, पुनर्जन्म और जन्मजन्मान्तर की संकल्पना को नहीं मानना, स्वर्ग और नर्क, पाप और पुण्य आदि को नहीं मानना विपरीत बुद्धि के लक्षण है। साथ ही आश्चर्य की बात यह है कि हमारा निश्चय ही नहीं हो रहा है कि हम वास्तव में इन्हें मानते हैं कि नहीं । हमारी कृति दर्शाती है कि हम इन्हें मानते हैं परन्तु हमारी वाणी कहती है कि हम नहीं मानते । हमारी बुद्धि भी कभी मानती है और कभी नहीं मानती है। यही तो बुद्धिविश्रम का लक्षण है ।
३५, ऐसी बुद्धि को भगवद्गीता ने तामसी बुद्धि कहा है । सभी अर्थों को उल्टे से ही समझना तामसी बुद्धि का लक्षण है ।
३६, बुद्धि भ्रमित हो जाने के कारण हमें यह तर्क भी नहीं सूझता कि जो देश विश्व के सभी देशों में सर्वाधिक आयुष्य वाला है, जिस देश में ज्ञान की श्रेष्ठता उपासना हुई है, जिस देश का मूलमन्त्र जगत का कल्याण कर के अपनी मुक्ति प्राप्त करना है, जो सबका रक्षण और पोषण करने के परिणाम स्वरूप समृद्ध हुआ है वह देश पश्चिमी अल्पबुद्धि को सिखाने वाला तो हो सकता है, उससे सीखने वाला और निर्देशित होने वाला कैसे हो सकता है ।
३७. तात्पर्य यह है कि आज हमारे सामने पश्चिम समस्या बन कर नहीं खडा है, हमारा हीनताबोध और बुद्धिविश्रम ही मूल समस्या है । हमें अपने आप के बारे में सावध होने की आवश्यकता है । अपने आपको जानने की आवश्यकता है । अपने आपको ठीक करने की आवश्यकता है । राजकीय गुलामी से भी यह मानसिक और बौद्धिक गुलामी महाविनाशक है |
३८. इस दृष्टि से हमें मानसिक और बौद्धिक स्तर पर उपाय करने होंगे । अपने आपको बदलने का पुरुषार्थ करना होगा । ज्ञानसाधना करनी होगी । आगामी अध्यायों में इसी विषय की चर्चा होगी ।