Line 1: |
Line 1: |
− | प्रस्तावना | + | == प्रस्तावना == |
− | भारत में समाज चिंतन की प्रदीर्घ परम्परा है| चिरंतन या शाश्वत तत्त्वों के आधारपर युगानुकूल और देशानुकूल जीवन का विचार यह हर काल में हम करते आए हैं| लगभग १४००-१५०० वर्ष की हमारे समाज के अस्तित्व की लड़ाई के कारण यह चिंतन खंडित हो गया था| वर्तमान के सन्दर्भ में पुन: ऐसे समाज चिंतन की आवश्यकता निर्माण हुई हैं| | + | भारत में समाज चिंतन की प्रदीर्घ परम्परा है। चिरंतन या शाश्वत तत्त्वों के आधारपर युगानुकूल और देशानुकूल जीवन का विचार यह हर काल में हम करते आए हैं। लगभग १४००-१५०० वर्ष की हमारे समाज के अस्तित्व की लड़ाई के कारण यह चिंतन खंडित हो गया था। वर्तमान के सन्दर्भ में पुन: ऐसे समाज चिंतन की आवश्यकता निर्माण हुई हैं। |
− | १. वर्तमान समाजशास्त्रीय लेखन सामाजिक समस्याओं को हल करने में असमर्थ है| | + | १. वर्तमान समाजशास्त्रीय लेखन सामाजिक समस्याओं को हल करने में असमर्थ है। |
− | २. वर्तमान की प्रस्तुतियों में ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: का विचार नहीं है| | + | २. वर्तमान की प्रस्तुतियों में ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: का विचार नहीं है। |
− | ३. वर्तमान में उपलब्ध सभी स्मृतियाँ कालबाह्य हो गयी हैं| | + | ३. वर्तमान में उपलब्ध सभी स्मृतियाँ कालबाह्य हो गयी हैं। |
− | १ समाज की प्रधान आवश्यकताएँ
| + | |
− | १.१ आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों की याने आवश्यकताओं की पूर्ति आवश्यक है| धर्मविरोधी इच्छाओं की नहीं| | + | == समाज की प्रधान आवश्यकताएँ == |
− | १.२ सुखी बनने के लिये निम्न चार बातें आवश्यक हैं| इन बातों का समष्टिगत होना भी आवश्यक है। - सुसाध्य आजीविका - स्वतन्त्रता - शांति - पौरुष | + | १.१ आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों की याने आवश्यकताओं की पूर्ति आवश्यक है। धर्मविरोधी इच्छाओं की नहीं। |
| + | १.२ सुखी बनने के लिये निम्न चार बातें आवश्यक हैं। इन बातों का समष्टिगत होना भी आवश्यक है। - सुसाध्य आजीविका - स्वतन्त्रता - शांति - पौरुष |
| १.३ सामाजिक स्तरपर लक्ष्य का व्यावहारिक स्वरूप ‘स्वतन्त्रता’ है। स्वतन्त्रता का अर्थ है अपनी इच्छा के अनुसार व्यवहार करने की सामर्थ्य। धर्म ही स्वैराचार को सीमामें बाँधकर उसे स्वतन्त्रता बना देता है। | | १.३ सामाजिक स्तरपर लक्ष्य का व्यावहारिक स्वरूप ‘स्वतन्त्रता’ है। स्वतन्त्रता का अर्थ है अपनी इच्छा के अनुसार व्यवहार करने की सामर्थ्य। धर्म ही स्वैराचार को सीमामें बाँधकर उसे स्वतन्त्रता बना देता है। |
− | १.४ स्वाभाविक, शासनिक और आर्थिक ऐसी तीन प्रकारकी स्वतन्त्रताओं को अक्षुण्ण रखने के लिए समाज अपने संगठन और व्यवस्थाएँ निर्माण करता है| | + | १.४ स्वाभाविक, शासनिक और आर्थिक ऐसी तीन प्रकारकी स्वतन्त्रताओं को अक्षुण्ण रखने के लिए समाज अपने संगठन और व्यवस्थाएँ निर्माण करता है। |
− | २. समाजमें आवश्यक कार्य | + | २. |
| + | |
| + | == समाजमें आवश्यक कार्य == |
| २.१ समाज की मानव से अपेक्षायँ निम्न होतीं हैं। | | २.१ समाज की मानव से अपेक्षायँ निम्न होतीं हैं। |
| - जीवनदृष्टि के अनुरूप व्यवहार/धर्माचरण | | - जीवनदृष्टि के अनुरूप व्यवहार/धर्माचरण |
Line 15: |
Line 18: |
| - सामाजिक संगठन और व्यवस्थाओं के अनुपालन, परिष्कार और नवनिर्माण में सार्थक योगदान | | - सामाजिक संगठन और व्यवस्थाओं के अनुपालन, परिष्कार और नवनिर्माण में सार्थक योगदान |
| २.२ अन्न प्राप्ति, सामान्य जीने की शिक्षा, औषधोपचार – ये बातें क्रय विक्रय की नहीं होनीं चाहिये। | | २.२ अन्न प्राप्ति, सामान्य जीने की शिक्षा, औषधोपचार – ये बातें क्रय विक्रय की नहीं होनीं चाहिये। |
− | २.३ धर्म व्यवस्था : वर्तमान के सन्दर्भ में धर्म को व्याख्यायित करने की व्यवस्था| चराचर के हित में सदैव चिंतन करनेवाले धर्म के जानकारों के लोकसंग्रह, त्याग, तपस्या के कारण लोग और शासन भी इनका अनुगामी बनता है| ऐसे लोगों का निर्माण यह धर्मकी प्रतिनिधि शिक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी है| | + | २.३ धर्म व्यवस्था : वर्तमान के सन्दर्भ में धर्म को व्याख्यायित करने की व्यवस्था। चराचर के हित में सदैव चिंतन करनेवाले धर्म के जानकारों के लोकसंग्रह, त्याग, तपस्या के कारण लोग और शासन भी इनका अनुगामी बनता है। ऐसे लोगों का निर्माण यह धर्मकी प्रतिनिधि शिक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी है। |
− | २.४ शिक्षा : जन्मजन्मान्तर की और आजीवन शिक्षा/संस्कार की व्यवस्था होनी चाहिए| धर्माचरण की याने पुरूषार्थ चतुष्ट्य की शिक्षा ही वास्तविक शिक्षा है| वर्णाश्रम धर्म इसका व्यावहारिक स्वरूप है| | + | २.४ शिक्षा : जन्मजन्मान्तर की और आजीवन शिक्षा/संस्कार की व्यवस्था होनी चाहिए। धर्माचरण की याने पुरूषार्थ चतुष्ट्य की शिक्षा ही वास्तविक शिक्षा है। वर्णाश्रम धर्म इसका व्यावहारिक स्वरूप है। |
− | ब्राह्मण स्वभाव के लोगों की जिम्मेदारी स्वाभाविक, शासनिक और आर्थिक ऐसी तीनों स्वतन्त्रताओं की सार्वत्रिकता की आश्वस्ति बनाए रखना है| क्षत्रिय स्वभाव के लोगों की जिम्मेदारी शासनिक और आर्थिक स्वतन्त्रता की आश्वस्ति बनाए रखने की है| वैश्य स्वभाव के लोगों की जिम्मेदारी समाज की आर्थिक स्वतन्त्रता बनाए रखने की है| यह सब वर्णाश्रम धर्म के अंतर्गत आता है| | + | ब्राह्मण स्वभाव के लोगों की जिम्मेदारी स्वाभाविक, शासनिक और आर्थिक ऐसी तीनों स्वतन्त्रताओं की सार्वत्रिकता की आश्वस्ति बनाए रखना है। क्षत्रिय स्वभाव के लोगों की जिम्मेदारी शासनिक और आर्थिक स्वतन्त्रता की आश्वस्ति बनाए रखने की है। वैश्य स्वभाव के लोगों की जिम्मेदारी समाज की आर्थिक स्वतन्त्रता बनाए रखने की है। यह सब वर्णाश्रम धर्म के अंतर्गत आता है। |
− | विविध सामाजिक संगठनों के लिए और व्यवस्थाओं के लिए इन की अच्छी समझ और इनको चलाने की कुशलता रखनेवाले लोग निर्माण करना भी शिक्षा की ही जिम्मेदारी है| संक्षेप में कहें तो आगे दिए हुए ढाँचे के अनुसार जीवन के प्रतिमान के लिए आवश्यक लोगों का निर्माण करना यह शिक्षा का काम है| | + | विविध सामाजिक संगठनों के लिए और व्यवस्थाओं के लिए इन की अच्छी समझ और इनको चलाने की कुशलता रखनेवाले लोग निर्माण करना भी शिक्षा की ही जिम्मेदारी है। संक्षेप में कहें तो आगे दिए हुए ढाँचे के अनुसार जीवन के प्रतिमान के लिए आवश्यक लोगों का निर्माण करना यह शिक्षा का काम है। |
| धर्म व्यवस्था | | धर्म व्यवस्था |
| व्यापक शिक्षा व्यवस्था | | व्यापक शिक्षा व्यवस्था |
Line 28: |
Line 31: |
| स्वभाव-संस्कार स्वभाव-शिक्षा विधाएँ | | स्वभाव-संस्कार स्वभाव-शिक्षा विधाएँ |
| कर्मशिक्षा/धर्मशिक्षा पोषण | | कर्मशिक्षा/धर्मशिक्षा पोषण |
− | २.५ शासन : सुरक्षा, धर्म का अनुपालन करवाना एवं विशेष आपात परिस्थितियों में धर्म के मार्गदर्शन में पहल करना आवश्यक| न्याय व्यवस्था शासन का ही एक अंग है| | + | २.५ शासन : सुरक्षा, धर्म का अनुपालन करवाना एवं विशेष आपात परिस्थितियों में धर्म के मार्गदर्शन में पहल करना आवश्यक। न्याय व्यवस्था शासन का ही एक अंग है। |
− | २.६ समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति की दृष्टि से समाज में व्यावसायिक कौशलों का विकास करना होता है। प्रत्येक व्यक्ति के जन्मजात ‘स्व’भाव और जन्मजात व्यावसायिक कौशल का निर्माण परमात्मा सन्तुलन के साथ करता है| इन की शुद्धि, वृद्धि और समायोजन का सन्तुलन बनाए रखने के लिए इन्हें आनुवांशिक बनाने से अधिक सरल उपाय अबतक नहीं मिला है| | + | २.६ समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति की दृष्टि से समाज में व्यावसायिक कौशलों का विकास करना होता है। प्रत्येक व्यक्ति के जन्मजात ‘स्व’भाव और जन्मजात व्यावसायिक कौशल का निर्माण परमात्मा सन्तुलन के साथ करता है। इन की शुद्धि, वृद्धि और समायोजन का सन्तुलन बनाए रखने के लिए इन्हें आनुवांशिक बनाने से अधिक सरल उपाय अबतक नहीं मिला है। |
− | ३. समाजधारणा के लिए मार्गदर्शक बातें | + | ३. |
| + | |
| + | == समाजधारणा के लिए मार्गदर्शक बातें == |
| ३.१ तत्त्वज्ञान और जीवन दृष्टी | | ३.१ तत्त्वज्ञान और जीवन दृष्टी |
− | तत्त्व : चर-अचर सृष्टि यह परमात्मा की ही भिन्न भिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं| इसलिए चराचर में एकात्मता व्याप्त है| परमात्मा यह सारी सृष्टी का मूल “तत्त्व” है| इस तत्त्व का ज्ञान ही तत्त्वज्ञान है| | + | तत्त्व : चर-अचर सृष्टि यह परमात्मा की ही भिन्न भिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। इसलिए चराचर में एकात्मता व्याप्त है। परमात्मा यह सारी सृष्टी का मूल “तत्त्व” है। इस तत्त्व का ज्ञान ही तत्त्वज्ञान है। |
− | जीवन दृष्टी : इस तत्त्वज्ञानसे भारतीय जीवन दृष्टी के सूत्र उभरकर आते हैं, वे निम्न हैं| | + | जीवन दृष्टी : इस तत्त्वज्ञानसे भारतीय जीवन दृष्टी के सूत्र उभरकर आते हैं, वे निम्न हैं। |
− | ३.१.१ चर और अचर सृष्टी एक ही आत्मतत्त्व से बनी होने के कारण सभी अस्तित्व एकात्म हैं| एकात्मता याने आत्मीयता की व्यावहारिक अभिव्यक्ति कुटुम्ब भावना है| | + | ३.१.१ चर और अचर सृष्टी एक ही आत्मतत्त्व से बनी होने के कारण सभी अस्तित्व एकात्म हैं। एकात्मता याने आत्मीयता की व्यावहारिक अभिव्यक्ति कुटुम्ब भावना है। |
− | ३.१.२ जीवन स्थल के सम्बन्ध में अखंड और काल के सन्दर्भ में एक है| सृष्टि के चर-अचर ऐसे सभी अस्तित्व परस्पर सम्बद्ध हैं| तथा जीवन पहले जन्म से लेकर अंतिम जन्मतक एक होता है| | + | ३.१.२ जीवन स्थल के सम्बन्ध में अखंड और काल के सन्दर्भ में एक है। सृष्टि के चर-अचर ऐसे सभी अस्तित्व परस्पर सम्बद्ध हैं। तथा जीवन पहले जन्म से लेकर अंतिम जन्मतक एक होता है। |
− | 3.1.३ कर्म ही जीवन का नियमन करते हैं| कर्म सिद्धांत इस नियमन का विवरण करता है| | + | 3.1.३ कर्म ही जीवन का नियमन करते हैं। कर्म सिद्धांत इस नियमन का विवरण करता है। |
− | ३.१.४ सृष्टि की व्यवस्थाओं में चक्रियता है| उत्पत्ति-स्थिति-लय का चक्र चलता रहता है| | + | ३.१.४ सृष्टि की व्यवस्थाओं में चक्रियता है। उत्पत्ति-स्थिति-लय का चक्र चलता रहता है। |
− | ३.१.५ सुख की खोज ही मनुष्य की मूलभूत व प्रमुख प्रेरणा है| परमसुख की प्राप्ति ही मुक्ति, परमात्मपद प्राप्ति, परमात्मा से सात्म्य, पूर्णत्व, व्यक्ति का समग्र विकास आदि नामों से जाना जाता है| | + | ३.१.५ सुख की खोज ही मनुष्य की मूलभूत व प्रमुख प्रेरणा है। परमसुख की प्राप्ति ही मुक्ति, परमात्मपद प्राप्ति, परमात्मा से सात्म्य, पूर्णत्व, व्यक्ति का समग्र विकास आदि नामों से जाना जाता है। |
− | 3.2 जीवनशैली के महत्वपूर्ण सूत्र इन सूत्रों की विशेषता यह है की किसी भी एक सूत्र को पूरी तरह जान लेने से तथा व्यवहार में लाने से अन्य सभी सूत्र अपने आप व्यवहार में आ जाते हैं| यह प्रत्येक सूत्र अपने आप में जीवन के लक्ष्य की याने मोक्ष की प्राप्ति के लिये पर्याप्त है| | + | 3.2 जीवनशैली के महत्वपूर्ण सूत्र इन सूत्रों की विशेषता यह है की किसी भी एक सूत्र को पूरी तरह जान लेने से तथा व्यवहार में लाने से अन्य सभी सूत्र अपने आप व्यवहार में आ जाते हैं। यह प्रत्येक सूत्र अपने आप में जीवन के लक्ष्य की याने मोक्ष की प्राप्ति के लिये पर्याप्त है। |
| - सर्वे भवन्तु सुखिन: - नर करनी करे तो नारायण बन जाए | | - सर्वे भवन्तु सुखिन: - नर करनी करे तो नारायण बन जाए |
| - आत्मवत् सर्वभूतेषू - वसुधैव कुटुम्बकम् | | - आत्मवत् सर्वभूतेषू - वसुधैव कुटुम्बकम् |
| - कृण्वन्तो विश्वमार्यम् - पुरूषार्थ चतुष्ट्य | | - कृण्वन्तो विश्वमार्यम् - पुरूषार्थ चतुष्ट्य |
− | - ऋण सिद्धांत| कर्मसिद्धांत इसी को विषद करता है| - अष्टांग योग ... आदि| | + | - ऋण सिद्धांत। कर्मसिद्धांत इसी को विषद करता है। - अष्टांग योग ... आदि। |
− | ४ सामाजिक मान्यताएँ :
| + | |
− | उपर्युक्त जीवनदृष्टी के कारण निम्न मान्यताएँ निर्माण होतीं है| | + | == सामाजिक मान्यताएँ == |
− | ४.1 वेद, उपनिषद, भगवद्गीता, रामायण, महाभारत जैसे भारतीय और सर्वे भवन्तु सुखिन: के अनुकूल अन्य भारतीय और अभारतीय विचार भी स्वीकारार्ह हैं| | + | : |
− | ४.२ आज के प्रश्नों के उत्तर अपनी जीवनदृष्टि तथा आधुनिक ज्ञानविज्ञान की सभी शाखाओं को आत्मसात कर उनका समाजहित के लिए सदुपयोग करने से प्राप्त होंगे| वर्तमान साईंस और तन्त्रज्ञान सहित जीवन के सभी अंगों और उपांगों का अंगी अध्यात्म विज्ञान है| | + | उपर्युक्त जीवनदृष्टी के कारण निम्न मान्यताएँ निर्माण होतीं है। |
− | ४.3 समाज के भिन्न भिन्न प्रश्नोंपर विचार करते समय संपूर्ण मानववंश की तथा बलवान राष्ट्रों की मति, गति, व्याप्ति और अवांछित दबाव डालने की शक्ति का विचार भी करना पडेगा| | + | ४.1 वेद, उपनिषद, भगवद्गीता, रामायण, महाभारत जैसे भारतीय और सर्वे भवन्तु सुखिन: के अनुकूल अन्य भारतीय और अभारतीय विचार भी स्वीकारार्ह हैं। |
− | ४.४ समाज स्वयंभू है| अन्य सृष्टी की तरह परमात्मा निर्मित है| परमात्माने मानव का निर्माण समाज के और यज्ञ के साथ किया है(गीता ३.१०)| प्रकृति को यज्ञ के माध्यम से पुष्ट बनाने से हम भी सुखी होंगे(गीता ३-११)| | + | ४.२ आज के प्रश्नों के उत्तर अपनी जीवनदृष्टि तथा आधुनिक ज्ञानविज्ञान की सभी शाखाओं को आत्मसात कर उनका समाजहित के लिए सदुपयोग करने से प्राप्त होंगे। वर्तमान साईंस और तन्त्रज्ञान सहित जीवन के सभी अंगों और उपांगों का अंगी अध्यात्म विज्ञान है। |
− | ४.५ सुखी सहजीवन के लिए नि:श्रेयसकी ओर ले जानेवाले अभ्युदय का विचार आवश्यक है| इसीलिये धर्म की व्याख्या की गयी है – यतोऽभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि स धर्म:| अध्यात्म विज्ञान के दो हिस्से हैं| ज्ञान और विज्ञान| परा और अपरा (गीता अध्याय १५-१६,१७)| परा नि:श्रेयस के लिए और अपरा अभुदय के लिए है| | + | ४.3 समाज के भिन्न भिन्न प्रश्नोंपर विचार करते समय संपूर्ण मानववंश की तथा बलवान राष्ट्रों की मति, गति, व्याप्ति और अवांछित दबाव डालने की शक्ति का विचार भी करना पडेगा। |
− | ४.६ धर्म की व्याख्या ‘धारयति इति धर्म:’ है| धर्म का अर्थ समाजधारणा के लिए उपयुक्त वैश्विक नियमों का समूह होता है। विशेष स्थल, काल और परिस्थिति के लिए आपद्धर्म होता है| | + | ४.४ समाज स्वयंभू है। अन्य सृष्टी की तरह परमात्मा निर्मित है। परमात्माने मानव का निर्माण समाज के और यज्ञ के साथ किया है(गीता ३.१०)। प्रकृति को यज्ञ के माध्यम से पुष्ट बनाने से हम भी सुखी होंगे(गीता ३-११)। |
− | ४.७ सामाजिक हित की दृष्टि से आवश्यक/महत्वपूर्ण सुधार समाजमानस में परिवर्तन के द्वारा होते हैं| | + | ४.५ सुखी सहजीवन के लिए नि:श्रेयसकी ओर ले जानेवाले अभ्युदय का विचार आवश्यक है। इसीलिये धर्म की व्याख्या की गयी है – यतोऽभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि स धर्म:। अध्यात्म विज्ञान के दो हिस्से हैं। ज्ञान और विज्ञान। परा और अपरा (गीता अध्याय १५-१६,१७)। परा नि:श्रेयस के लिए और अपरा अभुदय के लिए है। |
− | ४.८ व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय चारित्र्य का निर्माण सुयोग्य समाजधारणा का आवश्यक अंग है| सदाचार, स्वतंत्रता, स्वदेशी, सादगी, स्वच्छता, स्वावलंबन, सहजता, श्रमप्रतिष्ठा ये समाज में वांछित बातें हैं| | + | ४.६ धर्म की व्याख्या ‘धारयति इति धर्म:’ है। धर्म का अर्थ समाजधारणा के लिए उपयुक्त वैश्विक नियमों का समूह होता है। विशेष स्थल, काल और परिस्थिति के लिए आपद्धर्म होता है। |
− | ४.९ शिक्षा का उद्देश्य : प्रत्येक व्यक्ति में एकही परमात्मा है यह आत्मौपम्य बु़द्धि जगाने का, जीवनदृष्टी को व्यवहारमें उतारकर अभ्युदय(भौतिक समृद्धि) तथा परम सुख की प्राप्तिका मार्ग धर्माचरणही है| धर्म सिखाने के लिए पुरूषार्थ चतुष्ट्य की शिक्षा और शरीर, मन, बुद्धि तथा आत्मा से बने चतुर्विध व्यक्तित्व में मन की शिक्षा, शिक्षा के सबसे महत्वपूर्ण पहलू हैं| | + | ४.७ सामाजिक हित की दृष्टि से आवश्यक/महत्वपूर्ण सुधार समाजमानस में परिवर्तन के द्वारा होते हैं। |
− | ४.१० समाज (समष्टी) के साथ एकात्मता (कुटुम्ब भावना) का बढ़ता स्तर, सृष्टी के साथ एकात्मता (कुटुम्ब भावना) का बढ़ता स्तर यह मानव और मानव समाज के विकास का भारतीय मापदंड है| व्यक्तिवादिता या जंगल का क़ानून होने से स्पर्धा आती है| कुटुम्ब भावना के विकास से स्पर्धा का निराकरण अपने आप हो जाता है| | + | ४.८ व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय चारित्र्य का निर्माण सुयोग्य समाजधारणा का आवश्यक अंग है। सदाचार, स्वतंत्रता, स्वदेशी, सादगी, स्वच्छता, स्वावलंबन, सहजता, श्रमप्रतिष्ठा ये समाज में वांछित बातें हैं। |
− | ४.११ प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यता और क्षमता के अनुसार विकास का समान अवसर मिलना चाहिए| | + | ४.९ शिक्षा का उद्देश्य : प्रत्येक व्यक्ति में एकही परमात्मा है यह आत्मौपम्य बु़द्धि जगाने का, जीवनदृष्टी को व्यवहारमें उतारकर अभ्युदय(भौतिक समृद्धि) तथा परम सुख की प्राप्तिका मार्ग धर्माचरणही है। धर्म सिखाने के लिए पुरूषार्थ चतुष्ट्य की शिक्षा और शरीर, मन, बुद्धि तथा आत्मा से बने चतुर्विध व्यक्तित्व में मन की शिक्षा, शिक्षा के सबसे महत्वपूर्ण पहलू हैं। |
− | ४.१२ राष्ट्रीय एवं व्यक्तिगत सुख के लिए संस्कृति और समृद्धि दोनों आवश्यक हैं| संस्कृति के बिना समृद्धि मनुष्य को आसुरी बना देती है| और समृद्धि के बिना संस्कृति की रक्षा नहीं की जा सकती| | + | ४.१० समाज (समष्टी) के साथ एकात्मता (कुटुम्ब भावना) का बढ़ता स्तर, सृष्टी के साथ एकात्मता (कुटुम्ब भावना) का बढ़ता स्तर यह मानव और मानव समाज के विकास का भारतीय मापदंड है। व्यक्तिवादिता या जंगल का क़ानून होने से स्पर्धा आती है। कुटुम्ब भावना के विकास से स्पर्धा का निराकरण अपने आप हो जाता है। |
− | ४.१३ व्यक्ति का स्वभाव(वर्ण) त्रिगुणात्मक(सत्व, रज, तम युक्त) होता है| सत्त्व, रज और तम गुणों में किसी एक गुण की प्रधानता स्वभाव सात्त्विक है, राजसी है या तामसी है यह तय करती है| | + | ४.११ प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यता और क्षमता के अनुसार विकास का समान अवसर मिलना चाहिए। |
− | ४.१४ कर्तव्य व अधिकार का सन्तुलन कर्तव्यपालन के सार्वत्रिकीकरण से अपने आप हो जाता है| | + | ४.१२ राष्ट्रीय एवं व्यक्तिगत सुख के लिए संस्कृति और समृद्धि दोनों आवश्यक हैं। संस्कृति के बिना समृद्धि मनुष्य को आसुरी बना देती है। और समृद्धि के बिना संस्कृति की रक्षा नहीं की जा सकती। |
− | ४.१५ भारतीय परम्परा प्रवृत्ति मार्गपर बल देने की ही रही है| अभ्युदय के लिए त्रिवर्ग याने धर्म, अर्थ और काम पुरूषार्थ करने की रही है| निवृत्ति मार्ग का चलन सार्वजनिक नहीं होता और नहीं होना चाहिए| | + | ४.१३ व्यक्ति का स्वभाव(वर्ण) त्रिगुणात्मक(सत्व, रज, तम युक्त) होता है। सत्त्व, रज और तम गुणों में किसी एक गुण की प्रधानता स्वभाव सात्त्विक है, राजसी है या तामसी है यह तय करती है। |
− | ४.१६ कृतज्ञता मानवता का व्यवच्छेदक लक्षण है| अन्य सजीवों में यह अभाव से ही होता है| इससे भी आगे ऋणमुक्ति सिद्धांत मानव को मोक्षगामी बनाता है| | + | ४.१४ कर्तव्य व अधिकार का सन्तुलन कर्तव्यपालन के सार्वत्रिकीकरण से अपने आप हो जाता है। |
− | ४.१७ प्रकृति विकेन्द्रित है इसलिये सभी क्षेत्रोंमे विकेंद्रीकरण हितकारी है| विकेंद्रीकरण की सीमा को समझना भी महत्त्वपूर्ण है| जिससे अधिक विकेंद्रीकरण करने से उस इकाई का नुकसान होने लग जाता है यही वह सीमा है| | + | ४.१५ भारतीय परम्परा प्रवृत्ति मार्गपर बल देने की ही रही है। अभ्युदय के लिए त्रिवर्ग याने धर्म, अर्थ और काम पुरूषार्थ करने की रही है। निवृत्ति मार्ग का चलन सार्वजनिक नहीं होता और नहीं होना चाहिए। |
− | ४.१८ समाज व्यवहार व्यापक सामाजिक संगठन, व्यापक सामाजिक व्यवस्थाओं के माध्यम से नियमित होने से श्रेष्ठ होता है| स्थाई होता है| फफूँद जैसी निर्माण की गई छोटी छोटी अल्पजीवी संस्थाओं (इन्स्टीट्युशंस) के निर्माण से नहीं| बहुत बड़ी मात्रा में समाज का इन्स्टीट्युशनायझेशन (संस्थीकरण) करना यह जीवन के अभारतीय प्रतिमान की आवश्यकता है, भारतीय जीवन के प्रतिमान की नहीं|| | + | ४.१६ कृतज्ञता मानवता का व्यवच्छेदक लक्षण है। अन्य सजीवों में यह अभाव से ही होता है। इससे भी आगे ऋणमुक्ति सिद्धांत मानव को मोक्षगामी बनाता है। |
− | ४.१९ शासन को क़ानून बनाने का अधिकार नहीं होता| अनुपालन करवाने का कर्तव्य और अधिकार दोनों होते हैं| धर्म के जानकार ही क़ानून बनाने के अधिकारी हैं| | + | ४.१७ प्रकृति विकेन्द्रित है इसलिये सभी क्षेत्रोंमे विकेंद्रीकरण हितकारी है। विकेंद्रीकरण की सीमा को समझना भी महत्त्वपूर्ण है। जिससे अधिक विकेंद्रीकरण करने से उस इकाई का नुकसान होने लग जाता है यही वह सीमा है। |
− | ४.२० सामान्य लोग सामान्य बुद्धि के ही होते हैं| विकास का मार्ग चयन करने के लिए उन्हें मार्गदर्शन करना धर्म के जानकार पंडितों(य: क्रियावान) का काम है| शासन की भूमिका सहायक तथा संरक्षक की होनी चाहिए| | + | ४.१८ समाज व्यवहार व्यापक सामाजिक संगठन, व्यापक सामाजिक व्यवस्थाओं के माध्यम से नियमित होने से श्रेष्ठ होता है। स्थाई होता है। फफूँद जैसी निर्माण की गई छोटी छोटी अल्पजीवी संस्थाओं (इन्स्टीट्युशंस) के निर्माण से नहीं। बहुत बड़ी मात्रा में समाज का इन्स्टीट्युशनायझेशन (संस्थीकरण) करना यह जीवन के अभारतीय प्रतिमान की आवश्यकता है, भारतीय जीवन के प्रतिमान की नहीं।। |
− | ४.२१ समाज नियमन स्वयंनियमन, सामाजिक नियमन और सरकारद्वारा नियमन इस प्राधान्यक्रम से हो| | + | ४.१९ शासन को क़ानून बनाने का अधिकार नहीं होता। अनुपालन करवाने का कर्तव्य और अधिकार दोनों होते हैं। धर्म के जानकार ही क़ानून बनाने के अधिकारी हैं। |
− | ४.२२ समाज के मार्गदर्शन के लिये धर्म के जानकार लोगों की नैतिक शक्ति का प्रभावी होना आवश्यक है| | + | ४.२० सामान्य लोग सामान्य बुद्धि के ही होते हैं। विकास का मार्ग चयन करने के लिए उन्हें मार्गदर्शन करना धर्म के जानकार पंडितों(य: क्रियावान) का काम है। शासन की भूमिका सहायक तथा संरक्षक की होनी चाहिए। |
− | ४.२३ सामान्य परिस्थितियों में जीवंत ईकाईके स्वस्थ जीवन के लिए आवश्यक रचना को संगठन कहते हैं| और विशेष परिस्थिती में सामाजिक स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए निर्मित रचना को व्यवस्था कहते हैं| जैसे कुटुंब यह सामाजिक संगठन का हिस्सा है जब कि शासन यह व्यवस्था समूह का हिस्सा है| | + | ४.२१ समाज नियमन स्वयंनियमन, सामाजिक नियमन और सरकारद्वारा नियमन इस प्राधान्यक्रम से हो। |
− | ४.२४ हर व्यक्ति का व्यक्तित्व (शरीर, मन, बुद्धि और इस कारण जीवात्मा मिलकर) भिन्न होता है| | + | ४.२२ समाज के मार्गदर्शन के लिये धर्म के जानकार लोगों की नैतिक शक्ति का प्रभावी होना आवश्यक है। |
− | ४.२५ सामाजिक सुधार उत्क्रांति या समाज आत्मसात कर सके ऐसी (मंथर) गति से होना ही उपादेय है| | + | ४.२३ सामान्य परिस्थितियों में जीवंत ईकाईके स्वस्थ जीवन के लिए आवश्यक रचना को संगठन कहते हैं। और विशेष परिस्थिती में सामाजिक स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए निर्मित रचना को व्यवस्था कहते हैं। जैसे कुटुंब यह सामाजिक संगठन का हिस्सा है जब कि शासन यह व्यवस्था समूह का हिस्सा है। |
− | ४.२६ किसी भी कृति की उचितता एवं उपादेयता सर्वहितकारिता के मापदंडोंपर आँकी जानी चाहिए| | + | ४.२४ हर व्यक्ति का व्यक्तित्व (शरीर, मन, बुद्धि और इस कारण जीवात्मा मिलकर) भिन्न होता है। |
− | ४.२७ समान जीवनदृष्टी वाले सामाजिक समूह के सुरक्षित सहजीवन को राष्ट्र कहते हैं| यह राष्ट्रीय समूह अपनी जीवन दृष्टी की और इस जीवन दृष्टी के अनुसार व्यवहार करनेवाले लोगों की सुविधा के लिए प्रेरक, पोषक और रक्षक सामाजिक संगठन और व्यवस्थाएँ बनाता है| | + | ४.२५ सामाजिक सुधार उत्क्रांति या समाज आत्मसात कर सके ऐसी (मंथर) गति से होना ही उपादेय है। |
− | ४.२८ सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:। - सामाजिक व्यवहारों की दिशा हो| | + | ४.२६ किसी भी कृति की उचितता एवं उपादेयता सर्वहितकारिता के मापदंडोंपर आँकी जानी चाहिए। |
− | ४.२९ सभी को अभ्युदय और नि:श्रेयस की प्राप्ति के लिए समान अवसर प्राप्त हों| संस्कृति और समृद्धि दोनों महत्वपूर्ण हैं| समृद्धि के बिना संस्कृति टिक नहीं सकती| और संस्कृति के बिना समृद्धि आसुरी बन जाती है| | + | ४.२७ समान जीवनदृष्टी वाले सामाजिक समूह के सुरक्षित सहजीवन को राष्ट्र कहते हैं। यह राष्ट्रीय समूह अपनी जीवन दृष्टी की और इस जीवन दृष्टी के अनुसार व्यवहार करनेवाले लोगों की सुविधा के लिए प्रेरक, पोषक और रक्षक सामाजिक संगठन और व्यवस्थाएँ बनाता है। |
− | ४.३० प्रत्येक की संभाव्य क्षमताओं का पूर्ण विकास हो। स्त्री के स्त्रीत्व और पुरूष के पुरूषत्व का पूर्ण विकास हो| | + | ४.२८ सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:। - सामाजिक व्यवहारों की दिशा हो। |
| + | ४.२९ सभी को अभ्युदय और नि:श्रेयस की प्राप्ति के लिए समान अवसर प्राप्त हों। संस्कृति और समृद्धि दोनों महत्वपूर्ण हैं। समृद्धि के बिना संस्कृति टिक नहीं सकती। और संस्कृति के बिना समृद्धि आसुरी बन जाती है। |
| + | ४.३० प्रत्येक की संभाव्य क्षमताओं का पूर्ण विकास हो। स्त्री के स्त्रीत्व और पुरूष के पुरूषत्व का पूर्ण विकास हो। |
| ४.३१ प्रत्येक की उचित और न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिये। | | ४.३१ प्रत्येक की उचित और न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिये। |
− | ५. सम्यक् विकास के सूत्र
| + | |
− | सम्यक विकास की भारतीय मान्यता व्यक्तिगत, समष्टिगत और सृष्टीगत ऐसे तीनों के विकास की है| | + | == सम्यक् विकास के सूत्र == |
− | ५.१ न्यूनतम उपभोग से मतलब उस उपभोग से है जिससे कम उपभोग के कारण मनुष्य की स्वाभाविक क्षमताओं को हानी होती हो| ऐसे धर्म अविरोधी न्यूनतम उपभोग की मानसिकता निर्माण करना यह शिक्षा का काम है| | + | सम्यक विकास की भारतीय मान्यता व्यक्तिगत, समष्टिगत और सृष्टीगत ऐसे तीनों के विकास की है। |
− | ५.२ भौतिक समृद्धि की सीमा धारणाक्षम उपभोग के स्तर से तय होगी| | + | ५.१ न्यूनतम उपभोग से मतलब उस उपभोग से है जिससे कम उपभोग के कारण मनुष्य की स्वाभाविक क्षमताओं को हानी होती हो। ऐसे धर्म अविरोधी न्यूनतम उपभोग की मानसिकता निर्माण करना यह शिक्षा का काम है। |
− | ५.३ आबादी, प्रयत्न, उत्पादन, धन, स्वामित्व तथा शासन का विकेंद्रीकरण होना उपादेय है| | + | ५.२ भौतिक समृद्धि की सीमा धारणाक्षम उपभोग के स्तर से तय होगी। |
− | ५.४ बाजारसमेत शासन, उद्योग, आदि सभी सामाजिक व्यवहार कुटुम्ब भावना से चलें| | + | ५.३ आबादी, प्रयत्न, उत्पादन, धन, स्वामित्व तथा शासन का विकेंद्रीकरण होना उपादेय है। |
− | ५.५ विकास की प्रेरणा तो हर मानव में होती ही है| सभी के लिए विकास के अनुकूल वातावरण और अवसर निर्माण करने के लिए ही सामाजिक संगठन, सामाजिक व्यवस्थाएँ और बड़े लोग होते हैं| | + | ५.४ बाजारसमेत शासन, उद्योग, आदि सभी सामाजिक व्यवहार कुटुम्ब भावना से चलें। |
− | ५.६ जो जन्मा है वह खाएगा और जो कमाएगा वह खिलाएगा| तथा समाज हित में जबतक मैं कोई सार्थक योगदान नहीं देता तबतक समाज से कुछ लेने से मेरी अधोगति होगी इस ऋण-सिद्धांत पर निष्ठा यह दोनों बातें समाज के सुसंस्कृत और समृद्ध बनने की पूर्वशर्तें हैं| | + | ५.५ विकास की प्रेरणा तो हर मानव में होती ही है। सभी के लिए विकास के अनुकूल वातावरण और अवसर निर्माण करने के लिए ही सामाजिक संगठन, सामाजिक व्यवस्थाएँ और बड़े लोग होते हैं। |
− | ५.७ कौटुम्बिक उद्योगों में सभी मालिक होते हैं| अपवाद या आवश्यकतानुसार अल्प संख्या में नौकर भी हो सकते हैं| इस से समाज मालिकों की मानसिकता और क्षमताओं का बनता है| आनुवांशिकता से ये उद्योग चलते हैं| | + | ५.६ जो जन्मा है वह खाएगा और जो कमाएगा वह खिलाएगा। तथा समाज हित में जबतक मैं कोई सार्थक योगदान नहीं देता तबतक समाज से कुछ लेने से मेरी अधोगति होगी इस ऋण-सिद्धांत पर निष्ठा यह दोनों बातें समाज के सुसंस्कृत और समृद्ध बनने की पूर्वशर्तें हैं। |
− | ५.८ राष्ट्र की सुरक्षा याने राष्ट्र की भूमि, समाज और संस्कृति की सुरक्षा के साथ कोई समझौता नहीं हो सकता| | + | ५.७ कौटुम्बिक उद्योगों में सभी मालिक होते हैं। अपवाद या आवश्यकतानुसार अल्प संख्या में नौकर भी हो सकते हैं। इस से समाज मालिकों की मानसिकता और क्षमताओं का बनता है। आनुवांशिकता से ये उद्योग चलते हैं। |
− | ५.९ समाज का संस्कृति और समृद्धि का स्तर सामाजिक विकास के मापदंड के दो पहलू हैं| | + | ५.८ राष्ट्र की सुरक्षा याने राष्ट्र की भूमि, समाज और संस्कृति की सुरक्षा के साथ कोई समझौता नहीं हो सकता। |
− | ६. शिक्षा के मूलतत्व
| + | ५.९ समाज का संस्कृति और समृद्धि का स्तर सामाजिक विकास के मापदंड के दो पहलू हैं। |
− | ६.१ श्रेष्ठ समाज श्रेष्ठ मानवों से बनता है| श्रेष्ठ मानव के लिए दो बातें अनिवार्य हैं| पहली बात श्रेष्ठ जीवात्मा होना| दूसरा है ऐसे श्रेष्ठ जीवात्मा को श्रेष्ठ शिक्षा प्राप्त होना| | + | |
− | ६.२ माता प्रथमो गुरू: पिता द्वितीय:| शिक्षक तीसरे क्रमांकपर होता है| श्रेष्ठ जीवात्मा को जन्म देना और उसे संस्कारित करना माता पिता, दोनों का काम है| | + | == शिक्षा के मूलतत्व == |
− | ६..३ मन के संयम की शिक्षा के लिए अभ्यास (एकाग्रता) तथा वैराग्य (अलिप्तता) आवश्यक हैं| (गीता ६-३४,३५) | + | ६.१ श्रेष्ठ समाज श्रेष्ठ मानवों से बनता है। श्रेष्ठ मानव के लिए दो बातें अनिवार्य हैं। पहली बात श्रेष्ठ जीवात्मा होना। दूसरा है ऐसे श्रेष्ठ जीवात्मा को श्रेष्ठ शिक्षा प्राप्त होना। |
− | ६..४ लालयेत पंचवर्षाणि दशवर्षाणि ताडयेत् | ५ वर्ष की आयुतक लालन की जिम्मेदारी मुख्यत: माँकी तथा आगे दस वर्षतक मुख्य भूमिका पिताकी होती है| प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रं वदचरेत् | ऐसा करने से १६ वर्ष की आयु में युवक प्रगल्भ होकर स्वाध्याय करने में सक्षम हो जाता है| | + | ६.२ माता प्रथमो गुरू: पिता द्वितीय:। शिक्षक तीसरे क्रमांकपर होता है। श्रेष्ठ जीवात्मा को जन्म देना और उसे संस्कारित करना माता पिता, दोनों का काम है। |
− | ६.५ हर बालक दूसरे से भिन्न है| वह अपने विकास की संभावनाओं के साथ जन्म लेता है| इस भिन्नता को और सम्भावनाओं के सर्वोच्च स्तरको समझकर पूर्ण विकसित होने के लिए मार्गदर्शन करने हेतु पंडितों के मार्गदर्शन में शिक्षा व्यवस्था का निर्माण करना समाज की जिम्मेदारी है। | + | ६..३ मन के संयम की शिक्षा के लिए अभ्यास (एकाग्रता) तथा वैराग्य (अलिप्तता) आवश्यक हैं। (गीता ६-३४,३५) |
− | ६.६ लोकशिक्षा (कुटुम्ब शिक्षा भी) या अनौपचारिक शिक्षा का स्वरूप धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा का होता है| विद्यालयीन या औपचारिक शिक्षा का स्वरूप शास्त्रीय शिक्षा का होता है| | + | ६..४ लालयेत पंचवर्षाणि दशवर्षाणि ताडयेत् । ५ वर्ष की आयुतक लालन की जिम्मेदारी मुख्यत: माँकी तथा आगे दस वर्षतक मुख्य भूमिका पिताकी होती है। प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रं वदचरेत् । ऐसा करने से १६ वर्ष की आयु में युवक प्रगल्भ होकर स्वाध्याय करने में सक्षम हो जाता है। |
− | ६.७. शिक्षा सभी विषयों को जीवन की समग्रता के सन्दर्भ में समझने के लिए होती है| कंठस्थीकरण के साथ ही प्रयोग, आत्मसातीकरण तथा संस्कार भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं| सामाजिक संगठनों और व्यवस्थाओं का संचालन करने के लिए श्रेष्ठ लोग निर्माण करना भी शिक्षा का ही काम है| | + | ६.५ हर बालक दूसरे से भिन्न है। वह अपने विकास की संभावनाओं के साथ जन्म लेता है। इस भिन्नता को और सम्भावनाओं के सर्वोच्च स्तरको समझकर पूर्ण विकसित होने के लिए मार्गदर्शन करने हेतु पंडितों के मार्गदर्शन में शिक्षा व्यवस्था का निर्माण करना समाज की जिम्मेदारी है। |
− | ६.८ शिक्षा जन्मजन्मान्तर तथा आजीवन चलनेवाली प्रक्रिया है| शिक्षा तो धर्माचरण की ही होगी| आयु की अवस्था के अनुसार उसका स्वरूप कुछ भिन्न होगा| पाठ्यक्रम में एकात्मता और सातत्य होना चाहिए| | + | ६.६ लोकशिक्षा (कुटुम्ब शिक्षा भी) या अनौपचारिक शिक्षा का स्वरूप धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा का होता है। विद्यालयीन या औपचारिक शिक्षा का स्वरूप शास्त्रीय शिक्षा का होता है। |
| + | ६.७. शिक्षा सभी विषयों को जीवन की समग्रता के सन्दर्भ में समझने के लिए होती है। कंठस्थीकरण के साथ ही प्रयोग, आत्मसातीकरण तथा संस्कार भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। सामाजिक संगठनों और व्यवस्थाओं का संचालन करने के लिए श्रेष्ठ लोग निर्माण करना भी शिक्षा का ही काम है। |
| + | ६.८ शिक्षा जन्मजन्मान्तर तथा आजीवन चलनेवाली प्रक्रिया है। शिक्षा तो धर्माचरण की ही होगी। आयु की अवस्था के अनुसार उसका स्वरूप कुछ भिन्न होगा। पाठ्यक्रम में एकात्मता और सातत्य होना चाहिए। |
| ६.९ हर समाज की अपनी कोई भाषा होती है। इस भाषा का विकास उस समाज की जीवन दृष्टी के अनुसार ही होता है। समाज की भाषा बिगडने से या नष्ट होने से विचार, परंपराओं, मान्यताओं आदि में परिवर्तन हो जाते हैं। फिर वह समाज पूर्व का समाज नहीं रह जाता। | | ६.९ हर समाज की अपनी कोई भाषा होती है। इस भाषा का विकास उस समाज की जीवन दृष्टी के अनुसार ही होता है। समाज की भाषा बिगडने से या नष्ट होने से विचार, परंपराओं, मान्यताओं आदि में परिवर्तन हो जाते हैं। फिर वह समाज पूर्व का समाज नहीं रह जाता। |
− | ६.१० मूलत: प्रत्येक व्यक्ति सर्वज्ञानी है| ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति में अन्तर्निहित होता है| उसके प्रकटीकरण की प्रक्रिया शिक्षा है| | + | ६.१० मूलत: प्रत्येक व्यक्ति सर्वज्ञानी है। ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति में अन्तर्निहित होता है। उसके प्रकटीकरण की प्रक्रिया शिक्षा है। |
− | ७. अर्थव्यवहार के सूत्र
| + | |
− | इस सन्दर्भ में सम्यक विकास के सभी बिंदु प्राथमिकता से लागू हैं| इसके अलावा समृद्धि व्यवस्था की दृष्टी से निम्न बिन्दु भी विचारणीय हैं| | + | == अर्थव्यवहार के सूत्र == |
− | ७.१ कामनाएँ और उनकी पूर्ति के लिए किये गए प्रयास और उपयोग में लाये गए धन, साधन और संसाधन सभी धर्म के अनुकूल होने चाहिए| | + | इस सन्दर्भ में सम्यक विकास के सभी बिंदु प्राथमिकता से लागू हैं। इसके अलावा समृद्धि व्यवस्था की दृष्टी से निम्न बिन्दु भी विचारणीय हैं। |
− | ७.२ कौटुम्बिक उद्योगों को समाज अपने हित में नियंत्रित करता है| बडी जोईंट स्टोक कम्पनियां समाज को आक्रामक, अनैतिक, महँगे विज्ञापनोंद्वारा अपने हित में नियंत्रित करती हैं| | + | ७.१ कामनाएँ और उनकी पूर्ति के लिए किये गए प्रयास और उपयोग में लाये गए धन, साधन और संसाधन सभी धर्म के अनुकूल होने चाहिए। |
− | ७.३ जाति व्यवस्था के दर्जनों लाभ और जातिव्यवस्थापर किये गए दोषारोपों का वास्तव समझना आवश्यक है| वास्तव समझकर किसी सक्षम वैकल्पिक व्यवस्था निर्माण की आवश्यकता है| | + | ७.२ कौटुम्बिक उद्योगों को समाज अपने हित में नियंत्रित करता है। बडी जोईंट स्टोक कम्पनियां समाज को आक्रामक, अनैतिक, महँगे विज्ञापनोंद्वारा अपने हित में नियंत्रित करती हैं। |
− | ७.४ मानव की धर्म सुसंगत इच्छाओं में और उनकी पूर्ति में किसी का विरोध नहीं होना चाहिए|(आर्थिक स्वतंत्रता) | + | ७.३ जाति व्यवस्था के दर्जनों लाभ और जातिव्यवस्थापर किये गए दोषारोपों का वास्तव समझना आवश्यक है। वास्तव समझकर किसी सक्षम वैकल्पिक व्यवस्था निर्माण की आवश्यकता है। |
− | ७.५ उत्पादकों की संख्या जितनी अधिक उतनी कीमतें कम होती हैं| कौटुम्बिक उद्योगोंपर आधारित समृद्धि व्यवस्था में ही यह संभव होता है| कौटुम्बिक उद्योग आधारित समृद्धि व्यवस्था के भी दर्जनों लाभ हैं| | + | ७.४ मानव की धर्म सुसंगत इच्छाओं में और उनकी पूर्ति में किसी का विरोध नहीं होना चाहिए।(आर्थिक स्वतंत्रता) |
− | ७.६ स्त्री और पुरूष में कार्य विभाजन उनकी परस्पर-पूरकता तथा स्वाभाविक क्षमताओं/योग्यताओं के आधारपर हो| | + | ७.५ उत्पादकों की संख्या जितनी अधिक उतनी कीमतें कम होती हैं। कौटुम्बिक उद्योगोंपर आधारित समृद्धि व्यवस्था में ही यह संभव होता है। कौटुम्बिक उद्योग आधारित समृद्धि व्यवस्था के भी दर्जनों लाभ हैं। |
− | ७.७ उत्पादन यथासंभव लघुतम इकाई में हो| कौटुम्बिक उद्योग, लघु उद्योग, मध्यम उद्योग और अंत में बड़े उद्योग| | + | ७.६ स्त्री और पुरूष में कार्य विभाजन उनकी परस्पर-पूरकता तथा स्वाभाविक क्षमताओं/योग्यताओं के आधारपर हो। |
− | ७.८ पैसा अर्थव्यवस्था को विकृत कर देता है| इसलिए ग्राम स्तरपर पैसे का लेनदेन नहीं हो| शहर स्तरपर भी यथासंभव पैसे का उपयोग न्यूनतम हो| | + | ७.७ उत्पादन यथासंभव लघुतम इकाई में हो। कौटुम्बिक उद्योग, लघु उद्योग, मध्यम उद्योग और अंत में बड़े उद्योग। |
− | ७.९ मधुमख्खी फूलों से जिस प्रमाण में रस लेती है कर वसूली भी उससे अधिक नहीं हो| | + | ७.८ पैसा अर्थव्यवस्था को विकृत कर देता है। इसलिए ग्राम स्तरपर पैसे का लेनदेन नहीं हो। शहर स्तरपर भी यथासंभव पैसे का उपयोग न्यूनतम हो। |
− | ७.१० राजा व्यापारी तो प्रजा भिकारी| सुरक्षा उत्पादनों जैसे अपवाद छोड़ शासन कोई उद्योग नहीं चलाए| | + | ७.९ मधुमख्खी फूलों से जिस प्रमाण में रस लेती है कर वसूली भी उससे अधिक नहीं हो। |
− | ७.११ दान की महत्ता बढे| आजीविका से अधिक की अतिरिक्त आय दान में देने की मानसिकता बढे| | + | ७.१० राजा व्यापारी तो प्रजा भिकारी। सुरक्षा उत्पादनों जैसे अपवाद छोड़ शासन कोई उद्योग नहीं चलाए। |
− | ७.१२ धनार्जन का काम केवल गृहस्थाश्रमी करे| गृहस्थाश्रमी अन्य सभी आश्रमों के लोगों की, वास्तव में चराचर की आजीविका का भार उठाए| वानप्रस्थी लोकहित में अपना ज्ञान, अपनी क्षमताओं और अपने अनुभवों का उपयोग करे| समाज की सेवा करें| नौकरी नहीं| ब्रह्मचारी अपनी क्षमताओं को संभाव्यता की उच्चतम सीमातक विकसित करने का प्रयास करे| व्यवस्था ऐसी हो की कोई भी पिछड़ा नहीं रहे| अन्त्योदय तो आपद्धर्म है| | + | ७.११ दान की महत्ता बढे। आजीविका से अधिक की अतिरिक्त आय दान में देने की मानसिकता बढे। |
− | ७.१३ खेती गोआधारित तथा अदेवामातृका और राष्ट्र की समृद्धि व्यवस्था अपरमातृका होनी चाहिए| | + | ७.१२ धनार्जन का काम केवल गृहस्थाश्रमी करे। गृहस्थाश्रमी अन्य सभी आश्रमों के लोगों की, वास्तव में चराचर की आजीविका का भार उठाए। वानप्रस्थी लोकहित में अपना ज्ञान, अपनी क्षमताओं और अपने अनुभवों का उपयोग करे। समाज की सेवा करें। नौकरी नहीं। ब्रह्मचारी अपनी क्षमताओं को संभाव्यता की उच्चतम सीमातक विकसित करने का प्रयास करे। व्यवस्था ऐसी हो की कोई भी पिछड़ा नहीं रहे। अन्त्योदय तो आपद्धर्म है। |
− | ७.१४ प्राकृतिक संसाधनों का मूल्य उनकी नवीकरण की संभावना और गति के आधारपर तय हो| अनवीकरणीय पदार्थों का उपभोग यथासंभव कम करते चलें| | + | ७.१३ खेती गोआधारित तथा अदेवामातृका और राष्ट्र की समृद्धि व्यवस्था अपरमातृका होनी चाहिए। |
− | ७.१५ सुयोग्य व्यवस्था के द्वारा ज्ञान, विज्ञान और तन्त्रज्ञान सुपात्र को ही मिले ऐसी सुनिश्चिती की जाए| | + | ७.१४ प्राकृतिक संसाधनों का मूल्य उनकी नवीकरण की संभावना और गति के आधारपर तय हो। अनवीकरणीय पदार्थों का उपभोग यथासंभव कम करते चलें। |
− | ७.१६ स्वदेशी के स्तर – घरमें बना, गली में बना या पड़ोस की की गली में बना, गाँव या पड़ोसी गाँव में बना, शहर में बना, तहसील में बना, जनपद में बना, प्रान्त में बना, देश में बना, पड़ोसी देश में बना बना हो और अंत में विश्व के किसी भी देश में बना हुआ स्वदेशी ही है| स्वदेशो भुवनत्रयम्| | + | ७.१५ सुयोग्य व्यवस्था के द्वारा ज्ञान, विज्ञान और तन्त्रज्ञान सुपात्र को ही मिले ऐसी सुनिश्चिती की जाए। |
− | ७.१७ मनुष्य की क्षमताओं को कुंठित करनेवाले, बेरोजगारी निर्माण करनेवाले तथा पर्यावरण के लिए, सामाजिकता के लिए अहितकारी तन्त्रज्ञान वर्जित हों| | + | ७.१६ स्वदेशी के स्तर – घरमें बना, गली में बना या पड़ोस की की गली में बना, गाँव या पड़ोसी गाँव में बना, शहर में बना, तहसील में बना, जनपद में बना, प्रान्त में बना, देश में बना, पड़ोसी देश में बना बना हो और अंत में विश्व के किसी भी देश में बना हुआ स्वदेशी ही है। स्वदेशो भुवनत्रयम्। |
− | ७.१८ जीवनशैली प्रकृति सुसंगत हो| न्यूनतम प्रक्रिया से बने पदार्थ अधिक प्रकृति सुसंगत होते हैं| | + | ७.१७ मनुष्य की क्षमताओं को कुंठित करनेवाले, बेरोजगारी निर्माण करनेवाले तथा पर्यावरण के लिए, सामाजिकता के लिए अहितकारी तन्त्रज्ञान वर्जित हों। |
− | ७.१९ गाँवों का तालाबीकरण हो| यही चराचर की प्यास बुझाने का मार्ग है| | + | ७.१८ जीवनशैली प्रकृति सुसंगत हो। न्यूनतम प्रक्रिया से बने पदार्थ अधिक प्रकृति सुसंगत होते हैं। |
− | ७.२० सुखस्य मूलम् धर्म:| धर्मस्य मूलम् अर्थ:| अर्थस्य मूलम राज्यं|राज्यस्य मूलम् इन्द्रीयजय| इन्द्रीयाजयास्य मूलम् विनयम्| विनयस्य मूलम् वृद्धोपसेवा| वृद्धसेवायां विज्ञानम्| विज्ञानेनात्मानम् सम्पादयेत्| संपादितात्मा जितात्मा भवति| | + | ७.१९ गाँवों का तालाबीकरण हो। यही चराचर की प्यास बुझाने का मार्ग है। |
− | ७.२१ विज्ञापनबाजी वर्जित हो| | + | ७.२० सुखस्य मूलम् धर्म:। धर्मस्य मूलम् अर्थ:। अर्थस्य मूलम राज्यं।राज्यस्य मूलम् इन्द्रीयजय। इन्द्रीयाजयास्य मूलम् विनयम्। विनयस्य मूलम् वृद्धोपसेवा। वृद्धसेवायां विज्ञानम्। विज्ञानेनात्मानम् सम्पादयेत्। संपादितात्मा जितात्मा भवति। |
− | ७.२२ वैश्विक स्थितियों को ध्यान में रखकर हमें सामरिक दृष्टी से सबसे बलवान बनना आवश्यक है| ऐसा समर्थ बनकर अपने श्रेष्ठ व्यवहार का उदाहरण विश्व के सामने उपस्थित करना होगा| | + | ७.२१ विज्ञापनबाजी वर्जित हो। |
− | ७.२३ वर्तमान प्रदूषण निवारण की दृष्टी अपक्व है| केवल जल, हवा और भूमि के प्रदूषण की बात होती है| वास्तव में इन के साथ ही जबतक पंचमहाभूतों में से शेष बचे हुए तेज और आकाश इन महाभूतों के प्रदूषण का भी विचार आवश्यक है| वास्तव में प्रदूषित मन और बुद्धि ही समूचे प्रदूषण की जड़ हैं| | + | ७.२२ वैश्विक स्थितियों को ध्यान में रखकर हमें सामरिक दृष्टी से सबसे बलवान बनना आवश्यक है। ऐसा समर्थ बनकर अपने श्रेष्ठ व्यवहार का उदाहरण विश्व के सामने उपस्थित करना होगा। |
− | ८. अभिशासन (Governance)
| + | ७.२३ वर्तमान प्रदूषण निवारण की दृष्टी अपक्व है। केवल जल, हवा और भूमि के प्रदूषण की बात होती है। वास्तव में इन के साथ ही जबतक पंचमहाभूतों में से शेष बचे हुए तेज और आकाश इन महाभूतों के प्रदूषण का भी विचार आवश्यक है। वास्तव में प्रदूषित मन और बुद्धि ही समूचे प्रदूषण की जड़ हैं। |
− | शासन पद्धति कोई भी हो, अभिशासन के सूत्र नहीं बदलते| शासन का मुख्य काम रक्षण का है| | + | |
− | अभिशासन के व्यवहार सूत्र | + | == अभिशासन (Governance) == |
− | ८.१ धर्म शासक का भी शासक है| शासन पद्धति राजतंत्र की हो तानाशाही की हो या लोकतंत्र की हो या अन्य कोई भी हो शासन तो धर्मानुसारी ही होना चाहिए| | + | शासन पद्धति कोई भी हो, अभिशासन के सूत्र नहीं बदलते। शासन का मुख्य काम रक्षण का है। |
− | ८.२ यथा राजा तथा प्रजा| सामान्य जन राजा का अनुकरण करते हैं| राजा धर्म का आचरण करनेवाला और धर्म के जानकार पंडितों का आश्रयदाता और अनुचर भी हो| | + | |
− | ८.३ राज्यो रक्षति रक्षित: : राजा और प्रजा परस्पर एकदूसरे की रक्षा करें| | + | === अभिशासन के व्यवहार सूत्र === |
− | ८.४ राजा और प्रजा इस शब्दावलीसे ही उनके परस्पर सम्बन्ध समझ में आते हैं| प्रजा का अर्थ ही संतान होता है| | + | ८.१ धर्म शासक का भी शासक है। शासन पद्धति राजतंत्र की हो तानाशाही की हो या लोकतंत्र की हो या अन्य कोई भी हो शासन तो धर्मानुसारी ही होना चाहिए। |
− | ८.५ ‘अभोगी राजा’ याने सभी प्रकारके उपभोग उपलब्ध होते हुए भी उनसे अलिप्त रहकर प्रजाराधन करनेवाला राजा ही शासक का भारतीय स्वरूप है| | + | ८.२ यथा राजा तथा प्रजा। सामान्य जन राजा का अनुकरण करते हैं। राजा धर्म का आचरण करनेवाला और धर्म के जानकार पंडितों का आश्रयदाता और अनुचर भी हो। |
− | ८.६ राजा ने किये पाप प्रजा को भोगने पड़ते हैं| प्रजा के पाप में भी राजा भागीदार होता है| | + | ८.३ राज्यो रक्षति रक्षित: : राजा और प्रजा परस्पर एकदूसरे की रक्षा करें। |
− | ८.७ राज्य में अधर्म, अन्याय हो ही नहीं इसकी आश्वस्ति होना सुराज्य का लक्षण है| जब न्याय माँगने की स्थिति आती है तब शासन दुर्बल है ऐसा माना जाएगा| जब न्याय के लिए लड़ना पड़ता है तब शासन घटिया है ऐसा माना जाएगा| और जब लड़कर भी न्याय नहीं मिलता तो शासन है ही नहीं ऐसा माना जाएगा| | + | ८.४ राजा और प्रजा इस शब्दावलीसे ही उनके परस्पर सम्बन्ध समझ में आते हैं। प्रजा का अर्थ ही संतान होता है। |
− | ८.८ शासनिक स्वतन्त्रता हो| याने प्रजा की स्वाभाविक गतिविधियों में शासन का हस्तक्षेप नहीं हो| | + | ८.५ ‘अभोगी राजा’ याने सभी प्रकारके उपभोग उपलब्ध होते हुए भी उनसे अलिप्त रहकर प्रजाराधन करनेवाला राजा ही शासक का भारतीय स्वरूप है। |
− | ८.९ धर्म और शिक्षा के पंडितों को तथा उन के श्रेष्ठ केन्द्रों को सहायता, समर्थन, सुरक्षा प्राप्त हो यह शासन का कर्तव्य है| | + | ८.६ राजा ने किये पाप प्रजा को भोगने पड़ते हैं। प्रजा के पाप में भी राजा भागीदार होता है। |
− | ८.१० धर्म व्यवस्थाद्वारा मार्गदर्शित संगठन और व्यवस्थाओं के नियमों का दुष्ट और मूर्खों से अनुपालन करवाना शासन का काम है| इस दृष्टी से पर-राज्यों से सम्बन्ध, वहाँ के भी सज्जन तथा दुष्ट और मूर्खों की गतिविधियाँ जानने के लिए गुप्तचर व्यवस्था सक्षम हो| | + | ८.७ राज्य में अधर्म, अन्याय हो ही नहीं इसकी आश्वस्ति होना सुराज्य का लक्षण है। जब न्याय माँगने की स्थिति आती है तब शासन दुर्बल है ऐसा माना जाएगा। जब न्याय के लिए लड़ना पड़ता है तब शासन घटिया है ऐसा माना जाएगा। और जब लड़कर भी न्याय नहीं मिलता तो शासन है ही नहीं ऐसा माना जाएगा। |
− | ८.११ प्रशासन की दृष्टि से देश/राज्य के विभाग बनाये जाए। ग्राम स्तरपर प्रशासन की भूमिका केवल कर वसूली करने की हो| आवश्यकतानुसार विशेष परिस्थितीमें शासन हस्तक्षेप करे| | + | ८.८ शासनिक स्वतन्त्रता हो। याने प्रजा की स्वाभाविक गतिविधियों में शासन का हस्तक्षेप नहीं हो। |
− | ८.१२ शासक धर्म के मर्म को समझनेवाला, इंद्रियजयी, विवेकवान, शूरवीर, निर्भय, प्रजाहितदक्ष, चतुर एवं कूटनीतिज्ञ, लोकसंग्रही, लोगों की अच्छी पहचान रखनेवाला, प्रभावी व्यक्तित्ववाला हो| | + | ८.९ धर्म और शिक्षा के पंडितों को तथा उन के श्रेष्ठ केन्द्रों को सहायता, समर्थन, सुरक्षा प्राप्त हो यह शासन का कर्तव्य है। |
− | ८.१३ शासक के प्रमुख कर्तव्य : - अपने से भी श्रेष्ठ उत्तराधिकारी निर्माण करना| | + | ८.१० धर्म व्यवस्थाद्वारा मार्गदर्शित संगठन और व्यवस्थाओं के नियमों का दुष्ट और मूर्खों से अनुपालन करवाना शासन का काम है। इस दृष्टी से पर-राज्यों से सम्बन्ध, वहाँ के भी सज्जन तथा दुष्ट और मूर्खों की गतिविधियाँ जानने के लिए गुप्तचर व्यवस्था सक्षम हो। |
− | - अन्याय नहीं हो इस की आश्वस्ति हो| न्यायदान शीघ्र, सहज-सुलभ हो| अपराध, दंड का समीकरण हो| | + | ८.११ प्रशासन की दृष्टि से देश/राज्य के विभाग बनाये जाए। ग्राम स्तरपर प्रशासन की भूमिका केवल कर वसूली करने की हो। आवश्यकतानुसार विशेष परिस्थितीमें शासन हस्तक्षेप करे। |
− | - श्रेष्ठ शिक्षा व्यवस्था की प्रतिष्ठापना हो| इस हेतु से धर्मं के जानकार पंडितों का सम्मान हो| ऐसे पंडितों से परामर्श लेते रहना| देश विदेश से ऐसे विद्वान राज्य में आश्रय लें ऐसा वातावरण रहे| | + | ८.१२ शासक धर्म के मर्म को समझनेवाला, इंद्रियजयी, विवेकवान, शूरवीर, निर्भय, प्रजाहितदक्ष, चतुर एवं कूटनीतिज्ञ, लोकसंग्रही, लोगों की अच्छी पहचान रखनेवाला, प्रभावी व्यक्तित्ववाला हो। |
− | - शासक और प्रजा में सहज संवाद बना रहे| | + | ८.१३ शासक के प्रमुख कर्तव्य : - अपने से भी श्रेष्ठ उत्तराधिकारी निर्माण करना। |
− | - प्रभावी गुप्तचर विभाग हो| बलशाली सेना हो| | + | - अन्याय नहीं हो इस की आश्वस्ति हो। न्यायदान शीघ्र, सहज-सुलभ हो। अपराध, दंड का समीकरण हो। |
− | - राष्ट्र को वर्धिष्णु रखना| | + | - श्रेष्ठ शिक्षा व्यवस्था की प्रतिष्ठापना हो। इस हेतु से धर्मं के जानकार पंडितों का सम्मान हो। ऐसे पंडितों से परामर्श लेते रहना। देश विदेश से ऐसे विद्वान राज्य में आश्रय लें ऐसा वातावरण रहे। |
− | - राष्ट्रनिष्ठ, ज्ञानी, विवेकवान, नि:स्वार्थी, प्रजाहितदक्ष, निर्भय, चतुर, कूटनीतिज्ञ, लोकसंग्रही मंत्री हो| | + | - शासक और प्रजा में सहज संवाद बना रहे। |
| + | - प्रभावी गुप्तचर विभाग हो। बलशाली सेना हो। |
| + | - राष्ट्र को वर्धिष्णु रखना। |
| + | - राष्ट्रनिष्ठ, ज्ञानी, विवेकवान, नि:स्वार्थी, प्रजाहितदक्ष, निर्भय, चतुर, कूटनीतिज्ञ, लोकसंग्रही मंत्री हो। |
| शासन का स्वरूप : | | शासन का स्वरूप : |
| - पुत्रवत सम्बन्ध :प्रजा के साथ पिता-संतान जैसा संबंध। | | - पुत्रवत सम्बन्ध :प्रजा के साथ पिता-संतान जैसा संबंध। |
Line 152: |
Line 164: |
| जनपद/नगर/महानगर जैसे बडे भौगोलिक/आबादीवाले क्षेत्र के लिये ग्रामसभाओं/प्रभागों द्वारा (सर्वसहमति से) चयनित (निर्वाचित नहीं) प्रतिनिधियों की समिती का शासन रहे। इस समिती का प्रमुख भी सर्वसहमति से ही तय हो। किसी ग्राम/प्रभाग से सर्वसहमति से प्रतिनिधि चयन नहीं होनेसे उस ग्राम/प्रभाग का प्रतिनिधित्व समिती में नहीं रहेगा। लेकिन समिती के निर्णय ग्राम/प्रभाग को लागू होंगे। समिती भी निर्णय करते समय जिस ग्राम का प्रतिनिधित्व नहीं है उसके हित को ध्यान में रखकर ही निर्णय करे। | | जनपद/नगर/महानगर जैसे बडे भौगोलिक/आबादीवाले क्षेत्र के लिये ग्रामसभाओं/प्रभागों द्वारा (सर्वसहमति से) चयनित (निर्वाचित नहीं) प्रतिनिधियों की समिती का शासन रहे। इस समिती का प्रमुख भी सर्वसहमति से ही तय हो। किसी ग्राम/प्रभाग से सर्वसहमति से प्रतिनिधि चयन नहीं होनेसे उस ग्राम/प्रभाग का प्रतिनिधित्व समिती में नहीं रहेगा। लेकिन समिती के निर्णय ग्राम/प्रभाग को लागू होंगे। समिती भी निर्णय करते समय जिस ग्राम का प्रतिनिधित्व नहीं है उसके हित को ध्यान में रखकर ही निर्णय करे। |
| जनपद समितियाँ प्रदेश के शासक का चयन करेंगी। ऐसा शासक भी सर्वसहमति से ही चयनित होगा। प्रदेशों के शासक फिर सर्वसहमतिसे राष्ट्र के प्रधान शासक का या सम्राट का चयन करेंगे। जनपद/नगर/ महानगर, प्रदेश, राष्ट्र आदि सभी स्तरों के चयनित प्रमुख अपने अपने सलाहकार और सहयोगियों का चयन करेंगे। | | जनपद समितियाँ प्रदेश के शासक का चयन करेंगी। ऐसा शासक भी सर्वसहमति से ही चयनित होगा। प्रदेशों के शासक फिर सर्वसहमतिसे राष्ट्र के प्रधान शासक का या सम्राट का चयन करेंगे। जनपद/नगर/ महानगर, प्रदेश, राष्ट्र आदि सभी स्तरों के चयनित प्रमुख अपने अपने सलाहकार और सहयोगियों का चयन करेंगे। |
− | सर्वसहमति में कठिनाई होनेपर धर्म व्यवस्था उपलब्ध लोगों में से शासक बनने की योग्यता और क्षमता किसमें अधिक है यह ध्यान में लेकर उसके पक्ष में जनमत तैयार करे| | + | सर्वसहमति में कठिनाई होनेपर धर्म व्यवस्था उपलब्ध लोगों में से शासक बनने की योग्यता और क्षमता किसमें अधिक है यह ध्यान में लेकर उसके पक्ष में जनमत तैयार करे। |
| - शासक निर्माण : श्रेष्ठ शासक निर्माण करने की दृष्टि से धर्म के जानकार अपनी व्यवस्था निर्माण करे। ऐसा चयनित, संस्कारित, शिक्षित और प्रशिक्षित शासक अन्य किसी भी शासक से सामान्यत: श्रेष्ठ होगा। | | - शासक निर्माण : श्रेष्ठ शासक निर्माण करने की दृष्टि से धर्म के जानकार अपनी व्यवस्था निर्माण करे। ऐसा चयनित, संस्कारित, शिक्षित और प्रशिक्षित शासक अन्य किसी भी शासक से सामान्यत: श्रेष्ठ होगा। |
− | - सत्ता सन्तुलन : सत्ता का खडा और आडा विकेंद्रीकरण करने से सत्ताधारी बिगडने की संभावनाएँ कम हो जातीं हैं। धर्म सत्ता के पास केवल नैतिक सत्ता होती है। शासन के पास भौतिक सत्ता होती है। धर्म की सत्ता याने नैतिक सत्ता को जब अधिक सम्मान समाज में मिलता है तब स्वाभाविक ही भौतिक शासन धर्म के नियंत्रण में रहता है। | + | - सत्ता सन्तुलन : सत्ता का खडा और आडा विकेंद्रीकरण करने से सत्ताधारी बिगडने की संभावनाएँ कम हो जातीं हैं। धर्म सत्ता के पास केवल नैतिक सत्ता होती है। शासन के पास भौतिक सत्ता होती है। धर्म की सत्ता याने नैतिक सत्ता को जब अधिक सम्मान समाज में मिलता है तब स्वाभाविक ही भौतिक शासन धर्म के नियंत्रण में रहता है। |
− | ९. सामाजिक प्रणालियाँ
| + | |
− | सामान्य परिस्थितियों में सामाजिक गतिविधियाँ सहजता से चलाने के लिए सामाजिक प्रणालियाँ होतीं हैं| | + | == सामाजिक प्रणालियाँ == |
− | ९.१ स्त्री-पुरुष सहजीवन : मानव समाज के स्त्री और पुरुष ये दो परस्पर पूरक अंग हैं| सामान्यत: प्रत्येक स्त्री और पुरुष को पूर्ण बनने की इच्छा होती है| स्त्री और पुरुष मिलकर पूर्ण बनते हैं| सहजीवन की दोनों को आवश्यकता होती है| | + | सामान्य परिस्थितियों में सामाजिक गतिविधियाँ सहजता से चलाने के लिए सामाजिक प्रणालियाँ होतीं हैं। |
− | अन्य किसी भी सामाजिक सम्बन्ध से पति पत्नि में अत्यंत निकटता होती है| इसीलिए चराचर में व्याप्त एकात्मता का प्रारम्भ बिन्दु पति-पत्नि की एकात्मता की अनुभूति होती है| इसी अनुभूति का विस्तार वसुधैव कुटुम्बकम् है| | + | ९.१ स्त्री-पुरुष सहजीवन : मानव समाज के स्त्री और पुरुष ये दो परस्पर पूरक अंग हैं। सामान्यत: प्रत्येक स्त्री और पुरुष को पूर्ण बनने की इच्छा होती है। स्त्री और पुरुष मिलकर पूर्ण बनते हैं। सहजीवन की दोनों को आवश्यकता होती है। |
− | कर्तव्योंपर बल देनेवाले समाज का जीवन सुख शांतिमय होता है| केवल अधिकार की समझावाए अर्भक को जिसे केवल कर्तव्य हैं और कोई अधिकार नहीं हैं ऐसा मनुष्य बनाना यह भी कुटुम्ब का ही काम होता है| | + | अन्य किसी भी सामाजिक सम्बन्ध से पति पत्नि में अत्यंत निकटता होती है। इसीलिए चराचर में व्याप्त एकात्मता का प्रारम्भ बिन्दु पति-पत्नि की एकात्मता की अनुभूति होती है। इसी अनुभूति का विस्तार वसुधैव कुटुम्बकम् है। |
| + | कर्तव्योंपर बल देनेवाले समाज का जीवन सुख शांतिमय होता है। केवल अधिकार की समझावाए अर्भक को जिसे केवल कर्तव्य हैं और कोई अधिकार नहीं हैं ऐसा मनुष्य बनाना यह भी कुटुम्ब का ही काम होता है। |
| विकसित प्रणाली : कुटुम्ब या परिवार | | विकसित प्रणाली : कुटुम्ब या परिवार |
| ९.२ स्वभाव विविधता, स्वभावों की शुद्धि/वृद्धि और समायोजन के लिए | | ९.२ स्वभाव विविधता, स्वभावों की शुद्धि/वृद्धि और समायोजन के लिए |
− | समाज घटकों के स्वभावों को वर्गीकृत कर प्रत्येक स्वभाव वर्ग के स्वभाव की शुद्धि और वृद्धि हो इस की व्यवस्था निर्माण करना| इन स्वभाव वर्गों का समाज में गतिमान सन्तुलन बनाए रखने के लिए आनुवांशिकता यही सरल मार्ग है| | + | समाज घटकों के स्वभावों को वर्गीकृत कर प्रत्येक स्वभाव वर्ग के स्वभाव की शुद्धि और वृद्धि हो इस की व्यवस्था निर्माण करना। इन स्वभाव वर्गों का समाज में गतिमान सन्तुलन बनाए रखने के लिए आनुवांशिकता यही सरल मार्ग है। |
| ९.२.१ चिन्तक ९.२.२ शिक्षक ९.२.३ नियामक ९.२.४ रक्षक ९.२.५ उत्पादक ९.२.६ वितरक ९.२.७ सेवक | | ९.२.१ चिन्तक ९.२.२ शिक्षक ९.२.३ नियामक ९.२.४ रक्षक ९.२.५ उत्पादक ९.२.६ वितरक ९.२.७ सेवक |
− | जितने अधिक वर्ग बनाएँगे उतनी आवश्यकताओं की पूर्ति में अचूकता होगी| दूसरी ओर जितने वर्ग अधिक होंगे उतनी स्वभावों के दृढ़ीकरण और विकास की व्यवस्था अधिक जटिल होती जाएगी| इसका समन्वय करना होगा| | + | जितने अधिक वर्ग बनाएँगे उतनी आवश्यकताओं की पूर्ति में अचूकता होगी। दूसरी ओर जितने वर्ग अधिक होंगे उतनी स्वभावों के दृढ़ीकरण और विकास की व्यवस्था अधिक जटिल होती जाएगी। इसका समन्वय करना होगा। |
| विकसित प्रणाली : स्वभाव शुद्धि, वृद्धि और समायोजन | | विकसित प्रणाली : स्वभाव शुद्धि, वृद्धि और समायोजन |
| ९.३ मनुष्य की बढती घटती क्षमताएँ | | ९.३ मनुष्य की बढती घटती क्षमताएँ |
− | बच्चा पैदा होता है तब एकदम असमर्थ होता है| इसी तरह वह वृद्धावस्था में अधिक और अधिक अन्योंपर निर्भर होता जाता है| इन अवस्थाओं में युवक अवस्था मदद नहीं करेगी तो मानव जाती नष्ट हो जाएगी| इस समायोजन को ही आश्रम व्यवस्था कहते हैं| चारों आश्रमियों के साथ चराचर सृष्टि के घटकों को आधार देना गृहस्थाश्रमी का कर्तव्य होता है| | + | बच्चा पैदा होता है तब एकदम असमर्थ होता है। इसी तरह वह वृद्धावस्था में अधिक और अधिक अन्योंपर निर्भर होता जाता है। इन अवस्थाओं में युवक अवस्था मदद नहीं करेगी तो मानव जाती नष्ट हो जाएगी। इस समायोजन को ही आश्रम व्यवस्था कहते हैं। चारों आश्रमियों के साथ चराचर सृष्टि के घटकों को आधार देना गृहस्थाश्रमी का कर्तव्य होता है। |
| ९.३.१ ब्रह्मचर्यं ९.३.२ गृहस्थ ९.३.३ वानप्रस्थ या उत्तर गृहस्थ ९.३.४ संन्यास | | ९.३.१ ब्रह्मचर्यं ९.३.२ गृहस्थ ९.३.३ वानप्रस्थ या उत्तर गृहस्थ ९.३.४ संन्यास |
| विकसित प्रणाली : आश्रम | | विकसित प्रणाली : आश्रम |
| ९.४ दैनंदिन जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति : | | ९.४ दैनंदिन जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति : |
− | व्यक्ति अपनी केवल दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति भी अपने प्रयासों से नहीं कर सकता| लेकिन परावलम्बन से स्वतन्त्रता नष्ट होती है| परस्परावलंबन से स्वतन्त्रता और आवश्यकताओं की पूर्ति का समन्वय हो जाता है| जैसे जैसे भूक्षेत्र बढ़ता है परस्परावलंबन कठिन होता जाता है| प्राकृतिक संसाधन भी विकेन्द्रित ही होते हैं| इसलिए छोटे से छोटे भूक्षेत्र में परस्परावलंबी कुटुम्ब मिलकर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के आधारपर दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति के सन्दर्भ में स्वावलंबी बना हुआ समुदाय ही ग्राम है| ग्राम शब्द भी ‘गृ’ धातु से बना है| इसका अर्थ भी ‘गृह’ ऐसा ही है| अनुवांशिक कौटुम्बिक उद्योगों से निरंतर आपूर्ति की आश्वस्ती हो जाती है| | + | व्यक्ति अपनी केवल दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति भी अपने प्रयासों से नहीं कर सकता। लेकिन परावलम्बन से स्वतन्त्रता नष्ट होती है। परस्परावलंबन से स्वतन्त्रता और आवश्यकताओं की पूर्ति का समन्वय हो जाता है। जैसे जैसे भूक्षेत्र बढ़ता है परस्परावलंबन कठिन होता जाता है। प्राकृतिक संसाधन भी विकेन्द्रित ही होते हैं। इसलिए छोटे से छोटे भूक्षेत्र में परस्परावलंबी कुटुम्ब मिलकर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के आधारपर दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति के सन्दर्भ में स्वावलंबी बना हुआ समुदाय ही ग्राम है। ग्राम शब्द भी ‘गृ’ धातु से बना है। इसका अर्थ भी ‘गृह’ ऐसा ही है। अनुवांशिक कौटुम्बिक उद्योगों से निरंतर आपूर्ति की आश्वस्ती हो जाती है। |
| ९.४.१ बड़ा कुटुम्ब : कौटुम्बिक भावना ९.४.२ कौटुम्बिक उद्योग ९.४.३ स्वावलंबी आर्थिक इकाई | | ९.४.१ बड़ा कुटुम्ब : कौटुम्बिक भावना ९.४.२ कौटुम्बिक उद्योग ९.४.३ स्वावलंबी आर्थिक इकाई |
| विकसित प्रणाली : ग्राम व्यवस्था | | विकसित प्रणाली : ग्राम व्यवस्था |
| ९.५ सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के आधारपर स्वावलंबन : ज्ञान, कला, कौशल, सुरक्षा आदि | | ९.५ सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के आधारपर स्वावलंबन : ज्ञान, कला, कौशल, सुरक्षा आदि |
− | समान जीवनदृष्टिवाले समाज के घटकों की आवश्यकताएं समान होतीं हैं| आवश्यकताएं भी अनेक प्रकार की होती हैं| अन्न, वस्त्र, भवन जैसी दैनंदिन आवश्यकताओं से आगे की ज्ञान, कला, कौशल, पराई संस्कृति के समाजों से आक्रमणों से सुरक्षा आदि आवश्यकताओं के सन्दर्भ में अकेला ग्राम स्वावलंबी नहीं हो सकता| आवश्यकताओं का और व्यावसायिक कौशलों का सन्तुलन अनिवार्य होता है| इसलिए आवश्यकताओं की निरंतर पूर्ति की व्यवस्था के लिए व्यवसायिक कौशल की विधाओं के सन्दर्भ में दर्जनों लाभ देनेवाली आनुवांशिक व्यवस्था बनाना उचित होता है| | + | समान जीवनदृष्टिवाले समाज के घटकों की आवश्यकताएं समान होतीं हैं। आवश्यकताएं भी अनेक प्रकार की होती हैं। अन्न, वस्त्र, भवन जैसी दैनंदिन आवश्यकताओं से आगे की ज्ञान, कला, कौशल, पराई संस्कृति के समाजों से आक्रमणों से सुरक्षा आदि आवश्यकताओं के सन्दर्भ में अकेला ग्राम स्वावलंबी नहीं हो सकता। आवश्यकताओं का और व्यावसायिक कौशलों का सन्तुलन अनिवार्य होता है। इसलिए आवश्यकताओं की निरंतर पूर्ति की व्यवस्था के लिए व्यवसायिक कौशल की विधाओं के सन्दर्भ में दर्जनों लाभ देनेवाली आनुवांशिक व्यवस्था बनाना उचित होता है। |
| व्यवसायिक कौशलों के आधारपर : ९.५.१ कौशल सन्तुलन ९.५.२ कौशल विकास ९.५.३ स्वावलंबी समाज | | व्यवसायिक कौशलों के आधारपर : ९.५.१ कौशल सन्तुलन ९.५.२ कौशल विकास ९.५.३ स्वावलंबी समाज |
| विकसित प्रणाली : कौशल विधा व्यवस्था | | विकसित प्रणाली : कौशल विधा व्यवस्था |
| ९.६ समान जीवनदृष्टि वाले समाज का सहजीवन | | ९.६ समान जीवनदृष्टि वाले समाज का सहजीवन |
− | समान जीवनदृष्टिवाले समाज के घटकों की जीवनशैली, आकांक्षाएँ और इच्छाएँ समान होतीं हैं| लेकिन भिन्न जीवनदृष्टिवाले समाज के साथ सहजीवन सहज और सरल नहीं होता| समान जीवनदृष्टिवाले, सुरक्षित भूमिपर रहनेवाले सामूहिक सहजीवन को राष्ट्र कहते हैं| विश्व को एकात्मता के दायरे में लाने के लिए राष्ट्र एक चरण है| राष्ट्र अपने समाज का जीवन सुचारू रूप से चले इसलिए समाज को संगठित करता है और तीन प्रकारकी व्यवस्थाएं भी निर्माण करता है| | + | समान जीवनदृष्टिवाले समाज के घटकों की जीवनशैली, आकांक्षाएँ और इच्छाएँ समान होतीं हैं। लेकिन भिन्न जीवनदृष्टिवाले समाज के साथ सहजीवन सहज और सरल नहीं होता। समान जीवनदृष्टिवाले, सुरक्षित भूमिपर रहनेवाले सामूहिक सहजीवन को राष्ट्र कहते हैं। विश्व को एकात्मता के दायरे में लाने के लिए राष्ट्र एक चरण है। राष्ट्र अपने समाज का जीवन सुचारू रूप से चले इसलिए समाज को संगठित करता है और तीन प्रकारकी व्यवस्थाएं भी निर्माण करता है। |
| ९.६.१ पोषण व्यवस्था ९.६.२ रक्षण व्यवस्था ९.६.३ शिक्षण व्यवस्था | | ९.६.१ पोषण व्यवस्था ९.६.२ रक्षण व्यवस्था ९.६.३ शिक्षण व्यवस्था |
− | किसी भी जीवंत ईकाई की तरह ही राष्ट्र के पास दो ही विकल्प होते हैं| बढ़ना या घटना| जबतक राष्ट्र की आबादी और भूमि का विस्तार होता रहता है, राष्ट्र जीवित रहता है| वर्धिष्णु रहता है| | + | किसी भी जीवंत ईकाई की तरह ही राष्ट्र के पास दो ही विकल्प होते हैं। बढ़ना या घटना। जबतक राष्ट्र की आबादी और भूमि का विस्तार होता रहता है, राष्ट्र जीवित रहता है। वर्धिष्णु रहता है। |
− | विकसित संगठन : राष्ट्र | + | विकसित संगठन : राष्ट्र |
− | १०. सामाजिक (राष्ट्र की) व्यवस्थाओं की पार्श्वभूमि
| + | |
− | १०.१ आवश्यकता : समान जीवनदृष्टि वाले समाज के सातत्यपूर्ण सामूहिक सहजीवन के लिए और जीवन की अनिश्चितताओं को दूर करने के लिए व्यवस्थाएं अनिवार्य होतीं हैं| व्यवस्थाओं का निर्माण समाज जीवन के विविध अंगों के अन्गांगी संबंध को ध्यान में रखकर किया जाता है| नीचे दी हुई तालिका से इसे समझेंगे| | + | == सामाजिक (राष्ट्र की) व्यवस्थाओं की पार्श्वभूमि == |
| + | १०.१ आवश्यकता : समान जीवनदृष्टि वाले समाज के सातत्यपूर्ण सामूहिक सहजीवन के लिए और जीवन की अनिश्चितताओं को दूर करने के लिए व्यवस्थाएं अनिवार्य होतीं हैं। व्यवस्थाओं का निर्माण समाज जीवन के विविध अंगों के अन्गांगी संबंध को ध्यान में रखकर किया जाता है। नीचे दी हुई तालिका से इसे समझेंगे। |
| | | |
| | | |
Line 194: |
Line 208: |
| प्राकृतिक शास्त्र मानव धर्मशास्त्र /समाजशास्त्र/ अर्थशास्त्र | | प्राकृतिक शास्त्र मानव धर्मशास्त्र /समाजशास्त्र/ अर्थशास्त्र |
| भौतिक शास्त्र वनस्पति शास्त्र प्राणि शास्त्र सांस्कृतिक शास्त्र समृद्धि शास्त्र | | भौतिक शास्त्र वनस्पति शास्त्र प्राणि शास्त्र सांस्कृतिक शास्त्र समृद्धि शास्त्र |
− | १०.१.१ प्रेरक व्यवस्था : समाज की जीवनदृष्टि को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ानेवाली संस्कार और शिक्षा व्यवस्था| | + | १०.१.१ प्रेरक व्यवस्था : समाज की जीवनदृष्टि को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ानेवाली संस्कार और शिक्षा व्यवस्था। |
− | १०.१.२ पोषण करनेवाली समृद्धि व्यवस्था| | + | १०.१.२ पोषण करनेवाली समृद्धि व्यवस्था। |
| १०.१.३ रक्षण करनेवाली शासन व्यवस्था | | १०.१.३ रक्षण करनेवाली शासन व्यवस्था |
− | १०.२ व्यवस्था धर्म : व्यवस्था धर्म के याने व्यवस्था की धारणा के महत्त्वपूर्ण बिंदु निम्न हैं| | + | १०.२ व्यवस्था धर्म : व्यवस्था धर्म के याने व्यवस्था की धारणा के महत्त्वपूर्ण बिंदु निम्न हैं। |
| १०.२.१ बुद्धिसंगतता १०.२.२ सरलता १०.२.३ नियम संख्या अल्प हो १०.२.४ अपरिग्रही १०.२.५ समदर्शी १०.२.६ आप्तोप्त १०.२.७ मूलानुसारी १०.२.८ विरलदंड १०.२.९ प्रकृति सुसंगतता १०.२.१० विकेंद्रितता | | १०.२.१ बुद्धिसंगतता १०.२.२ सरलता १०.२.३ नियम संख्या अल्प हो १०.२.४ अपरिग्रही १०.२.५ समदर्शी १०.२.६ आप्तोप्त १०.२.७ मूलानुसारी १०.२.८ विरलदंड १०.२.९ प्रकृति सुसंगतता १०.२.१० विकेंद्रितता |
− | १०.३ व्यवस्था निर्माण की जिम्मेदारी : उपर्युक्त सभी बिन्दुओं को ध्यान में रखकर धर्म के जानकार लोग व्यवस्थाओं की प्रस्तुति और क्रियान्वयन में मार्गदर्शन करें| व्यवस्थाओं के अनुपालन की प्रेरणा देना शिक्षा का और दंड के सहारे अनुपालन करवाना शासक का कर्तव्य है| | + | १०.३ व्यवस्था निर्माण की जिम्मेदारी : उपर्युक्त सभी बिन्दुओं को ध्यान में रखकर धर्म के जानकार लोग व्यवस्थाओं की प्रस्तुति और क्रियान्वयन में मार्गदर्शन करें। व्यवस्थाओं के अनुपालन की प्रेरणा देना शिक्षा का और दंड के सहारे अनुपालन करवाना शासक का कर्तव्य है। |
− | १०.४. व्यवस्था नियंत्रण : स्खलन रोकने के लिए व्यवस्थाओं के निरंतर परिशीलन और परिष्कार की अन्तर्निहित व्यवस्था आवश्यक होती है| | + | १०.४. व्यवस्था नियंत्रण : स्खलन रोकने के लिए व्यवस्थाओं के निरंतर परिशीलन और परिष्कार की अन्तर्निहित व्यवस्था आवश्यक होती है। |
− | नियंत्रण व्यवस्था त्यागी, तपस्वी, ज्ञानी और चराचर के हित के लिए ही जीनेवाले, समाज जीवन का निरन्तर अध्ययन करनेवाले ऐसे ऋषितुल्य लोगोंद्वारा चलाई जानी चाहिए| व्यवस्था के नियमों का अनुपालन शासन करवाए| | + | नियंत्रण व्यवस्था त्यागी, तपस्वी, ज्ञानी और चराचर के हित के लिए ही जीनेवाले, समाज जीवन का निरन्तर अध्ययन करनेवाले ऐसे ऋषितुल्य लोगोंद्वारा चलाई जानी चाहिए। व्यवस्था के नियमों का अनुपालन शासन करवाए। |
− | १०.५ राष्ट्र की चिरंजीविता : राष्ट्र को चिरंजीवी बनाने के लिये विशेष व्यवस्थाएँ निर्माण करनी होती है| इस व्यवस्था का काम राष्ट्र की सांस्कृतिक क्षेत्र (आबादी) में तथा इस आबादी द्वारा व्याप्त भौगोलिक सीमाओं में वृद्धि करने का होता है| | + | १०.५ राष्ट्र की चिरंजीविता : राष्ट्र को चिरंजीवी बनाने के लिये विशेष व्यवस्थाएँ निर्माण करनी होती है। इस व्यवस्था का काम राष्ट्र की सांस्कृतिक क्षेत्र (आबादी) में तथा इस आबादी द्वारा व्याप्त भौगोलिक सीमाओं में वृद्धि करने का होता है। |
− | १०.५.१ श्रेष्ठ परम्पराओं का निर्वहन : श्रेष्ठ परंपरा निर्माण से श्रेष्ठता का सातत्य बना रहता है| सातत्य से स्वभाव बनता है| इसलिए श्रेष्ठ गुरु-शिष्य, श्रेष्ठ पिता-पुत्र, श्रेष्ठ माता-पुत्री, श्रेष्ठ गुरु-शिष्य, श्रेष्ठ राजा-राजपुत्र, श्रेष्ठ वणिक – वणिकपुत्रों की, त्याग की, तपस्या की, दान की, ज्ञानकी, कौशलोंकी, कला-कारीगरीकी, रीती-रिवाजोंकी आदि परम्पराओं का विकास और निर्वहन समाज या राष्ट्र की दीर्घायु के लिए आवश्यक होता है| | + | १०.५.१ श्रेष्ठ परम्पराओं का निर्वहन : श्रेष्ठ परंपरा निर्माण से श्रेष्ठता का सातत्य बना रहता है। सातत्य से स्वभाव बनता है। इसलिए श्रेष्ठ गुरु-शिष्य, श्रेष्ठ पिता-पुत्र, श्रेष्ठ माता-पुत्री, श्रेष्ठ गुरु-शिष्य, श्रेष्ठ राजा-राजपुत्र, श्रेष्ठ वणिक – वणिकपुत्रों की, त्याग की, तपस्या की, दान की, ज्ञानकी, कौशलोंकी, कला-कारीगरीकी, रीती-रिवाजोंकी आदि परम्पराओं का विकास और निर्वहन समाज या राष्ट्र की दीर्घायु के लिए आवश्यक होता है। |
− | १०.५.२ मूल्याङ्कन और सुधार व्यवस्था : काल के प्रवाह में श्रेष्ठ परम्पराएं नष्ट या भ्रष्ट हो जातीं हैं| परम्पराओं को श्रेष्ठ बनाए रखने के लिये निरंतर मूल्याङ्कन और सुधार व्यवस्था होनी चाहिए| | + | १०.५.२ मूल्याङ्कन और सुधार व्यवस्था : काल के प्रवाह में श्रेष्ठ परम्पराएं नष्ट या भ्रष्ट हो जातीं हैं। परम्पराओं को श्रेष्ठ बनाए रखने के लिये निरंतर मूल्याङ्कन और सुधार व्यवस्था होनी चाहिए। |
− | १०.५.३ भौगोलिक और संख्यात्मक वृद्धि व्यवस्था : अपने जैसी जीवनदृष्टि वाले समाज की जनसंख्या में और ऐसा समाज जिस भूमिपर रहता है उस भूमि के क्षेत्र में भी वृद्धि से राष्ट्र वर्धिष्णू रहता है| चिरंजीवी बनता है| इस के कारक तत्त्व निम्न हैं| | + | १०.५.३ भौगोलिक और संख्यात्मक वृद्धि व्यवस्था : अपने जैसी जीवनदृष्टि वाले समाज की जनसंख्या में और ऐसा समाज जिस भूमिपर रहता है उस भूमि के क्षेत्र में भी वृद्धि से राष्ट्र वर्धिष्णू रहता है। चिरंजीवी बनता है। इस के कारक तत्त्व निम्न हैं। |
− | १०.५.३.१ विश्व के अन्य समाजों का भारतीय व्यापारियों के व्यवहार से प्रभावित होना| | + | १०.५.३.१ विश्व के अन्य समाजों का भारतीय व्यापारियों के व्यवहार से प्रभावित होना। |
− | १०.५.३.२ श्रेष्ठ भारतीय विद्याकेंद्रों के माध्यम से अन्य समाजों का लाभान्वित और प्रभावित होना | | + | १०.५.३.२ श्रेष्ठ भारतीय विद्याकेंद्रों के माध्यम से अन्य समाजों का लाभान्वित और प्रभावित होना । |
− | १०.५.३.३ धर्म के पंडितों का विश्व संचार होना| ú | + | १०.५.३.३ धर्म के पंडितों का विश्व संचार होना। ú |
− | १०.५.३.४ अनिवार्यता की परिस्थिति में सैनिक अभियान जिसे ‘सम्राट व्यवस्था’ कहते हैं, चलाना| धर्म व्यवस्था के आग्रह करनेपर और धर्म व्यवस्था के मार्गदर्शन में ऐसे अभियान चलाना| | + | १०.५.३.४ अनिवार्यता की परिस्थिति में सैनिक अभियान जिसे ‘सम्राट व्यवस्था’ कहते हैं, चलाना। धर्म व्यवस्था के आग्रह करनेपर और धर्म व्यवस्था के मार्गदर्शन में ऐसे अभियान चलाना। |
− | ११. धर्म अनुपालन
| + | |
− | हमने जाना है कि समाज के सुख, शांति, स्वतंत्रता, सुसंस्कृतता के लिए समाज का धर्मनिष्ठ होना आवश्यक होता है| यहाँ मोटे तौरपर धर्म से मतलब कर्तव्य से है| समाज धारणा के लिए कर्तव्योंपर आधारित जीवन अनिवार्य होता है| समाज धारणा के लिए धर्म-युक्त व्यवहार में आनेवाली जटिलताओं को और उसके अनुपालन की प्रक्रिया को समझने का प्रयास करेंगे|
| + | == धर्म अनुपालन == |
− | ११.१ विविध स्तर : मानव समाज में जीवन्त इकाईयों के कई स्तर हैं| ये स्तर निम्न हैं| | + | हमने जाना है कि समाज के सुख, शांति, स्वतंत्रता, सुसंस्कृतता के लिए समाज का धर्मनिष्ठ होना आवश्यक होता है। यहाँ मोटे तौरपर धर्म से मतलब कर्तव्य से है। समाज धारणा के लिए कर्तव्योंपर आधारित जीवन अनिवार्य होता है। समाज धारणा के लिए धर्म-युक्त व्यवहार में आनेवाली जटिलताओं को और उसके अनुपालन की प्रक्रिया को समझने का प्रयास करेंगे। |
| + | ११.१ विविध स्तर : मानव समाज में जीवन्त इकाईयों के कई स्तर हैं। ये स्तर निम्न हैं। |
| ११.१.१ व्यक्ति ११.१.१.२ कुटुम्ब ११.१.१.३ ग्राम ११.१.१.४ व्यवसाय समूह | | ११.१.१ व्यक्ति ११.१.१.२ कुटुम्ब ११.१.१.३ ग्राम ११.१.१.४ व्यवसाय समूह |
| ११.१.५ भाषिक समूह ११.१.१.६ प्रादेशिक समूह ११.१.१.७ राष्ट्र ११.१.१.८ विश्व | | ११.१.५ भाषिक समूह ११.१.१.६ प्रादेशिक समूह ११.१.१.७ राष्ट्र ११.१.१.८ विश्व |
− | ये सब मानव से या व्यक्तियों से बनीं जीवन्त इकाईयाँ हैं| इन सब के अपने ‘स्वधर्म’ हैं| इन सभी स्तरों के करणीय और अकरणीय बातों को ही उस ईकाई का धर्म कहा जाता है| निम्न स्तरकी ईकाई उससे बड़े स्तरकी ईकाई का हिस्सा होने के कारण हर ईकाईका धर्म आगे की या उससे बड़ी जीवंत ईकाई के धर्म का अविरोधी होना आवश्यक होता है| जैसे व्यक्ति के धर्म का कोई भी पहलू कुटुम्ब से लेकर वैश्विक धर्म का विरोधी नहीं होना चाहिए| | + | ये सब मानव से या व्यक्तियों से बनीं जीवन्त इकाईयाँ हैं। इन सब के अपने ‘स्वधर्म’ हैं। इन सभी स्तरों के करणीय और अकरणीय बातों को ही उस ईकाई का धर्म कहा जाता है। निम्न स्तरकी ईकाई उससे बड़े स्तरकी ईकाई का हिस्सा होने के कारण हर ईकाईका धर्म आगे की या उससे बड़ी जीवंत ईकाई के धर्म का अविरोधी होना आवश्यक होता है। जैसे व्यक्ति के धर्म का कोई भी पहलू कुटुम्ब से लेकर वैश्विक धर्म का विरोधी नहीं होना चाहिए। |
− | ११.१.१.१ व्यक्ति : व्यक्ति के स्तरपर जिन धर्मों का समावेश होता है वे निम्न हैं| | + | ११.१.१.१ व्यक्ति : व्यक्ति के स्तरपर जिन धर्मों का समावेश होता है वे निम्न हैं। |
− | अ) स्वभावज : याने जन्म से जो सत्त्व-रज-तम युक्त स्वभाव मिला है उसमें शुद्धि और विकास करना| | + | अ) स्वभावज : याने जन्म से जो सत्त्व-रज-तम युक्त स्वभाव मिला है उसमें शुद्धि और विकास करना। |
− | आ) स्त्री-पुरुष : स्त्री या पुरुष होने के कारण स्त्री होने का या पुरुष होने का जो प्रयोजन है उसे पूर्ण करना| स्त्री ने एक अच्छी बेटी, अच्छी बहन, अच्छी पत्नि, अच्छी गृहिणी, अच्छी माता बनना| इसी तरह से पुरुष ने अच्छा बेटा, अच्छा भाई, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ, अच्छा पिता बनना| i | + | आ) स्त्री-पुरुष : स्त्री या पुरुष होने के कारण स्त्री होने का या पुरुष होने का जो प्रयोजन है उसे पूर्ण करना। स्त्री ने एक अच्छी बेटी, अच्छी बहन, अच्छी पत्नि, अच्छी गृहिणी, अच्छी माता बनना। इसी तरह से पुरुष ने अच्छा बेटा, अच्छा भाई, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ, अच्छा पिता बनना। i |
− | इ) विविध व्यक्तिगत धर्म : इसमें उपर्युक्त दोनों कर्तव्यों को छोड़कर अन्य व्यक्तिगत कर्तव्यों का समावेश होता है| जैसे शरीरधर्म, पड़ोसीधर्म, व्यवसायधर्म, समाजधर्म, राष्ट्रधर्म, विश्वधर्म अदि| | + | इ) विविध व्यक्तिगत धर्म : इसमें उपर्युक्त दोनों कर्तव्यों को छोड़कर अन्य व्यक्तिगत कर्तव्यों का समावेश होता है। जैसे शरीरधर्म, पड़ोसीधर्म, व्यवसायधर्म, समाजधर्म, राष्ट्रधर्म, विश्वधर्म अदि। |
− | ११.१.१.२ कुटुम्ब : समाज की सभी इकाइयों के विभिन्न स्तरोंपर उचित भूमिका निभानेवाले श्रेष्ठ मानव का निर्माण करना| कौटुम्बिक व्यवसाय के माध्यम से समाज की किसी आवश्यकता की पूर्ति करना| | + | ११.१.१.२ कुटुम्ब : समाज की सभी इकाइयों के विभिन्न स्तरोंपर उचित भूमिका निभानेवाले श्रेष्ठ मानव का निर्माण करना। कौटुम्बिक व्यवसाय के माध्यम से समाज की किसी आवश्यकता की पूर्ति करना। |
− | ११.१.१.३ ग्राम : ग्राम की भूमिका छोटे विश्व और बड़े कुटुम्ब की तरह ही होती है| जिस तरह कुटुम्ब के सदस्यों में आपस में पैसे का लेनदेन नहीं होता उसी तरह अच्छे ग्राम में कुटुम्बों में आपस में पैसे का लेनदेन नहीं होता| सम्मान और स्वतन्त्रता के साथ अन्न, वस्त्र, भवन, शिक्षा, आजीविका, सुरक्षा आदि सभी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है| | + | ११.१.१.३ ग्राम : ग्राम की भूमिका छोटे विश्व और बड़े कुटुम्ब की तरह ही होती है। जिस तरह कुटुम्ब के सदस्यों में आपस में पैसे का लेनदेन नहीं होता उसी तरह अच्छे ग्राम में कुटुम्बों में आपस में पैसे का लेनदेन नहीं होता। सम्मान और स्वतन्त्रता के साथ अन्न, वस्त्र, भवन, शिक्षा, आजीविका, सुरक्षा आदि सभी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। |
− | ११.१.४ व्यवसायिक समूह : समाज जीवन की आवश्यकताओं की हर विधा के अनुसार व्यवसायिक समूह बनते हैं| इन समूहों के भी सामान्य व्यक्ति से लेकर विश्व के स्तरतक के लिए करणीय और अकरणीय कार्य होते हैं| कर्तव्य होते हैं| इन्हें पूर्व में ‘जातिधर्म’ के नाम से जाना जाता था| इनमें पदार्थ के उत्पादन के रूप में आर्थिक स्वतन्त्रता के किसी एक पहलू की रक्षा में योगदान करना होता है| वस्तुएं, भावनाएं, विचार, कला आदि में से समाज जीवन की किसी एक आवश्यकता की एक विधा के पदार्थ की निरंतर आपूर्ति करना| पदार्थ का अर्थ केवल वस्तु नहीं है| जिस पद याने शब्द का अर्थ होता है वह पदार्थ कहलाता है| व्यावसायिक समूह का काम कौशल का विकास करना, कौशल का पीढ़ी दर पीढ़ी अंतरण करना और अन्य व्यवसायिक समूहों से समन्वय रखना आदि है| | + | ११.१.४ व्यवसायिक समूह : समाज जीवन की आवश्यकताओं की हर विधा के अनुसार व्यवसायिक समूह बनते हैं। इन समूहों के भी सामान्य व्यक्ति से लेकर विश्व के स्तरतक के लिए करणीय और अकरणीय कार्य होते हैं। कर्तव्य होते हैं। इन्हें पूर्व में ‘जातिधर्म’ के नाम से जाना जाता था। इनमें पदार्थ के उत्पादन के रूप में आर्थिक स्वतन्त्रता के किसी एक पहलू की रक्षा में योगदान करना होता है। वस्तुएं, भावनाएं, विचार, कला आदि में से समाज जीवन की किसी एक आवश्यकता की एक विधा के पदार्थ की निरंतर आपूर्ति करना। पदार्थ का अर्थ केवल वस्तु नहीं है। जिस पद याने शब्द का अर्थ होता है वह पदार्थ कहलाता है। व्यावसायिक समूह का काम कौशल का विकास करना, कौशल का पीढ़ी दर पीढ़ी अंतरण करना और अन्य व्यवसायिक समूहों से समन्वय रखना आदि है। |
− | ११.१.५ भाषिक समूह : भाषा का मुख्य उपयोग परस्पर संवाद है| संवाद विचारों की सटीक अभिव्यक्ति करनेवाला हो इस हेतु से भाषाएँ बनतीं हैं| संवाद में सहजता, सरलता, सुगमता से आत्मीयता बढ़ती है| इसी हेतु से भाषिक समूह बनते हैं| | + | ११.१.५ भाषिक समूह : भाषा का मुख्य उपयोग परस्पर संवाद है। संवाद विचारों की सटीक अभिव्यक्ति करनेवाला हो इस हेतु से भाषाएँ बनतीं हैं। संवाद में सहजता, सरलता, सुगमता से आत्मीयता बढ़ती है। इसी हेतु से भाषिक समूह बनते हैं। |
− | ११.१.६ प्रादेशिक समूह:शासनिक और व्यवस्थात्मक सुविधा की दृष्टि से प्रादेशिक स्तरका महत्त्व होता है| | + | ११.१.६ प्रादेशिक समूह:शासनिक और व्यवस्थात्मक सुविधा की दृष्टि से प्रादेशिक स्तरका महत्त्व होता है। |
− | ११.१.७ राष्ट्र : राष्ट्र अपने समाज के लिये विविध प्रकारके संगठनों का और व्यवस्थाओं का निर्माण करता है| | + | ११.१.७ राष्ट्र : राष्ट्र अपने समाज के लिये विविध प्रकारके संगठनों का और व्यवस्थाओं का निर्माण करता है। |
− | ११.१.८ विश्व : पूर्व में बताई हुई ९.१.१ से ९.१.७ तक की सभी इकाइयां वैश्विक हित की अविरोधी रहें| | + | ११.१.८ विश्व : पूर्व में बताई हुई ९.१.१ से ९.१.७ तक की सभी इकाइयां वैश्विक हित की अविरोधी रहें। |
− | ११.२ प्रकृति सुसंगतता : समाज जीवन में केन्द्रिकरण और विकेंद्रीकरण का समन्वय हो यह आवश्यक है| विशाल उद्योग, बाजार का सन्तुलन, शासकीय कार्यालय, व्यावसायिक, भाषिक, प्रादेशिक समूहों के समन्वय की व्यवस्थाएं आदि के लिये शहरों की आवश्यकता होती है| वनवासी या गिरिजन भी ग्राम व्यवस्था से ही जुड़े हुए होने चाहिए| | + | ११.२ प्रकृति सुसंगतता : समाज जीवन में केन्द्रिकरण और विकेंद्रीकरण का समन्वय हो यह आवश्यक है। विशाल उद्योग, बाजार का सन्तुलन, शासकीय कार्यालय, व्यावसायिक, भाषिक, प्रादेशिक समूहों के समन्वय की व्यवस्थाएं आदि के लिये शहरों की आवश्यकता होती है। वनवासी या गिरिजन भी ग्राम व्यवस्था से ही जुड़े हुए होने चाहिए। |
− | ११.३ प्रक्रियाएं : धर्म के अनुपालन में बुद्धि के स्तरपर धर्म के प्रति पर्याप्त संज्ञान, मन के स्तरपर कौटुम्बिक भावना, श्रद्धा का विकास तथा शारीरिक स्तरपर सहकारिता की आदतें अत्यंत आवश्यक हैं| | + | ११.३ प्रक्रियाएं : धर्म के अनुपालन में बुद्धि के स्तरपर धर्म के प्रति पर्याप्त संज्ञान, मन के स्तरपर कौटुम्बिक भावना, श्रद्धा का विकास तथा शारीरिक स्तरपर सहकारिता की आदतें अत्यंत आवश्यक हैं। |
− | ११.३.१ धर्म संज्ञान : ‘समझना’ यह बुद्धि का काम होता है| इसलिए जब बच्चे का बुद्धि का अंग विकसित हो रहा होता है उसे धर्म की बौद्धिक याने तर्क तथा कर्मसिद्धांत के आधारपर शिक्षा देना उचित होता है| इस दृष्टि से तर्कशास्त्र की समझ या सरल शब्दों में ‘किसी भी बात के करने से पहले चराचर के हित में उस बात को कैसे करना चाहिए’ इसे समझने की क्षमता का विकास आवश्यक होता है| | + | ११.३.१ धर्म संज्ञान : ‘समझना’ यह बुद्धि का काम होता है। इसलिए जब बच्चे का बुद्धि का अंग विकसित हो रहा होता है उसे धर्म की बौद्धिक याने तर्क तथा कर्मसिद्धांत के आधारपर शिक्षा देना उचित होता है। इस दृष्टि से तर्कशास्त्र की समझ या सरल शब्दों में ‘किसी भी बात के करने से पहले चराचर के हित में उस बात को कैसे करना चाहिए’ इसे समझने की क्षमता का विकास आवश्यक होता है। |
− | ११.३.२ कौटुम्बिक भावना का विकास : समाज के सभी परस्पर संबंधों में कौटुम्बिक भावना से व्यवहार का आधार धर्मसंज्ञान ही तो होता है| मन को बुद्धि के नियंत्रण में रखना ही मन की शिक्षा होती है| दुर्योधन के निम्न कथन से सब परिचित हैं| जानामी धर्मं न च में प्रवृत्ति: | जानाम्यधर्मं न च में निवृत्ति: || | + | ११.३.२ कौटुम्बिक भावना का विकास : समाज के सभी परस्पर संबंधों में कौटुम्बिक भावना से व्यवहार का आधार धर्मसंज्ञान ही तो होता है। मन को बुद्धि के नियंत्रण में रखना ही मन की शिक्षा होती है। दुर्योधन के निम्न कथन से सब परिचित हैं। जानामी धर्मं न च में प्रवृत्ति: । जानाम्यधर्मं न च में निवृत्ति: ।। |
− | ११.३.३ धर्माचरण की आदतें: दुर्योधन के उपर्युक्त कथन को ध्यान में रखकर ही गर्भधारणा से ही बच्चे को धर्माचरण की आदतों की शिक्षा देना महत्त्वपूर्ण बन जाता है| आदत का अर्थ है जिस बात के करने में कठिनाई का अनुभव नहीं होता| किसी बात के बारबार करने से आचरण में यह सहजता आती है| आदत बना जाती है| जब उसे बुद्धिका अधिष्ठान मिल जाता है तब वह आदतें मनुष्य का स्वभाव ही बना देतीं हैं| | + | ११.३.३ धर्माचरण की आदतें: दुर्योधन के उपर्युक्त कथन को ध्यान में रखकर ही गर्भधारणा से ही बच्चे को धर्माचरण की आदतों की शिक्षा देना महत्त्वपूर्ण बन जाता है। आदत का अर्थ है जिस बात के करने में कठिनाई का अनुभव नहीं होता। किसी बात के बारबार करने से आचरण में यह सहजता आती है। आदत बना जाती है। जब उसे बुद्धिका अधिष्ठान मिल जाता है तब वह आदतें मनुष्य का स्वभाव ही बना देतीं हैं। |
| ११.४ धर्म के अनुपालन के स्तर और साधन : | | ११.४ धर्म के अनुपालन के स्तर और साधन : |
− | ११.४.१ धर्म के अनुपालन करनेवालों के राष्ट्रभक्त, अराष्ट्रीय और राष्ट्रद्रोही ऐसे ३ स्तर होते हैं|| | + | ११.४.१ धर्म के अनुपालन करनेवालों के राष्ट्रभक्त, अराष्ट्रीय और राष्ट्रद्रोही ऐसे ३ स्तर होते हैं।। |
− | ११.४.२ धर्म के अनुपालन के साधन : धर्म का अनुपालन पूर्व में बताए अनुसार शिक्षा, आदेश, प्रायश्चित्त और पश्चात्ताप तथा दंड ऐसा चार प्रकार से होता है| शिक्षा तथा शासन दुर्बल होने से समाज में प्रमाद करनेवालों की संख्या में वृद्धि होती है| | + | ११.४.२ धर्म के अनुपालन के साधन : धर्म का अनुपालन पूर्व में बताए अनुसार शिक्षा, आदेश, प्रायश्चित्त और पश्चात्ताप तथा दंड ऐसा चार प्रकार से होता है। शिक्षा तथा शासन दुर्बल होने से समाज में प्रमाद करनेवालों की संख्या में वृद्धि होती है। |
− | ११.५ धर्म के अनुपालन के अवरोध : धर्म के अनुपालन में निम्न बातें अवरोध-रूप होतीं हैं| | + | ११.५ धर्म के अनुपालन के अवरोध : धर्म के अनुपालन में निम्न बातें अवरोध-रूप होतीं हैं। |
− | ११.५.१ भिन्न जीवनदृष्टि के लोग : शीघ्रातिशीघ्र भिन्न जीवनदृष्टि के लोगों को आत्मसात करना आवश्यक होता है| अन्यथा समाज जीवन अस्थिर और संघर्षमय बन जाता है| | + | ११.५.१ भिन्न जीवनदृष्टि के लोग : शीघ्रातिशीघ्र भिन्न जीवनदृष्टि के लोगों को आत्मसात करना आवश्यक होता है। अन्यथा समाज जीवन अस्थिर और संघर्षमय बन जाता है। |
− | ११.५.२ स्वार्थ/संकुचित अस्मिताएँ :आवश्यकताओं की पुर्ति तक तो स्वार्थ भावना समर्थनीय है| अस्मिता या अहंकार यह प्रत्येक जिवंत ईकाई का एक स्वाभाविक पहलू होता है| किन्तु जब किसी ईकाई के विशिष्ट स्तरकी यह अस्मिता अपने से ऊपर की ईकाई जिसका वह हिस्सा है, उसकी अस्मिता से बड़ी लगने लगती है तब समाज जीवन की शांति नष्ट हो जाती है| इसलिए यह आवश्यक है की मजहब, रिलिजन, प्रादेशिक अलगता, भाषिक भिन्नता, धनका अहंकार, बौद्धिक श्रेष्ठता आदि जैसी संकुचित अस्मिताएँ अपने से ऊपर की जीवंत ईकाई की अस्मिता के विरोध में नहीं हो| | + | ११.५.२ स्वार्थ/संकुचित अस्मिताएँ :आवश्यकताओं की पुर्ति तक तो स्वार्थ भावना समर्थनीय है। अस्मिता या अहंकार यह प्रत्येक जिवंत ईकाई का एक स्वाभाविक पहलू होता है। किन्तु जब किसी ईकाई के विशिष्ट स्तरकी यह अस्मिता अपने से ऊपर की ईकाई जिसका वह हिस्सा है, उसकी अस्मिता से बड़ी लगने लगती है तब समाज जीवन की शांति नष्ट हो जाती है। इसलिए यह आवश्यक है की मजहब, रिलिजन, प्रादेशिक अलगता, भाषिक भिन्नता, धनका अहंकार, बौद्धिक श्रेष्ठता आदि जैसी संकुचित अस्मिताएँ अपने से ऊपर की जीवंत ईकाई की अस्मिता के विरोध में नहीं हो। |
− | ११.५.३ विपरीत शिक्षा : विपरीत या दोषपूर्ण शिक्षा यह तो सभी समस्याओं की जड़ होती है| | + | ११.५.३ विपरीत शिक्षा : विपरीत या दोषपूर्ण शिक्षा यह तो सभी समस्याओं की जड़ होती है। |
− | ११.६ कारक तत्त्व : कारक तत्वों से मतलब है धर्मपालन में सहायता देनेवाले घटक| ये निम्न होते हैं| | + | ११.६ कारक तत्त्व : कारक तत्वों से मतलब है धर्मपालन में सहायता देनेवाले घटक। ये निम्न होते हैं। |
− | ११.६.१ धर्म व्यवस्था : शासन धर्मनिष्ठ रहे यह सुनिश्चित करना धर्म व्यवस्था की जिम्मेदारी है| अपने त्याग, तपस्या, ज्ञान, लोकसंग्रह, चराचर के हित का चिन्तन, समर्पण भाव और कार्यकुशलता के आधारपर समाज से प्राप्त समर्थन प्राप्त कर वह देखे की कोई अयोग्य व्यक्ति शासक नहीं बनें| | + | ११.६.१ धर्म व्यवस्था : शासन धर्मनिष्ठ रहे यह सुनिश्चित करना धर्म व्यवस्था की जिम्मेदारी है। अपने त्याग, तपस्या, ज्ञान, लोकसंग्रह, चराचर के हित का चिन्तन, समर्पण भाव और कार्यकुशलता के आधारपर समाज से प्राप्त समर्थन प्राप्त कर वह देखे की कोई अयोग्य व्यक्ति शासक नहीं बनें। |
| ११.६.२ शिक्षा : ११.६.१.१ कुटुम्ब शिक्षा ११.६.१.२ विद्याकेन्द्र की शिक्षा ११.६.१.३ लोकशिक्षा | | ११.६.२ शिक्षा : ११.६.१.१ कुटुम्ब शिक्षा ११.६.१.२ विद्याकेन्द्र की शिक्षा ११.६.१.३ लोकशिक्षा |
− | ११.६.४ धर्मनिष्ठ शासन : शासक का धर्मशास्त्र का जानकार होना और स्वयं धर्माचरणी होना भी आवश्यक होता है| जब शासन धर्म के अनुसार चलता है, धर्म व्यवस्थाद्वारा नियमित निर्देशित होता है तब धर्म भी स्थापित होता है और राज्य व्यवस्था भी श्रेष्ठ बनती है| | + | ११.६.४ धर्मनिष्ठ शासन : शासक का धर्मशास्त्र का जानकार होना और स्वयं धर्माचरणी होना भी आवश्यक होता है। जब शासन धर्म के अनुसार चलता है, धर्म व्यवस्थाद्वारा नियमित निर्देशित होता है तब धर्म भी स्थापित होता है और राज्य व्यवस्था भी श्रेष्ठ बनती है। |
− | ११.६.५ धर्मनिष्ठों का सामाजिक नेतृत्व : समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में धर्मनिष्ठ लोग जब अच्छी संख्या में दिखाई देते हैं तब समाज मानस धर्मनिष्ठ बनता है| | + | ११.६.५ धर्मनिष्ठों का सामाजिक नेतृत्व : समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में धर्मनिष्ठ लोग जब अच्छी संख्या में दिखाई देते हैं तब समाज मानस धर्मनिष्ठ बनता है। |
− | ११.७ चरण : धर्म का अनुपालन स्वेच्छा से करनेवाले समाज के निर्माण के लिए दो बातें अत्यंत महत्वपूर्ण होतीं हैं| एक गर्भ में श्रेष्ठ जीवात्मा की स्थापना और दूसरे शिक्षा और संस्कार| शिक्षा और संस्कार में - | + | ११.७ चरण : धर्म का अनुपालन स्वेच्छा से करनेवाले समाज के निर्माण के लिए दो बातें अत्यंत महत्वपूर्ण होतीं हैं। एक गर्भ में श्रेष्ठ जीवात्मा की स्थापना और दूसरे शिक्षा और संस्कार। शिक्षा और संस्कार में - |
− | ११.७.१ जन्मपूर्व और शैशव कालमें अधिजनन शास्त्र के आधारपर मार्गदर्शन| | + | ११.७.१ जन्मपूर्व और शैशव कालमें अधिजनन शास्त्र के आधारपर मार्गदर्शन। |
− | ११.७.२ बाल्य काल : कुटुम्ब की शिक्षा के साथ विद्याकेन्द्र शिक्षा का समायोजन| | + | ११.७.२ बाल्य काल : कुटुम्ब की शिक्षा के साथ विद्याकेन्द्र शिक्षा का समायोजन। |
− | ११.७.३ यौवन काल: अहंकार, बुद्धि के सही मोड़ हेतु सत्संग, प्रेरणा, वातावरण, ज्ञानार्जन, बलार्जन, कौशलार्जन आदि| | + | ११.७.३ यौवन काल: अहंकार, बुद्धि के सही मोड़ हेतु सत्संग, प्रेरणा, वातावरण, ज्ञानार्जन, बलार्जन, कौशलार्जन आदि। |
| ११.७.४ प्रौढ़ावस्था : पूर्व ज्ञान/आदतों को व्यवस्थित करने के लिए सामाजिक वातावरण और मार्गदर्शन | | ११.७.४ प्रौढ़ावस्था : पूर्व ज्ञान/आदतों को व्यवस्थित करने के लिए सामाजिक वातावरण और मार्गदर्शन |
| ११.७.४.१ पुरोहित ११.६.४.२ मेले/यात्राएं ११.६.४.३ कीर्तनकार/प्रवचनकार ११.६.४.४ धर्माचार्य ११.७.४.५ दृक्श्राव्य माध्यम –चित्रपट, दूरदर्शन आदि ११.७.४.६ आन्तरजाल ११.७.४.७ कानून का डर | | ११.७.४.१ पुरोहित ११.६.४.२ मेले/यात्राएं ११.६.४.३ कीर्तनकार/प्रवचनकार ११.६.४.४ धर्माचार्य ११.७.४.५ दृक्श्राव्य माध्यम –चित्रपट, दूरदर्शन आदि ११.७.४.६ आन्तरजाल ११.७.४.७ कानून का डर |
− | ११.८ धर्म निर्णय व्यवस्था : सामान्यत: जब भी धर्म की समझसे सम्बंधित समस्या हो तब धर्म निर्णय की व्यवस्था उपलब्ध होनी चाहिये| इस व्यवस्था के तीन स्तर होना आवश्यक है| पहला स्तर तो स्थानिक धर्मज्ञ, दूसरा जनपदीय या निकटके तीर्थक्षेत्र में धर्मज्ञ परिषद्, और तीसरा स्तर अखिल भारतीय या राष्ट्रीय धर्मज्ञ परिषद्| | + | ११.८ धर्म निर्णय व्यवस्था : सामान्यत: जब भी धर्म की समझसे सम्बंधित समस्या हो तब धर्म निर्णय की व्यवस्था उपलब्ध होनी चाहिये। इस व्यवस्था के तीन स्तर होना आवश्यक है। पहला स्तर तो स्थानिक धर्मज्ञ, दूसरा जनपदीय या निकटके तीर्थक्षेत्र में धर्मज्ञ परिषद्, और तीसरा स्तर अखिल भारतीय या राष्ट्रीय धर्मज्ञ परिषद्। |
− | ११.९ माध्यम : धर्म अनुपालन करवाने के मुख्यत: दो प्रकारके माध्यम होते हैं| | + | ११.९ माध्यम : धर्म अनुपालन करवाने के मुख्यत: दो प्रकारके माध्यम होते हैं। |
− | ११.९.१ कुटुम्ब के दायरे में : धर्म शिक्षा का अर्थ है सदाचार की शिक्षा| धर्म की शिक्षा के लिए कुटुम्ब यह सबसे श्रेष्ठ पाठशाला है| विद्याकेन्द्र की शिक्षा तो कुटुम्ब में मिली धर्म शिक्षा की पुष्टि या आवश्यक सुधार के लिए ही होती है| कुटुम्ब में धर्म शिक्षा तीन तरह से होती है| गर्भपूर्व संस्कार, गर्भ संस्कार और शिशु संस्कार और आदतें| मनुष्य की आदतें भी बचपन में ही पक्की हो जातीं हैं| | + | ११.९.१ कुटुम्ब के दायरे में : धर्म शिक्षा का अर्थ है सदाचार की शिक्षा। धर्म की शिक्षा के लिए कुटुम्ब यह सबसे श्रेष्ठ पाठशाला है। विद्याकेन्द्र की शिक्षा तो कुटुम्ब में मिली धर्म शिक्षा की पुष्टि या आवश्यक सुधार के लिए ही होती है। कुटुम्ब में धर्म शिक्षा तीन तरह से होती है। गर्भपूर्व संस्कार, गर्भ संस्कार और शिशु संस्कार और आदतें। मनुष्य की आदतें भी बचपन में ही पक्की हो जातीं हैं। |
− | ११.९.२ कुटुम्ब से बाहर के माध्यम : मनुष्य तो हर पल सीखता ही रहता है| इसलिए कुटुम्ब से बाहर भी वह कई बातें सीखता है| माध्यमों में मित्र मंडली, विद्यालय, समाज का सांस्कृतिक स्तर और क़ानून व्यवस्था आदि| | + | ११.९.२ कुटुम्ब से बाहर के माध्यम : मनुष्य तो हर पल सीखता ही रहता है। इसलिए कुटुम्ब से बाहर भी वह कई बातें सीखता है। माध्यमों में मित्र मंडली, विद्यालय, समाज का सांस्कृतिक स्तर और क़ानून व्यवस्था आदि। |
− | १२) तन्त्रज्ञान विकास नीति और सार्वत्रिकीकरण
| + | |
− | यदि जीवन के पूरे प्रतिमान का ठीक से विचार किया जाए तो तन्त्रज्ञान के विकास का और सार्वत्रिकीकरण का विषय प्रतिमान की सोच और व्यवहार में आ जाता है। अलग विषय नहीं बनता। लेकिन तन्त्रज्ञान और उसके कारण जीवन को जो गति प्राप्त हुई है उस के कारण सामान्य मनुष्य तो क्या अच्छे अच्छे विद्वान भी हतप्रभ हो गये दिखाई देते हैं। इसलिये तन्त्रज्ञान के विषय में अधिक गहराई से अलग से विचार करने की आवश्यकता है। इस का विचार हम इस खंड के अध्याय ३६ में करेंगे|
| + | == तन्त्रज्ञान विकास नीति और सार्वत्रिकीकरण == |
| + | यदि जीवन के पूरे प्रतिमान का ठीक से विचार किया जाए तो तन्त्रज्ञान के विकास का और सार्वत्रिकीकरण का विषय प्रतिमान की सोच और व्यवहार में आ जाता है। अलग विषय नहीं बनता। लेकिन तन्त्रज्ञान और उसके कारण जीवन को जो गति प्राप्त हुई है उस के कारण सामान्य मनुष्य तो क्या अच्छे अच्छे विद्वान भी हतप्रभ हो गये दिखाई देते हैं। इसलिये तन्त्रज्ञान के विषय में अधिक गहराई से अलग से विचार करने की आवश्यकता है। इस का विचार हम इस खंड के अध्याय ३६ में करेंगे। |
| | | |
| [[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन (प्रतिमान)]] | | [[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन (प्रतिमान)]] |