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| == प्रस्तावना == | | == प्रस्तावना == |
− | भारत में समाज चिंतन की प्रदीर्घ परम्परा है। चिरंतन या शाश्वत तत्त्वों के आधारपर युगानुकूल और देशानुकूल जीवन का विचार यह हर काल में हम करते आए हैं। लगभग १४००-१५०० वर्ष की हमारे समाज के अस्तित्व की लड़ाई के कारण यह चिंतन खंडित हो गया था। वर्तमान के सन्दर्भ में पुन: ऐसे समाज चिंतन की आवश्यकता निर्माण हुई हैं। | + | भारत में समाज चिंतन की प्रदीर्घ परम्परा है। चिरंतन या शाश्वत तत्त्वों के आधार पर युगानुकूल और देशानुकूल जीवन का विचार यह हर काल में हम करते आए हैं। लगभग १४००-१५०० वर्ष की हमारे समाज के अस्तित्व की लड़ाई के कारण यह चिंतन खंडित हो गया था। वर्तमान के सन्दर्भ में पुन: ऐसे समाज चिंतन की आवश्यकता निर्माण हुई हैं: |
− | १. वर्तमान समाजशास्त्रीय लेखन सामाजिक समस्याओं को हल करने में असमर्थ है।
| + | # वर्तमान समाजशास्त्रीय लेखन सामाजिक समस्याओं को हल करने में असमर्थ है। |
− | २. वर्तमान की प्रस्तुतियों में ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: का विचार नहीं है।
| + | # वर्तमान की प्रस्तुतियों में ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: का विचार नहीं है। |
− | ३. वर्तमान में उपलब्ध सभी स्मृतियाँ कालबाह्य हो गयी हैं।
| + | # वर्तमान में उपलब्ध सभी स्मृतियाँ कालबाह्य हो गयी हैं। |
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| == समाज की प्रधान आवश्यकताएँ == | | == समाज की प्रधान आवश्यकताएँ == |
− | १.१ आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों की याने आवश्यकताओं की पूर्ति आवश्यक है। धर्मविरोधी इच्छाओं की नहीं।
| + | # आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों की याने आवश्यकताओं की पूर्ति आवश्यक है। धर्मविरोधी इच्छाओं की नहीं। |
− | १.२ सुखी बनने के लिये निम्न चार बातें आवश्यक हैं। इन बातों का समष्टिगत होना भी आवश्यक है। - सुसाध्य आजीविका - स्वतन्त्रता - शांति - पौरुष
| + | # सुखी बनने के लिये निम्न चार बातें आवश्यक हैं। इन बातों का समष्टिगत होना भी आवश्यक है: |
− | १.३ सामाजिक स्तरपर लक्ष्य का व्यावहारिक स्वरूप ‘स्वतन्त्रता’ है। स्वतन्त्रता का अर्थ है अपनी इच्छा के अनुसार व्यवहार करने की सामर्थ्य। धर्म ही स्वैराचार को सीमामें बाँधकर उसे स्वतन्त्रता बना देता है।
| + | ## सुसाध्य आजीविका |
− | १.४ स्वाभाविक, शासनिक और आर्थिक ऐसी तीन प्रकारकी स्वतन्त्रताओं को अक्षुण्ण रखने के लिए समाज अपने संगठन और व्यवस्थाएँ निर्माण करता है।
| + | ## स्वतन्त्रता |
− | २.
| + | ## शांति |
− | | + | ## पौरुष |
− | == समाजमें आवश्यक कार्य ==
| + | # सामाजिक स्तर पर लक्ष्य का व्यावहारिक स्वरूप ‘स्वतन्त्रता’ है। स्वतन्त्रता का अर्थ है अपनी इच्छा के अनुसार व्यवहार करने की सामर्थ्य। धर्म ही स्वैराचार को सीमा में बाँधकर उसे स्वतन्त्रता बना देता है। |
| + | # स्वाभाविक, शासनिक और आर्थिक ऐसी तीन प्रकार की स्वतन्त्रताओं को अक्षुण्ण रखने के लिए समाज अपने संगठन और व्यवस्थाएँ निर्माण करता है। |
| + | # समाज में आवश्यक कार्य |
| २.१ समाज की मानव से अपेक्षायँ निम्न होतीं हैं। | | २.१ समाज की मानव से अपेक्षायँ निम्न होतीं हैं। |
| - जीवनदृष्टि के अनुरूप व्यवहार/धर्माचरण | | - जीवनदृष्टि के अनुरूप व्यवहार/धर्माचरण |