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→‎आश्रम की व्याख्या: लेख सम्पादित किया
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वर्तमान युग के दायित्वों का वर्गीकरण निम्न हो सकता है ।
 
वर्तमान युग के दायित्वों का वर्गीकरण निम्न हो सकता है ।
 
1. अपने जीवनसाथी (पति या पत्नि) के प्रति दायित्व  
 
1. अपने जीवनसाथी (पति या पत्नि) के प्रति दायित्व  
  1.1 एकनिष्ठा      
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1.1 एकनिष्ठा      
  1.2 परस्पर विश्वास      
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1.2 परस्पर विश्वास      
  1.3 परस्पर पूरकता का व्यवहार       
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1.3 परस्पर पूरकता का व्यवहार       
  1.4 सुख/दुख में साथ
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1.4 सुख/दुख में साथ
 
2. अपने बच्चों के प्रति दायित्व
 
2. अपने बच्चों के प्रति दायित्व
  2.1  श्रेष्ठ संतति का निर्माण
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2.1  श्रेष्ठ संतति का निर्माण
 
जो समाज श्रेष्ठ आनुवांशिकता को संजोता है अर्थात् संकर नही होने देता या संकर अल्पतम रखता है और साथ ही में एैसे आनुवंशजों को श्रेष्ठ संस्कार पाने की सुनिश्चिती करता है वह समाज केवल श्रेष्ठ ( सुखी, सबल, समाधानी और समृद्ध ) ही नही बनता, चिरंतन भी बन जाता है ।  
 
जो समाज श्रेष्ठ आनुवांशिकता को संजोता है अर्थात् संकर नही होने देता या संकर अल्पतम रखता है और साथ ही में एैसे आनुवंशजों को श्रेष्ठ संस्कार पाने की सुनिश्चिती करता है वह समाज केवल श्रेष्ठ ( सुखी, सबल, समाधानी और समृद्ध ) ही नही बनता, चिरंतन भी बन जाता है ।  
2.1.1 श्रेष्ठ, दैवी गुणसंपदायुक्त बच्चों को जन्म देना
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2.1.1 श्रेष्ठ, दैवी गुणसंपदायुक्त बच्चों को जन्म देना
2.1.2 अपने बच्चों को सुसंस्कारित और सुशिक्षित बनाकर एक श्रेष्ठ समाज-घटक बनाना
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2.1.2 अपने बच्चों को सुसंस्कारित और सुशिक्षित बनाकर एक श्रेष्ठ समाज-घटक बनाना
2.1.2.1 घर का वातावरण, परस्पर व्यवहार, आत्मीयता आदी के आधारपर सुसंस्कारित  बनाना ।
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2.1.2.1 घर का वातावरण, परस्पर व्यवहार, आत्मीयता आदी के आधारपर सुसंस्कारित  बनाना ।
2.1.2.2 योग्य विद्याकेंद्र से जोडकर बच्चे की स्वाभाविक प्रवृत्तियों को समाज के हित में  ढालना ।
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2.1.2.2 योग्य विद्याकेंद्र से जोडकर बच्चे की स्वाभाविक प्रवृत्तियों को समाज के हित में  ढालना ।
  2.2 कुलधर्म, कुलाचार, कुल-परंपरा, कुल-व्यवसाय का बच्चों को संक्रमण
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2.2 कुलधर्म, कुलाचार, कुल-परंपरा, कुल-व्यवसाय का बच्चों को संक्रमण
  2.3 सुरक्षा
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2.3 सुरक्षा
  2.4 सामाजिक प्रतिष्ठा/नाम
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2.4 सामाजिक प्रतिष्ठा/नाम
 
3. अपने माता-पिता के प्रति दायित्व
 
3. अपने माता-पिता के प्रति दायित्व
  3.1 पितर ॠण से मुक्ति 3.2 सुखी योगक्षेम 3.3 श्रेष्ठ संतान निर्मिती / वंश आगे चलाना  
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3.1 पितर ॠण से मुक्ति 3.2 सुखी योगक्षेम 3.3 श्रेष्ठ संतान निर्मिती / वंश आगे चलाना  
 
4 अपने परिवार के सदस्यों के प्रति दायित्व
 
4 अपने परिवार के सदस्यों के प्रति दायित्व
  4.1 परस्पर विश्वास 4.2 सुख/दुख में साथ   4.3 योगक्षेम की निश्चतता
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4.1 परस्पर विश्वास 4.2 सुख/दुख में साथ   4.3 योगक्षेम की निश्चतता
 
5. समाज के घटक के नाते दायित्व
 
5. समाज के घटक के नाते दायित्व
  5.1  सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ बनाना और बनाए रखना
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5.1  सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ बनाना और बनाए रखना
      5.1.1 परिवार व्यवस्था, राष्ट्र आदी जैसी जो चिरंतन व्यवस्थाएं पहले से विद्यमान है, उन्हें बलवान बनाना ।
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5.1.1 परिवार व्यवस्था, राष्ट्र आदी जैसी जो चिरंतन व्यवस्थाएं पहले से विद्यमान है, उन्हें बलवान बनाना ।
      5.1.2 आश्रम व्यवस्था, अपने को अपनी भूमि के साथ जोडकर रखने वाली व्यवसाय के चयन की मानसिकता आदी के बारे में समाज की मानसिकता को सुधारने के प्रयास करना । आश्रम व्यवस्था के नष्ट होने के कारण एक ओर तो पुरानी और नई पीढी के झगडे बढे है तो दूसरी     ओर वानप्रस्थी केवल अपने या अपने परिवार के हित तक ही सीमित हो गया है ।  
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5.1.2 आश्रम व्यवस्था, अपने को अपनी भूमि के साथ जोडकर रखने वाली व्यवसाय के चयन की मानसिकता आदी के बारे में समाज की मानसिकता को सुधारने के प्रयास करना । आश्रम व्यवस्था के नष्ट होने के कारण एक ओर तो पुरानी और नई पीढी के झगडे बढे है तो दूसरी ओर वानप्रस्थी केवल अपने या अपने परिवार के हित तक ही सीमित हो गया है ।  
वर्ण तो परमात्मा द्वारा बनाए हुए है । प्राकृतिक है । दिमाग का काम करनेवाले, सुरक्षा का काम करनेवाले, समाज के उदरनिर्वाह के साधन निर्माण करनेवाले और सेवक मानसिकता के लोग तो हर काल में रहते ही है । वह ईश्वरनिर्मित है । चारों वर्णों के लोग तो नित्य बने ही रहेंगे । इन वर्णों के लोग अपने अपने काम में विशेष कौशल्य प्राप्त कर सकें, इस हेतु से अपने पूर्वजों ने आनुवंशिकता विज्ञान को ध्यान में रखकर इन वर्णों को व्यवस्था के रूप में  समाज में प्रस्थापित किया था । किंतु आज इस व्यवस्था के स्वरूप को बिगाडकर मानव समाज अपना ही नुकसान करता दिखाई दे रहा है । संकर से निर्माण हुई प्रजा पीढी दर पीढी दुर्बल होती जाती है यह प्रकृति का नियम है ।  पौधों की संकरित जातियाॅ धीरे धीरे नष्ट हो जाती है । संकरित पौधे के बीज या तो नपुंसक होते है या दुर्बल । आधुनिक जैव विज्ञान भी यही कहता है । वर्ण व्यवस्था को बल देना होगा । उसे समाज की मानसिकता में फिर से प्रस्थापित करना होगा । जाति व्यवस्था का विचार करना भी आवश्यक है । हजारों लाखों वर्षों से यह चली आ रही व्यवस्था है । जाति व्यवस्था यह मानव निर्मित थी । किंतु वह प्रकृति से सुसंगत वर्ण व्यवस्था से जुडी थी । आज भी क्या हम वर्ण व्यवस्था के लाभ न गॅवाते हुवे किंतु जाति व्यवस्था के लाभ मिलते रहें एैसी कोई व्यवस्था निर्माण कर सकते है क्या, इसका विचार करने की आवश्यकता है । एैसी व्यवस्था का निर्माण किये बगैर, कमसे कम एैसी व्यवस्था निर्माण के प्रामाणिक और बुद्धियुक्त कुछ प्रयोग किये बगैर पुरानी व्यवस्था तोडना यह बुद्धिनिष्ठा की बात नही है ।
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वर्ण तो परमात्मा द्वारा बनाए हुए है । प्राकृतिक है । दिमाग का काम करनेवाले, सुरक्षा का काम करनेवाले, समाज के उदरनिर्वाह के साधन निर्माण करनेवाले और सेवक मानसिकता के लोग तो हर काल में रहते ही है । वह ईश्वरनिर्मित है । चारों वर्णों के लोग तो नित्य बने ही रहेंगे । इन वर्णों के लोग अपने अपने काम में विशेष कौशल्य प्राप्त कर सकें, इस हेतु से अपने पूर्वजों ने आनुवंशिकता विज्ञान को ध्यान में रखकर इन वर्णों को व्यवस्था के रूप में  समाज में प्रस्थापित किया था । किंतु आज इस व्यवस्था के स्वरूप को बिगाडकर मानव समाज अपना ही नुकसान करता दिखाई दे रहा है । संकर से निर्माण हुई प्रजा पीढी दर पीढी दुर्बल होती जाती है यह प्रकृति का नियम है ।  पौधों की संकरित जातियाॅ धीरे धीरे नष्ट हो जाती है । संकरित पौधे के बीज या तो नपुंसक होते है या दुर्बल । आधुनिक जैव विज्ञान भी यही कहता है । वर्ण व्यवस्था को बल देना होगा । उसे समाज की मानसिकता में फिर से प्रस्थापित करना होगा । जाति व्यवस्था का विचार करना भी आवश्यक है । हजारों लाखों वर्षों से यह चली आ रही व्यवस्था है । जाति व्यवस्था यह मानव निर्मित थी । किंतु वह प्रकृति से सुसंगत वर्ण व्यवस्था से जुडी थी । आज भी क्या हम वर्ण व्यवस्था के लाभ न गॅवाते हुवे किंतु जाति व्यवस्था के लाभ मिलते रहें एैसी कोई व्यवस्था निर्माण कर सकते है क्या, इसका विचार करने की आवश्यकता है । एैसी व्यवस्था का निर्माण किये बगैर, कमसे कम एैसी व्यवस्था निर्माण के प्रामाणिक और बुद्धियुक्त कुछ प्रयोग किये बगैर पुरानी व्यवस्था तोडना यह बुद्धिनिष्ठा की बात नही है ।
 
भूमि से लगाव नष्ट होने के कारण पगढीलापन आ गया है । दुनियाॅभर की सभी संस्कृतियाॅ इस एक पगढीलेपन के चलते नष्ट होने की दिशा में बढ रही है । जिस देश या समाज के लोग अपने प्रवास सीमित रखेंगे वही देश अपनी संस्कृति बचा पाएगा ।  
 
भूमि से लगाव नष्ट होने के कारण पगढीलापन आ गया है । दुनियाॅभर की सभी संस्कृतियाॅ इस एक पगढीलेपन के चलते नष्ट होने की दिशा में बढ रही है । जिस देश या समाज के लोग अपने प्रवास सीमित रखेंगे वही देश अपनी संस्कृति बचा पाएगा ।  
 
       5.1.3 जहाॅ पुरातन व्यवस्थाएं वर्तमान काल में चिरंतनता और सर्वहितकारिता की कसौटिपर संदर्भहीन हो गइं है एैसी व्यवस्थाओं को तिलांजली देना ।
 
       5.1.3 जहाॅ पुरातन व्यवस्थाएं वर्तमान काल में चिरंतनता और सर्वहितकारिता की कसौटिपर संदर्भहीन हो गइं है एैसी व्यवस्थाओं को तिलांजली देना ।
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