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| आश्रम चार हैं। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। स्वस्थ मनुष्य की आयु १०० वर्ष की होगी ऐसा मानकर आयु की अवस्था के अनुसार इसका विभाजन किया गया है। इन चार आश्रमों का जन्म से लेकर २५ वर्षतक ब्रह्मचर्य आश्रम, २६ वें वर्ष से ५० वर्षतक गृहस्थ आश्रम, ५१ वर्ष से ७५ वर्षतक वानप्रस्थ आश्रम और ७६ वर्ष से १०० वर्षतक संन्यास आश्रम, ऐसा मोटा मोटा विभाजन किया गया है। | | आश्रम चार हैं। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। स्वस्थ मनुष्य की आयु १०० वर्ष की होगी ऐसा मानकर आयु की अवस्था के अनुसार इसका विभाजन किया गया है। इन चार आश्रमों का जन्म से लेकर २५ वर्षतक ब्रह्मचर्य आश्रम, २६ वें वर्ष से ५० वर्षतक गृहस्थ आश्रम, ५१ वर्ष से ७५ वर्षतक वानप्रस्थ आश्रम और ७६ वर्ष से १०० वर्षतक संन्यास आश्रम, ऐसा मोटा मोटा विभाजन किया गया है। |
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− | आयु के अनुसार मानव की शारिरिक क्षमताएं और आवश्यकताएं इन का समीकरण बिगड जाना यह प्रकृति का नियम है । शैशव और बाल्यावस्था में बच्चे की सुधबुध कम होती है । उस की शारिरिक क्षमताएं भी कम होने से वह परावलंबी रहता है । इसी प्रकार से यौवन के ढलते काल में मनुष्य की क्षमताएं अधिक गति से कम होती है किंतु उस गति से उसकी आवष्यकताएं कम नही होतीं । इसलिये यौवन के बाद फिर वह कुछ मात्रा में परावलंबी बन जाता है । किंतु जीवन का अनुभवजन्य और चिंतनजन्य ज्ञान उस के पास होता है । इस के साथ ही मानव को और मानव समाज को उनके लक्ष्य की ओर आगे बढाने में भी इन व्यवस्थाओं की आवश्यकता आदि बातें ध्यान मे रखकर, इन सभी बातों का समायोजन करने की दृष्टि से चार आश्रमों की व्यवस्था की गयी थी । यह चार आश्रम थे ब्राह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास । ब्राह्मचर्य में बच्चा अपनी वृत्ति - प्रवृत्ती के अनुसार शिक्षण प्राप्त करता है । शैशव काल मे वह अपने माता - पिता के घर में रहकर संस्कार पाता है । बडों जैसा व्यवहार करने की स्वाभाविक अनुकरण की मानसिकता से घर में संस्कार संक्रमण का काम अत्यंत सहजता से पहली पीढी से दूसरी पीढी मे होता जाता है । | + | आयु के अनुसार मानव की शारिरिक क्षमताएं और आवश्यकताएं इन का समीकरण बिगड जाना यह प्रकृति का नियम है। शैशव और बाल्यावस्था में बच्चे की सुधबुध कम होती है। उस की शारिरिक क्षमताएं भी कम होने से वह परावलंबी रहता है। इसी प्रकार से यौवन के ढलते काल में मनुष्य की क्षमताएं अधिक गति से कम होती है किंतु उस गति से उसकी आवष्यकताएं कम नही होतीं। इसलिये यौवन के बाद फिर वह कुछ मात्रा में परावलंबी बन जाता है। किंतु जीवन का अनुभवजन्य और चिंतनजन्य ज्ञान उस के पास होता है। इस के साथ ही मानव को और मानव समाज को उनके लक्ष्य की ओर आगे बढाने में भी इन व्यवस्थाओं की आवश्यकता आदि बातें ध्यान मे रखकर, इन सभी बातों का समायोजन करने की दृष्टि से चार आश्रमों की व्यवस्था की गयी थी। यह चार आश्रम थे ब्राह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। ब्राह्मचर्य में बच्चा अपनी वृत्ति - प्रवृत्ती के अनुसार शिक्षण प्राप्त करता है। शैशव काल मे वह अपने माता - पिता के घर में रहकर संस्कार पाता है। बडों जैसा व्यवहार करने की स्वाभाविक अनुकरण की मानसिकता से घर में संस्कार संक्रमण का काम अत्यंत सहजता से पहली पीढी से दूसरी पीढी मे होता जाता है। |
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| === ब्रह्मचर्य === | | === ब्रह्मचर्य === |
− | वर्तमान की विकृत शिक्षा और अभारतीय प्रतिमानिक वातावरण ने ब्रह्मचर्य को युवकों के मजाक का विषय बना दिया है । लड़के और लड़कियों की बाल्यावस्था से आगे भी चलाई जा रही सहशिक्षा ने ब्रह्मचर्य को नष्ट और मजाक का विषय बना दिया है। | + | वर्तमान की विकृत शिक्षा और अभारतीय प्रतिमानिक वातावरण ने ब्रह्मचर्य को युवकों के मजाक का विषय बना दिया है। लड़के और लड़कियों की बाल्यावस्था से आगे भी चलाई जा रही सहशिक्षा ने ब्रह्मचर्य को नष्ट और मजाक का विषय बना दिया है।<blockquote>ब्रह्मचर्य की व्याख्या{{Citation needed}} :</blockquote><blockquote>स्मरणं कीर्तनं केलि: प्रेक्षणं गुह्यभाषणं।</blockquote><blockquote>संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रिया निष्पत्तीरेव च ॥</blockquote><blockquote>एतन्मैथुनमष्टांगम् प्रवदन्ति मनीषिन:।</blockquote><blockquote>विपरीतं ब्रह्मचर्यामेतदेवाष्ट लक्षणम्॥</blockquote><blockquote>अर्थ : वासनाओं का स्मरण, मन में चिंतन, विषयवस्तू की कल्पना कर किया व्यवहार, विषयवस्तू का दर्शन, विषयवस्तू की चर्चा, विषयवस्तू की प्राप्ति का संकल्प, विषयवस्तू पाने का ध्यास और सब से अंतिम प्रत्यक्ष विषयवस्तू का उपभोग ऐसे आठ प्रकार से ब्रह्मचर्य का भंग होता है। इन से दूर रहने का अर्थ है ब्रह्मचर्य का पालन।</blockquote> |
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− | ब्रह्मचर्य की व्याख्या{{Citation needed}} :
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− | स्मरणं कीर्तनं केलि: प्रेक्षणं गुह्यभाषणं।
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− | संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रिया निष्पत्तीरेव च ॥
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− | एतन्मैथुनमष्टांगम् प्रवदन्ति मनीषिन:।
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− | विपरीतं ब्रह्मचर्यामेतदेवाष्ट लक्षणम्॥
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− | अर्थ : वासनाओं का स्मरण, मन में चिंतन, विषयवस्तू की कल्पना कर किया व्यवहार, विषयवस्तू का दर्शन, विषयवस्तू की चर्चा, विषयवस्तू की प्राप्ति का संकल्प, विषयवस्तू पाने का ध्यास और सब से अंतिम प्रत्यक्ष विषयवस्तू का उपभोग ऐसे आठ प्रकार से ब्रह्मचर्य का भंग होता है। इन से दूर रहने का अर्थ है ब्रह्मचर्य का पालन।
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| === गृहस्थाश्रम === | | === गृहस्थाश्रम === |
− | गृहस्थाश्रम में मानव यौवनावस्था में होता है । अपनी पूरी क्षमताओं का उपयोग करता हुवा वह अपने साथ पूरे समाज के योगक्षेम का वहन करता है । वानप्रस्थ और संन्यास में मानव की शारिरिक क्षमताएं कम होती जाती है । वानप्रस्थ में वह अपने पारिवारिक मोह से मुक्ति के लिये प्रयासरत रहता है । और संन्यास में तो वह चराचर से एकात्मता हेतु प्रयोगशील रहता है । वह अधिक समय मोक्षप्राप्ति हेतु चिंतन, मनन, मार्गदर्शन आदी के लिये दे सकता है । ब्राह्मचर्य काल में अर्जित, गृहस्थाश्रम मे विकसित अनुभवजन्य ज्ञान को चिंतन, मनन कर नयी पीढी के अनुरूप बनाकर देने का बौद्धिक और मानसिक सामथ्र्य वह रखता है । | + | गृहस्थाश्रम में मानव यौवनावस्था में होता है। अपनी पूरी क्षमताओं का उपयोग करता हुवा वह अपने साथ पूरे समाज के योगक्षेम का वहन करता है। वानप्रस्थ और संन्यास में मानव की शारिरिक क्षमताएं कम होती जाती है। वानप्रस्थ में वह अपने पारिवारिक मोह से मुक्ति के लिये प्रयासरत रहता है। और संन्यास में तो वह चराचर से एकात्मता हेतु प्रयोगशील रहता है। वह अधिक समय मोक्षप्राप्ति हेतु चिंतन, मनन, मार्गदर्शन आदी के लिये दे सकता है। ब्राह्मचर्य काल में अर्जित, गृहस्थाश्रम मे विकसित अनुभवजन्य ज्ञान को चिंतन, मनन कर नयी पीढी के अनुरूप बनाकर देने का बौद्धिक और मानसिक सामथ्र्य वह रखता है। |
− | गृहस्थ और समाज इन दोनों जीवमान इकाईयो का सबंध अन्योन्याश्रित है । समाज के प्रति दायित्व बोध रखनेवाला गृहस्थ वर्ग न हो तो कोई समाज श्रेष्ठ नही बन सकता । | + | गृहस्थ और समाज इन दोनों जीवमान इकाईयो का सबंध अन्योन्याश्रित है। समाज के प्रति दायित्व बोध रखनेवाला गृहस्थ वर्ग न हो तो कोई समाज श्रेष्ठ नही बन सकता। |
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| ==== मनुस्मृति में गृहस्थाश्रम का महत्व ==== | | ==== मनुस्मृति में गृहस्थाश्रम का महत्व ==== |
− | मनुस्मृति में गृहस्थाश्रम का महत्व निम्न बताया गया है<ref>मनुस्मृति</ref>: <blockquote>यथा वायुं समाश्रत्य वर्तन्ते सर्वजन्तव: । तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमा: ।।</blockquote><blockquote>यस्मात् त्रयोऽप्याश्रमिणो दानेन्नानेन चान्वहम् । गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्जेष्ठाश्रमो गृही ।।</blockquote><blockquote>स संधार्य: प्रयत्नेन स्वर्गं अक्षय्यं इछता । सुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रिया: ।।</blockquote><blockquote>सर्वेषामपि चैतेषां वेदस्मृतिविधानत: । गृहस्थ उच्चते श्रेष्ठ: स त्रिनेतान् बिभर्ति ही ।।</blockquote><blockquote>यथा नदीनदा: सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम् । तथैवाश्रमिणा: सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम् ।।</blockquote><blockquote>सेनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च । सर्वलिकाधिपत्यं च वेदशास्त्रिचदर्हति ।।</blockquote><blockquote>भावार्थ : जिस तरह से वायू के आधार से सभी प्राणी जीवित रहते है, उसी प्रकार से अन्य तीनों आश्रमभी गृहस्थ के आधार से ही रहते है । अर्थात् दान देकर और प्रतिदिन अन्न देकर गृहस्थही ब्राह्मचारी, वानप्रस्थि और संन्यासी के उदरनिर्वाह की व्यवस्था करता है । इसलिये गृहस्थाश्रम श्रेष्ठ है । जिसे अक्षय्य स्वर्ग अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति करनी है और साथ ही में इहलोक में भी सुख प्राप्त करने की इच्छा है एैसे व्यक्ति ने गृस्थाश्रम का स्वीकार करना चाहिये । निर्बल मनुष्य गृहस्थाश्रम के अयोग्य होता है । वेद और स्मृतियों का कहना है की आयु की चारों अवस्थाओं में केवल यौवन में ही मानव सबल होने के कारण परावलंबी नही रहता । ऐसा सबल गृहस्थाश्रमी ही अन्य तीनों परावलंबी आश्रमीय लोगों का भरण-पोषण और संरक्षण कर सकता है । जैसे नदी और नद समुद्र से मिलकर सुरक्षित हो जाते है, वैसे ही गृहस्थ के आधार से बाकी तीनों आश्रम के लोग सुरक्षित हो जाते है । सेनापति का काम, राज्य-शासन का काम, और न्यायदान का काम और संपूर्ण प्रजापर अधिकार करने का काम वेदरूपि शास्त्र जाननेवाला गृहस्थ ही कर सकता है ।</blockquote> | + | मनुस्मृति में गृहस्थाश्रम का महत्व निम्न बताया गया है<ref>मनुस्मृति</ref>: <blockquote>यथा वायुं समाश्रत्य वर्तन्ते सर्वजन्तव:। तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमा:।।</blockquote><blockquote>यस्मात् त्रयोऽप्याश्रमिणो दानेन्नानेन चान्वहम्। गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्जेष्ठाश्रमो गृही।।</blockquote><blockquote>स संधार्य: प्रयत्नेन स्वर्गं अक्षय्यं इछता। सुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रिया:।।</blockquote><blockquote>सर्वेषामपि चैतेषां वेदस्मृतिविधानत:। गृहस्थ उच्चते श्रेष्ठ: स त्रिनेतान् बिभर्ति ही।।</blockquote><blockquote>यथा नदीनदा: सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम्। तथैवाश्रमिणा: सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्।।</blockquote><blockquote>सेनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च। सर्वलिकाधिपत्यं च वेदशास्त्रिचदर्हति।।</blockquote><blockquote>भावार्थ : जिस तरह से वायू के आधार से सभी प्राणी जीवित रहते है, उसी प्रकार से अन्य तीनों आश्रमभी गृहस्थ के आधार से ही रहते है। अर्थात् दान देकर और प्रतिदिन अन्न देकर गृहस्थही ब्राह्मचारी, वानप्रस्थि और संन्यासी के उदरनिर्वाह की व्यवस्था करता है। इसलिये गृहस्थाश्रम श्रेष्ठ है। जिसे अक्षय्य स्वर्ग अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति करनी है और साथ ही में इहलोक में भी सुख प्राप्त करने की इच्छा है एैसे व्यक्ति ने गृस्थाश्रम का स्वीकार करना चाहिये। निर्बल मनुष्य गृहस्थाश्रम के अयोग्य होता है। वेद और स्मृतियों का कहना है की आयु की चारों अवस्थाओं में केवल यौवन में ही मानव सबल होने के कारण परावलंबी नही रहता। ऐसा सबल गृहस्थाश्रमी ही अन्य तीनों परावलंबी आश्रमीय लोगों का भरण-पोषण और संरक्षण कर सकता है। जैसे नदी और नद समुद्र से मिलकर सुरक्षित हो जाते है, वैसे ही गृहस्थ के आधार से बाकी तीनों आश्रम के लोग सुरक्षित हो जाते है। सेनापति का काम, राज्य-शासन का काम, और न्यायदान का काम और संपूर्ण प्रजापर अधिकार करने का काम वेदरूपि शास्त्र जाननेवाला गृहस्थ ही कर सकता है।</blockquote> |
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| ==== गृहस्थाश्रमी का दायित्व- भारतीय साहित्य मे उपलब्ध मार्गदर्शन ==== | | ==== गृहस्थाश्रमी का दायित्व- भारतीय साहित्य मे उपलब्ध मार्गदर्शन ==== |
− | समाज का एक जिम्मेदार घटक होने के नाते वैसे तो हर समाज घटक का समाज के प्रति कुछ दायित्व होता ही है । ब्रहृचारी, वानप्रस्थि और संन्यासी इन तोनों वर्गों के और गृहस्थ वर्ग के कुछ दायित्व तो समान ही होंगे । क्षमता और दायित्व का समीकरण रखने से काम सुचारू रूप से चलता है यह सामान्य ज्ञान की बात है। इसलिये क्षमतावान गृहस्थाश्रमी का दायित्व भी अन्यों से कई बातों मे कहीं अधिक और विलक्षण होता है। | + | समाज का एक जिम्मेदार घटक होने के नाते वैसे तो हर समाज घटक का समाज के प्रति कुछ दायित्व होता ही है। ब्रहृचारी, वानप्रस्थि और संन्यासी इन तोनों वर्गों के और गृहस्थ वर्ग के कुछ दायित्व तो समान ही होंगे। क्षमता और दायित्व का समीकरण रखने से काम सुचारू रूप से चलता है यह सामान्य ज्ञान की बात है। इसलिये क्षमतावान गृहस्थाश्रमी का दायित्व भी अन्यों से कई बातों मे कहीं अधिक और विलक्षण होता है। |
− | तैत्तिरीय उपनिषद की शिक्षा वल्ली के ग्यारहवें अनुवाक में गृहस्थ के दायित्वों का संदर्भ आता है। गुरूगृह में विद्याध्ययन पूर्ण करने के बाद जब शिष्य गृहस्थाश्रम मे प्रवेश के लिये गुरु से अनुमति लेता है तब गुरू उसे गृहस्थ के नाते उस के कर्तव्यों की याद दिलाते है । | + | तैत्तिरीय उपनिषद की शिक्षा वल्ली के ग्यारहवें अनुवाक में गृहस्थ के दायित्वों का संदर्भ आता है। गुरूगृह में विद्याध्ययन पूर्ण करने के बाद जब शिष्य गृहस्थाश्रम मे प्रवेश के लिये गुरु से अनुमति लेता है तब गुरू उसे गृहस्थ के नाते उस के कर्तव्यों की याद दिलाते है। |
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| यह कर्तव्य है<ref>तैत्तिरीय उपनिषद, शिक्षा वल्ली ग्यारहवां अनुवाक</ref>: | | यह कर्तव्य है<ref>तैत्तिरीय उपनिषद, शिक्षा वल्ली ग्यारहवां अनुवाक</ref>: |
− | # सत्यं वद - सत्य भाषण करो । यद्भूतहितं अत्यंत एतत् सत्यं मतं मम{{Citation needed}} - यह है पूर्णपुरूष कृष्ण का सत्य के बारे मे मत । इसी का अर्थ है चराचर के साथ एकात्मता बनाओ और चराचर के हित की बात कहो । अर्थात् सत्य कहो । | + | # सत्यं वद - सत्य भाषण करो। यद्भूतहितं अत्यंत एतत् सत्यं मतं मम{{Citation needed}} - यह है पूर्णपुरूष कृष्ण का सत्य के बारे मे मत। इसी का अर्थ है चराचर के साथ एकात्मता बनाओ और चराचर के हित की बात कहो। अर्थात् सत्य कहो। |
− | # धर्मं चर - धर्म के अनुसार जियो । अर्थात् कामनाओं को और उन कामनाओं की पूर्ति के लिये कि ये गये प्रयासों को आर्थात् काम और अर्थ पुरूषार्थ इन दोनों को धर्मानुकूल रखते हुवे जीवनयापन करो । | + | # धर्मं चर - धर्म के अनुसार जियो। अर्थात् कामनाओं को और उन कामनाओं की पूर्ति के लिये कि ये गये प्रयासों को आर्थात् काम और अर्थ पुरूषार्थ इन दोनों को धर्मानुकूल रखते हुवे जीवनयापन करो। |
− | # स्वाध्यायान्मा प्रमद: - स्वाध्याय करते रहो । जो ज्ञान प्रात किया है उसे अपने चिंतन, मनन और अनुभवों के आधारपर और तेजस्वी बनाकर वृद्धिगत करते रहो। | + | # स्वाध्यायान्मा प्रमद: - स्वाध्याय करते रहो। जो ज्ञान प्रात किया है उसे अपने चिंतन, मनन और अनुभवों के आधारपर और तेजस्वी बनाकर वृद्धिगत करते रहो। |
− | # आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुंमा व्यवच्छेत्सी: - आचार्य के लिये आवश्यक धन लाकर अपनी स्त्री के साथ सन्तान परम्परा को आगे बढायें । | + | # आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुंमा व्यवच्छेत्सी: - आचार्य के लिये आवश्यक धन लाकर अपनी स्त्री के साथ सन्तान परम्परा को आगे बढायें। |
− | # सत्यान्न प्रमदितव्यम् - सत्य के साथ प्रमाद नही करना। उपरोक्त सत्य केवल बोलना पर्याप्त नही है। सत्य व्यवहार और आचार भी आवश्यक है । सत्याचरण में कोई कसर न रखें । | + | # सत्यान्न प्रमदितव्यम् - सत्य के साथ प्रमाद नही करना। उपरोक्त सत्य केवल बोलना पर्याप्त नही है। सत्य व्यवहार और आचार भी आवश्यक है। सत्याचरण में कोई कसर न रखें। |
− | # धर्मान्न प्रमदितव्यम् - धर्म के साथ प्रमाद अर्थात् खिलवाड या द्रोह नही करना चाहिये । धर्म का भी सीधा अर्थ यही है की चराचर के प्रति अपने कर्तव्य को न चूकें । | + | # धर्मान्न प्रमदितव्यम् - धर्म के साथ प्रमाद अर्थात् खिलवाड या द्रोह नही करना चाहिये। धर्म का भी सीधा अर्थ यही है की चराचर के प्रति अपने कर्तव्य को न चूकें। |
− | # कुशलान्न प्रमदितव्यम् - आत्मरक्षा में उपयोगी कामों में, उपायों में प्रमाद नही करना चाहिये । | + | # कुशलान्न प्रमदितव्यम् - आत्मरक्षा में उपयोगी कामों में, उपायों में प्रमाद नही करना चाहिये। |
− | # भूत्यैन प्रमदितव्यम् - एैश्वर्य देनेवाले मांगलिक अर्थात् चराचर के हित के कर्मों में प्रमाद ना हो । | + | # भूत्यैन प्रमदितव्यम् - एैश्वर्य देनेवाले मांगलिक अर्थात् चराचर के हित के कर्मों में प्रमाद ना हो। |
− | # स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् - स्वाध्याय के माध्यम से विकसित तेजस्वी ज्ञान को केवल अपनेतक सीमित मत रखो । अपने चिंतन,मनन, अनुभव और प्रयोगों के आधारपर उस ज्ञान को और समृद्ध करो । प्रवचन के माध्यम से उस तेजस्वी ज्ञान को अगली पीढी को संक्रमित करते रहो । | + | # स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् - स्वाध्याय के माध्यम से विकसित तेजस्वी ज्ञान को केवल अपनेतक सीमित मत रखो। अपने चिंतन,मनन, अनुभव और प्रयोगों के आधारपर उस ज्ञान को और समृद्ध करो। प्रवचन के माध्यम से उस तेजस्वी ज्ञान को अगली पीढी को संक्रमित करते रहो। |
| # देवपितृकार्याभ्याम् न प्रमदितव्यम् - अपने हाथों देवकार्य और पितृकार्यभी निरंतर चलता रहे यह सुनिश्चित करो। | | # देवपितृकार्याभ्याम् न प्रमदितव्यम् - अपने हाथों देवकार्य और पितृकार्यभी निरंतर चलता रहे यह सुनिश्चित करो। |
− | # मातृदेवो भव - माता ही जिसका देव है एैसे बनो । माता की सेवा में कोई कसर ना छोडो । | + | # मातृदेवो भव - माता ही जिसका देव है एैसे बनो। माता की सेवा में कोई कसर ना छोडो। |
− | # पितृदेवो भव - अपने पिता और पितर जिसे देवतास्वरूप है एैसे बनो । अर्थात् उनकी सेवा करते रहो । | + | # पितृदेवो भव - अपने पिता और पितर जिसे देवतास्वरूप है एैसे बनो। अर्थात् उनकी सेवा करते रहो। |
− | # आचार्यदेवो भव - आचार्य मे देवत्व देखनेवाले बनो । आचार्य का कोई काम ना रुकने पावे, कोई इच्छा अधूरी ना रहे इस के लिये पूर्ण शक्ति के साथ प्रयत्न करते रहो । जिस से आचार्य का ज्ञानदान का काम निर्बाध चले और जीवनयापन सुख से चले । | + | # आचार्यदेवो भव - आचार्य मे देवत्व देखनेवाले बनो। आचार्य का कोई काम ना रुकने पावे, कोई इच्छा अधूरी ना रहे इस के लिये पूर्ण शक्ति के साथ प्रयत्न करते रहो। जिस से आचार्य का ज्ञानदान का काम निर्बाध चले और जीवनयापन सुख से चले। |
− | # अतिथि देवो भव - पूर्व सूचना देकर आनेवाले का स्वागत तो हम करते ही है । किन्तु उसे अतिथि नही कहते । अतिथि का अर्थ है बगैर सूचना के अचानक घर मे आनेवाला मेहमान । ऐसे मेहमान के कारण शायद हमारे लिये असुविधा भी निर्माण होती होगी । फिर भी एैसे हर अतिथि का स्वागत प्रसन्न मुख से, आसन और पानी देकर मधुर वाणी से करें । आसन ऐसा हो, जो अतिथि के श्रम का परिहार करे । | + | # अतिथि देवो भव - पूर्व सूचना देकर आनेवाले का स्वागत तो हम करते ही है। किन्तु उसे अतिथि नही कहते। अतिथि का अर्थ है बगैर सूचना के अचानक घर मे आनेवाला मेहमान। ऐसे मेहमान के कारण शायद हमारे लिये असुविधा भी निर्माण होती होगी। फिर भी एैसे हर अतिथि का स्वागत प्रसन्न मुख से, आसन और पानी देकर मधुर वाणी से करें। आसन ऐसा हो, जो अतिथि के श्रम का परिहार करे। |
− | # यान्यनवद्यानि कर्माणि । तानि सेवितव्यानि । नो इतराणि । - केवल अनिंद्य कर्म ही करें । जिन कर्मों के कारण हमारी समाज में निंदा न हो एैसे काम करें । अन्य अर्थात् जिनके कारण हमारी निंदा हो एैसे काम ना करें । | + | # यान्यनवद्यानि कर्माणि। तानि सेवितव्यानि। नो इतराणि। - केवल अनिंद्य कर्म ही करें। जिन कर्मों के कारण हमारी समाज में निंदा न हो एैसे काम करें। अन्य अर्थात् जिनके कारण हमारी निंदा हो एैसे काम ना करें। |
− | # यान्यस्माकं सुचरितानि । तानि त्वयोपास्यानि - जिन गुरुजनों का आचरण शुभ है अर्थात् सर्वहितकारी है उन्ही की तुझे उपासना करनी चाहिये । दूसरे प्रकार के, चराचर के हित में ना होनेवाले कर्म करनेवालों की उपासना ना करें । अर्थात् मेरा आचरण भी यदि तुझे चराचर के हित की दृष्टि से अयोग्य लगे, तो मेरा भी अनुकरण ना करना । | + | # यान्यस्माकं सुचरितानि। तानि त्वयोपास्यानि - जिन गुरुजनों का आचरण शुभ है अर्थात् सर्वहितकारी है उन्ही की तुझे उपासना करनी चाहिये। दूसरे प्रकार के, चराचर के हित में ना होनेवाले कर्म करनेवालों की उपासना ना करें। अर्थात् मेरा आचरण भी यदि तुझे चराचर के हित की दृष्टि से अयोग्य लगे, तो मेरा भी अनुकरण ना करना। |
− | # नो इतराणि । ये के चास्मच्छ्रेयांसो ब्राह्मणाः । तेषां त्वयासनेन प्रश्वसितव्यम् । - धर्माचरणी एैसे जो हमारे आचार्य है, उनका ही तुम अनुकरण करो । अन्यों का नही । | + | # नो इतराणि। ये के चास्मच्छ्रेयांसो ब्राह्मणाः। तेषां त्वयासनेन प्रश्वसितव्यम्। - धर्माचरणी एैसे जो हमारे आचार्य है, उनका ही तुम अनुकरण करो। अन्यों का नही। |
− | # श्रद्धया देयम् । अश्रद्धयाऽदेयम् । श्रिया देयम् । ह्रिया देयम् । भ्रिया देयम् । संविदा देयम् - यथासंभव दान देते रहो । श्रद्धा से दो । अश्रद्धा से ना दो । अपने एैश्वर्य के अनुसार दान दो । मै इससे अधिक दान नही दे सकता एैसी लज्जा के साथ दान दो । मै दान लेनेवाले पर कोई उपकार नही कर रहा । उलटे दान लेनेवाला मुझ से दान लेकर मुझे उपकृत कर रहा है इस भाव से दान दो । और मै दान से उस का पूरा क्लेष दूर करने में असमर्थ हूं एैसी लज्जा की भावना मन मे रखकर दान दो । इतना कम दान दिया इसलिये लोग मुझे गालियाí देंगे इस डर से अधिक देने का प्रयास करो । लेकिन दान दो । मित्रता के नाते भी हमेशा दान देते रहो । | + | # श्रद्धया देयम्। अश्रद्धयाऽदेयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भ्रिया देयम्। संविदा देयम् - यथासंभव दान देते रहो। श्रद्धा से दो। अश्रद्धा से ना दो। अपने एैश्वर्य के अनुसार दान दो। मै इससे अधिक दान नही दे सकता एैसी लज्जा के साथ दान दो। मै दान लेनेवाले पर कोई उपकार नही कर रहा। उलटे दान लेनेवाला मुझ से दान लेकर मुझे उपकृत कर रहा है इस भाव से दान दो। और मै दान से उस का पूरा क्लेष दूर करने में असमर्थ हूं एैसी लज्जा की भावना मन मे रखकर दान दो। इतना कम दान दिया इसलिये लोग मुझे गालियाí देंगे इस डर से अधिक देने का प्रयास करो। लेकिन दान दो। मित्रता के नाते भी हमेशा दान देते रहो। |
− | # जब अपने कर्म की करणीयता या अकरणीयता के विषय में तुझे संदेह निर्माण हो जाये तब समाज मे जो विचारशील, अपने कर्म में मग्न, स्वेच्छा से कर्मपरायण, सरल बुद्धिवाला धर्माचरणी ब्रााह्मण जैसा, उस परिस्थिति में व्यवहार करेगा वैसा ही तू भी व्यवहार कर । इसी प्रकार से जिनपर संशययुक्त दोषों के आरोप है उनके साथ भी उपरोक्त श्रेष्ठ ब्रााह्मण जैसा व्यवहार करते हों, वैसा ही उनसे तू भी व्यवहार कर । | + | # जब अपने कर्म की करणीयता या अकरणीयता के विषय में तुझे संदेह निर्माण हो जाये तब समाज मे जो विचारशील, अपने कर्म में मग्न, स्वेच्छा से कर्मपरायण, सरल बुद्धिवाला धर्माचरणी ब्रााह्मण जैसा, उस परिस्थिति में व्यवहार करेगा वैसा ही तू भी व्यवहार कर। इसी प्रकार से जिनपर संशययुक्त दोषों के आरोप है उनके साथ भी उपरोक्त श्रेष्ठ ब्रााह्मण जैसा व्यवहार करते हों, वैसा ही उनसे तू भी व्यवहार कर। |
− | अंत में गुरू शिष्य से कहते है - यह मेरा आदेश है । यही वेदों और उपनिषदों का कहना है । यही परमात्मा की इच्छा और आज्ञा है । तुझे एैसा ही आचरण करना चाहिये । | + | अंत में गुरू शिष्य से कहते है - यह मेरा आदेश है। यही वेदों और उपनिषदों का कहना है। यही परमात्मा की इच्छा और आज्ञा है। तुझे एैसा ही आचरण करना चाहिये। |
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− | उपरोक्त दायित्वों का विचार करते है तो ध्यान मे आता है की बहुत विचारपूर्वक यह कर्तव्य बताये गये है । यह त्रिकालाबाधित तो है लेकिन इन के अलावा भी युगानुकूल कुछ दायित्व होते है । जैसे किसी समय भारतवर्ष में जनसंख्या बढाने की आवश्यकता थी । तब आशिर्वाद भी दस बच्चों का दिया जाता था । यह आशिर्वाद व्यवहार में भी लाया जाता था । पृथ्वि के संसाधन घटे और जनसंख्या बढी तो आशिर्वाद अष्टपुत्र सौभाग्यवती भव हो गया । व्यवहार भी आशिर्वाद के अनुरूप होने लगा । आज के युग की दृष्टि से समाज का सातत्य और सामथ्र्य बना रहने के लिये आवश्यक संतानें शायद वह आठ से कम हों, निर्माण करने का दायित्व गृहस्थ को निभाना चाहिये । पूर्व काल में युद्ध बहुत हुवा करते थे । युद्धों में पुरूष मरते थे। समाज की सुरक्षा की दृष्टि से पुरूषों की संख्या अधिक रहना समाज की आवश्यकता थी । आज स्थिती बदल गयी है इसलिये संतान निर्माण में आशिर्वाद और व्यवहार दोनों में स्त्री पुरुष की दृष्टि से अंतर ना करना यह गृहस्थ का दायित्व है । राष्ट्र के प्रति स्वतंत्र मार्गदर्शन उपरोक्त दायित्वसूचि मे नही है । मनुस्मृति में बताये अनुसार सेनापति का काम, राज्य-शासन का काम, और न्यायदान का काम और संपूर्ण प्रजापर अधिकार करने का काम वेदरूपि शास्त्र जाननेवाला गृहस्थ ( स्त्री-पुरुष ) ही कर सकता है । एैसे स्त्री-पुरुषों के हाथ में राष्ट्र की धुरा साैपने का काम भी प्रनुख रूप से गृहस्थ ( स्त्री-पुरुष ) का है। | + | उपरोक्त दायित्वों का विचार करते है तो ध्यान मे आता है की बहुत विचारपूर्वक यह कर्तव्य बताये गये है। यह त्रिकालाबाधित तो है लेकिन इन के अलावा भी युगानुकूल कुछ दायित्व होते है। जैसे किसी समय भारतवर्ष में जनसंख्या बढाने की आवश्यकता थी। तब आशिर्वाद भी दस बच्चों का दिया जाता था। यह आशिर्वाद व्यवहार में भी लाया जाता था। पृथ्वि के संसाधन घटे और जनसंख्या बढी तो आशिर्वाद अष्टपुत्र सौभाग्यवती भव हो गया। व्यवहार भी आशिर्वाद के अनुरूप होने लगा। आज के युग की दृष्टि से समाज का सातत्य और सामथ्र्य बना रहने के लिये आवश्यक संतानें शायद वह आठ से कम हों, निर्माण करने का दायित्व गृहस्थ को निभाना चाहिये। पूर्व काल में युद्ध बहुत हुवा करते थे। युद्धों में पुरूष मरते थे। समाज की सुरक्षा की दृष्टि से पुरूषों की संख्या अधिक रहना समाज की आवश्यकता थी। आज स्थिती बदल गयी है इसलिये संतान निर्माण में आशिर्वाद और व्यवहार दोनों में स्त्री पुरुष की दृष्टि से अंतर ना करना यह गृहस्थ का दायित्व है। राष्ट्र के प्रति स्वतंत्र मार्गदर्शन उपरोक्त दायित्वसूचि मे नही है। मनुस्मृति में बताये अनुसार सेनापति का काम, राज्य-शासन का काम, और न्यायदान का काम और संपूर्ण प्रजापर अधिकार करने का काम वेदरूपि शास्त्र जाननेवाला गृहस्थ ( स्त्री-पुरुष ) ही कर सकता है। एैसे स्त्री-पुरुषों के हाथ में राष्ट्र की धुरा साैपने का काम भी प्रनुख रूप से गृहस्थ ( स्त्री-पुरुष ) का है। |
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− | इसलिये उपरोक्त 20 दायित्वों के साथ समायोजित कर वर्तमान युग के अनुसार गृहस्थ (स्त्री-पुरुष) के दायित्व फिर से शब्दबद्ध करने होंगे । वर्तमान से सुसंगत इन सभी दायित्वों का संक्षेप में अब हम विचार करेंगे । | + | इसलिये उपरोक्त 20 दायित्वों के साथ समायोजित कर वर्तमान युग के अनुसार गृहस्थ (स्त्री-पुरुष) के दायित्व फिर से शब्दबद्ध करने होंगे। वर्तमान से सुसंगत इन सभी दायित्वों का संक्षेप में अब हम विचार करेंगे। |
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| ==== वर्तमान युग मे गृहस्थाश्रमी के सामाजिक दायित्व ==== | | ==== वर्तमान युग मे गृहस्थाश्रमी के सामाजिक दायित्व ==== |
− | वर्तमान युग के दायित्वों का वर्गीकरण निम्न हो सकता है । | + | वर्तमान युग के दायित्वों का वर्गीकरण निम्न हो सकता है: |
− | 1. अपने जीवनसाथी (पति या पत्नि) के प्रति दायित्व
| + | # अपने जीवनसाथी (पति या पत्नि) के प्रति दायित्व |
− | 1.1 एकनिष्ठा
| + | ## एकनिष्ठा |
− | 1.2 परस्पर विश्वास
| + | ## परस्पर विश्वास |
− | 1.3 परस्पर पूरकता का व्यवहार
| + | ## परस्पर पूरकता का व्यवहार |
− | 1.4 सुख/दुख में साथ
| + | ## सुख/दुख में साथ |
− | 2. अपने बच्चों के प्रति दायित्व
| + | # अपने बच्चों के प्रति दायित्व |
− | 2.1 श्रेष्ठ संतति का निर्माण
| + | ## श्रेष्ठ संतति का निर्माण: जो समाज श्रेष्ठ आनुवांशिकता को संजोता है अर्थात् संकर नही होने देता या संकर अल्पतम रखता है और साथ ही में एैसे आनुवंशजों को श्रेष्ठ संस्कार पाने की सुनिश्चिती करता है वह समाज केवल श्रेष्ठ ( सुखी, सबल, समाधानी और समृद्ध ) ही नही बनता, चिरंतन भी बन जाता है। |
− | जो समाज श्रेष्ठ आनुवांशिकता को संजोता है अर्थात् संकर नही होने देता या संकर अल्पतम रखता है और साथ ही में एैसे आनुवंशजों को श्रेष्ठ संस्कार पाने की सुनिश्चिती करता है वह समाज केवल श्रेष्ठ ( सुखी, सबल, समाधानी और समृद्ध ) ही नही बनता, चिरंतन भी बन जाता है । | + | ### श्रेष्ठ, दैवी गुणसंपदायुक्त बच्चों को जन्म देना |
− | 2.1.1 श्रेष्ठ, दैवी गुणसंपदायुक्त बच्चों को जन्म देना
| + | ### अपने बच्चों को सुसंस्कारित और सुशिक्षित बनाकर एक श्रेष्ठ समाज-घटक बनाना |
− | 2.1.2 अपने बच्चों को सुसंस्कारित और सुशिक्षित बनाकर एक श्रेष्ठ समाज-घटक बनाना
| + | #### घर का वातावरण, परस्पर व्यवहार, आत्मीयता आदी के आधारपर सुसंस्कारित बनाना। |
− | 2.1.2.1 घर का वातावरण, परस्पर व्यवहार, आत्मीयता आदी के आधारपर सुसंस्कारित बनाना ।
| + | #### योग्य विद्याकेंद्र से जोडकर बच्चे की स्वाभाविक प्रवृत्तियों को समाज के हित में ढालना। |
− | 2.1.2.2 योग्य विद्याकेंद्र से जोडकर बच्चे की स्वाभाविक प्रवृत्तियों को समाज के हित में ढालना ।
| + | ## कुलधर्म, कुलाचार, कुल-परंपरा, कुल-व्यवसाय का बच्चों को संक्रमण |
− | 2.2 कुलधर्म, कुलाचार, कुल-परंपरा, कुल-व्यवसाय का बच्चों को संक्रमण
| + | ## सुरक्षा |
− | 2.3 सुरक्षा
| + | ## सामाजिक प्रतिष्ठा/नाम |
− | 2.4 सामाजिक प्रतिष्ठा/नाम
| + | # अपने माता-पिता के प्रति दायित्व |
− | 3. अपने माता-पिता के प्रति दायित्व
| + | ## पितृ ॠण से मुक्ति |
− | 3.1 पितर ॠण से मुक्ति 3.2 सुखी योगक्षेम 3.3 श्रेष्ठ संतान निर्मिती / वंश आगे चलाना
| + | ## सुखी योगक्षेम |
− | 4 अपने परिवार के सदस्यों के प्रति दायित्व
| + | ## श्रेष्ठ संतान निर्मिती / वंश आगे चलाना |
− | 4.1 परस्पर विश्वास 4.2 सुख/दुख में साथ 4.3 योगक्षेम की निश्चतता
| + | # अपने परिवार के सदस्यों के प्रति दायित्व |
− | 5. समाज के घटक के नाते दायित्व
| + | ## परस्पर विश्वास |
− | 5.1 सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ बनाना और बनाए रखना
| + | ## सुख/दुख में साथ |
− | 5.1.1 परिवार व्यवस्था, राष्ट्र आदी जैसी जो चिरंतन व्यवस्थाएं पहले से विद्यमान है, उन्हें बलवान बनाना ।
| + | ## योगक्षेम की निश्चतता |
− | 5.1.2 आश्रम व्यवस्था, अपने को अपनी भूमि के साथ जोडकर रखने वाली व्यवसाय के चयन की मानसिकता आदी के बारे में समाज की मानसिकता को सुधारने के प्रयास करना । आश्रम व्यवस्था के नष्ट होने के कारण एक ओर तो पुरानी और नई पीढी के झगडे बढे है तो दूसरी ओर वानप्रस्थी केवल अपने या अपने परिवार के हित तक ही सीमित हो गया है ।
| + | # समाज के घटक के नाते दायित्व |
− | | + | ## सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ बनाना और बनाए रखना |
− | वर्ण तो परमात्मा द्वारा बनाए हुए है । प्राकृतिक है । दिमाग का काम करनेवाले, सुरक्षा का काम करनेवाले, समाज के उदरनिर्वाह के साधन निर्माण करनेवाले और सेवक मानसिकता के लोग तो हर काल में रहते ही है । वह ईश्वरनिर्मित है । चारों वर्णों के लोग तो नित्य बने ही रहेंगे । इन वर्णों के लोग अपने अपने काम में विशेष कौशल्य प्राप्त कर सकें, इस हेतु से अपने पूर्वजों ने आनुवंशिकता विज्ञान को ध्यान में रखकर इन वर्णों को व्यवस्था के रूप में समाज में प्रस्थापित किया था । किंतु आज इस व्यवस्था के स्वरूप को बिगाडकर मानव समाज अपना ही नुकसान करता दिखाई दे रहा है । संकर से निर्माण हुई प्रजा पीढी दर पीढी दुर्बल होती जाती है यह प्रकृति का नियम है । पौधों की संकरित जातियाॅ धीरे धीरे नष्ट हो जाती है । संकरित पौधे के बीज या तो नपुंसक होते है या दुर्बल । आधुनिक जैव विज्ञान भी यही कहता है । वर्ण व्यवस्था को बल देना होगा । उसे समाज की मानसिकता में फिर से प्रस्थापित करना होगा । जाति व्यवस्था का विचार करना भी आवश्यक है । हजारों लाखों वर्षों से यह चली आ रही व्यवस्था है । जाति व्यवस्था यह मानव निर्मित थी । किंतु वह प्रकृति से सुसंगत वर्ण व्यवस्था से जुडी थी । आज भी क्या हम वर्ण व्यवस्था के लाभ न गॅवाते हुवे किंतु जाति व्यवस्था के लाभ मिलते रहें एैसी कोई व्यवस्था निर्माण कर सकते है क्या, इसका विचार करने की आवश्यकता है । एैसी व्यवस्था का निर्माण किये बगैर, कमसे कम एैसी व्यवस्था निर्माण के प्रामाणिक और बुद्धियुक्त कुछ प्रयोग किये बगैर पुरानी व्यवस्था तोडना यह बुद्धिनिष्ठा की बात नही है । | + | ### परिवार व्यवस्था, राष्ट्र आदी जैसी जो चिरंतन व्यवस्थाएं पहले से विद्यमान है, उन्हें बलवान बनाना। |
− | भूमि से लगाव नष्ट होने के कारण पगढीलापन आ गया है । दुनियाॅभर की सभी संस्कृतियाॅ इस एक पगढीलेपन के चलते नष्ट होने की दिशा में बढ रही है । जिस देश या समाज के लोग अपने प्रवास सीमित रखेंगे वही देश अपनी संस्कृति बचा पाएगा । | + | ### आश्रम व्यवस्था, अपने को अपनी भूमि के साथ जोडकर रखने वाली व्यवसाय के चयन की मानसिकता आदी के बारे में समाज की मानसिकता को सुधारने के प्रयास करना। आश्रम व्यवस्था के नष्ट होने के कारण एक ओर तो पुरानी और नई पीढी के झगडे बढे है तो दूसरी ओर वानप्रस्थी केवल अपने या अपने परिवार के हित तक ही सीमित हो गया है। वर्ण तो परमात्मा द्वारा बनाए हुए है। प्राकृतिक है। दिमाग का काम करनेवाले, सुरक्षा का काम करनेवाले, समाज के उदर निर्वाह के साधन निर्माण करनेवाले और सेवक मानसिकता के लोग तो हर काल में रहते ही है। वह ईश्वरनिर्मित है। चारों वर्णों के लोग तो नित्य बने ही रहेंगे। इन वर्णों के लोग अपने अपने काम में विशेष कौशल्य प्राप्त कर सकें, इस हेतु से अपने पूर्वजों ने आनुवंशिकता विज्ञान को ध्यान में रखकर इन वर्णों को व्यवस्था के रूप में समाज में प्रस्थापित किया था। किंतु आज इस व्यवस्था के स्वरूप को बिगाडकर मानव समाज अपना ही नुकसान करता दिखाई दे रहा है। संकर से निर्माण हुई प्रजा पीढी दर पीढी दुर्बल होती जाती है यह प्रकृति का नियम है। पौधों की संकरित जातियाॅ धीरे धीरे नष्ट हो जाती है। संकरित पौधे के बीज या तो नपुंसक होते है या दुर्बल। आधुनिक जैव विज्ञान भी यही कहता है। वर्ण व्यवस्था को बल देना होगा। उसे समाज की मानसिकता में फिर से प्रस्थापित करना होगा। जाति व्यवस्था का विचार करना भी आवश्यक है। हजारों लाखों वर्षों से यह चली आ रही व्यवस्था है। जाति व्यवस्था यह मानव निर्मित थी। किंतु वह प्रकृति से सुसंगत वर्ण व्यवस्था से जुडी थी। आज भी क्या हम वर्ण व्यवस्था के लाभ न गॅवाते हुवे किंतु जाति व्यवस्था के लाभ मिलते रहें एैसी कोई व्यवस्था निर्माण कर सकते है क्या, इसका विचार करने की आवश्यकता है। एैसी व्यवस्था का निर्माण किये बगैर, कमसे कम एैसी व्यवस्था निर्माण के प्रामाणिक और बुद्धियुक्त कुछ प्रयोग किये बगैर पुरानी व्यवस्था तोडना यह बुद्धिनिष्ठा की बात नही है। भूमि से लगाव नष्ट होने के कारण पगढीलापन आ गया है। दुनियाॅभर की सभी संस्कृतियाॅ इस एक पगढीलेपन के चलते नष्ट होने की दिशा में बढ रही है। जिस देश या समाज के लोग अपने प्रवास सीमित रखेंगे वही देश अपनी संस्कृति बचा पाएगा। |
− | 5.1.3 जहाॅ पुरातन व्यवस्थाएं वर्तमान काल में चिरंतनता और सर्वहितकारिता की कसौटिपर संदर्भहीन हो गइं है एैसी व्यवस्थाओं को तिलांजली देना । | + | 5.1.3 जहाॅ पुरातन व्यवस्थाएं वर्तमान काल में चिरंतनता और सर्वहितकारिता की कसौटिपर संदर्भहीन हो गइं है एैसी व्यवस्थाओं को तिलांजली देना। |
− | 5.1.4 शिक्षा व्यवस्था जैसी व्यवस्थाएं जिन्हें हमने पाश्चात्य प्रभाव में आकर नष्ट कर दिया है, उन्हें फिर से अपने भारतीय चिरंतन तत्वों के आधारपर वर्तमान का ध्यान रखते हुवे पुनर्गठित करना । | + | 5.1.4 शिक्षा व्यवस्था जैसी व्यवस्थाएं जिन्हें हमने पाश्चात्य प्रभाव में आकर नष्ट कर दिया है, उन्हें फिर से अपने भारतीय चिरंतन तत्वों के आधारपर वर्तमान का ध्यान रखते हुवे पुनर्गठित करना। |
− | 5.1.5 शासन व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था आदी जैसी व्यवस्थाओं में भी हम पाश्चात्यों का अंधानुकरण करते जा रहे है । इन्हें शुद्ध भारतीयता के चिरंतन तत्वों के आधारपर पुनर्विकसित करना । | + | 5.1.5 शासन व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था आदी जैसी व्यवस्थाओं में भी हम पाश्चात्यों का अंधानुकरण करते जा रहे है। इन्हें शुद्ध भारतीयता के चिरंतन तत्वों के आधारपर पुनर्विकसित करना। |
− | 5.2 श्रेष्ठ संतति का निर्माण : उपरोक्त 2.1 और 2.2 बिंदू देखें । | + | 5.2 श्रेष्ठ संतति का निर्माण : उपरोक्त 2.1 और 2.2 बिंदू देखें। |
− | 5.3 अतिथि, अभ्यागत, भिखारी, भिक्षा माॅगनेवाले आदी । सन्मान के साथ यथासंभव उनकी मनोकामना को पूर्ण करने का प्रयास करना । | + | 5.3 अतिथि, अभ्यागत, भिखारी, भिक्षा माॅगनेवाले आदी। सन्मान के साथ यथासंभव उनकी मनोकामना को पूर्ण करने का प्रयास करना। |
− | 5.4 समाज हित का कोई उपयुक्त व्यावसायिक काम । | + | 5.4 समाज हित का कोई उपयुक्त व्यावसायिक काम। |
− | 5.5 समाजसेवा के नि:स्वार्थ उपक्रम चलानेवालों के योगक्षेम की व्यवस्था करना । | + | 5.5 समाजसेवा के नि:स्वार्थ उपक्रम चलानेवालों के योगक्षेम की व्यवस्था करना। |
| 6. राष्ट्र या देश के प्रति दायित्व | | 6. राष्ट्र या देश के प्रति दायित्व |
− | राष्ट्र की प्रमुख और महत्वपूर्ण व्यवस्थाएं सुव्यवस्थित रहें इस हेतु तन, मन और धन से पहल और सहयोग करना । अखण्ड जागरूक रहना । ये व्यवस्थाएं निम्न है । | + | राष्ट्र की प्रमुख और महत्वपूर्ण व्यवस्थाएं सुव्यवस्थित रहें इस हेतु तन, मन और धन से पहल और सहयोग करना। अखण्ड जागरूक रहना। ये व्यवस्थाएं निम्न है। |
| 6.1 योग्य धर्म व्यवस्था | | 6.1 योग्य धर्म व्यवस्था |
| 6.2 योग्य शिक्षा व्यवस्था | | 6.2 योग्य शिक्षा व्यवस्था |
| 6.3 योग्य शासक/शासन व्यवस्था | | 6.3 योग्य शासक/शासन व्यवस्था |
| 7. चराचर के प्रति दायित्व | | 7. चराचर के प्रति दायित्व |
− | मानव को प्राप्त विशेष शक्तियों के कारण मानव प्रकृति का विनाश करने की क्षमता रखता है । अन्य किसी भी जीव में प्रकृति को बिगाडने की क्षमता नही है । अपने सुख के लिये प्रकृति को बिगाडने की बुद्धी तो अन्य किसी भी जीव में लेशमात्र भी नही है । मानव की इसी क्षमता के कारण मानवपर प्रकृति की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी आ जाती है । इसीलिये प्राचीन काल से भारतीय समाज ने अपने विभिन्न रीति रिवाजों में संस्कारों -उत्सवों में, दैनंदिन व्यवहार में प्रकृति के संतुलन और शुद्धता को बनाये रखने की सहज रचना की थी । इन में से काफी कुछ परंपराएं आज भी कर्मकांड के रूप में जीवित है । ये यदि केवल कर्मकांड बनी रहीं तो अगली पीढीतक नष्ट हो जाने का डर है । अत: इन प्रथा परंपराओं को बुद्धियुक्त प्र्स्तुति के साथ समाज में पुन: प्रस्थापित करना होगा । प्रदूषण का बढता परिमाण देखते हुवे और भी कई प्रकार के बुद्धियुक्त कर्मकांडों को समाजजीवन का अनिवार्य अंग बनाना होगा । | + | मानव को प्राप्त विशेष शक्तियों के कारण मानव प्रकृति का विनाश करने की क्षमता रखता है। अन्य किसी भी जीव में प्रकृति को बिगाडने की क्षमता नही है। अपने सुख के लिये प्रकृति को बिगाडने की बुद्धी तो अन्य किसी भी जीव में लेशमात्र भी नही है। मानव की इसी क्षमता के कारण मानवपर प्रकृति की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी आ जाती है। इसीलिये प्राचीन काल से भारतीय समाज ने अपने विभिन्न रीति रिवाजों में संस्कारों -उत्सवों में, दैनंदिन व्यवहार में प्रकृति के संतुलन और शुद्धता को बनाये रखने की सहज रचना की थी। इन में से काफी कुछ परंपराएं आज भी कर्मकांड के रूप में जीवित है। ये यदि केवल कर्मकांड बनी रहीं तो अगली पीढीतक नष्ट हो जाने का डर है। अत: इन प्रथा परंपराओं को बुद्धियुक्त प्र्स्तुति के साथ समाज में पुन: प्रस्थापित करना होगा। प्रदूषण का बढता परिमाण देखते हुवे और भी कई प्रकार के बुद्धियुक्त कर्मकांडों को समाजजीवन का अनिवार्य अंग बनाना होगा। |
− | प्रकृति के अनुकूल और अनुरूप जीवनशैली का स्वीकार करना होगा । प्रकृति की अनुकूलता और अनुरूपता के लिये निम्न सात बातें महत्वपूर्ण है । | + | प्रकृति के अनुकूल और अनुरूप जीवनशैली का स्वीकार करना होगा। प्रकृति की अनुकूलता और अनुरूपता के लिये निम्न सात बातें महत्वपूर्ण है। |
| - चक्रीयता - परस्परावलंबन - विकेंद्रितता - मर्यादा - परस्पर आदान-प्रदान | | - चक्रीयता - परस्परावलंबन - विकेंद्रितता - मर्यादा - परस्पर आदान-प्रदान |
| - विघटनशीलता - प्रकृति की गति के साथ गतिमान संतुलन बनाए रखना | | - विघटनशीलता - प्रकृति की गति के साथ गतिमान संतुलन बनाए रखना |
− | यही चराचर के हित में है । यही मानव के हित में है । इसलिये अपनी जीवनशैली मे इन सात बातों को समाहित करना आवश्यक है । | + | यही चराचर के हित में है। यही मानव के हित में है। इसलिये अपनी जीवनशैली मे इन सात बातों को समाहित करना आवश्यक है। |
| 8. समाज का ही एक घटक होने के नाते अपने प्रति दायित्व | | 8. समाज का ही एक घटक होने के नाते अपने प्रति दायित्व |
− | भारतीय विचारों में व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य मोक्ष कहा गया है । लेकिन साथ मे 'आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च' यह भी कहा गया है । जगत का हित करने की मेरी क्षमताएॅ मुझे ही प्रयासपूर्वक बढानी होगी । इन क्षमताओं का लाभ मुझे मोक्षप्राप्ति के लिये भी होगा । | + | भारतीय विचारों में व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य मोक्ष कहा गया है। लेकिन साथ मे 'आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च' यह भी कहा गया है। जगत का हित करने की मेरी क्षमताएॅ मुझे ही प्रयासपूर्वक बढानी होगी। इन क्षमताओं का लाभ मुझे मोक्षप्राप्ति के लिये भी होगा। |
| वर्तमान में गृहस्थाश्रमी को दायित्व-बोध कैसे कराएं ? | | वर्तमान में गृहस्थाश्रमी को दायित्व-बोध कैसे कराएं ? |
− | गृहस्थाश्रमी के दायित्वों का विचार तो आज भी प्रासंगिक है । किंतु अपने उपरोक्त विभिन्न प्रकार के दायित्वों की जानकारी गृहस्थ को हो और उस के अनुसार उन दायित्वों की पूर्ति गृहस्थ कर सके एैसी व्यवस्था भी करनी होगी । | + | गृहस्थाश्रमी के दायित्वों का विचार तो आज भी प्रासंगिक है। किंतु अपने उपरोक्त विभिन्न प्रकार के दायित्वों की जानकारी गृहस्थ को हो और उस के अनुसार उन दायित्वों की पूर्ति गृहस्थ कर सके एैसी व्यवस्था भी करनी होगी। |
− | जो जहाॅ है वहीं से उसे आगे ले जाने की योजना बनानी होगी । यह कोई सरलता से, सहजता से और अल्पकाल में होनेवाला काम नही है । फिर भी प्रयास तो इस काम को अल्पतम काल में पूरा करने के लिये ही करने होंगे । पूरी शक्ति, गति और व्याप्ति के साथ प्रयास करने की आवश्यकता है । इस की प्रक्रिया के विकास के लिये इस के हास की प्रक्रिया का अध्ययन करना ठीक होगा । इस हास प्रक्रिया का समाधान ढूंढकर इसे उत्थान की प्रक्रिया में बदलना होगा । | + | जो जहाॅ है वहीं से उसे आगे ले जाने की योजना बनानी होगी। यह कोई सरलता से, सहजता से और अल्पकाल में होनेवाला काम नही है। फिर भी प्रयास तो इस काम को अल्पतम काल में पूरा करने के लिये ही करने होंगे। पूरी शक्ति, गति और व्याप्ति के साथ प्रयास करने की आवश्यकता है। इस की प्रक्रिया के विकास के लिये इस के हास की प्रक्रिया का अध्ययन करना ठीक होगा। इस हास प्रक्रिया का समाधान ढूंढकर इसे उत्थान की प्रक्रिया में बदलना होगा। |
− | घर और परिवारों की भूमिका : सामाजिक दायित्व की भावना के हास का प्रारंभ तो घरों / परिवारों से ही हुवा है । इसलिये घरों/परिवारों को इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी । इस हेतु निम्न बिंदुओंपर बल देना होगा | + | घर और परिवारों की भूमिका : सामाजिक दायित्व की भावना के हास का प्रारंभ तो घरों / परिवारों से ही हुवा है। इसलिये घरों/परिवारों को इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। इस हेतु निम्न बिंदुओंपर बल देना होगा |
| 1. अधिजनन शास्त्र का प्रचार, प्रसार और मार्गदर्शन की व्यवस्था | | 1. अधिजनन शास्त्र का प्रचार, प्रसार और मार्गदर्शन की व्यवस्था |
| 2. गृहशास्त्र की सटीक प्रस्तुति, प्रचार, प्रसार और मार्गदर्शन की व्यवस्था | | 2. गृहशास्त्र की सटीक प्रस्तुति, प्रचार, प्रसार और मार्गदर्शन की व्यवस्था |
− | शिक्षा क्षेत्र की भूमिका : किंतु उस से भी अधिक महत्वपूर्ण भूमिका शिक्षा क्षेत्र को निभानी होगी । समाज के जिस घटक की मानसिकता अभी घटी नही है एैसे छोटे बच्चों को सुसंस्कारित और सुशिक्षित करते हुवे आगे बढना होगा । बच्चों को एक अच्छा मानव बनाने के साथ ही श्रेष्ठ माता/पिता और समाज का एक अच्छे घटक बनाना होगा । पूरी शिक्षा प्रणालि, शिक्षा व्यवस्था और पाठ¬क्रम मे योग्य परिवर्तन करना होगा । बच्चों की, समाज की और राष्ट्र और विश्व की चिंता जिन्हें है एैसे अभिभावकों को साथ में लेकर इस प्रक्रिया को बलवान बनाना होगा । | + | शिक्षा क्षेत्र की भूमिका : किंतु उस से भी अधिक महत्वपूर्ण भूमिका शिक्षा क्षेत्र को निभानी होगी। समाज के जिस घटक की मानसिकता अभी घटी नही है एैसे छोटे बच्चों को सुसंस्कारित और सुशिक्षित करते हुवे आगे बढना होगा। बच्चों को एक अच्छा मानव बनाने के साथ ही श्रेष्ठ माता/पिता और समाज का एक अच्छे घटक बनाना होगा। पूरी शिक्षा प्रणालि, शिक्षा व्यवस्था और पाठ¬क्रम मे योग्य परिवर्तन करना होगा। बच्चों की, समाज की और राष्ट्र और विश्व की चिंता जिन्हें है एैसे अभिभावकों को साथ में लेकर इस प्रक्रिया को बलवान बनाना होगा। |
| वानप्रस्थ | | वानप्रस्थ |
| वानप्रस्थ का अर्थ है जिसने वन को प्रस्थान किया है। वानप्रस्थ शब्द में वन शब्द आता है। वन क्या होता है? वन में मानवों की बस्ती नहीं होती। इसलिए परस्परावलंबन भी नहीं होता। अपनी क्षमताओं के आधारपर ही जीना होता है। समाज के नियम नहीं चलते। कोइ अधिकार नहीं होते। लेकिन कर्तव्य तो होते हैं। उपनिषदों का अधिक गहराई से विचार आरण्यकों में हुआ था। सामाजिक पार्श्वभूमी से बाहर आकर त्रयस्थ भूमिका से अपने ज्ञान और अनुभवों का चिंतन करा उसे परिष्कृत करने का काम वन में याने समाज से दूर रहकर ही हो सकता है। | | वानप्रस्थ का अर्थ है जिसने वन को प्रस्थान किया है। वानप्रस्थ शब्द में वन शब्द आता है। वन क्या होता है? वन में मानवों की बस्ती नहीं होती। इसलिए परस्परावलंबन भी नहीं होता। अपनी क्षमताओं के आधारपर ही जीना होता है। समाज के नियम नहीं चलते। कोइ अधिकार नहीं होते। लेकिन कर्तव्य तो होते हैं। उपनिषदों का अधिक गहराई से विचार आरण्यकों में हुआ था। सामाजिक पार्श्वभूमी से बाहर आकर त्रयस्थ भूमिका से अपने ज्ञान और अनुभवों का चिंतन करा उसे परिष्कृत करने का काम वन में याने समाज से दूर रहकर ही हो सकता है। |
Line 132: |
Line 121: |
| ३. गृहस्थ की अधीनता से दुखी नहीं होना। और छोटों की सेवा लेने में बड़प्पन का अनुभव करना। | | ३. गृहस्थ की अधीनता से दुखी नहीं होना। और छोटों की सेवा लेने में बड़प्पन का अनुभव करना। |
| संन्यास | | संन्यास |
− | श्रीमद्भागवद्गीता के अध्याय १८-२ में कहा है – काम्यानां कर्मणा न्यासं संन्यासं कवयो विदु: । अर्थ : कामी करों के त्याग को संन्यास कहा गया है। नित्य, नैमित्तिक और काम्य ऐसे तीन प्रकार के कर्म होते हैं। काम्य कर्म का अर्थ है अपनी विशेष इच्छा की पूर्ती के लिए किया गया कर्म। याने प्राणिक आवेगों की पूर्ती से अधिक पाने की इच्छा से किये गए कर्म। निष्काम कर्म का भी फल भोगना ही पड़ता है। जैसे इच्छा नहीं थी फिर भी शकर खाई गई। अब उसकी मिठास का अनुभव तो होगा ही। उससे बच नहीं सकते। सातवलेकर कहते हैं – संन्यास याने विश्वकुटुंबवृत्ति का आश्रय। संन्यासी के लिए नियम – | + | श्रीमद्भागवद्गीता के अध्याय १८-२ में कहा है – काम्यानां कर्मणा न्यासं संन्यासं कवयो विदु:। अर्थ : कामी करों के त्याग को संन्यास कहा गया है। नित्य, नैमित्तिक और काम्य ऐसे तीन प्रकार के कर्म होते हैं। काम्य कर्म का अर्थ है अपनी विशेष इच्छा की पूर्ती के लिए किया गया कर्म। याने प्राणिक आवेगों की पूर्ती से अधिक पाने की इच्छा से किये गए कर्म। निष्काम कर्म का भी फल भोगना ही पड़ता है। जैसे इच्छा नहीं थी फिर भी शकर खाई गई। अब उसकी मिठास का अनुभव तो होगा ही। उससे बच नहीं सकते। सातवलेकर कहते हैं – संन्यास याने विश्वकुटुंबवृत्ति का आश्रय। संन्यासी के लिए नियम – |
| १. भिक्षाटन – भिक्षा वृत्ति से जीवन का इन्र्वाह करना। | | १. भिक्षाटन – भिक्षा वृत्ति से जीवन का इन्र्वाह करना। |
| २. एक जगह नहीं रहना। अतन करते रहना। एक गाँव में दो दिन से अधिक निवास नहीं करना। ममत्त्व भाव निर्माण न होवे इसलिए अतन करते रहना आवश्यक है। | | २. एक जगह नहीं रहना। अतन करते रहना। एक गाँव में दो दिन से अधिक निवास नहीं करना। ममत्त्व भाव निर्माण न होवे इसलिए अतन करते रहना आवश्यक है। |