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→‎आश्रम की व्याख्या: लेख सम्पादित किया
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== आश्रम की व्याख्या ==
 
== आश्रम की व्याख्या ==
आश्रम की व्याख्या इस प्रकार दी गयी है{{Citation needed}} :  
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आश्रम की व्याख्या इस प्रकार दी गयी है{{Citation needed}} : <blockquote>आश्रम्यती अस्मिन् अनेन वा इति आश्रम:</blockquote><blockquote>अर्थ है – जिस व्यवस्था में हर अवस्था में जीवन की लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सतत श्रम करने होते हैं।</blockquote>मानव की बढ़ती घटती क्षमताओं और उसके क्षमता विकास की और क्षमताओं के घटने की प्रकृति की रचना को आयु की अवस्थाओं के साथ समायोजित करने के लिए ही आश्रम व्यवस्था निर्माण की गयी। मानवेतर प्राणियों को जीवन का कोई लक्ष्य होणा चाहिए इसकी समझ नहीं होती। इसलिए लक्ष्य प्राप्ति के लिए जीवन का नियोजन मानवेतर प्राणियों के लिए न तो संभव है और न ही आवश्यक। लेकिन मानव एक बुद्धिशील जीव है। वह सामाजिक जीव भी है। इसलिए वह अपने लक्ष्य की याने सुख से परमसुखातक के लक्ष्यों की प्राप्त के लिए व्यवस्थाएँ निर्माण करता है। आयु की प्रत्येक अवस्था को ठीक से समझकर जीवन की अनिश्चितताओं को दूर कर मानव जीवन को लक्ष्य प्राप्ति के लिए जीवन यापन के लिए श्रम करने के उपरांत भी अवकाश प्राप्त हो, इस हेतु से आश्रम व्यवस्था की रचना की गयी है।
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आश्रम्यती अस्मिन् अनेन वा इति आश्रम:
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आश्रम चार हैं। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। स्वस्थ मनुष्य की आयु १०० वर्ष की होगी ऐसा मानकर आयु की अवस्था के अनुसार इसका विभाजन किया गया है। इन चार आश्रमों का जन्म से लेकर २५ वर्षतक ब्रह्मचर्य आश्रम, २६ वें वर्ष से ५० वर्षतक गृहस्थ आश्रम, ५१ वर्ष से ७५ वर्षतक वानप्रस्थ आश्रम और ७६ वर्ष से १०० वर्षतक संन्यास आश्रम, ऐसा मोटा मोटा विभाजन किया गया है।
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अर्थ है – जिस व्यवस्था में हर अवस्था में जीवन की लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सतत श्रम करने होते हैं।
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आयु के अनुसार मानव की शारिरिक क्षमताएं और आवश्यकताएं इन का समीकरण बिगड जाना यह प्रकृति का नियम है । शैशव और बाल्यावस्था में बच्चे की सुधबुध कम होती है । उस की शारिरिक क्षमताएं भी कम होने से वह परावलंबी रहता है । इसी प्रकार से यौवन के ढलते काल में मनुष्य की क्षमताएं अधिक गति से कम होती है किंतु उस गति से उसकी आवष्यकताएं कम नही होतीं । इसलिये यौवन के बाद फिर वह कुछ मात्रा में परावलंबी बन जाता है । किंतु जीवन का अनुभवजन्य और चिंतनजन्य ज्ञान उस के पास होता है । इस के साथ ही मानव को और मानव समाज को उनके लक्ष्य की ओर आगे बढाने में भी इन व्यवस्थाओं की आवश्यकता आदि बातें ध्यान मे रखकर, इन सभी बातों का समायोजन करने की दृष्टि से चार आश्रमों की व्यवस्था की गयी थी । यह चार आश्रम थे ब्राह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास । ब्राह्मचर्य में बच्चा अपनी वृत्ति - प्रवृत्ती के अनुसार शिक्षण प्राप्त करता है । शैशव काल मे वह अपने माता - पिता के घर में रहकर संस्कार पाता है । बडों जैसा व्यवहार करने की स्वाभाविक अनुकरण की मानसिकता से घर में संस्कार संक्रमण का काम अत्यंत सहजता से पहली पीढी से दूसरी पीढी मे होता जाता है ।
मानवकी बढ़ती घटती क्षमताओं और उसके क्षमता विकास की और क्षमताओं के घटने की प्रकृति की रचना को आयु की अवस्थाओं के साथ समायोजित करने के लिए ही आश्रम व्यवस्था निम्न की गयी। मानवेतर प्राणियों को जीवन का कोई लक्ष्य होणा चाहिए इसकी समझ नहीं होती। इसलिए लक्ष्यप्राप्ति के लिए जीवन का नियोजन मानवेतर प्राणियों के लिए न तो संभव है और न ही आवश्यक। लेकिन मानव एक बुद्धिशील जीव है। वह सामाजिक जीव भी है। इसलिए वह अपने लक्ष्य की याने सुख से परमसुखातक के लक्ष्यों की प्राप्त के लिए व्यवस्थाएँ निर्माण करता है। आयु की प्रत्येक अवस्था को ठीक से समझकर जीवन की अनिश्चितताओं को दूर कर मानव जीवन को लक्ष्य प्राप्ति के लिए जीवन यापन के लिए श्रम करने के उपरांत भी अवकाश प्राप्त हो, इस हेतु से आश्रम व्यवस्था की रचना की गयी है।
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आश्रम चार हैं। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। स्वस्थ मनुष्य की आयु १०० वर्ष की होगी ऐसा मानकर आयु की अवस्था के अनुसार इसका विभाजन किया गया है। इन चार आश्रमों का जन्म से लेकर २५ वर्षतक ब्रह्मचर्य आश्रम, २६ वें वर्ष से ५० वर्षतक गृहस्थ आश्रम, ५१ वर्ष से ७५ वर्षतक वानप्रस्थ आश्रम और ७६ वर्ष से १०० वर्षतक संन्यास आश्रम, ऐसा मोटा मोटा विभाजन किया गया है। 
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=== ब्रह्मचर्य ===
ब्रह्मचर्य
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वर्तमान की विकृत शिक्षा और अभारतीय प्रतिमानिक वातावरण ने ब्रह्मचर्य को युवकों के मजाक का विषय बना दिया है । लड़के और लड़कियों की बाल्यावस्था से आगे भी चलाई जा रही सहशिक्षा ने ब्रह्मचर्य को नष्ट और मजाक का विषय बना दिया है।
वर्तमाँ की विकृत शिक्षा और अभारतीय प्रतिमानिक वातावरण ने ब्रह्मचर्य कको युवकों के मजाक का विषय बना दिया है+ लडके और लड़कियों की बाल्यावस्था से आगे भी चलाई जा रही सहशिक्षा ने ब्रह्मचर्य को नष्ट और मजाक का विषय बना दिया है।
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* ब्रह्मचर्य की आवश्यकता
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ब्रह्मचर्य की व्याख्या{{Citation needed}} :
* ब्रह्मचर्य और संतान निर्माण
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स्मरणं कीर्तनं केलि: प्रेक्षणं गुह्यभाषणं।
* ब्रह्मचर्य की व्याख्या
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स्मरणं कीर्तनं केलि: प्रेक्षणं गुह्यभाषणं  । संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रिया निष्पत्तीरेव च ॥ एतन्मैथुनमष्टांगम् प्रवदन्ति मनीषिन:   विपरीतं ब्रह्मचर्यामेतदेवाष्ट लक्षणम्      ॥
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संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रिया निष्पत्तीरेव च ॥
अर्थ : वासनाओं का स्मरण, मन में चिंतन, विषयवस्तू की कल्पना कर किया व्यवहार, विषयवस्तू का दर्शन, विषयवस्तू की चर्चा, विषयवस्तू की प्राप्ति का संकल्प, विषयवस्तू पाने का ध्यास और सब से अंतिम प्रत्यक्ष विषयवस्तू का उपभोग ऐसे आठ प्रकार से ब्रह्मचर्य का भंग होता है। इन से दूर रहने का अर्थ है ब्रह्मचर्य का पालन।
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* ब्रह्मचारी से अपेक्षाएं
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एतन्मैथुनमष्टांगम् प्रवदन्ति मनीषिन:।
गृहस्थ * प्रजातन्तुम् माँ व्यवच्छेत्सी। * स्वाध्यायान्माप्रमद: * चारों आश्रमों का आश्रयस्थान * विवाह * गृहिणी * गृहस्थ * कुटुंब एकात्मता/सामाजिकता की पाठशाला * उद्योग   * अपेक्षाएँ  - सामाजिक व्यवस्थाओं में योगदान
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गृहस्थाश्रम - आश्रम व्यवस्था का महत्वपूर्ण घटक
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विपरीतं ब्रह्मचर्यामेतदेवाष्ट लक्षणम्॥
आयु के अनुसार मानव की शारिरिक क्षमताएं और आवश्यकताएं इन का समीकरण बिगड जाना यह प्रकृति का नियम है । शैशव और बाल्यावस्था में बच्चे की सुधबुध कम होती है । उस की शारिरिक क्षमताएं भी कम होने से वह परावलंबी रहता है । इसी प्रकार से यौवन के ढलते काल में मनुष्य की क्षमताएं अधिक गति से कम होती है किंतु उस गति से उसकी आवष्यकताएं कम नही होतीं इसलिये यौवन के बाद फिर वह कुछ मात्रा में परावलंबी बन जाता है । किंतु जीवन का अनुभवजन्य और चिंतनजन्य ज्ञान उस के पास होता है । इस के साथ ही मानव को और मानव समाज को उनके लक्ष्य की ओर आगे बढाने में भी इन व्यवस्थाओं की आवश्यकता आदी बातें ध्यान मे रखकर, इन सभी बातों का समायोजन करने की दृष्टि से चार आश्रमों की व्यवस्था की गयी थी यह चार आश्रम थे ब्राह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास ब्राह्मचर्य में बच्चा अपनी वृत्ति - प्रवृत्ती के अनुसार शिक्षण प्राप्त करता है । शैशव काल मे वह अपने माता - पिता के घर में रहकर संस्कार पाता है बडों जैसा व्यवहार करने की स्वाभाविक अनुकरण की मानसिकता से घर में संस्कार संक्रमण का काम अत्यंत सहजता से पहली पीढी से दूसरी पीढी मे होता जाता है गृहस्थाश्रम में मानव यौवनावस्था में होता है अपनी पूरी क्षमताओं का उपयोग करता हुवा वह अपने साथ पूरे समाज के योगक्षेम का वहन करता है वानप्रस्थ और संन्यास में मानव की शारिरिक क्षमताएं कम होती जाती है वानप्रस्थ में वह अपने पारिवारिक मोह से मुक्ति के लिये प्रयासरत रहता है । और संन्यास में तो वह चराचर से एकात्मता हेतु प्रयोगशील रहता है । वह अधिक समय मोक्षप्राप्ति हेतु चिंतन, मनन, मार्गदर्शन आदी के लिये दे सकता है । ब्राह्मचर्य काल में अर्जित, गृहस्थाश्रम मे विकसित अनुभवजन्य ज्ञान को चिंतन, मनन कर नयी पीढी के अनुरूप बनाकर देने का बौद्धिक और मानसिक सामथ्र्य वह रखता है ।  
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गृहस्थ और समाज इन दोनों जीवमान इकाईयो का सबंध अन्योन्याश्रित है समाज के प्रति दायित्व बोध रखनेवाला गृहस्थ वर्ग न हो तो कोई समाज श्रेष्ठ नही बन सकता
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अर्थ : वासनाओं का स्मरण, मन में चिंतन, विषयवस्तू की कल्पना कर किया व्यवहार, विषयवस्तू का दर्शन, विषयवस्तू की चर्चा, विषयवस्तू की प्राप्ति का संकल्प, विषयवस्तू पाने का ध्यास और सब से अंतिम प्रत्यक्ष विषयवस्तू का उपभोग ऐसे आठ प्रकार से ब्रह्मचर्य का भंग होता है। इन से दूर रहने का अर्थ है ब्रह्मचर्य का पालन।
मनुस्मृति में गृहस्थाश्रम का महत्व
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मनुस्मृति में गृहस्थाश्रम का महत्व निम्न बताया गया है
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=== गृहस्थाश्रम ===
यथा वायुं समाश्रत्य वर्तन्ते सर्वजन्तव: ।।
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गृहस्थाश्रम में मानव यौवनावस्था में होता है । अपनी पूरी क्षमताओं का उपयोग करता हुवा वह अपने साथ पूरे समाज के योगक्षेम का वहन करता है । वानप्रस्थ और संन्यास में मानव की शारिरिक क्षमताएं कम होती जाती है । वानप्रस्थ में वह अपने पारिवारिक मोह से मुक्ति के लिये प्रयासरत रहता है । और संन्यास में तो वह चराचर से एकात्मता हेतु प्रयोगशील रहता है । वह अधिक समय मोक्षप्राप्ति हेतु चिंतन, मनन, मार्गदर्शन आदी के लिये दे सकता है । ब्राह्मचर्य काल में अर्जित, गृहस्थाश्रम मे विकसित अनुभवजन्य ज्ञान को चिंतन, मनन कर नयी पीढी के अनुरूप बनाकर देने का बौद्धिक और मानसिक सामथ्र्य वह रखता है ।  
तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमा: ।।
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गृहस्थ और समाज इन दोनों जीवमान इकाईयो का सबंध अन्योन्याश्रित है समाज के प्रति दायित्व बोध रखनेवाला गृहस्थ वर्ग न हो तो कोई समाज श्रेष्ठ नही बन सकता ।  
यस्मात् त्रयोऽप्याश्रमिणो दानेन्नानेन चान्वहम्
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गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्जेष्ठाश्रमो गृही ।।
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==== मनुस्मृति में गृहस्थाश्रम का महत्व ====
स संधार्य: प्रयत्नेन स्वर्गं अक्षय्यं इछता ।
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मनुस्मृति में गृहस्थाश्रम का महत्व निम्न बताया गया है<ref>मनुस्मृति</ref>: <blockquote>यथा वायुं समाश्रत्य वर्तन्ते सर्वजन्तव: तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमा: ।।</blockquote><blockquote>यस्मात् त्रयोऽप्याश्रमिणो दानेन्नानेन चान्वहम् गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्जेष्ठाश्रमो गृही ।।</blockquote><blockquote>स संधार्य: प्रयत्नेन स्वर्गं अक्षय्यं इछता सुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रिया: ।।</blockquote><blockquote>सर्वेषामपि चैतेषां वेदस्मृतिविधानत: गृहस्थ उच्चते श्रेष्ठ: स त्रिनेतान् बिभर्ति ही ।।</blockquote><blockquote>यथा नदीनदा: सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम् तथैवाश्रमिणा: सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम् ।।</blockquote><blockquote>सेनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च सर्वलिकाधिपत्यं च वेदशास्त्रिचदर्हति ।।</blockquote><blockquote>भावार्थ : जिस तरह से वायू के आधार से सभी प्राणी जीवित रहते है, उसी प्रकार से अन्य तीनों आश्रमभी गृहस्थ के आधार से ही रहते है । अर्थात् दान देकर और प्रतिदिन अन्न देकर गृहस्थही ब्राह्मचारी, वानप्रस्थि और संन्यासी के उदरनिर्वाह की व्यवस्था करता है । इसलिये गृहस्थाश्रम श्रेष्ठ है । जिसे अक्षय्य स्वर्ग अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति करनी है और साथ ही में इहलोक में भी सुख प्राप्त करने की इच्छा है एैसे व्यक्ति ने गृस्थाश्रम का स्वीकार करना चाहिये निर्बल मनुष्य गृहस्थाश्रम के अयोग्य होता है वेद और स्मृतियों का कहना है की आयु की चारों अवस्थाओं में केवल यौवन में ही मानव सबल होने के कारण परावलंबी नही रहता ऐसा सबल गृहस्थाश्रमी ही अन्य तीनों परावलंबी आश्रमीय लोगों का भरण-पोषण और संरक्षण कर सकता है जैसे नदी और नद समुद्र से मिलकर सुरक्षित हो जाते है, वैसे ही गृहस्थ के आधार से बाकी तीनों आश्रम के लोग सुरक्षित हो जाते है सेनापति का काम, राज्य-शासन का काम, और न्यायदान का काम और संपूर्ण प्रजापर अधिकार करने का काम वेदरूपि शास्त्र जाननेवाला गृहस्थ ही कर सकता है ।</blockquote>
सुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रिया: ।।
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सर्वेषामपि चैतेषां वेदस्मृतिविधानत:
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==== गृहस्थाश्रमी का दायित्व- भारतीय साहित्य मे उपलब्ध मार्गदर्शन ====
गृहस्थ उच्चते श्रेष्ठ: स त्रिनेतान् बिभर्ति ही ।।
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समाज का एक जिम्मेदार घटक होने के नाते वैसे तो हर समाज घटक का समाज के प्रति कुछ दायित्व होता ही है ब्रहृचारी, वानप्रस्थि और संन्यासी इन तोनों वर्गों के और गृहस्थ वर्ग के कुछ दायित्व तो समान ही होंगे क्षमता और दायित्व का समीकरण रखने से काम सुचारू रूप से चलता है यह सामान्य ज्ञान की बात है। इसलिये क्षमतावान गृहस्थाश्रमी का दायित्व भी अन्यों से कई बातों मे कहीं अधिक और विलक्षण होता है। 
यथा नदीनदा: सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम् ।
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तैत्तिरीय उपनिषद की शिक्षा वल्ली के ग्यारहवें अनुवाक में गृहस्थ के दायित्वों का संदर्भ आता है। गुरूगृह में विद्याध्ययन पूर्ण करने के बाद जब शिष्य गृहस्थाश्रम मे प्रवेश के लिये गुरु से अनुमति लेता है तब गुरू उसे गृहस्थ के नाते उस के कर्तव्यों की याद दिलाते है ।  
तथैवाश्रमिणा: सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम् ।।
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सेनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च
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यह कर्तव्य है<ref>तैत्तिरीय उपनिषद, शिक्षा वल्ली ग्यारहवां अनुवाक</ref>:
सर्वलिकाधिपत्यं च वेदशास्त्रिचदर्हति ।।
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# सत्यं वद - सत्य भाषण करो यद्भूतहितं अत्यंत एतत् सत्यं मतं मम{{Citation needed}} - यह है पूर्णपुरूष कृष्ण का सत्य के बारे मे मत । इसी का अर्थ है चराचर के साथ एकात्मता बनाओ और चराचर के हित की बात कहो । अर्थात् सत्य कहो ।  
भावार्थ : जिस तरह से वायू के आधार से सभी प्राणी जीवित रहते है, उसी प्रकार से अन्य तीनों आश्रमभी गृहस्थ के आधार से ही रहते है अर्थात् दान देकर और प्रतिदिन अन्न देकर गृहस्थही ब्राह्मचारी, वानप्रस्थि और संन्यासी के उदरनिर्वाह की व्यवस्था करता है । इसलिये गृहस्थाश्रम श्रेष्ठ है । जिसे अक्षय्य स्वर्ग अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति करनी है और साथ ही में इहलोक में भी सुख प्राप्त करने की इच्छा है एैसे व्यक्ति ने गृस्थाश्रम का स्वीकार करना चाहिये । निर्बल मनुष्य गृहस्थाश्रम के अयोग्य होता है । वेद और स्मृतियों का कहना है की आयु की चारों अवस्थाओं में केवल यौवन में ही मानव सबल होने के कारण परावलंबी नही रहता एैसा सबल गृहस्थाश्रमी ही अन्य तीनों परावलंबी आश्रमीय लोगों का भरण-पोषण और संरक्षण कर सकता है । जैसे नदी और नद समुद्र से मिलकर सुरक्षित हो जाते है, वैसे ही गृहस्थ के आधार से बाकी तीनों आश्रम के लोग सुरक्षित हो जाते है सेनापति का काम, राज्य-शासन का काम, और न्यायदान का काम और संपूर्ण प्रजापर अधिकार करने का काम वेदरूपि शास्त्र जाननेवाला गृहस्थ ही कर सकता है ।  
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# धर्मं चर - धर्म के अनुसार जियो अर्थात् कामनाओं को और उन कामनाओं की पूर्ति के लिये कि ये गये प्रयासों को आर्थात् काम और अर्थ पुरूषार्थ इन दोनों को धर्मानुकूल रखते हुवे जीवनयापन करो ।  
गृहस्थाश्रमी का दायित्व - भारतीय साहित्य मे उपलब्ध मार्गदर्शन
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# स्वाध्यायान्मा प्रमद: - स्वाध्याय करते रहो । जो ज्ञान प्रात किया है उसे अपने चिंतन, मनन और अनुभवों के आधारपर और तेजस्वी बनाकर वृद्धिगत करते रहो।
समाज का एक जिम्मेदार घटक होने के नाते वैसे तो हर समाज घटक का समाज के प्रति कुछ दारित्व होता ही है ब्राहृचारी, वानप्रस्थि और संन्यासी इन तोनों वर्गों के और गृहस्थ वर्ग के कुछ दायित्व तो समान ही होंगे क्षमता और दायित्व का समीकरण रखने से काम सुचारू रूप से चलता है यह सामान्य ज्ञान की बात है। इसलिये क्षमतावान गृहस्थाश्रमी का दायित्व भी अन्यों से कई बातों मे कहीं अधिक और विलक्षण होता है।
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# आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुंमा व्यवच्छेत्सी: - आचार्य के लिये आवश्यक धन लाकर अपनी स्त्री के साथ सन्तान परम्परा को आगे बढायें ।
तैत्तिरीय उपनिषद की शिक्षा वल्ली के ग्यारहवें अनुवाक में गृहस्थ के दायित्वों का संदर्भ आता है। गुरूगृह में विद्याध्ययन पूर्ण करने के बाद जब शिष्य गृहस्थाश्रम मे प्रवेश के लिये गुरु से अनुमति लेता है तब गुरू उसे गृहस्थ के नाते उस के कर्तव्यों की याद दिलाते है । यह कर्तव्य है -
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# सत्यान्न प्रमदितव्यम् - सत्य के साथ प्रमाद नही करना। उपरोक्त सत्य केवल बोलना पर्याप्त नही है। सत्य व्यवहार और आचार भी आवश्यक है । सत्याचरण में कोई कसर न रखें ।
1.  सत्यं वद - सत्य भाषण करो यद्भूतहितं अत्यंत एतत् सत्यं मतं मम - यह है पूर्णपुरूष कृष्ण का सत्य के बारे मे मत । इसी का अर्थ है चराचर के साथ एकात्मता बनाओ और चराचर के हित की बात कहो । अर्थात् सत्य कहो ।  
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# धर्मान्न प्रमदितव्यम् - धर्म के साथ प्रमाद अर्थात् खिलवाड या द्रोह नही करना चाहिये धर्म का भी सीधा अर्थ यही है की चराचर के प्रति अपने कर्तव्य को न चूकें ।  
2.  धर्मं चर - धर्म के अनुसार जियो । अर्थात् कामनाओं को और उन कामनाओं की पूर्ति के लिये कि ये गये प्रयासों को आर्थात् काम और अर्थ पुरूषार्थ इन दोनों को धर्मानुकूल रखते हुवे जीवनयापन करो ।
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# कुशलान्न प्रमदितव्यम् - आत्मरक्षा में उपयोगी कामों में, उपायों में प्रमाद नही करना चाहिये ।  
3.  स्वाध्यायान्मा प्रमद: - स्वाध्याय करते रहो जो ज्ञान प्रात किया है उसे अपने चिंतन, मनन और अनुभवों के आधारपर और तेजस्वी बनाकर वृद्धिगत करते रहो ।
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# भूत्यैन प्रमदितव्यम् - एैश्वर्य देनेवाले मांगलिक अर्थात् चराचर के हित के कर्मों में प्रमाद ना हो ।
4.  आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुंमा व्यवच्छेत्सी: - आचार्य के लिये आवश्यक धन लाकर अपनी स्त्री के साथ सन्तान परम्परा को आगे बढायें ।
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# स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् - स्वाध्याय के माध्यम से विकसित तेजस्वी ज्ञान को केवल अपनेतक सीमित मत रखो । अपने चिंतन,मनन, अनुभव और प्रयोगों के आधारपर उस ज्ञान को और समृद्ध करो । प्रवचन के माध्यम से उस तेजस्वी ज्ञान को अगली पीढी को संक्रमित करते रहो ।  
5.  सत्यान्न प्रमदितव्यम् - सत्य के साथ प्रमाद नही करना। उपरोक्त सत्य केवल बोलना पर्याप्त नही है। सत्य व्यवहार और आचार भी आवश्यक है । सत्याचरण में कोई कसर न रखें
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# देवपितृकार्याभ्याम् न प्रमदितव्यम् - अपने हाथों देवकार्य और पितृकार्यभी निरंतर चलता रहे यह सुनिश्चित करो।
6.  धर्मान्न प्रमदितव्यम् - धर्म के साथ प्रमाद अर्थात् खिलवाड या द्रोह नही करना चाहिये धर्म का भी सीधा अर्थ यही है की चराचर के प्रति अपने कर्तव्य को न चूकें
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# मातृदेवो भव - माता ही जिसका देव है एैसे बनो माता की सेवा में कोई कसर ना छोडो ।  
7.  कुशलान्न प्रमदितव्यम् - आत्मरक्षा में उपयोगी कामों में, उपायों में प्रमाद नही करना चाहिये ।
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# पितृदेवो भव - अपने पिता और पितर जिसे देवतास्वरूप है एैसे बनो । अर्थात् उनकी सेवा करते  रहो ।  
8.  भूत्यैन प्रमदितव्यम् - एैश्वर्य देनेवाले मांगलिक अर्थात् चराचर के हित के कर्मों में प्रमाद ना हो ।  
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# आचार्यदेवो भव - आचार्य मे देवत्व देखनेवाले बनो आचार्य का कोई काम ना रुकने पावे, कोई इच्छा अधूरी ना रहे इस के लिये पूर्ण शक्ति के साथ प्रयत्न करते रहो । जिस से आचार्य का ज्ञानदान का काम निर्बाध चले और जीवनयापन सुख से चले ।  
9.  स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् - स्वाध्याय के माध्यम से विकसित तेजस्वी ज्ञान को केवल अपनेतक सीमित मत रखो अपने चिंतन,मनन, अनुभव और प्रयोगों के आधारपर उस ज्ञान को और समृद्ध करो प्रवचन के माध्यम से उस तेजस्वी ज्ञान को अगली पीढी को संक्रमित करते रहो
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# अतिथि देवो भव - पूर्व सूचना देकर आनेवाले का स्वागत तो हम करते ही है । किन्तु उसे अतिथि नही कहते । अतिथि का अर्थ है बगैर सूचना के अचानक घर मे आनेवाला मेहमान ऐसे मेहमान के कारण शायद हमारे लिये असुविधा भी निर्माण होती होगी फिर भी एैसे हर अतिथि का स्वागत प्रसन्न मुख से, आसन और पानी देकर मधुर वाणी से करें आसन ऐसा हो, जो अतिथि के श्रम का परिहार करे ।  
10. देवपितृकार्याभ्याम् न प्रमदितव्यम् - अपने हाथों देवकार्य और पितृकार्यभी निरंतर चलता रहे यह सुनिश्चित करो.
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# यान्यनवद्यानि कर्माणि । तानि सेवितव्यानि नो इतराणि । - केवल अनिंद्य कर्म ही करें । जिन कर्मों के कारण हमारी समाज में निंदा न हो एैसे काम करें अन्य अर्थात् जिनके कारण हमारी निंदा हो एैसे काम ना करें ।  
11. मातृदेवो भव - माता ही जिसका देव है एैसे बनो माता की सेवा में कोई कसर ना छोडो
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# यान्यस्माकं सुचरितानि । तानि त्वयोपास्यानि - जिन गुरुजनों का आचरण शुभ है अर्थात् सर्वहितकारी है उन्ही की तुझे उपासना करनी चाहिये । दूसरे प्रकार के, चराचर के हित में ना होनेवाले कर्म करनेवालों की उपासना ना करें अर्थात् मेरा आचरण भी यदि तुझे चराचर के हित की दृष्टि से अयोग्य लगे, तो मेरा भी अनुकरण ना करना ।  
12. पितृदेवो भव - अपने पिता और पितर जिसे देवतास्वरूप है एैसे बनो । अर्थात् उनकी सेवा करते  रहो
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# नो इतराणि ये के चास्मच्छ्रेयांसो ब्राह्मणाः तेषां त्वयासनेन प्रश्वसितव्यम् ।  - धर्माचरणी एैसे जो हमारे आचार्य है, उनका ही तुम अनुकरण करो अन्यों का नही ।  
13. आचार्यदेवो भव - आचार्य मे देवत्व देखनेवाले बनो । आचार्य का कोई काम ना रुकने पावे, कोई इच्छा अधूरी ना रहे इस के लिये पूर्ण शक्ति के साथ प्रयत्न करते रहो जिस से आचार्य का ज्ञानदान का काम निर्बाध चले और जीवनयापन सुख से चले
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# श्रद्धया देयम् अश्रद्धयाऽदेयम् श्रिया देयम् । ह्रिया देयम् । भ्रिया देयम् संविदा देयम् - यथासंभव दान देते रहो श्रद्धा से दो अश्रद्धा से ना दो अपने एैश्वर्य के अनुसार दान दो मै इससे अधिक दान नही दे सकता एैसी लज्जा के साथ दान दो मै दान लेनेवाले पर कोई उपकार नही कर रहा उलटे दान लेनेवाला मुझ से दान लेकर मुझे उपकृत कर रहा है इस भाव से दान दो और मै दान से उस का पूरा क्लेष दूर करने में असमर्थ हूं एैसी लज्जा की भावना मन मे रखकर दान दो इतना कम दान दिया इसलिये लोग मुझे गालियाí देंगे इस डर से अधिक देने का प्रयास करो । लेकिन दान दो मित्रता के नाते भी हमेशा दान देते रहो ।  
14. अतिथी देवो भव - पूर्व सूचना देकर आनेवाले का स्वागत तो हम करते ही है किन्तु उसे अतिथी नही कहते । अतिथी का अर्थ है बगैर सूचना के अचानक घर मे आनेवाला मेहमान । एैसे मेहमान के कारण शायद हमारे लिये असुविधा भी निर्माण होती होगी फिर भी एैसे हर अतिथी का स्वागत प्रसन्न मुख से, आसन और पानी देकर मधुर वाणी से करें । आसन एैसा हो, जो अतिथी के श्रम का परिहार करे ।  
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# जब अपने कर्म की करणीयता या अकरणीयता के विषय में तुझे संदेह निर्माण हो जाये तब समाज मे जो विचारशील, अपने कर्म में मग्न, स्वेच्छा से कर्मपरायण, सरल बुद्धिवाला धर्माचरणी ब्रााह्मण जैसा, उस परिस्थिति में व्यवहार करेगा वैसा ही तू भी व्यवहार कर । इसी प्रकार से जिनपर संशययुक्त दोषों के आरोप है उनके साथ भी उपरोक्त श्रेष्ठ ब्रााह्मण जैसा व्यवहार करते हों, वैसा ही उनसे तू भी व्यवहार कर ।
16. यान्यनवद्यानि कर्माणि तानि सेवितव्यानि नो इतराणि - केवल अनिंद्य कर्म ही करें जिन कर्मों के कारण हमारी समाज में निंदा न हो एैसे काम करें अन्य अर्थात् जिनके कारण हमारी निंदा हो एैसे काम ना करें ।  
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अंत में गुरू शिष्य से कहते है - यह मेरा आदेश है । यही वेदों और उपनिषदों का कहना है । यही परमात्मा की इच्छा और आज्ञा है तुझे एैसा ही आचरण करना चाहिये ।  
17. यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि -  जिन गुरुजनों का आचरण शुभ है अर्थात् सर्वहितकारी है उन्ही की तुझे उपासना करनी चाहिये दूसरे प्रकारके, चराचर के हित में ना होनेवाले कर्म करनेवालों की उपासना ना करें अर्थात् मेरा आचरण भी यदि तुझे चराचर के हित की दृष्टि से अयोग्य लगे, तो मेरा भी अनुकरण ना करना ।  
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18. नो इतराणि । ये के चास्मच्छ्रेयांसो ब्राह्मणाः तेषां त्वयासनेन प्रश्वसितव्यम् ।  - धर्माचरणी एैसे जो हमारे आचार्य है, उनका ही तुम अनुकरण करो । अन्यों का नही ।  
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उपरोक्त दायित्वों का विचार करते है तो ध्यान मे आता है की बहुत विचारपूर्वक यह कर्तव्य बताये गये है । यह त्रिकालाबाधित तो है लेकिन इन के अलावा भी युगानुकूल कुछ दायित्व होते है । जैसे किसी समय भारतवर्ष में जनसंख्या बढाने की आवश्यकता थी । तब आशिर्वाद भी दस बच्चों का दिया जाता था । यह आशिर्वाद व्यवहार में भी लाया जाता था । पृथ्वि के संसाधन घटे और जनसंख्या बढी तो आशिर्वाद अष्टपुत्र सौभाग्यवती भव हो गया । व्यवहार भी आशिर्वाद के अनुरूप होने लगा आज के युग की दृष्टि से समाज का सातत्य और सामथ्र्य बना रहने के लिये आवश्यक संतानें शायद वह आठ से कम हों, निर्माण करने का दायित्व गृहस्थ को निभाना चाहिये पूर्व काल में युद्ध बहुत हुवा करते थे युद्धों में पुरूष मरते थे। समाज की सुरक्षा की दृष्टि से पुरूषों की संख्या अधिक रहना समाज की आवश्यकता थी आज स्थिती बदल गयी है इसलिये संतान निर्माण में आशिर्वाद और व्यवहार दोनों में स्त्री पुरुष की दृष्टि से अंतर ना करना यह गृहस्थ का दायित्व है । राष्ट्र के प्रति स्वतंत्र मार्गदर्शन उपरोक्त दायित्वसूचि मे नही है । मनुस्मृति में बताये अनुसार सेनापति का काम, राज्य-शासन का काम, और न्यायदान का काम और संपूर्ण प्रजापर अधिकार करने का काम वेदरूपि शास्त्र जाननेवाला गृहस्थ ( स्त्री-पुरुष ) ही कर सकता है एैसे स्त्री-पुरुषों के हाथ में राष्ट्र की धुरा साैपने का काम भी प्रनुख रूप से गृहस्थ ( स्त्री-पुरुष ) का है। 
19. श्रद्धया देयम् । अश्रद्धयाऽदेयम् । श्रिया देयम् । ह्रिया देयम् । भ्रिया देयम् । संविदा देयम् - यथासंभव दान देते रहो । श्रद्धा से दो । अश्रद्धा से ना दो । अपने एैश्वर्य के अनुसार दान दो । मै इससे अधिक दान नही दे सकता एैसी लज्जा के साथ दान दो । मै दान लेनेवाले पर कोई उपकार नही कर रहा । उलटे दान लेनेवाला मुझ से दान लेकर मुझे उपकृत कर रहा है इस भाव से दान दो और मै दान से उस का पूरा क्लेष दूर करने में असमर्थ हूं एैसी लज्जा की भावना मन मे रखकर दान दो इतना कम दान दिया इसलिये लोग मुझे गालियाí देंगे इस डर से अधिक देने का प्रयास करो । लेकिन दान दो । मित्रता के नाते भी हमेशा दान देते रहो
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20. जब अपने कर्म की करणीयता या अकरणीयता के विषय में तुझे संदेह निर्माण हो जाये तब समाज मे जो विचारशील, अपने कर्म में मग्न, स्वेच्छा से कर्मपरायण, सरल बुद्धिवाला धर्माचरणी ब्रााह्मण जैसा, उस परिस्थिति में व्यवहार करेगा वैसा ही तू भी व्यवहार कर इसी प्रकार से जिनपर संशययुक्त दोषों के आरोप है उनके साथ भी उपरोक्त श्रेष्ठ ब्रााह्मण जैसा व्यवहार करते हों, वैसा ही उनसे तू भी व्यवहार कर
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इसलिये उपरोक्त 20 दायित्वों के साथ समायोजित कर वर्तमान युग के अनुसार गृहस्थ (स्त्री-पुरुष) के दायित्व फिर से शब्दबद्ध करने होंगे । वर्तमान से सुसंगत इन सभी दायित्वों का संक्षेप में अब हम विचार करेंगे ।  
अंत में गुरू शिष्य से कहते है - यह मेरा आदेश है यही वेदों और उपनिषदों का कहना है । यही परमात्मा की इच्छा और आज्ञा है । तुझे एैसा ही आचरण करना चाहिये ।  
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उपरोक्त दायित्वों का विचार करते है तो ध्यान मे आता है की बहुत विचारपूर्वक यह कर्तव्य बताये गये है । यह त्रिकालाबाधित तो है लेकिन इन के अलावा भी युगानुकूल कुछ दायित्व होते है । जैसे किसी समय भारतवर्ष में जनसंख्या बढाने की आवश्यकता थी । तब आशिर्वाद भी दस बच्चों का दिया जाता था । यह आशिर्वाद व्यवहार में भी लाया जाता था । पृथ्वि के संसाधन घटे और जनसंख्या बढी तो आशिर्वाद अष्टपुत्र सौभाग्यवती भव हो गया व्यवहार भी आशिर्वाद के अनुरूप होने लगा । आज के युग की दृष्टि से समाज का सातत्य और सामथ्र्य बना रहने के लिये आवश्यक संतानें शायद वह आठ से कम हों, निर्माण करने का दायित्व गृहस्थ को निभाना चाहिये । पूर्व काल में युद्ध बहुत हुवा करते थे । युद्धों में पुरूष मरते थे । समाज की सुरक्षा की दृष्टि से पुरूषों की संख्या अधिक रहना समाज की आवश्यकता थी ।  आज स्थिती बदल गयी है इसलिये संतान निर्माण में आशिर्वाद और व्यवहार दोनों में स्त्री पुरुष की दृष्टि से अंतर ना करना यह गृहस्थ का दायित्व है । राष्ट्र के प्रति स्वतंत्र मार्गदर्शन उपरोक्त दायित्वसूचि मे नही है । मनुस्मृति में बताये अनुसार सेनापति का काम, राज्य-शासन का काम, और न्यायदान का काम और संपूर्ण प्रजापर अधिकार करने का काम वेदरूपि शास्त्र जाननेवाला गृहस्थ ( स्त्री-पुरुष ) ही कर सकता है । एैसे स्त्री-पुरुषों के हाथ में राष्ट्र की धुरा साैपने का काम भी प्रनुख रूप से गृहस्थ ( स्त्री-पुरुष ) का है।
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==== वर्तमान युग मे गृहस्थाश्रमी के सामाजिक दायित्व ====
इसलिये उपरोक्त 20 दायित्वों के साथ समायोजित कर वर्तमान युग के अनुसार गृहस्थ (स्त्री-पुरुष) के दायित्व फिर से शब्दबद्ध करने  होंगे । वर्तमान से सुसंगत इन सभी दायित्वों का संक्षेप में अब हम विचार करेंगे ।
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वर्तमान युग के दायित्वों का वर्गीकरण निम्न हो सकता है ।
वर्तमान युग मे गृहस्थाश्रमी के सामाजिक दायित्व  
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वर्तमान युग के दायित्वों का वर्गीकरण निम्न हो सकता है ।
   
1. अपने जीवनसाथी (पति या पत्नि) के प्रति दायित्व  
 
1. अपने जीवनसाथी (पति या पत्नि) के प्रति दायित्व  
 
   1.1 एकनिष्ठा      
 
   1.1 एकनिष्ठा      
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       5.1.5 शासन व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था आदी जैसी व्यवस्थाओं में भी हम पाश्चात्यों का अंधानुकरण करते जा रहे है । इन्हें शुद्ध भारतीयता के चिरंतन तत्वों के आधारपर पुनर्विकसित करना ।
 
       5.1.5 शासन व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था आदी जैसी व्यवस्थाओं में भी हम पाश्चात्यों का अंधानुकरण करते जा रहे है । इन्हें शुद्ध भारतीयता के चिरंतन तत्वों के आधारपर पुनर्विकसित करना ।
 
   5.2  श्रेष्ठ संतति का निर्माण : उपरोक्त 2.1 और 2.2 बिंदू देखें ।
 
   5.2  श्रेष्ठ संतति का निर्माण : उपरोक्त 2.1 और 2.2 बिंदू देखें ।
   5.3  अतिथी, अभ्यागत, भिखारी, भिक्षा माॅगनेवाले आदी । सन्मान के साथ यथासंभव उनकी मनोकामना को पूर्ण करने का प्रयास करना ।
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   5.3  अतिथि, अभ्यागत, भिखारी, भिक्षा माॅगनेवाले आदी । सन्मान के साथ यथासंभव उनकी मनोकामना को पूर्ण करने का प्रयास करना ।
 
   5.4  समाज हित का कोई उपयुक्त व्यावसायिक काम ।  
 
   5.4  समाज हित का कोई उपयुक्त व्यावसायिक काम ।  
 
   5.5  समाजसेवा के नि:स्वार्थ उपक्रम चलानेवालों के योगक्षेम की व्यवस्था करना ।  
 
   5.5  समाजसेवा के नि:स्वार्थ उपक्रम चलानेवालों के योगक्षेम की व्यवस्था करना ।  
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