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इस काल में पिता की भूमिका दुय्यम हो जाती है । माता के सहायक की हो जाती है । मुख्य भूमिका माता की ही होती है ।  
 
इस काल में पिता की भूमिका दुय्यम हो जाती है । माता के सहायक की हो जाती है । मुख्य भूमिका माता की ही होती है ।  
 
## उपर्युक्त बिंदु २.५ में बताई बातों को ‘स्व’भाव बनाना ।  
 
## उपर्युक्त बिंदु २.५ में बताई बातों को ‘स्व’भाव बनाना ।  
  ३.२ गर्भ को हानी हो ऐसा कुछ भी नहीं करना । अपनी हानिकारक पसंद या आदतों को बदलना । शरीर स्वास्थ्य अच्छा रखना ।
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## गर्भ को हानी हो ऐसा कुछ भी नहीं करना । अपनी हानिकारक पसंद या आदतों को बदलना । शरीर स्वास्थ्य अच्छा रखना ।
  ३.३ गर्भ में बच्चे के विभिन्न अवयवों के विकास क्रम को समझकर उन अवयवों के लिए पूरक पोषक आहार विहार का अनुपालन करना । योगाचार्यों के मार्गदर्शन के अनुसार व्यायाम करना । बच्चे का गर्भ में निरंतर विकास हो रहा है इसे ध्यान में रखकर मन सदैव प्रसन्न रखना ।  
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## गर्भ में बच्चे के विभिन्न अवयवों के विकास क्रम को समझकर उन अवयवों के लिए पूरक पोषक आहार विहार का अनुपालन करना । योगाचार्यों के मार्गदर्शन के अनुसार व्यायाम करना । बच्चे का गर्भ में निरंतर विकास हो रहा है इसे ध्यान में रखकर मन सदैव प्रसन्न रखना ।  
४. जन्म के उपरांत ५ वर्ष की आयुतक   
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# जन्म के उपरांत ५ वर्ष की आयुतक   
  ४.१ माता का दूध बच्चे के लिए आवश्यक होता है । दुधपीता बच्चा लोगों को पहचानने लगता है । बारबार माँ का दूध पीनेसे वह माँ को सबसे अधिक पहचानता है । चाहता है । आसपास माँ को न पाकर वह बेचैन हो जाता है । रोने लग जाता है । माँ की हर बात मानता है । गर्भधारणा के समय बच्चा अत्यंत संवेदनशील होता है । अत्यंत संस्कारक्षम होता है । जैसे जैसे गर्भ की आयु बढ़ती है उसकी संस्कारक्षमता कम होती जाती है । इस अवस्था में माँ बच्चे के जितनी निकट होती है, अन्य कोई नहीं । इस कारण माँ की आदतें, क्रियाकलाप बच्चे को बहुत प्रभावित करते हैं । बच्चे को उसका पिता कौन है इसका परिचय माता ही कराती है ।
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## माता का दूध बच्चे के लिए आवश्यक होता है । दुधपीता बच्चा लोगों को पहचानने लगता है । बारबार माँ का दूध पीनेसे वह माँ को सबसे अधिक पहचानता है । चाहता है । आसपास माँ को न पाकर वह बेचैन हो जाता है । रोने लग जाता है । माँ की हर बात मानता है । गर्भधारणा के समय बच्चा अत्यंत संवेदनशील होता है । अत्यंत संस्कारक्षम होता है । जैसे जैसे गर्भ की आयु बढ़ती है उसकी संस्कारक्षमता कम होती जाती है । इस अवस्था में माँ बच्चे के जितनी निकट होती है, अन्य कोई नहीं । इस कारण माँ की आदतें, क्रियाकलाप बच्चे को बहुत प्रभावित करते हैं । बच्चे को उसका पिता कौन है इसका परिचय माता ही कराती है ।
  ४.२ जबतक बच्चा दूधपीता होता है उसका स्वास्थ्य पूरी तरह माँ के स्वास्थ्य के साथ जुडा रहता है । इसलिए इस आयु में भी माँ की आहार विहार की आदतें बच्चे के गुण लक्षणों के विकास की दृष्टि से अनुकूल होना आवश्यक होता है ।  
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## जबतक बच्चा दूधपीता होता है उसका स्वास्थ्य पूरी तरह माँ के स्वास्थ्य के साथ जुडा रहता है । इसलिए इस आयु में भी माँ की आहार विहार की आदतें बच्चे के गुण लक्षणों के विकास की दृष्टि से अनुकूल होना आवश्यक होता है ।  
  ४.३ बच्चे की ५ वर्षतक की आयु अत्यंत संस्कारक्षम होती है । इस आयु में बच्चेपर संस्कार करना सरल होता है । लेकिन संस्कारक्षमता के साथ ही में उसका मन चंचल होता है । इसलिए इस आयु में संस्कार करना बहुत कौशल का काम होता है । बच्चे की ठीक से परवरिश हो सके इस लिए माता को उसे अधिक से अधिक समय देना चाहिए । संयुक्त परिवार में यह बहुत सहज और सरल होता है । इसलिए विवाह करते समय संयुक्त परिवार की बहू बनना उचित होता है । इस से घर के बड़े और अनुभवी लोगों से आवश्यकतानुसार मार्गदर्शन भी प्राप्त होता रहता है ।  
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## बच्चे की ५ वर्षतक की आयु अत्यंत संस्कारक्षम होती है । इस आयु में बच्चेपर संस्कार करना सरल होता है । लेकिन संस्कारक्षमता के साथ ही में उसका मन चंचल होता है । इसलिए इस आयु में संस्कार करना बहुत कौशल का काम होता है । बच्चे की ठीक से परवरिश हो सके इस लिए माता को उसे अधिक से अधिक समय देना चाहिए । संयुक्त परिवार में यह बहुत सहज और सरल होता है । इसलिए विवाह करते समय संयुक्त परिवार की बहू बनना उचित होता है । इस से घर के बड़े और अनुभवी लोगों से आवश्यकतानुसार मार्गदर्शन भी प्राप्त होता रहता है ।  
  ४.४ बड़े लोग अपनी मर्जी से जो चाहे करते हैं । छोटे बच्चों को हर कोई टोकता रहता है । यह बच्चों को रास नहीं आता । इसलिए हर बच्चे को शीघ्रातिशीघ्र बड़ा बनने की तीव्र इच्छा होती है । वह बड़ों का अनुकरण करता है । इसी को संस्कारक्षमता भी कह सकते हैं । संयुक्त परिवार में भिन्न भिन्न प्रकार के ‘स्व’भाववाले लोग होते हैं । उनमें बच्चे अपना आदर्श ढूँढ लेते हैं । माँ का काम ऐसा आदर्श ढूँढने में बच्चे की मदद करने का होता है । इसे ध्यान में रखकर बड़ों को भी अपना व्यवहार श्रेष्ठ रहे यह सुनिश्चित करना चाहिये । माँ ने भी गलत आदर्श के चयन से बच्चे को कुशलता से दूर रखना चाहिए । इस में माँ अपने पति की मदद ले सकती है ।
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## बड़े लोग अपनी मर्जी से जो चाहे करते हैं । छोटे बच्चों को हर कोई टोकता रहता है । यह बच्चों को रास नहीं आता । इसलिए हर बच्चे को शीघ्रातिशीघ्र बड़ा बनने की तीव्र इच्छा होती है । वह बड़ों का अनुकरण करता है । इसी को संस्कारक्षमता भी कह सकते हैं । संयुक्त परिवार में भिन्न भिन्न प्रकार के ‘स्व’भाववाले लोग होते हैं । उनमें बच्चे अपना आदर्श ढूँढ लेते हैं । माँ का काम ऐसा आदर्श ढूँढने में बच्चे की मदद करने का होता है । इसे ध्यान में रखकर बड़ों को भी अपना व्यवहार श्रेष्ठ रहे यह सुनिश्चित करना चाहिये । माँ ने भी गलत आदर्श के चयन से बच्चे को कुशलता से दूर रखना चाहिए । इस में माँ अपने पति की मदद ले सकती है ।
  ४.४ अपने व्यवहार में संयम, सदाचार, सादगी, सत्यनिष्ठा, स्वछता, स्वावलंबन, नम्रता, विवेक आदि होना आवश्यक है । वैसे तो यह गुण परिवार के सभी बड़े लोगों में होंगे ही यह आवश्यक नहीं है । लेकिन जब बच्चे यह देखते हैं की इन गुणों का घर के बड़े लोग सम्मान करते हैं तब वे उन गुणों को ग्रहण करते हैं ।  
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## अपने व्यवहार में संयम, सदाचार, सादगी, सत्यनिष्ठा, स्वछता, स्वावलंबन, नम्रता, विवेक आदि होना आवश्यक है । वैसे तो यह गुण परिवार के सभी बड़े लोगों में होंगे ही यह आवश्यक नहीं है । लेकिन जब बच्चे यह देखते हैं की इन गुणों का घर के बड़े लोग सम्मान करते हैं तब वे उन गुणों को ग्रहण करते हैं ।  
५. बच्चे की आयु ५ वर्ष से अधिक होनेपर  
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# बच्चे की आयु ५ वर्ष से अधिक होनेपर  
 
इस आयु से माता द्वितीयो और पिता प्रथमो गुरु: ऐसा भूमिकाओं में परिवर्तन होता है । पिता की जिम्मेदारी प्राथमिक और माता की भूमिका सहायक की हो जाती है । अब बच्चे के स्वभाव को उपयुक्त आकार देने के लिए ताडन की आवश्यकता भी होती है । ताडन का अर्थ मारना पीटना नहीं है । आवश्यकता के अनुसार कठोर व्यवहार से बच्चे को अच्छी आदतें लगाने से है । यह काम कोमल मन की माता, पिता जितना अच्छा नहीं कर सकती । लेकिन पिता अपने व्यवसायिक भागदौड़ में बच्चे को समय नहीं दे सकता यह ध्यान में रखकर ही गुरुकुलों की रचना की गई थी । बच्चा गुरु का मानसपुत्र ही माना गया है । किन्तु गुरुकुलों के अभाव में यह जिम्मेदारी पिता की ही होती है । संयुक्त परिवारों में घर के ज्येष्ठ पुरुष इस भूमिका का निर्वहन करते थे । अब तो स्त्रियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता (स्पेस) की आस और दुराग्रह के कारण घर में अन्य किसी का होना असहनीय हो जाता है । विवाह बढ़ी आयु में होने के कारण भी अन्यों के साथ समायोजन कठिन हो जाता है । किन्तु स्त्री की समस्याओं को सुलझाना हो तो कुछ मात्रा में अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को तिलांजलि देकर भी बच्चोंपर संस्कार करने हेतु मार्गदर्शन करने के लिये घर में ज्येष्ठ लोग होंगे ऐसे संयुक्त परिवारों में विवाह करने की प्रथा को फिर से स्थापित करना होगा ।  
 
इस आयु से माता द्वितीयो और पिता प्रथमो गुरु: ऐसा भूमिकाओं में परिवर्तन होता है । पिता की जिम्मेदारी प्राथमिक और माता की भूमिका सहायक की हो जाती है । अब बच्चे के स्वभाव को उपयुक्त आकार देने के लिए ताडन की आवश्यकता भी होती है । ताडन का अर्थ मारना पीटना नहीं है । आवश्यकता के अनुसार कठोर व्यवहार से बच्चे को अच्छी आदतें लगाने से है । यह काम कोमल मन की माता, पिता जितना अच्छा नहीं कर सकती । लेकिन पिता अपने व्यवसायिक भागदौड़ में बच्चे को समय नहीं दे सकता यह ध्यान में रखकर ही गुरुकुलों की रचना की गई थी । बच्चा गुरु का मानसपुत्र ही माना गया है । किन्तु गुरुकुलों के अभाव में यह जिम्मेदारी पिता की ही होती है । संयुक्त परिवारों में घर के ज्येष्ठ पुरुष इस भूमिका का निर्वहन करते थे । अब तो स्त्रियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता (स्पेस) की आस और दुराग्रह के कारण घर में अन्य किसी का होना असहनीय हो जाता है । विवाह बढ़ी आयु में होने के कारण भी अन्यों के साथ समायोजन कठिन हो जाता है । किन्तु स्त्री की समस्याओं को सुलझाना हो तो कुछ मात्रा में अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को तिलांजलि देकर भी बच्चोंपर संस्कार करने हेतु मार्गदर्शन करने के लिये घर में ज्येष्ठ लोग होंगे ऐसे संयुक्त परिवारों में विवाह करने की प्रथा को फिर से स्थापित करना होगा ।  
 
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