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==परिचय॥ Introduction==
 
==परिचय॥ Introduction==
तीर्थ क्षेत्रों की स्थापना करने में हमारे तत्वदर्शी पूर्वजों ने बडी बुद्धिमता का परिचय दिया है। जिन स्थानों पर तीर्थ स्थान स्थापित किये गये हैं वे जलवायु की दृष्टि से बहुत ही उपयोगी हैं। जिन नदियों का जल विशेष शुद्ध उपयोगी एवं स्वास्थ्यप्रद पाया गया है उनके तटों पर तीर्थ स्थापित किये गये हैं। ऋग्वेद में तीर्थ शब्द का प्रयोग अनेक बार हुआ है, जिसमें अनेक स्थलों पर यह मार्ग अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। ऋग्वेद में १०.११४.७ की व्याख्या में सायण ने तीर्थ का अर्थ - "पापोत्तरणसमर्थ" दिया है। अवतरण प्रदेश (नदी का किनारा, घाट), यज्ञ तथा स्थान विशेष के लिये भी तीर्थ शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में हुआ है।<ref>डॉ० राजाराम हजारी, [https://www.exoticindiaart.com/book/details/pilgrimage-in-ancient-india-nzi854/ प्राचीन भारत में तीर्थ], अध्याय ०१, सन् २००३, शारदा पब्लिशिंग् हाऊस, दिल्ली (पृ० ३)। </ref> गंगा के तट पर सबसे अधिक तीर्थ हैं, क्योंकि गंगा का जल संसार की अन्य नदियों की अपेक्षा अधिक उपयोगी है। उस जल में स्वर्ण, पारा, गंधक तथा अभ्रक जैसे उपयोगी खनिज पदार्थ मिले रहते हैं जिसके संमिश्रण से गंगाजल एक-एक प्रकार की दवा बन जाता है, जिसके प्रयोग से उदर रोग, चर्म रोग तथा रक्त विकार आश्चर्य जनक रीति से अच्छे होते हैं। इन गुणों की उपयोगिता का तीर्थों के निर्माण में प्रधान रूप से ध्यान रखा गया है।<ref>[https://www.awgp.org/en/literature/akhandjyoti/1948/December/v2.14 अखण्ड ज्योति], दिसम्बर सन् १९४८ (पृ० १४)।</ref> तीर्थों के संबंध में मार्कण्डेय पुराण में अगस्त्य ऋषि कहते हैं -  <blockquote>यथा शरीरस्योद्देशाः केचिन्मध्योत्तमाः स्मृताः। तथा पृथिव्यामुद्देशाः केचित् पुण्यतमाः  स्मृताः॥ (स्कन्द पुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%96%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%83_%E0%A5%A8_(%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A4%B5%E0%A4%96%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%83)/%E0%A4%85%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A7%E0%A5%A6 स्कन्दपुराण], वैष्णव खण्ड - अध्याय 10, श्लोक-49।</ref> </blockquote>अर्थात जिस प्रकार मनुष्य शरीर के कुछ अंग जैसे - दक्षिण हस्त, कर्ण अथवा मस्तक इत्यादि अन्य अंगों की अपेक्षा पवित्र माने जाते हैं उसी प्रकार पृथिवी पर कुछ स्थान विशेष रूप से पवित्र माने जाते हैं। तीर्थस्थलों की पवित्रता तीन प्रमुख कारणों से मानी जाती है -  
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तीर्थ क्षेत्रों की स्थापना करने में हमारे तत्वदर्शी पूर्वजों ने बडी बुद्धिमता का परिचय दिया है। जिन स्थानों पर तीर्थ स्थान स्थापित किये गये हैं वे जलवायु की दृष्टि से बहुत ही उपयोगी हैं। जिन नदियों का जल विशेष शुद्ध उपयोगी एवं स्वास्थ्यप्रद पाया गया है उनके तटों पर तीर्थ स्थापित किये गये हैं। ऋग्वेद में तीर्थ शब्द का प्रयोग अनेक बार हुआ है, जिसमें अनेक स्थलों पर यह मार्ग अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। ऋग्वेद में १०.११४.७ की व्याख्या में सायण ने तीर्थ का अर्थ - "पापोत्तरणसमर्थ" दिया है। अवतरण प्रदेश (नदी का किनारा, घाट), यज्ञ तथा स्थान विशेष के लिये भी तीर्थ शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में हुआ है।<ref name=":2">डॉ० राजाराम हजारी, [https://www.exoticindiaart.com/book/details/pilgrimage-in-ancient-india-nzi854/ प्राचीन भारत में तीर्थ], अध्याय ०१, सन् २००३, शारदा पब्लिशिंग् हाऊस, दिल्ली (पृ० ३)। </ref> गंगा के तट पर सबसे अधिक तीर्थ हैं, क्योंकि गंगा का जल संसार की अन्य नदियों की अपेक्षा अधिक उपयोगी है। उस जल में स्वर्ण, पारा, गंधक तथा अभ्रक जैसे उपयोगी खनिज पदार्थ मिले रहते हैं जिसके संमिश्रण से गंगाजल एक-एक प्रकार की दवा बन जाता है, जिसके प्रयोग से उदर रोग, चर्म रोग तथा रक्त विकार आश्चर्य जनक रीति से अच्छे होते हैं। इन गुणों की उपयोगिता का तीर्थों के निर्माण में प्रधान रूप से ध्यान रखा गया है।<ref>[https://www.awgp.org/en/literature/akhandjyoti/1948/December/v2.14 अखण्ड ज्योति], दिसम्बर सन् १९४८ (पृ० १४)।</ref> तीर्थों के संबंध में मार्कण्डेय पुराण में अगस्त्य ऋषि कहते हैं -  <blockquote>यथा शरीरस्योद्देशाः केचिन्मध्योत्तमाः स्मृताः। तथा पृथिव्यामुद्देशाः केचित् पुण्यतमाः  स्मृताः॥ (स्कन्द पुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%96%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%83_%E0%A5%A8_(%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A4%B5%E0%A4%96%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%83)/%E0%A4%85%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A7%E0%A5%A6 स्कन्दपुराण], वैष्णव खण्ड - अध्याय 10, श्लोक-49।</ref> </blockquote>अर्थात जिस प्रकार मनुष्य शरीर के कुछ अंग जैसे - दक्षिण हस्त, कर्ण अथवा मस्तक इत्यादि अन्य अंगों की अपेक्षा पवित्र माने जाते हैं उसी प्रकार पृथिवी पर कुछ स्थान विशेष रूप से पवित्र माने जाते हैं। तीर्थस्थलों की पवित्रता तीन प्रमुख कारणों से मानी जाती है -  
    
#स्थान विशेष की कुछ आश्चर्यजनक प्राकृतिक विशेषताओं के कारण
 
#स्थान विशेष की कुछ आश्चर्यजनक प्राकृतिक विशेषताओं के कारण
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==तीर्थ की परिभाषा॥ Tirth ki Paribhasha==
 
==तीर्थ की परिभाषा॥ Tirth ki Paribhasha==
 
तीर्थ शब्द प्लवन-तरणार्थक-तॄ धातु से पातॄतुदिवचि० (२/७) इस उणादि सूत्र से थक् प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है। जिसका अर्थ है -  <blockquote>तरति पापादिकं यस्मात् तत् तीर्थम्।(शब्दकल्पद्रुम)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%83/%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B7%E0%A5%80 शब्दकल्पद्रुम] </ref></blockquote>वह स्थान-विशेष जहां जाने से पापों का क्षय हो जाता है, उसे तीर्थ कहते हैं। इस प्रकार [[Dharma (धर्मः)|धर्म]] और [[Moksha (मोक्षः)|मोक्ष]] की प्राप्ति में तीर्थ बडे सहायक हैं।
 
तीर्थ शब्द प्लवन-तरणार्थक-तॄ धातु से पातॄतुदिवचि० (२/७) इस उणादि सूत्र से थक् प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है। जिसका अर्थ है -  <blockquote>तरति पापादिकं यस्मात् तत् तीर्थम्।(शब्दकल्पद्रुम)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%83/%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B7%E0%A5%80 शब्दकल्पद्रुम] </ref></blockquote>वह स्थान-विशेष जहां जाने से पापों का क्षय हो जाता है, उसे तीर्थ कहते हैं। इस प्रकार [[Dharma (धर्मः)|धर्म]] और [[Moksha (मोक्षः)|मोक्ष]] की प्राप्ति में तीर्थ बडे सहायक हैं।
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'''तीर्थ शब्दार्थ'''
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भट्टोजि दीक्षित ने उणादि २/७ की व्याख्या करते समय तीर्थ शब्द को शास्त्र, अध्वर, क्षेत्र, उपाय, उपाध्याय तथा मन्त्री का बोधक माना है - <ref name=":2" /><blockquote>तीर्थं शास्त्राध्वरक्षेत्रोपायोपाध्याय-मन्त्रिषु। (Vishvakosha)</blockquote>शास्त्र, दर्शन आदि इसलिए तीर्थ हैं, कि इनके अध्ययन से मनुष्य की बुद्धि शुद्ध होती है, जिससे व्यक्ति पापादि से निवृत्त होता है। अध्वर अर्थात यज्ञादि कर्मकाण्ड से देवता प्रसन्न होते हैं, जिससे दैवी शक्ति प्राप्त होती है, आत्मबल आता है तथा मनःशुद्धि होती है। अतः इससे भी मनुष्य पापकर्मों से निवृत्त तथा पुण्यकर्मों में प्रवृत्त होता है।
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क्षेत्र (स्थान विशेष) तो आजकल प्रधान रूप से तीर्थ माना गया है, क्योंकि आज सभी लोग प्रायः स्थल विशेष के लिए ही तीर्थ शब्द का प्रयोग करते हैं।
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उपाध्याय शास्त्र-ज्ञान द्वारा अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करता है। अतः सद्गुरु के उपदेश से ही अन्तःकरण की शुद्धि तथा पापों की निवृत्ति सम्भव है। अतएव उसे तीर्थ कहा गया है।
    
==तीर्थ का वर्गीकरण॥ Tirth ka Vargikarana==
 
==तीर्थ का वर्गीकरण॥ Tirth ka Vargikarana==
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