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| | सनातनीय आचार व्यवस्था में स्नान एक आवश्यक एवं अनिवार्य कर्म है। सन्ध्योपासनादि दैनिक कृत्यों से लेकर अश्वमेधादि यज्ञ पर्यन्त सभी कर्मों का प्रारम्भ स्नान से ही होता है। इतना ही मात्र नहीं सनातनीय लोगों के जीवन का प्रारम्भ एवं पर्यवसान भी स्नान से ही होता है। जैसा कि व्यक्ति जन्म लेकर ज्योंही जीवन रक्षा के लिए व्याकुल वाणी में पुकारना प्रारम्भ करता है तभी कुशल धात्री सर्व प्रथम उसके शरीर को स्वच्छ करके स्नान कराती है। इसी प्रकार जीवन के पर्यवसान में भी जब उसकी आत्मा शरीर को छोड़कर अनन्त मे लीन हो जाती है तब भी उसके शरीर को चितारोहण से पूर्व एक बार पुनः स्नान कराया जाता है और अन्त में जब सब कुछ शरीर भस्मान्त बन जाता है उस समय उस भस्म में से चुनी हुई अस्थियाँ भी पतित पावनी जाह्नवी में अनन्त स्नान के लिए विसर्जित की जाती हैं। इससे अधिक स्नान का महत्त्व किसी देश और किसी धर्म में देखने को नहीं मिल सकता है। स्नान करने के पश्चात् मनुष्य शुद्ध होकर सन्ध्या, जप, देवपूजन आदि समस्त कर्मों के योग्य बनता है। | | सनातनीय आचार व्यवस्था में स्नान एक आवश्यक एवं अनिवार्य कर्म है। सन्ध्योपासनादि दैनिक कृत्यों से लेकर अश्वमेधादि यज्ञ पर्यन्त सभी कर्मों का प्रारम्भ स्नान से ही होता है। इतना ही मात्र नहीं सनातनीय लोगों के जीवन का प्रारम्भ एवं पर्यवसान भी स्नान से ही होता है। जैसा कि व्यक्ति जन्म लेकर ज्योंही जीवन रक्षा के लिए व्याकुल वाणी में पुकारना प्रारम्भ करता है तभी कुशल धात्री सर्व प्रथम उसके शरीर को स्वच्छ करके स्नान कराती है। इसी प्रकार जीवन के पर्यवसान में भी जब उसकी आत्मा शरीर को छोड़कर अनन्त मे लीन हो जाती है तब भी उसके शरीर को चितारोहण से पूर्व एक बार पुनः स्नान कराया जाता है और अन्त में जब सब कुछ शरीर भस्मान्त बन जाता है उस समय उस भस्म में से चुनी हुई अस्थियाँ भी पतित पावनी जाह्नवी में अनन्त स्नान के लिए विसर्जित की जाती हैं। इससे अधिक स्नान का महत्त्व किसी देश और किसी धर्म में देखने को नहीं मिल सकता है। स्नान करने के पश्चात् मनुष्य शुद्ध होकर सन्ध्या, जप, देवपूजन आदि समस्त कर्मों के योग्य बनता है। |
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| − | == परिचय == | + | == परिचय॥ Introduction == |
| | स्नान प्राचीन काल से ही भारतीय जीवन शैली का अभिन्न अंग रहा है। यह केवल एक शारीरिक क्रिया नहीं है, इसके धार्मिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक अंश भी हैं। शास्त्रों में स्नान को शारीरिक और मानसिक शुद्धता के लिये आवश्यक माना है। दैनिक जीवन के स्वास्थ्य और आध्यात्मिक विकास के लिए यह अनिवार्य प्रक्रिया है। समस्त क्रियाओं का मूल स्नान है - <blockquote>स्नानमूलाः क्रियाः सर्वाः श्रुतिस्मृत्युदिता नृणाम्। तस्मात् स्नानं निषेवेत श्रीपुष्ट्यारोग्यवर्धनम्॥</blockquote>श्री पुष्टि एवं आरोग्यकी वृद्धि चाहनेवाले मनुष्यको स्नान सदैव करना चाहिये। इसीलिये शास्त्रों में स्नान का विधान किया गया है। <blockquote>नित्यं स्नात्वा शुचिः कुर्याद्देवर्षिपितृतर्पणम्।(मनु)</blockquote>अर्थात्-प्रतिदिन प्रात स्नान करके पवित्र होकर सन्ध्यावन्दन तथा देवपितृ तर्पणादि नित्य कर्म करें। सनातन धर्म के सभी धार्मिक तथा सामाजिक कृत्यों में स्नान एक अनिवार्य और आवश्यक कृत्य है। संध्या वन्दनादि साधारण दैनिक कृत्यों से लेकर बड़े से बडे अश्वमेध यज्ञ पर्यन्त सभी कर्मों का प्रारम्भ स्नान से ही होता है। यही क्यों, एक भारतीय के जीवन का प्रारम्भ भी स्नान से ही होता है और पर्यवसान भी स्नान में ही।<blockquote>गुणा दश स्नानकृतो हि पुंसो रूपं च तेजश्च बलं च शौचम्। (विश्वा०स्मृ० १।८६)</blockquote>स्नानसे मात्र शुद्धि ही नहीं, अपितु रूप, तेज, शौर्य आदिकी भी वृद्धि होती है। | | स्नान प्राचीन काल से ही भारतीय जीवन शैली का अभिन्न अंग रहा है। यह केवल एक शारीरिक क्रिया नहीं है, इसके धार्मिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक अंश भी हैं। शास्त्रों में स्नान को शारीरिक और मानसिक शुद्धता के लिये आवश्यक माना है। दैनिक जीवन के स्वास्थ्य और आध्यात्मिक विकास के लिए यह अनिवार्य प्रक्रिया है। समस्त क्रियाओं का मूल स्नान है - <blockquote>स्नानमूलाः क्रियाः सर्वाः श्रुतिस्मृत्युदिता नृणाम्। तस्मात् स्नानं निषेवेत श्रीपुष्ट्यारोग्यवर्धनम्॥</blockquote>श्री पुष्टि एवं आरोग्यकी वृद्धि चाहनेवाले मनुष्यको स्नान सदैव करना चाहिये। इसीलिये शास्त्रों में स्नान का विधान किया गया है। <blockquote>नित्यं स्नात्वा शुचिः कुर्याद्देवर्षिपितृतर्पणम्।(मनु)</blockquote>अर्थात्-प्रतिदिन प्रात स्नान करके पवित्र होकर सन्ध्यावन्दन तथा देवपितृ तर्पणादि नित्य कर्म करें। सनातन धर्म के सभी धार्मिक तथा सामाजिक कृत्यों में स्नान एक अनिवार्य और आवश्यक कृत्य है। संध्या वन्दनादि साधारण दैनिक कृत्यों से लेकर बड़े से बडे अश्वमेध यज्ञ पर्यन्त सभी कर्मों का प्रारम्भ स्नान से ही होता है। यही क्यों, एक भारतीय के जीवन का प्रारम्भ भी स्नान से ही होता है और पर्यवसान भी स्नान में ही।<blockquote>गुणा दश स्नानकृतो हि पुंसो रूपं च तेजश्च बलं च शौचम्। (विश्वा०स्मृ० १।८६)</blockquote>स्नानसे मात्र शुद्धि ही नहीं, अपितु रूप, तेज, शौर्य आदिकी भी वृद्धि होती है। |
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| | उपर्युक्त श्लोकसे स्पष्ट है कि स्नान हमारे लिये न केवल आध्यात्मिकताकी दृष्टिसे ही आवश्यक है, अपितु यह शरीरकी बहुत बड़ी आवश्यकता भी है। नवजात बालक हो अथवा वृद्ध व्यक्ति विना स्नानके रोगोंका संक्रमण ही बढ़ेगा। अतः स्नान हमारी शारीरिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही आवश्यकता है; जिसे लगभग सभी व्यक्ति करते भी हैं, किंतु इसके बारेमें कुछ शास्त्रीय नियम भी हैं, जिन्हें अधिकांश व्यक्ति (बिना जानकारीके कारण) उपेक्षित कर देते हैं। | | उपर्युक्त श्लोकसे स्पष्ट है कि स्नान हमारे लिये न केवल आध्यात्मिकताकी दृष्टिसे ही आवश्यक है, अपितु यह शरीरकी बहुत बड़ी आवश्यकता भी है। नवजात बालक हो अथवा वृद्ध व्यक्ति विना स्नानके रोगोंका संक्रमण ही बढ़ेगा। अतः स्नान हमारी शारीरिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही आवश्यकता है; जिसे लगभग सभी व्यक्ति करते भी हैं, किंतु इसके बारेमें कुछ शास्त्रीय नियम भी हैं, जिन्हें अधिकांश व्यक्ति (बिना जानकारीके कारण) उपेक्षित कर देते हैं। |
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| − | == स्नान विधि == | + | == स्नान विधि॥ Snana Vidhi == |
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| − | == स्नान के प्रकार == | + | == स्नान के प्रकार॥ Types of Bathing == |
| | स्नान इस कर्म के कई प्रकार होते हैं। यह तो '''मुख्य'''(जल के साथ) या '''गौण''' ये दो प्रकार हैं, और पुनः ये दोनों प्रकार कई भागों में विभक्त हुये हैं जैसे- नित्य, नैमित्तिक, काम्य, क्रियांग, मलापकर्षण(अभ्यंग स्नान), एवं क्रिया स्नान ये नैमित्तिक स्नान के छः प्रकार किये गये हैं। | | स्नान इस कर्म के कई प्रकार होते हैं। यह तो '''मुख्य'''(जल के साथ) या '''गौण''' ये दो प्रकार हैं, और पुनः ये दोनों प्रकार कई भागों में विभक्त हुये हैं जैसे- नित्य, नैमित्तिक, काम्य, क्रियांग, मलापकर्षण(अभ्यंग स्नान), एवं क्रिया स्नान ये नैमित्तिक स्नान के छः प्रकार किये गये हैं। |
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| − | === मुख्य स्नान === | + | === मुख्य स्नान॥ Mukhya Snana === |
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| | * '''नित्य स्नान''' | | * '''नित्य स्नान''' |
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| | # '''कापिल स्नान'''-बीमार व्यक्ति गर्म जल से स्नान कर सकता है। यदि वह उसे सह न सके तो उसका शरीर(शिर को छोडकर) पोंछ देना चाहिये। इस स्नान को कापिल-स्नान कहते हैं। रजस्वला स्त्री चौथे दिन ज्वर से पीडित हों यदि तो किसी अन्य स्त्री को दस या बारह बार उसे बार-बार स्पर्श करके वस्त्रयुक्त स्नान करना चाहिये। अन्त में रजस्वला स्त्री के वस्त्र बदल देना चाहिये। इस प्रकार वह पवित्र हो जाती है। | | # '''कापिल स्नान'''-बीमार व्यक्ति गर्म जल से स्नान कर सकता है। यदि वह उसे सह न सके तो उसका शरीर(शिर को छोडकर) पोंछ देना चाहिये। इस स्नान को कापिल-स्नान कहते हैं। रजस्वला स्त्री चौथे दिन ज्वर से पीडित हों यदि तो किसी अन्य स्त्री को दस या बारह बार उसे बार-बार स्पर्श करके वस्त्रयुक्त स्नान करना चाहिये। अन्त में रजस्वला स्त्री के वस्त्र बदल देना चाहिये। इस प्रकार वह पवित्र हो जाती है। |
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| − | === गौण स्नान === | + | === गौण स्नान॥ Gauna Snana === |
| | ये स्नान रोगियों के लिये, समय अभाव या उस समय के लिये हैं, जब कि साधारण मुख्य(जल सहित) स्नान में कठिनाई प्रतीत होने पर गौण स्नान का पालन करना चाहिये। इनके कुछ भेद इस प्रकार हैं- | | ये स्नान रोगियों के लिये, समय अभाव या उस समय के लिये हैं, जब कि साधारण मुख्य(जल सहित) स्नान में कठिनाई प्रतीत होने पर गौण स्नान का पालन करना चाहिये। इनके कुछ भेद इस प्रकार हैं- |
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| | किसी भी आश्रम में स्थित रोगी के लिये स्नान के गौण आदि स्नान विधान का पालन करना चाहिये। | | किसी भी आश्रम में स्थित रोगी के लिये स्नान के गौण आदि स्नान विधान का पालन करना चाहिये। |
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| − | === तीर्थ स्नान ===
| + | == स्नान की आवश्यकता॥ == |
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| − | == स्नान की आवश्यकता == | |
| | स्नान ताजे जलसे ही करे, गरम जलसे नहीं। यदि गरम जलसे स्नानकी आदत हो तो भी श्राद्धके दिन, अपने जन्म-दिन, संक्रान्ति, ग्रहण आदि पर्वों, किसी अपवित्रसे स्पर्श होनेपर तथा मृतकके सम्बन्धमें किया जानेवाला स्नान गरम जलसे न करे। चिकित्सा विज्ञान भी गरम जलसे स्नानको त्वचा एवं रक्तके लिये उचित नहीं मानता। तेलमालिश स्नानसे पूर्व ही करनी चाहिये; स्नानोपरान्त नहीं। स्नान करनेसे पूर्व हाथ-पैर-मुँह धोना चाहिये तथा इसके पश्चात् कटि (कमर) धोना चाहिये। बिना वस्त्रके (निर्वस्त्र-अवस्थामें) स्नान न करें। स्नान करते समय पालथी लगाकर बैठे या खड़े होकर स्नान करे, प्रौष्ठपाद (पाँव मोड़कर उकडू) बैठकर नहीं-<blockquote>स्नानं दानं जपं होमं भोजनं देवतार्चनं । प्रौढ़पादो न कुर्वीत स्वाध्यायं पितृतर्पणम्॥</blockquote>स्नान घबड़ाहट या जल्दबाजीमें नहीं करना चाहिये। भोजनके बाद और रुग्णावस्था तथा अधिक रातमें स्नान नहीं करना चाहिये।<blockquote>न स्नानमाचरेत् भुक्त्वा नातुरो न महानिशि॥</blockquote>यह बात आयुर्वेद एवं वर्तमान चिकित्सासे सम्मत है। स्नानके पश्चात् शरीरको तुरंत नहीं पोंछना चाहिये, कुछ क्षण रुककर पोंछे; क्योंकि इस समय शरीर (एवं बालों)-से गिरा हुआ जल अतृप्त आत्माओंको तृप्ति देनेवाला होता है। स्नानोपरान्त शरीरको पोंछने एवं पहननेके लिये शुद्ध एवं धुले हुए वस्त्रका ही प्रयोग करें। शरीरपर जो वस्त्र पहना हुआ है, उसीको निचोड़कर फिर उसीसे शरीरको पोंछनेका शास्त्रोंमें पूर्णतः निषेध है। पुन: जलसे धोकर शरीर पोंछ सकते हैं। तीर्थ-स्नानके बारेमें विशेष-किसी भी (गंगायमुना आदि नदी हो अथवा कुण्ड-सरोवर-आदि जलाशय) तीर्थपर स्नान अथवा दूसरी कोई भी क्रिया तीर्थकी भावनासे ही करें। अपने मनोरंजन, खेलकूद या पर्यटनकी भावनासे नहीं। वैसे जल-क्रीडा आदि घरपर भी नहीं करनी चाहिये। इससे जल-देवताका अपमान होता है। | | स्नान ताजे जलसे ही करे, गरम जलसे नहीं। यदि गरम जलसे स्नानकी आदत हो तो भी श्राद्धके दिन, अपने जन्म-दिन, संक्रान्ति, ग्रहण आदि पर्वों, किसी अपवित्रसे स्पर्श होनेपर तथा मृतकके सम्बन्धमें किया जानेवाला स्नान गरम जलसे न करे। चिकित्सा विज्ञान भी गरम जलसे स्नानको त्वचा एवं रक्तके लिये उचित नहीं मानता। तेलमालिश स्नानसे पूर्व ही करनी चाहिये; स्नानोपरान्त नहीं। स्नान करनेसे पूर्व हाथ-पैर-मुँह धोना चाहिये तथा इसके पश्चात् कटि (कमर) धोना चाहिये। बिना वस्त्रके (निर्वस्त्र-अवस्थामें) स्नान न करें। स्नान करते समय पालथी लगाकर बैठे या खड़े होकर स्नान करे, प्रौष्ठपाद (पाँव मोड़कर उकडू) बैठकर नहीं-<blockquote>स्नानं दानं जपं होमं भोजनं देवतार्चनं । प्रौढ़पादो न कुर्वीत स्वाध्यायं पितृतर्पणम्॥</blockquote>स्नान घबड़ाहट या जल्दबाजीमें नहीं करना चाहिये। भोजनके बाद और रुग्णावस्था तथा अधिक रातमें स्नान नहीं करना चाहिये।<blockquote>न स्नानमाचरेत् भुक्त्वा नातुरो न महानिशि॥</blockquote>यह बात आयुर्वेद एवं वर्तमान चिकित्सासे सम्मत है। स्नानके पश्चात् शरीरको तुरंत नहीं पोंछना चाहिये, कुछ क्षण रुककर पोंछे; क्योंकि इस समय शरीर (एवं बालों)-से गिरा हुआ जल अतृप्त आत्माओंको तृप्ति देनेवाला होता है। स्नानोपरान्त शरीरको पोंछने एवं पहननेके लिये शुद्ध एवं धुले हुए वस्त्रका ही प्रयोग करें। शरीरपर जो वस्त्र पहना हुआ है, उसीको निचोड़कर फिर उसीसे शरीरको पोंछनेका शास्त्रोंमें पूर्णतः निषेध है। पुन: जलसे धोकर शरीर पोंछ सकते हैं। तीर्थ-स्नानके बारेमें विशेष-किसी भी (गंगायमुना आदि नदी हो अथवा कुण्ड-सरोवर-आदि जलाशय) तीर्थपर स्नान अथवा दूसरी कोई भी क्रिया तीर्थकी भावनासे ही करें। अपने मनोरंजन, खेलकूद या पर्यटनकी भावनासे नहीं। वैसे जल-क्रीडा आदि घरपर भी नहीं करनी चाहिये। इससे जल-देवताका अपमान होता है। |
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| − | किसी तीर्थ, देवनदी आदिपर स्नान करनेसे पूर्व भी एक बार घरमें स्नान करना ज्यादा उचित है; क्योंकि पहला स्नान नित्यका स्नान तथा दूसरा स्नान ही तीर्थ-स्नान होगा-<blockquote>न नक्तं स्नायात्।</blockquote>ग्रहण आदिको छोड़कर किसी भी नदी आदिके सुनसान घाटपर अथवा मध्य रात्रिमें स्नान न करें। तीर्थ-स्नानके पश्चात् शरीरको पोंछना नहीं चाहिये, अपितु वैसे ही सूखने देना चाहिये। | + | किसी तीर्थ, देवनदी आदिपर स्नान करनेसे पूर्व भी एक बार घरमें स्नान करना ज्यादा उचित है; क्योंकि पहला स्नान नित्यका स्नान तथा दूसरा स्नान ही तीर्थ-स्नान होगा-<blockquote>न नक्तं स्नायात्।</blockquote>ग्रहण आदिको छोड़कर किसी भी नदी आदिके सुनसान घाटपर अथवा मध्य रात्रिमें स्नान न करें। तीर्थ-स्नानके पश्चात् शरीरको पोंछना नहीं चाहिये, अपितु वैसे ही सूखने देना चाहिये। पुनः-स्नान-क्षौर (हजामत बनवानेपर), मालिश, विषय-भोग आदि क्रियाओंके पश्चात्, दुःस्वप्न अथवा भयंकर संकट-निवृत्तिके पश्चात् एवं अस्पृश्य (रजस्वलाकुत्ता आदि) से स्पर्शके पश्चात् स्नान किये हुए व्यक्तिको भी स्नान करना चाहिये। पुत्र-जन्मोत्सव आदि कई अवसरोंपर सचैल (वस्त्र-सहित) स्नानकी विधि है। |
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| − | पुनः-स्नान-क्षौर (हजामत बनवानेपर), मालिश, विषय-भोग आदि क्रियाओंके पश्चात्, दुःस्वप्न अथवा भयंकर संकट-निवृत्तिके पश्चात् एवं अस्पृश्य (रजस्वलाकुत्ता आदि) से स्पर्शके पश्चात् स्नान किये हुए व्यक्तिको भी स्नान करना चाहिये। पुत्र-जन्मोत्सव आदि कई अवसरोंपर सचैल (वस्त्र-सहित) स्नानकी विधि है।
| + | == स्नान का महत्व॥ == |
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| − | == स्नान का महत्व == | |
| | स्नान करनेमें सर्वप्रथम ध्यान देनेकी बात है कि स्नानसे शरीरको शुद्ध करना है, अतः स्नान भी शुद्ध जल एवं शुद्ध पात्रमें रखे जलसे ही करना चाहिये।<blockquote>शुद्धोदकेन स्नात्वा नित्यकर्म समारभेत्॥</blockquote>आदि शास्त्रीय वाक्य स्पष्ट ही हैं। गंगादि पुण्यतोया नदियोंमें स्नान करना उत्तम माना गया है, तडागका मध्यम तथा घरका स्नान निम्न कोटिका है। सुधार लें अथवा समाजका सहयोग लें। अन्यथा स्वर्गरूपी गृह परागमन शिविर बनकर रह जायगा। पुरुष तो वृक्षके नीचे रहकर भी जी लेगा, पर स्त्रीका सुरक्षित आश्रय हमेशाके लिये नष्ट हो जायगा। इससे गृहणी गर्हित होगी, सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो जायगा। अत: मर्यादामें रहकर गृहस्थाश्रम व्यवस्थाको आँच न आने दें। नारी ही इसकी मूलभित्ति और आधारशिला है।<blockquote>उत्तमं तु नदीस्नानं तडागं मध्यम तथा। कनिष्ठं कूपस्नानं भाण्डस्नानं वृथा वृथा ॥</blockquote>स्नानसे पूर्व संकल्प तथा किसी नदी आदिपर स्नानके समय स्नानांग-तर्पण करनेका भी विधान है।<blockquote>स्नानाङ्गतर्पणं विद्वान् कदाचिन्नैव हापयेत्।</blockquote>जल सृष्टिका प्रथम तत्त्व है और जलमें सभी देवताओंका भी निवास है-<blockquote>अपां मध्ये स्थिता देवा सर्वमप्सु प्रतिष्ठितम।</blockquote> | | स्नान करनेमें सर्वप्रथम ध्यान देनेकी बात है कि स्नानसे शरीरको शुद्ध करना है, अतः स्नान भी शुद्ध जल एवं शुद्ध पात्रमें रखे जलसे ही करना चाहिये।<blockquote>शुद्धोदकेन स्नात्वा नित्यकर्म समारभेत्॥</blockquote>आदि शास्त्रीय वाक्य स्पष्ट ही हैं। गंगादि पुण्यतोया नदियोंमें स्नान करना उत्तम माना गया है, तडागका मध्यम तथा घरका स्नान निम्न कोटिका है। सुधार लें अथवा समाजका सहयोग लें। अन्यथा स्वर्गरूपी गृह परागमन शिविर बनकर रह जायगा। पुरुष तो वृक्षके नीचे रहकर भी जी लेगा, पर स्त्रीका सुरक्षित आश्रय हमेशाके लिये नष्ट हो जायगा। इससे गृहणी गर्हित होगी, सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो जायगा। अत: मर्यादामें रहकर गृहस्थाश्रम व्यवस्थाको आँच न आने दें। नारी ही इसकी मूलभित्ति और आधारशिला है।<blockquote>उत्तमं तु नदीस्नानं तडागं मध्यम तथा। कनिष्ठं कूपस्नानं भाण्डस्नानं वृथा वृथा ॥</blockquote>स्नानसे पूर्व संकल्प तथा किसी नदी आदिपर स्नानके समय स्नानांग-तर्पण करनेका भी विधान है।<blockquote>स्नानाङ्गतर्पणं विद्वान् कदाचिन्नैव हापयेत्।</blockquote>जल सृष्टिका प्रथम तत्त्व है और जलमें सभी देवताओंका भी निवास है-<blockquote>अपां मध्ये स्थिता देवा सर्वमप्सु प्रतिष्ठितम।</blockquote> |
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| | भागीरथी भोगवती जाह्नवी त्रिदशेश्वरी।द्वादशैतानि नामानि यत्र यत्र जलाशये ॥स्नानोद्यतः पठेयस्तु तत्र तत्र वसाम्यहम्॥</blockquote>सृष्टिका निर्माण स्वयं सर्वशक्तिमान् ईश्वर ने मायाके द्वारा किया है। अत: मायामय जगत्की नश्वर एवं अपवित्र वस्तुका सम्पर्क शरीर अथवा शरीरके किसी तत्त्वसे हो जाय तो उसे अपवित्र माना जाता है। जिसकी शुद्धिहेतु सामान्य विधान स्नान ही है। महाभारत, दक्ष एवं अन्य मतों के अनुसार स्नान के द्वारा दश गुणों की प्राप्ति होती है-<blockquote>गुणा दश स्नानशीलं भजन्ते बलं रूपं स्वरवर्णप्रशुद्धिः। स्पर्शश्च गन्धश्च विशुद्धता च श्रीः सौकुमार्यं प्रवराश्च नार्यः॥(उद्योगपर्व ३७॥३३)<ref>डा०पाण्डुरंग वामन काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास,प्रथम खण्ड, सन् १९९२,(पृ०३६७)।</ref></blockquote>अर्थ- बल, रूप, स्वर, वर्ण की शुद्धि, शरीर का मधुर एवं गन्धयुक्त स्पर्श, विशुद्धता, श्री, सौकुमार्य एवं सुन्दर स्त्री। | | भागीरथी भोगवती जाह्नवी त्रिदशेश्वरी।द्वादशैतानि नामानि यत्र यत्र जलाशये ॥स्नानोद्यतः पठेयस्तु तत्र तत्र वसाम्यहम्॥</blockquote>सृष्टिका निर्माण स्वयं सर्वशक्तिमान् ईश्वर ने मायाके द्वारा किया है। अत: मायामय जगत्की नश्वर एवं अपवित्र वस्तुका सम्पर्क शरीर अथवा शरीरके किसी तत्त्वसे हो जाय तो उसे अपवित्र माना जाता है। जिसकी शुद्धिहेतु सामान्य विधान स्नान ही है। महाभारत, दक्ष एवं अन्य मतों के अनुसार स्नान के द्वारा दश गुणों की प्राप्ति होती है-<blockquote>गुणा दश स्नानशीलं भजन्ते बलं रूपं स्वरवर्णप्रशुद्धिः। स्पर्शश्च गन्धश्च विशुद्धता च श्रीः सौकुमार्यं प्रवराश्च नार्यः॥(उद्योगपर्व ३७॥३३)<ref>डा०पाण्डुरंग वामन काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास,प्रथम खण्ड, सन् १९९२,(पृ०३६७)।</ref></blockquote>अर्थ- बल, रूप, स्वर, वर्ण की शुद्धि, शरीर का मधुर एवं गन्धयुक्त स्पर्श, विशुद्धता, श्री, सौकुमार्य एवं सुन्दर स्त्री। |
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| − | == स्नान के भेद == | + | == स्नान के भेद॥ Snana ke Bheda == |
| | <blockquote>मान्त्रं भौमं तथाग्नेयं वायव्यं दिव्यमेव च। वारुणं मानसं चैव सप्त स्नानान्यनुक्रमात्॥ | | <blockquote>मान्त्रं भौमं तथाग्नेयं वायव्यं दिव्यमेव च। वारुणं मानसं चैव सप्त स्नानान्यनुक्रमात्॥ |
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| | अर्घ च तर्पणं मन्त्रजपदानार्चनं चरेत् । बहिरन्तर्गता शुद्धिरेवं स्याद्गृहमेधिनाम् ॥ ११२ ॥</blockquote>'''अर्थ-'''सन्ध्याके समय, पूजाके समय, संक्रान्तिके दिन, ग्रहण के दिन, उल्टी हो जानेपर, मदिरा, मांस हडी, चर्म, इनका स्पर्श हो जानेपर, मैथुन करनेपर, टट्टी होकर आने पर, बीमारीसे उठने पर, मशान घाटके ऊपर जानेपर, किसीका मरण सुनने पर, खराब स्वप्नके आनेपर, मुर्देसे छू जानेपर, चांडालादिका स्पर्श हो जानेपर, बिष्ठा-मूत्र, कौआ, उजू, स्वान, ग्राम-शूकरोंसे छू आनेपर, ऋषियोंकी मृत्यु हो जानेपर, अपने कुटुंबीकी दूरसे या पाससे मरणकी सुनावनी आनेपर, उच्छिष्ठ, अस्पर्श, वमन, रजस्वला आदिका संसर्ग हो जानेपर, अस्पर्श मनुष्योंके जुए हुए वस्त्र, अन्न, भोजन, आदिसे छू जाने पर और जीमते समय पत्तल फट जानेपर, दतौनके साथ साथ पूर्वोक्त मंत्र-यंत्रे पूर्वक शुद्ध जलसे तीन वार स्नान करे, अपने पहने हुए सब कपड़ोंको धोवे तथा अर्घ, तर्पण, मंत्र, जप, दान, पूजा वगैरह सब कार्य करे । इस तरह करनेसे गृहस्थियोंकी बाह्य अभ्यन्तर शुद्धि होती है ॥१०७॥११२ ॥<ref>श्रीसोमसेन भट्टारक, त्रैवर्णिकाचार, बम्बई: जैनसाहित्य-प्रसारक कार्यलय हीराबाग गिरगाव(पृ० ४५)।</ref> | | अर्घ च तर्पणं मन्त्रजपदानार्चनं चरेत् । बहिरन्तर्गता शुद्धिरेवं स्याद्गृहमेधिनाम् ॥ ११२ ॥</blockquote>'''अर्थ-'''सन्ध्याके समय, पूजाके समय, संक्रान्तिके दिन, ग्रहण के दिन, उल्टी हो जानेपर, मदिरा, मांस हडी, चर्म, इनका स्पर्श हो जानेपर, मैथुन करनेपर, टट्टी होकर आने पर, बीमारीसे उठने पर, मशान घाटके ऊपर जानेपर, किसीका मरण सुनने पर, खराब स्वप्नके आनेपर, मुर्देसे छू जानेपर, चांडालादिका स्पर्श हो जानेपर, बिष्ठा-मूत्र, कौआ, उजू, स्वान, ग्राम-शूकरोंसे छू आनेपर, ऋषियोंकी मृत्यु हो जानेपर, अपने कुटुंबीकी दूरसे या पाससे मरणकी सुनावनी आनेपर, उच्छिष्ठ, अस्पर्श, वमन, रजस्वला आदिका संसर्ग हो जानेपर, अस्पर्श मनुष्योंके जुए हुए वस्त्र, अन्न, भोजन, आदिसे छू जाने पर और जीमते समय पत्तल फट जानेपर, दतौनके साथ साथ पूर्वोक्त मंत्र-यंत्रे पूर्वक शुद्ध जलसे तीन वार स्नान करे, अपने पहने हुए सब कपड़ोंको धोवे तथा अर्घ, तर्पण, मंत्र, जप, दान, पूजा वगैरह सब कार्य करे । इस तरह करनेसे गृहस्थियोंकी बाह्य अभ्यन्तर शुद्धि होती है ॥१०७॥११२ ॥<ref>श्रीसोमसेन भट्टारक, त्रैवर्णिकाचार, बम्बई: जैनसाहित्य-प्रसारक कार्यलय हीराबाग गिरगाव(पृ० ४५)।</ref> |
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| − | ==== स्नान के समय में मन्त्र ====
| + | == स्नान के लाभ॥ Snana ke Labha == |
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| − | == स्नान के लाभ ==
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| | स्नान करते ही मनुष्य पवित्रता और आनन्द का अनुभव करने लगता है। भौतिक लाभ की दृष्टि से आयुर्वेद शास्त्र सुश्रुत संहिता में इस प्रकार लिखा है-<blockquote>निद्रादाहश्रम हरं स्वेद कण्डू तृषापहम्। हृद्य मल हरं श्रेष्ठं सर्वेन्द्रिय विशोधनम्॥तन्द्रायाथोपशमनं पुष्टिदं पुंसत्व वर्द्धनम्। रक्तप्रसादनं चापि स्नानमग्नेश्च दीपनम्॥ (सु०चि०स्थान ११७।११८)</blockquote>अर्थात् स्नान से निद्रा, दाह, थकावट, पसीना, तथा प्यास दूर होती है। स्नान हृदय को हितकर मैल को दूर करने में श्रेष्ठ तथा समस्त इन्द्रियों का शोधन करने वाला होता है। तन्द्रा (आलस्य अथवा ऊंघना ) कष्ट निवारक, पुष्टिकर्ता, पुरुषत्ववर्द्धक, रक्त शोधक और जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाला है । चरक में भी लिखा है कि-<blockquote>दौर्गन्ध्यं गौरवं तन्द्रा कण्डूमलमरोचकम्। स्वेदं वीभत्सतां हन्ति शरीर परिमार्जनम् ॥</blockquote>अर्थात् स्नान देह दुर्गन्ध नाशक, शरीर के भारीपन को दूर करने वाला, तन्द्रा ( शरीर में निद्रावत् क्लान्ति होना), खुजली, मैल, मन की अरुचि तथा पसीना एवं देह की कुरूपता को नष्ट करता है। जो लोग ढोंग समझकर अथवा आलस्यवश नित्य स्नान नहीं करते उन्हें स्नान के गुण व लाभ समझ लेने चाहिये और नित्य प्रातः स्नान अवश्य करना चाहिये । | | स्नान करते ही मनुष्य पवित्रता और आनन्द का अनुभव करने लगता है। भौतिक लाभ की दृष्टि से आयुर्वेद शास्त्र सुश्रुत संहिता में इस प्रकार लिखा है-<blockquote>निद्रादाहश्रम हरं स्वेद कण्डू तृषापहम्। हृद्य मल हरं श्रेष्ठं सर्वेन्द्रिय विशोधनम्॥तन्द्रायाथोपशमनं पुष्टिदं पुंसत्व वर्द्धनम्। रक्तप्रसादनं चापि स्नानमग्नेश्च दीपनम्॥ (सु०चि०स्थान ११७।११८)</blockquote>अर्थात् स्नान से निद्रा, दाह, थकावट, पसीना, तथा प्यास दूर होती है। स्नान हृदय को हितकर मैल को दूर करने में श्रेष्ठ तथा समस्त इन्द्रियों का शोधन करने वाला होता है। तन्द्रा (आलस्य अथवा ऊंघना ) कष्ट निवारक, पुष्टिकर्ता, पुरुषत्ववर्द्धक, रक्त शोधक और जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाला है । चरक में भी लिखा है कि-<blockquote>दौर्गन्ध्यं गौरवं तन्द्रा कण्डूमलमरोचकम्। स्वेदं वीभत्सतां हन्ति शरीर परिमार्जनम् ॥</blockquote>अर्थात् स्नान देह दुर्गन्ध नाशक, शरीर के भारीपन को दूर करने वाला, तन्द्रा ( शरीर में निद्रावत् क्लान्ति होना), खुजली, मैल, मन की अरुचि तथा पसीना एवं देह की कुरूपता को नष्ट करता है। जो लोग ढोंग समझकर अथवा आलस्यवश नित्य स्नान नहीं करते उन्हें स्नान के गुण व लाभ समझ लेने चाहिये और नित्य प्रातः स्नान अवश्य करना चाहिये । |
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| | श्री पुष्टि एवं आरोग्यकी वृद्धि चाहनेवाले मनुष्यको स्नान सदैव करना चाहिये। इसीलिये शास्त्रों में स्नान का विधान किया गया है। | | श्री पुष्टि एवं आरोग्यकी वृद्धि चाहनेवाले मनुष्यको स्नान सदैव करना चाहिये। इसीलिये शास्त्रों में स्नान का विधान किया गया है। |
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| − | == स्नान का वैज्ञानिक महत्व == | + | == स्नान का वैज्ञानिक महत्व॥ Scientific importance of Snana == |
| − | प्रातः कालीन स्नान को स्वास्थ्य और अध्यात्म के लिए सर्वश्रेष्ठ माना गया है। यह शरीर को ऊर्जावान और मन को शान्त बनाता है। ऋतु अनुरूप शीत एवं उष्ण जल से स्नान कि परम्परा प्राचीन काल से सनातन धर्ममें विद्यमान है - | + | प्रातः कालीन स्नान को स्वास्थ्य और अध्यात्म के लिए सर्वश्रेष्ठ माना गया है। यह शरीर को ऊर्जावान और मन को शान्त बनाता है। ऋतु अनुरूप शीत एवं उष्ण जल से स्नान कि परम्परा प्राचीन काल से सनातन धर्ममें विद्यमान है। जैसे - |
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| | + | '''शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रभाव''' |
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| | + | स्नान शरीर की शुद्धि और स्वास्थ्य के लिए अति आवश्यक है। इसके लाभ इस प्रकार हैं - |
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| | + | * रक्त संचार में सुधार |
| | + | * त्वचा का स्वास्थ्य आदि |
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| | + | '''स्नान और मानसिक स्वास्थ्य''' |
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| | + | स्नान का मानसिक स्वास्थ्य पर भी सकारात्मक प्रभाव पडता है। जैसे - |
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| | + | * तनाव में कमी |
| | + | * मनोबल में वृद्धि आदि |
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| | + | नियमित स्नान करने से शरीर की प्रतिरक्षा मजबूत होती है और इससे शरीर की सफाई होती है, जिससे रोगाणु और बैक्टीरिया नष्ट होते हैं। अतः स्नान केवल एक दैनिक प्रक्रिया नहीं है, किन्तु यह शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति का माध्यम है। |
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| − | == उद्धरण == | + | == उद्धरण॥ Reference == |
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