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सुधार जारि
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== परिचय ==
 
== परिचय ==
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पञ्चतन्त्र पर आधारित नीतिकथाओं में हितोपदेश सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं प्रचलित ग्रन्थ है। हितोपदेश की रचना नारायण पण्डित ने की है। नारायण पण्डित बंगाल के राजा धवलचन्द्र के दरबार में थे।
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वीरों तथा राजाओं के शौर्य, प्रेम, न्याय, ज्ञान, वैराग्य, साहस आदि की कथाएं संस्कृत साहित्य के ग्रंथों में वर्णित हैं। संस्कृत साहित्य में बाल मनोरंजन कथाओं ‘पंचतंत्र’ , हितोपदेश , बेताल-पच्चीसी , शुक-सप्तति आदि कलात्मक एवं नीतिपरक, शिक्षाप्रद मनोरंजक कहानियों का संग्रह भी प्राप्त होता है। इन कहानियों से मनोरंजन के साथ नीति का उपदेश भी प्राप्त होता है। प्रायः इन कहानियों में लोक व्यवहार के पात्र पशु-पक्षियों को बनाया गया है। ये सभी मनुष्यों की तरह बातचीत करते हैं, जो बच्चों के लिए मनमोहक एवं आकर्षण का विषय बनता है। इनमें असत्य पर सत्य की, अन्याय पर न्याय की और अधर्म पर धर्म की विजय दिखलाई गई है व नीति एवं मूल्यपरक शिक्षा दी गई है।  
 
वीरों तथा राजाओं के शौर्य, प्रेम, न्याय, ज्ञान, वैराग्य, साहस आदि की कथाएं संस्कृत साहित्य के ग्रंथों में वर्णित हैं। संस्कृत साहित्य में बाल मनोरंजन कथाओं ‘पंचतंत्र’ , हितोपदेश , बेताल-पच्चीसी , शुक-सप्तति आदि कलात्मक एवं नीतिपरक, शिक्षाप्रद मनोरंजक कहानियों का संग्रह भी प्राप्त होता है। इन कहानियों से मनोरंजन के साथ नीति का उपदेश भी प्राप्त होता है। प्रायः इन कहानियों में लोक व्यवहार के पात्र पशु-पक्षियों को बनाया गया है। ये सभी मनुष्यों की तरह बातचीत करते हैं, जो बच्चों के लिए मनमोहक एवं आकर्षण का विषय बनता है। इनमें असत्य पर सत्य की, अन्याय पर न्याय की और अधर्म पर धर्म की विजय दिखलाई गई है व नीति एवं मूल्यपरक शिक्षा दी गई है।  
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== श्री नारायण पण्डित – जीवन परिचय ==
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== नीतिकथा एवं हितोपदेश ==
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मनोरञ्जकता से भरपूर एवं नीतिगत व व्यावहारिक उपदेश और शिक्षा से संवलित संस्कृत साहित्यिक-सर्जना का एक उज्ज्वलतम पक्ष कथा-साहित्य है।
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पञ्चतन्त्र पर आधारित नीतिकथाओं में सर्वाधिक प्रचलित नीतिकथाओं का संग्रह हितोपदेश में है।
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==श्री नारायण पण्डित – जीवन परिचय==
 
नीति-कथाओं में पञ्चतंत्र के बाद हितोपदेश का ही नाम आता है। इसके रचयिता  ‘श्री नारायण पंडित’ थे जिनके आश्रयदाता बंगाल के राजा धवलचंद्र थे। ग्रंथ की रचना 14 वीं शताब्दी के आसपास की है। इस ग्रंथ के लेखक होने का प्रमाण उनकी इसी रचना के अंतिम श्लोकों में प्राप्त होता है, जहां वे स्वयं ही कहते हैं कि –[1]
 
नीति-कथाओं में पञ्चतंत्र के बाद हितोपदेश का ही नाम आता है। इसके रचयिता  ‘श्री नारायण पंडित’ थे जिनके आश्रयदाता बंगाल के राजा धवलचंद्र थे। ग्रंथ की रचना 14 वीं शताब्दी के आसपास की है। इस ग्रंथ के लेखक होने का प्रमाण उनकी इसी रचना के अंतिम श्लोकों में प्राप्त होता है, जहां वे स्वयं ही कहते हैं कि –[1]
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संस्कृत के अन्य आचार्यों की तरह हितोपदेश की रचना का समय एवं इसके लेखक श्री नारायण पंडित का जीवनकाल निर्धारण हेतु कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। इन्होंने ग्रंथ के मंगलाचरण एवं अंतिम श्लोक में भगवान शिव की स्तुति की है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि इनकी शिव में विशेष आस्था रही होगी अर्थात वे शैव के अनुयायी थे।
 
संस्कृत के अन्य आचार्यों की तरह हितोपदेश की रचना का समय एवं इसके लेखक श्री नारायण पंडित का जीवनकाल निर्धारण हेतु कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। इन्होंने ग्रंथ के मंगलाचरण एवं अंतिम श्लोक में भगवान शिव की स्तुति की है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि इनकी शिव में विशेष आस्था रही होगी अर्थात वे शैव के अनुयायी थे।
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== हितोपदेश ==
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==हितोपदेश==
 
हितोपदेश में कुल 41 कथाएं और 679 नीति विषयक पद्य हैं। हितोपदेश में ये सभी पद्य महाभारत, धर्मशास्त्र, पुराण, चाणक्य नीति, शुक्रनीति और कामंदक नीति से लिए गए हैं। वस्तुतः हितोपदेश का आधार ग्रंथ आचार्य विष्णु शर्मा द्वारा रचित पंचतंत्र है, यह आचार्य ने स्वयं ही अपने ग्रंथ की प्रस्तावना में स्वीकार किया है –  
 
हितोपदेश में कुल 41 कथाएं और 679 नीति विषयक पद्य हैं। हितोपदेश में ये सभी पद्य महाभारत, धर्मशास्त्र, पुराण, चाणक्य नीति, शुक्रनीति और कामंदक नीति से लिए गए हैं। वस्तुतः हितोपदेश का आधार ग्रंथ आचार्य विष्णु शर्मा द्वारा रचित पंचतंत्र है, यह आचार्य ने स्वयं ही अपने ग्रंथ की प्रस्तावना में स्वीकार किया है –  
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हितोपदेश की कथाओं को चार प्रमुख भागों में विभाजित किया गया है –   
 
हितोपदेश की कथाओं को चार प्रमुख भागों में विभाजित किया गया है –   
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# मित्रलाभ  
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#मित्रलाभ
# सुहृद् भेद  
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#सुहृद् भेद
# विग्रह  
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#विग्रह
# संधि  
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#संधि
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== कथा शैली ==
+
==कथा शैली==
 
यह पंचतंत्र पर निर्भर है। लेखक ने पंचतंत्र के अतिरिक्त ‘कामंदकीय नीतिसार’ से बहुत अधिक श्लोकों को चुना है। इसमें चार परिच्छेद हैं, जिनमें 43 कहानियां हैं। संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं – [2]
 
यह पंचतंत्र पर निर्भर है। लेखक ने पंचतंत्र के अतिरिक्त ‘कामंदकीय नीतिसार’ से बहुत अधिक श्लोकों को चुना है। इसमें चार परिच्छेद हैं, जिनमें 43 कहानियां हैं। संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं – [2]
 
{| class="wikitable"
 
{| class="wikitable"
 
|क्रम संख्या
 
|क्रम संख्या
|परिच्छेदनाम  
+
|परिच्छेदनाम
|उपकथाएं   
+
|उपकथाएं 
|श्लोक संख्या  
+
|श्लोक संख्या
|कथा  
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|कथा
 
|-
 
|-
 
|1.    
 
|1.    
|प्रस्ताविका  
+
|प्रस्ताविका
|1  
+
|1
|47  
+
|47
|राजा सुदर्शन के मूर्ख पुत्र  
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|राजा सुदर्शन के मूर्ख पुत्र
 
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|-
 
|2.    
 
|2.    
|मित्रलाभ  
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|मित्रलाभ
|8  
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| 8
|212  
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|212
|काक, कूर्म, मृग, चूहे की कथा  
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|काक, कूर्म, मृग, चूहे की कथा
 
|-
 
|-
 
|3.    
 
|3.    
|सुहृद् भेद  
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|सुहृद् भेद
|9  
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|9
|184  
+
|184
|शेर और बैल की मैत्री तुड़वाना  
+
|शेर और बैल की मैत्री तुड़वाना
 
|-
 
|-
 
|4.    
 
|4.    
|विग्रह  
+
|विग्रह
|9  
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|9
|149  
+
|149
|हंसों और मोरों में युद्ध  
+
|हंसों और मोरों में युद्ध
 
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|-
 
|5.    
 
|5.    
|संधि  
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|संधि
|12  
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|12
|134  
+
|134
 
|हंस और मोर राजाओं में संधि
 
|हंस और मोर राजाओं में संधि
 
|-
 
|-
| colspan="2" |मुख्यकथा -  
+
| colspan="2" |मुख्यकथा -
|4+39 = 43  
+
|4+39 = 43
|723
+
| 723
 
|
 
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|}
 
|}
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इसमें पंचतंत्र के प्रथम दो तंत्रों का क्रम बदलकर पहले मित्रप्राप्ति और फिर मित्र-भेद दिखाया गया है। पंचतंत्र के तीसरे तंत्र काकोलूकीय को तोड़कर विग्रह और संधि दो परिच्छेद बनाए गए हैं। अन्य दो तंत्रों को नीतिज्ञान के लिए अनावश्यक समझ कर छोड़ दिया गया है। उनकी कथाएं यथास्थान इन चार परिच्छेदों में ही जोड़ दी हैं। 43 कहानियों में 17 कहानियां नई हैं। इनमें 7 पशुकथाएं, 3 लोककथाएं , 2 शिक्षाप्रद कथाएं और 5 षड् यंत्र कथाएं हैं। हितोपदेश में पंचतंत्र का 2/3 पद्यभाग और 2/5 गद्यभाग मिलता है।
 
इसमें पंचतंत्र के प्रथम दो तंत्रों का क्रम बदलकर पहले मित्रप्राप्ति और फिर मित्र-भेद दिखाया गया है। पंचतंत्र के तीसरे तंत्र काकोलूकीय को तोड़कर विग्रह और संधि दो परिच्छेद बनाए गए हैं। अन्य दो तंत्रों को नीतिज्ञान के लिए अनावश्यक समझ कर छोड़ दिया गया है। उनकी कथाएं यथास्थान इन चार परिच्छेदों में ही जोड़ दी हैं। 43 कहानियों में 17 कहानियां नई हैं। इनमें 7 पशुकथाएं, 3 लोककथाएं , 2 शिक्षाप्रद कथाएं और 5 षड् यंत्र कथाएं हैं। हितोपदेश में पंचतंत्र का 2/3 पद्यभाग और 2/5 गद्यभाग मिलता है।
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== हितोपदेश का महत्व ==
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* हितोपदेश का सामान्य अर्थ हितकारी उपदेश है।
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==हितोपदेश का महत्व==
 
इसकी शैली अत्यंत सरल और सरस है। पद्य अत्यंत सरल और उपदेशात्मक हैं। कहीं-कहीं पद्यों की संख्या अधिक हो जाने से अरुचि होती है। सरल संस्कृत होने के कारण पंचतंत्र से अधिक हितोपदेश का भारतवर्ष में प्रचार है। प्रारम्भिक छात्रों के लिए इसका उपयोग किया जाता है। भाव, भाषा, कथा-प्रवाह, रोचकता आदि सभी गुण इसमें अधिकता से प्राप्त होते हैं।
 
इसकी शैली अत्यंत सरल और सरस है। पद्य अत्यंत सरल और उपदेशात्मक हैं। कहीं-कहीं पद्यों की संख्या अधिक हो जाने से अरुचि होती है। सरल संस्कृत होने के कारण पंचतंत्र से अधिक हितोपदेश का भारतवर्ष में प्रचार है। प्रारम्भिक छात्रों के लिए इसका उपयोग किया जाता है। भाव, भाषा, कथा-प्रवाह, रोचकता आदि सभी गुण इसमें अधिकता से प्राप्त होते हैं।
    
संस्कृत में कथायें दो प्रकार की होती हैं – उपदेशात्मक तथा मनोरंजक।[3]
 
संस्कृत में कथायें दो प्रकार की होती हैं – उपदेशात्मक तथा मनोरंजक।[3]
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# '''उपदेशात्मक –''' इसमें कथायें पशु-पक्षी से संबंध रखती हैं और उनका प्रधान उद्देश्य उपदेश रहता है। जैसे – पंचतंत्र , हितोपदेश।
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#'''उपदेशात्मक –''' इसमें कथायें पशु-पक्षी से संबंध रखती हैं और उनका प्रधान उद्देश्य उपदेश रहता है। जैसे – पंचतंत्र , हितोपदेश।
# '''मनोरंजक –''' इस प्रकार की कथाओं का प्रधान लक्ष्य मनोरंजन रहता है और वे पशु पक्षी के जीवन से संबंधित न होकर जीते-जागते, चलते-भिरते मनुष्य के जीवन से संबंध रखती हैं। इन कथाओं का प्राचीनतम संग्रह ‘बृहत् कथा’ में निबद्ध है।  
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#'''मनोरंजक –''' इस प्रकार की कथाओं का प्रधान लक्ष्य मनोरंजन रहता है और वे पशु पक्षी के जीवन से संबंधित न होकर जीते-जागते, चलते-भिरते मनुष्य के जीवन से संबंध रखती हैं। इन कथाओं का प्राचीनतम संग्रह ‘बृहत् कथा’ में निबद्ध है।
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भारत के प्राचीन लोक-साहित्य के अमूल्य रत्न हितोपदेश, जिसके चार अध्याय हैं, इसके शैक्षिक तथ्य को जानने के लिए उनकी शिक्षाओं को जानना आवश्यक है ।
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भारत के प्राचीन लोक-साहित्य के अमूल्य रत्न हितोपदेश, जिसके चार अध्याय हैं, इसके शैक्षिक तथ्य को जानने के लिए उनकी शिक्षाओं को जानना आवश्यक है –
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==हितोपदेश का संक्षिप्त कथासार==
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हितोपदेश में चार भेद हैं - मित्रलाभ, मित्रभेद, विग्रह एवं सन्धि। इसमें ३९ कथाएँ और प्रत्येक भाग की एक मुख्य कथा भी है। इस प्रकार ४३ कथाएँ हो जाती हैं। इसमें पद्यों की संख्या ७२६ है। यह भी पञ्चतन्त्र की तरह ही गद्य-पद्यात्मक है। कथा गद्य में एवं उपदेश पद्य में हैं।
    
'''मित्रलाभ'''  
 
'''मित्रलाभ'''  
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श्रीनारायण पंडित का मत है कि बुद्धिमान् एवं आपस में मित्रता रखने वाले व्यक्ति साधनविहीन तथा धन रहित होने पर कौए, कछुए, हरिण और चूहे के समान अपने कार्यों को सिद्ध कर लेते हैं – [4]<blockquote>असाधना वित्तहीना, बुद्धिमन्तः सुहृत्तमाः। साधयन्त्याशु कार्याणि, काककूर्ममृगाखुवत्॥ </blockquote>उक्त मित्रलाभ को स्पष्ट करने के लिए नारायण पंडित ने नौ शिक्षक कथाओं के द्वारा विभिन्न शिक्षायें प्रदान की हैं –   
 
श्रीनारायण पंडित का मत है कि बुद्धिमान् एवं आपस में मित्रता रखने वाले व्यक्ति साधनविहीन तथा धन रहित होने पर कौए, कछुए, हरिण और चूहे के समान अपने कार्यों को सिद्ध कर लेते हैं – [4]<blockquote>असाधना वित्तहीना, बुद्धिमन्तः सुहृत्तमाः। साधयन्त्याशु कार्याणि, काककूर्ममृगाखुवत्॥ </blockquote>उक्त मित्रलाभ को स्पष्ट करने के लिए नारायण पंडित ने नौ शिक्षक कथाओं के द्वारा विभिन्न शिक्षायें प्रदान की हैं –   
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# श्रीनारायण पंडित ने कौए, कछुए, हरिण और चूहे की कथा से अच्छे मित्र के लाभ की ओर संकेत किया है।  
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#श्रीनारायण पंडित ने कौए, कछुए, हरिण और चूहे की कथा से अच्छे मित्र के लाभ की ओर संकेत किया है।
# स्वर्ण कंगनधारी बूढ़े बाघ और लोभी पथिक की कथा से शिक्षा दी है कि लोभ बुरी बला है।  
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#स्वर्ण कंगनधारी बूढ़े बाघ और लोभी पथिक की कथा से शिक्षा दी है कि लोभ बुरी बला है।
# हरिण, कौए और धूर्त सियार की कथा का वर्णन किया है जिसमें स्पष्ट किया है कि व्यक्ति को अपने कृतकार्य का फल अवश्य प्राप्त होता है।  
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#हरिण, कौए और धूर्त सियार की कथा का वर्णन किया है जिसमें स्पष्ट किया है कि व्यक्ति को अपने कृतकार्य का फल अवश्य प्राप्त होता है।
# चतुर्थ कथा में नारायण पण्डित ने अन्धे गिद्ध, बिलाव तथा अन्य चिड़ियों की कहानी से बताया है कि बिना पहचान के मित्र नहीं बनाना चाहिए।  
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#चतुर्थ कथा में नारायण पण्डित ने अन्धे गिद्ध, बिलाव तथा अन्य चिड़ियों की कहानी से बताया है कि बिना पहचान के मित्र नहीं बनाना चाहिए।
# सन्यासी और धनिक चूहे की कथा से शिक्षा दी है कि बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता है।  
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#सन्यासी और धनिक चूहे की कथा से शिक्षा दी है कि बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता है।
# वृद्ध बनियाँ और उसकी युवा पत्नी की कथा से शिक्षा प्रदान की है कि धन की तीन गतियाँ होती हैं- दान, भोग और नाश। जो दान अथवा भोग नहीं करता है, उसका धन नष्ट हो जाता है।  
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#वृद्ध बनियाँ और उसकी युवा पत्नी की कथा से शिक्षा प्रदान की है कि धन की तीन गतियाँ होती हैं- दान, भोग और नाश। जो दान अथवा भोग नहीं करता है, उसका धन नष्ट हो जाता है।
# व्याघ्र, हरिण, शूकर और सियार की कथा, छात्रों को सन्देश देती है कि व्यक्ति को तृष्णा का त्याग करना चाहिए।  
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#व्याघ्र, हरिण, शूकर और सियार की कथा, छात्रों को सन्देश देती है कि व्यक्ति को तृष्णा का त्याग करना चाहिए।
# राजकुमार, सुन्दर युवती तथा उसके पति की कथा से शिक्षा मिलती है कि प्रयत्न करने से कार्य की सिद्धि हो सकती है।  
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#राजकुमार, सुन्दर युवती तथा उसके पति की कथा से शिक्षा मिलती है कि प्रयत्न करने से कार्य की सिद्धि हो सकती है।
# धूर्त गीदड़ और कर्पूरतिलक हाथी की कहानी में यह सन्देश है कि निश्चित को छोड़कर अनिश्चित की प्राप्ति की लालसा से निश्चित प्राप्त वस्तु भी हाथ से निकल जाती है  
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#धूर्त गीदड़ और कर्पूरतिलक हाथी की कहानी में यह सन्देश है कि निश्चित को छोड़कर अनिश्चित की प्राप्ति की लालसा से निश्चित प्राप्त वस्तु भी हाथ से निकल जाती है
    
'''सुहृदभेद'''
 
'''सुहृदभेद'''
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श्री नारायण पण्डित ने बताया है कि आपस में प्रगाढ़ मित्रता होने पर भी चुगलखोर और लोभी व्यक्ति उस मित्रता को तुड़वाने का प्रयास करते हैं जैसा कि किसी जंगल में निवास करने वाले चुगलखोर और लोभी सियार ने एक सिंह और बैल में मतभेद उत्पन्न करके उनकी मित्रता को समाप्त करा दिया था।  अतः इस अध्याय से लेखक ने दस कथाओं के द्वारा कई प्रमुख शिक्षायें प्रदान की हैं -[5]
 
श्री नारायण पण्डित ने बताया है कि आपस में प्रगाढ़ मित्रता होने पर भी चुगलखोर और लोभी व्यक्ति उस मित्रता को तुड़वाने का प्रयास करते हैं जैसा कि किसी जंगल में निवास करने वाले चुगलखोर और लोभी सियार ने एक सिंह और बैल में मतभेद उत्पन्न करके उनकी मित्रता को समाप्त करा दिया था।  अतः इस अध्याय से लेखक ने दस कथाओं के द्वारा कई प्रमुख शिक्षायें प्रदान की हैं -[5]
   −
# अनधिकृत चेष्टा करने वाला व्यक्ति अन्त में दुःखी होता है।
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#अनधिकृत चेष्टा करने वाला व्यक्ति अन्त में दुःखी होता है।
# जो जिस कार्य को जानता है, वही उस कार्य में सफलता प्राप्त कर सकता है।
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#जो जिस कार्य को जानता है, वही उस कार्य में सफलता प्राप्त कर सकता है।
# व्यक्ति को अपने कार्य से काम रखना चाहिए, दूसरों के काम में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
+
#व्यक्ति को अपने कार्य से काम रखना चाहिए, दूसरों के काम में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
# यह संसार स्वार्थपरक है, अतः सोच-समझकर व्यवहार करना चाहिए।
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#यह संसार स्वार्थपरक है, अतः सोच-समझकर व्यवहार करना चाहिए।
# किसी भी कार्य को करने से पहले उसके कारण को ज्ञात कर लेना चाहिए। इससे कार्य को अच्छी प्रकार से संपादित किया जा सकता है।
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#किसी भी कार्य को करने से पहले उसके कारण को ज्ञात कर लेना चाहिए। इससे कार्य को अच्छी प्रकार से संपादित किया जा सकता है।
# बिना विचारे कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए, अन्यथा सफलता संदिग्ध रहती है।
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#बिना विचारे कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए, अन्यथा सफलता संदिग्ध रहती है।
# लोभ का फल अंत में बुरा होता है। अतः लोभ नहीं करना चाहिए।
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#लोभ का फल अंत में बुरा होता है। अतः लोभ नहीं करना चाहिए।
# किसी भी कार्य को युक्तिपूर्वक करना चाहिए, तभी परिणाम सही निकलता है।
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#किसी भी कार्य को युक्तिपूर्वक करना चाहिए, तभी परिणाम सही निकलता है।
# भैंस आकार में बड़ी होने पर भी सूक्ष्म बुद्धि ही श्रेष्ठ होती है। अतः बुद्धि-विवेक से कार्य करना उत्तम होता है।
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#भैंस आकार में बड़ी होने पर भी सूक्ष्म बुद्धि ही श्रेष्ठ होती है। अतः बुद्धि-विवेक से कार्य करना उत्तम होता है।
# संगठन में ही शक्ति होती है, पृथक-पृथक होने पर मनुष्य का विनाश हो जाता है।
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#संगठन में ही शक्ति होती है, पृथक-पृथक होने पर मनुष्य का विनाश हो जाता है।
    
'''विग्रह'''
 
'''विग्रह'''
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प्रस्तुत अध्याय में श्रीनारायण पंडित ने विग्रह संबंध में शिक्षा प्रदान की है कि शत्रु के शिविर में किसी प्रकार प्रवेश करके तथा विश्वासघात के द्वारा कैसे नष्ट किया जा सकता है। इसमें लेखक ने दस कथाओं के माध्यम से विभिन्न शिक्षाऐं प्रदान की हैं –[6]  
 
प्रस्तुत अध्याय में श्रीनारायण पंडित ने विग्रह संबंध में शिक्षा प्रदान की है कि शत्रु के शिविर में किसी प्रकार प्रवेश करके तथा विश्वासघात के द्वारा कैसे नष्ट किया जा सकता है। इसमें लेखक ने दस कथाओं के माध्यम से विभिन्न शिक्षाऐं प्रदान की हैं –[6]  
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# घर का भेदी ही लंका को ढहा सकता है, अर्थात अपना व्यक्ति ही विनाश का कारण होता है।  
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#घर का भेदी ही लंका को ढहा सकता है, अर्थात अपना व्यक्ति ही विनाश का कारण होता है।
# मूर्ख व्यक्ति को उपदेश नहीं देना चाहिए, उससे कोई लाभ प्राप्त नहीं होता।  
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#मूर्ख व्यक्ति को उपदेश नहीं देना चाहिए, उससे कोई लाभ प्राप्त नहीं होता।
# किसी के कार्य की नकल नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उसमें अकल की आवश्यकता होती है।  
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#किसी के कार्य की नकल नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उसमें अकल की आवश्यकता होती है।
# कभी-कभी बड़े व्यक्ति के नाम से ही छोटे व्यक्ति अपना कार्य सिद्ध कर लेते हैं।  
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#कभी-कभी बड़े व्यक्ति के नाम से ही छोटे व्यक्ति अपना कार्य सिद्ध कर लेते हैं।
# दुष्ट व्यक्ति का साथ कभी नहीं देना चाहिए।  
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#दुष्ट व्यक्ति का साथ कभी नहीं देना चाहिए।
# कभी-कभी कार्य अन्य व्यक्ति करता है तथा फल दूसरे को भोगना पड़ता है, अतः सावधानीपूर्वक कार्य करना चाहिए।  
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#कभी-कभी कार्य अन्य व्यक्ति करता है तथा फल दूसरे को भोगना पड़ता है, अतः सावधानीपूर्वक कार्य करना चाहिए।
# धोबी का कुत्ता, घर का न घाट का। अर्थात दूसरे दल की अपेक्षा अपने पक्ष का हित सोचना चाहिए।  
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#धोबी का कुत्ता, घर का न घाट का। अर्थात दूसरे दल की अपेक्षा अपने पक्ष का हित सोचना चाहिए।
# हित चाहने और अपना कर्तव्यपालन करने वाला ही अपना होता है।  
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#हित चाहने और अपना कर्तव्यपालन करने वाला ही अपना होता है।
# बिना सोचे-समझे किसी की नकल नहीं करनी चाहिए, अन्यथा उसका परिणाम बुरा होता है।  
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#बिना सोचे-समझे किसी की नकल नहीं करनी चाहिए, अन्यथा उसका परिणाम बुरा होता है।
# किसी अन्य के किये हुए पुण्य को अथवा परिणाम को चाहने वाला व्यक्ति दुःखी होता है।  
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#किसी अन्य के किये हुए पुण्य को अथवा परिणाम को चाहने वाला व्यक्ति दुःखी होता है।
    
'''संधि'''
 
'''संधि'''
Line 131: Line 143:  
श्रीनारायण पंडित ने संधि नामक अध्याय में तेरह कथाओं के माध्यम से कई प्रमुख शिक्षाएं प्रदान की हैं। संधि का तात्पर्य है कि परस्पर दो राजाओं में अथवा दो व्यक्तियों में मध्यस्थ बनकर दो मेल करा देना। जैसा कि गिद्ध और चकवे ने मध्यस्थ बनकर दो राजाओं में संधि कराई थी। इस अध्याय में वर्णित कथाएं अतीव प्रेरणाप्रद एवं शिक्षात्मक हैं –  
 
श्रीनारायण पंडित ने संधि नामक अध्याय में तेरह कथाओं के माध्यम से कई प्रमुख शिक्षाएं प्रदान की हैं। संधि का तात्पर्य है कि परस्पर दो राजाओं में अथवा दो व्यक्तियों में मध्यस्थ बनकर दो मेल करा देना। जैसा कि गिद्ध और चकवे ने मध्यस्थ बनकर दो राजाओं में संधि कराई थी। इस अध्याय में वर्णित कथाएं अतीव प्रेरणाप्रद एवं शिक्षात्मक हैं –  
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# समान बल वाले शत्रु से मित्रता कर लेने में ही हित होता है।  
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#समान बल वाले शत्रु से मित्रता कर लेने में ही हित होता है।
# मित्रों की सद्-सलाह को मानना चाहिए, क्योंकि उसमें ही हित निहित होता है।  
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#मित्रों की सद्-सलाह को मानना चाहिए, क्योंकि उसमें ही हित निहित होता है।
# बुद्धिमान् व्यक्ति वही होता है, जो आपत्ति आने पर उसका उपाय शीघ्र सोच लेता है।  
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#बुद्धिमान् व्यक्ति वही होता है, जो आपत्ति आने पर उसका उपाय शीघ्र सोच लेता है।
# व्यक्ति को लोभ नहीं करना चाहिए, क्योंकि लोभ नाश का कारण होता है।  
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#व्यक्ति को लोभ नहीं करना चाहिए, क्योंकि लोभ नाश का कारण होता है।
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== सारांश ==
+
== सारांश==
 
भागीरथी के पवित्र तट पर पटना नाम का एक नगर है। केसी समय इस नगर मे राजा सुदर्शन राज्य करता था । उसकी राजसभा मे किसी विद्वान ने इन श्लोको को पढ़कर सुनाया –  
 
भागीरथी के पवित्र तट पर पटना नाम का एक नगर है। केसी समय इस नगर मे राजा सुदर्शन राज्य करता था । उसकी राजसभा मे किसी विद्वान ने इन श्लोको को पढ़कर सुनाया –  
   Line 155: Line 167:  
राजन्, मे वचन देता हूँ कि छः महीने के अन्दर-अन्दर मैं राजपुत्रों को राजनीतिज्ञ वना दूंगा। राजा ने अपने पुत्रों को विष्णुगर्मा के साथ विदा किया । विष्णुशर्मा ने इन राजपुत्रों को जिन मनोरंजक कहानियो द्वारा राजनीति और व्यवहार-नीति की शिक्षा दी, उन कथाओं और नीति-वाक्यों के संग्रह को ही 'हितोपदेश' कहा जाता है। इस कथा-संग्रह के प्रथम भाग को 'मित्रलाभ' का नाम दिया गया। पहले उस भाग की प्रथम कथा कहते हैं।[7]
 
राजन्, मे वचन देता हूँ कि छः महीने के अन्दर-अन्दर मैं राजपुत्रों को राजनीतिज्ञ वना दूंगा। राजा ने अपने पुत्रों को विष्णुगर्मा के साथ विदा किया । विष्णुशर्मा ने इन राजपुत्रों को जिन मनोरंजक कहानियो द्वारा राजनीति और व्यवहार-नीति की शिक्षा दी, उन कथाओं और नीति-वाक्यों के संग्रह को ही 'हितोपदेश' कहा जाता है। इस कथा-संग्रह के प्रथम भाग को 'मित्रलाभ' का नाम दिया गया। पहले उस भाग की प्रथम कथा कहते हैं।[7]
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== उद्धरण ==
+
==उद्धरण==
 
[1] <nowiki>https://ia801405.us.archive.org/21/items/in.ernet.dli.2015.327677/2015.327677.Sanskrit-Sahitya.pdf</nowiki>
 
[1] <nowiki>https://ia801405.us.archive.org/21/items/in.ernet.dli.2015.327677/2015.327677.Sanskrit-Sahitya.pdf</nowiki>
  
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