ऋषि पिप्पलाद के पास भरद्वाजपुत्र सुकेशा, शिविकुमार सत्यकाम, गर्ग गोत्र में उत्पन्न सौर्यायणी, कोसलदेशीय आश्वलायन, विदर्भ निवासी भार्गव और कत्य ऋषि के प्रपौत्र कबन्धी- ये छह ऋषि हाथ में समिधा लेकर ब्रह्मजिज्ञासा से पहुँचे। ऋषि की आज्ञानुसार उन सबने एक वर्ष तक श्रद्धा, ब्रह्मचर्य और तपस्या के साथ विधिपूर्वक वहाँ निवास किया।<ref>बलदेव उपाध्याय, [https://archive.org/details/1.SanskritVangmayaKaBrihatItihasVedas/page/504/mode/1up संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास - वेद खण्ड], सन् १९९६, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान (पृ० ५०४)।</ref>
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== सारांश ==
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'''प्रथम प्रश्न - समस्त प्राणियों का स्रोत'''
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== उद्धरण ==
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'''द्वितीय प्रश्न - प्राणः प्राणियों का आश्रय'''
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'''तृतीय प्रश्न - प्राण और मानव शरीर'''
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'''चतुर्थ प्रश्न - प्राण और चेतना की अवस्थाएं'''
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'''पंचम प्रश्न - ओं पर ध्यान'''
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'''षष्ठम प्रश्न - पुरुष का अस्तित्व'''
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==सारांश==
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प्रश्नोपनिषद् का आरम्भ सृष्टि अथवा इस विश्व में सजीव और निर्जीव सत्ताओं की उत्पत्ति तथा इसका अवसान परम पुरुष की धारणा से होता है जिससे मुक्ति संभव होती है। जीवात्मा की वास्तविक पहचान परम पुरुष ही है। प्रश्नोपनिषद् के अनुसार प्राण सजीव को निर्जीव से अलग करता है, प्राण अपने वास्तविक स्वरूप में शुद्ध चेतना, स्वप्रकाश, स्वयं-प्रमाण और अविकारी है। सजीव अपना स्वभाव जन्म के समय ग्रहण करता है। यह सत्ता का उपाधिकृत स्वभाव है। इसका वास्तविक स्वरूप अज्ञान के आवरण से ढंका हुआ है और सतत विद्यमान है। इस प्रकार सत्ता का वास्तविक स्वरूप वह पाना है जो वह पहले से है। मुक्ति का अर्थ परम पुरुष के साथ एकात्म स्थापित हो जाने के बाद जीवात्मा परमात्मा में विलीन होकर परमात्मा ही हो जाता है।