Line 17: |
Line 17: |
| | | |
| '''प्रथम प्रश्न - समस्त प्राणियों का स्रोत''' | | '''प्रथम प्रश्न - समस्त प्राणियों का स्रोत''' |
| + | |
| + | प्रथम प्रश्न कात्यायन कबन्धि ने मुनि पिप्पलाद से यह किया, ऋषिवर, जीवों की उत्पत्ति कहां से होती है? अथवा ये सारे जीव किस प्रकार उत्पन्न हुए हैं? |
| | | |
| | | |
| '''द्वितीय प्रश्न - प्राणः प्राणियों का आश्रय''' | | '''द्वितीय प्रश्न - प्राणः प्राणियों का आश्रय''' |
| + | |
| + | दूसरे प्रश्नकर्ता विदर्भदेशीय भार्गव हैं, इसका सम्बन्ध व्यक्तिनिष्ठ शक्तियों और उनमें से सबसे प्रधान कौन है, इससे है। |
| | | |
| | | |
| '''तृतीय प्रश्न - प्राण और मानव शरीर''' | | '''तृतीय प्रश्न - प्राण और मानव शरीर''' |
| + | |
| + | यह तीसरा प्रश्न अश्वलपुत्र ऋषि कौशल्य के द्वारा पूछा गया है। प्रश्न इस प्रकार है, हे भगवन्! यह जीवन कहां से जन्म लेता है? यह इस शरीर में किस प्रकार प्रवेश करता है? |
| | | |
| | | |
| '''चतुर्थ प्रश्न - प्राण और चेतना की अवस्थाएं''' | | '''चतुर्थ प्रश्न - प्राण और चेतना की अवस्थाएं''' |
| | | |
| + | अब सूर्यकुल के गार्ग्य के द्वारा चौथा प्रश्न पूछा जाता है। इस पुरुष में कौन सोता है और कौन जागता, तथा कौन देव स्वप्न देखता है? किसे यह सुख अनुभव होता है और किसमें यह प्रतिष्ठित है? |
| | | |
| '''पंचम प्रश्न - ओं पर ध्यान''' | | '''पंचम प्रश्न - ओं पर ध्यान''' |
| | | |
| + | शैव्य सत्यकाम पिप्पलाद से पूछते हैं, हे भगवन! मनुष्यों में जो जीवनपर्यन्त ओंकार का चिन्तन करते हैं, वह ऐसा करके किस लोक को जीत लेता हैं? |
| | | |
| '''षष्ठम प्रश्न - पुरुष का अस्तित्व''' | | '''षष्ठम प्रश्न - पुरुष का अस्तित्व''' |
| + | |
| + | भारद्वाज सुकेश पिप्पलाद से पूछते हैं, भगवन! कौशल देश के राजा हिरण्यनाभ ने मुझसे आकर यह प्रश्न पूछा था, क्या तू सोलह कलाओं वाले पुरुष को जानता है? |
| | | |
| ==सारांश== | | ==सारांश== |
− | प्रश्नोपनिषद् का आरम्भ सृष्टि अथवा इस विश्व में सजीव और निर्जीव सत्ताओं की उत्पत्ति तथा इसका अवसान परम पुरुष की धारणा से होता है जिससे मुक्ति संभव होती है। जीवात्मा की वास्तविक पहचान परम पुरुष ही है। प्रश्नोपनिषद् के अनुसार प्राण सजीव को निर्जीव से अलग करता है, प्राण अपने वास्तविक स्वरूप में शुद्ध चेतना, स्वप्रकाश, स्वयं-प्रमाण और अविकारी है। सजीव अपना स्वभाव जन्म के समय ग्रहण करता है। यह सत्ता का उपाधिकृत स्वभाव है। इसका वास्तविक स्वरूप अज्ञान के आवरण से ढंका हुआ है और सतत विद्यमान है। इस प्रकार सत्ता का वास्तविक स्वरूप वह पाना है जो वह पहले से है। मुक्ति का अर्थ परम पुरुष के साथ एकात्म स्थापित हो जाने के बाद जीवात्मा परमात्मा में विलीन होकर परमात्मा ही हो जाता है। | + | प्रश्नोपनिषद् का आरम्भ सृष्टि अथवा इस विश्व में सजीव और निर्जीव सत्ताओं की उत्पत्ति तथा इसका अवसान परम पुरुष की धारणा से होता है जिससे मुक्ति संभव होती है। जीवात्मा की वास्तविक पहचान परम पुरुष ही है। प्रश्नोपनिषद् के अनुसार प्राण सजीव को निर्जीव से अलग करता है, प्राण अपने वास्तविक स्वरूप में शुद्ध चेतना, स्वप्रकाश, स्वयं-प्रमाण और अविकारी है। सजीव अपना स्वभाव जन्म के समय ग्रहण करता है। यह सत्ता का उपाधिकृत स्वभाव है। इसका वास्तविक स्वरूप अज्ञान के आवरण से ढंका हुआ है और सतत विद्यमान है। इस प्रकार सत्ता का वास्तविक स्वरूप वह पाना है जो वह पहले से है। मुक्ति का अर्थ परम पुरुष के साथ एकात्म स्थापित हो जाने के बाद जीवात्मा परमात्मा में विलीन होकर परमात्मा ही हो जाता है।<ref>घनश्यामदास जालान, [https://ia801502.us.archive.org/18/items/Works_of_Sankaracharya_with_Hindi_Translation/Prasna%20Upanishad%20Sankara%20Bhashya%20with%20Hindi%20Translation%20-%20Gita%20Press%201935.pdf प्रश्नोपनिषद् - शांकरभाष्यसहित], गीताप्रेस गोरखपुर, भूमिका (पृ० ३)।</ref> |
| | | |
| ==उद्धरण== | | ==उद्धरण== |
| <references /> | | <references /> |