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| == मन्त्र का महत्व == | | == मन्त्र का महत्व == |
− | मन्त्रशास्त्र के साथ अन्तःकरणका बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। मन्त्रमें जो शक्ति निहित रहती है, वह शक्ति मन्त्रके आश्रयसे [[Antahkarana Chatushtaya (अन्तःकरणचतुष्टयम्)|अन्तःकरण]] में प्रकट हो जाती है। योग में मन्त्र साधना का विशेष महत्वपूर्ण स्थान है। मन्त्र साधना को योग साधना में सबसे सुगम एवं सरल बताते हुये, समस्त योगी ऋषि-मुनि मंत्र साधना के अस्तित्व को स्वीकार किया है।<ref>Karnick CR. Effect of mantras on human beings and plants. Anc Sci Life. 1983 Jan;2(3):141-7. PMID: 22556970; PMCID: PMC3336746.</ref> | + | मन्त्रशास्त्र के साथ अन्तःकरणका बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। मन्त्रमें जो शक्ति निहित रहती है, वह शक्ति मन्त्रके आश्रयसे [[Antahkarana Chatushtaya (अन्तःकरणचतुष्टयम्)|अन्तःकरण]] में प्रकट हो जाती है। योग में मन्त्र साधना का विशेष महत्वपूर्ण स्थान है। मन्त्र साधना को योग साधना में सबसे सुगम एवं सरल बताते हुये, समस्त योगी ऋषि-मुनि मंत्र साधना के अस्तित्व को स्वीकार किया है।<ref>Karnick CR. Effect of mantras on human beings and plants. Anc Sci Life. 1983 Jan;2(3):141-7. PMID: 22556970; PMCID: PMC3336746.</ref><blockquote>मन्त्रो हि गुप्त विज्ञानः। सर्वे बीजात्मकाः वर्णाः मंत्राः ज्ञेयाः शिवात्मिकाः। साधक साधन साध्य विवेकः मन्त्रः। प्रयोगसमवेतार्थस्मारकाः मंत्राः। मननात्तत्वरूपस्य देवस्यामिततेजसः। त्रायते सर्वदुःखेभ्यस्तस्मान्मंत्र इतीरितः॥ मन्यते ज्ञायते आत्मादि येन तन्मन्त्रः॥ </blockquote>पं० श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार- |
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− | मन्त्रो हि गुप्त विज्ञानः। सर्वे बीजात्मकाः वर्णाः मंत्राः ज्ञेयाः शिवात्मिकाः। साधक साधन साध्य विवेकः मन्त्रः। प्रयोगसमवेतार्थस्मारकाः मंत्राः। मननात्तत्वरूपस्य देवस्यामिततेजसः। त्रायते सर्वदुःखेभ्यस्तस्मान्मंत्र इतीरितः॥ | |
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− | मन्यते ज्ञायते आत्मादि येन तन्मन्त्रः॥ | |
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− | पं० श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार- | |
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| मंत्र वह है जिसमें मानसिक एकाग्रता एवं निष्ठा का समुचित समावेश हों, परिष्कृत व्यक्तित्व की परिमार्जित वाणी से जिसकी साधना की जाय। जिसकी रहस्यमय क्षमता पर गहन श्रद्धा हो तथा जिसका अनावश्यक विज्ञापित न करके गोपनीय रखा जाय।<ref>आचार्य श्री राम शर्मा- मन्त्र शक्ति के चमत्कारी परिणाम, अखण्ड ज्योति वर्ष ४१, अंक ४ (पृ० २८)।</ref> | | मंत्र वह है जिसमें मानसिक एकाग्रता एवं निष्ठा का समुचित समावेश हों, परिष्कृत व्यक्तित्व की परिमार्जित वाणी से जिसकी साधना की जाय। जिसकी रहस्यमय क्षमता पर गहन श्रद्धा हो तथा जिसका अनावश्यक विज्ञापित न करके गोपनीय रखा जाय।<ref>आचार्य श्री राम शर्मा- मन्त्र शक्ति के चमत्कारी परिणाम, अखण्ड ज्योति वर्ष ४१, अंक ४ (पृ० २८)।</ref> |
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| == मन्त्र योग == | | == मन्त्र योग == |
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− | मनन करने से जो हमारी रक्षा करता है उसे मन्त्रयोग कहते हैं। मन्त्रयोग के द्वारा हम अपने भावों को शुद्ध करते हैं, चित्त की चंचलता को कम करते हैं। इस प्रकार मन्त्रयोग की प्रथम साधना के द्वारा योग साधक अधम स्थिति से मध्यम स्थिति पर आ जाये तथा बुद्धि शुद्ध व चैतन्य हो जाये। मन्त्र योग की साधना करने से मन एकाग्र होकर प्राण सुषुम्ना में प्रवेश कर जाता है तथा चित्त की वृत्तियों का निरोध होता है। मन्त्रयोग के द्वारा सुषुम्ना मार्ग खुल जाता है और कुण्डलिनी शक्ति सहस्रार में सहजता से पहुँच जाती है एवं मन्त्रयोग के द्वारा सुषुम्ना मार्ग शुद्ध हो जाता है।<blockquote>मंत्रजपान्मनोलयो मंत्रयोगः।</blockquote>निरन्तर सिद्ध मंत्र का जाप करते हुये, मन जब अपने आराध्य के ध्यान में तन्मयता से लय भाव प्राप्त कर लेता है, उस अवस्था को मंत्र योग कहते हैं। मंत्र नाद ब्रह्म का प्रतीक है। मंत्र वह है जिसमें मानसिक एकाग्रता एवं निष्ठा का सम्पूर्ण समागम हो। जिसकी रहस्यमय क्षमता पर गहन श्रद्धा हो तथा जिसका अनावश्यक विज्ञापन न करके गोपनीय रखा जाय। | + | मनन करने से जो हमारी रक्षा करता है उसे मन्त्रयोग कहते हैं। मन्त्रयोग के द्वारा हम अपने भावों को शुद्ध करते हैं, चित्त की चंचलता को कम करते हैं। इस प्रकार मन्त्रयोग की प्रथम साधना के द्वारा योग साधक अधम स्थिति से मध्यम स्थिति पर आ जाये तथा बुद्धि शुद्ध व चैतन्य हो जाये। मन्त्र योग की साधना करने से मन एकाग्र होकर प्राण सुषुम्ना में प्रवेश कर जाता है तथा चित्त की वृत्तियों का निरोध होता है। मन्त्रयोग के द्वारा सुषुम्ना मार्ग खुल जाता है और कुण्डलिनी शक्ति सहस्रार में सहजता से पहुँच जाती है एवं मन्त्रयोग के द्वारा सुषुम्ना मार्ग शुद्ध हो जाता है।<blockquote>मंत्रजपान्मनोलयो मंत्रयोगः।</blockquote>निरन्तर सिद्ध मंत्र का जाप करते हुये, मन जब अपने आराध्य के ध्यान में तन्मयता से लय भाव प्राप्त कर लेता है, उस अवस्था को मंत्र योग कहते हैं। मंत्र नाद ब्रह्म का प्रतीक है। मंत्र वह है जिसमें मानसिक एकाग्रता एवं निष्ठा का सम्पूर्ण समागम हो। जिसकी रहस्यमय क्षमता पर गहन श्रद्धा हो तथा जिसका अनावश्यक विज्ञापन न करके गोपनीय रखा जाय। मंत्र की साधना चेतना को परिष्कृत करती है। इसमें किसी बीजाक्षर, मंत्र या वाक्य का बार-बार पुनरावर्तन किया जाता है। विधिवत् लयबद्ध पुनरावर्तन को जाप कहते हैं। इसमें ध्वनि के उच्चारण पर विशेष ध्यान दिया जाता है। चित्त की सूक्ष्मतम तरंगें ध्वनि की तरंगें हैं। मंत्र की साधना से पहले अन्दर की सफाई होती है। अन्त में व्यक्ति उसी में एकाग्र हो जाता है। उसका मन स्थिर होने लगता है। वैदिक साधना पद्धति में, बौद्धों में मणि पद्मे हं, जैनों में नमस्कार महामंत्र, अर्हम् आदि ध्वनियों के उदाहरण हैं। उन ध्वनियों का उपयोग करना चाहिये जिनसे मन परमात्मा में लयहीन हो जाये।<blockquote>तस्य वाचकः प्रणवः। तज्जपस्तदर्थभावनम् ।</blockquote>पातंजल योग सूत्र के अनुसार ईश्वर का वाचक प्रणव (ओंकार) है। इसका जप करते हुये अन्त में इसके अर्थ अर्थात् परमात्म रूप हो जाना मंत्र का प्रमुख उद्देश्य है। मंत्र के जप के साथ उसके अर्थ, छन्द, ऋषि या देवता का अधिकाधिक रूप में मनन किया जाता है। तब वह शीघ्र सिद्ध होता है। मंत्र सिद्धि के द्वारा मन, मंत्र तथा आराध्य देव की पृथक्ता का बोध साधक को नहीं होता है।<blockquote>मननात् त्राणनाच्चैव मद्रपस्यावबोध नात्। मंत्र इत्युच्यते सम्यक् मदधिष्ठानत प्रिये॥(रुद्रयामल)</blockquote>अर्थ-<blockquote>भवन्ति मन्त्रयोगस्य षोडशांगानि निश्चितम्। यथा सुधांशोर्जायन्ते कला षोडशशोभना॥ |
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− | मंत्र की साधना चेतना को परिष्कृत करती है। इसमें किसी बीजाक्षर, मंत्र या वाक्य का बार-बार पुनरावर्तन किया जाता है। विधिवत् लयबद्ध पुनरावर्तन को जाप कहते हैं। इसमें ध्वनि के उच्चारण पर विशेष ध्यान दिया जाता है। चित्त की सूक्ष्मतम तरंगें ध्वनि की तरंगें हैं। मंत्र की साधना से पहले अन्दर की सफाई होती है। अन्त में व्यक्ति उसी में एकाग्र हो जाता है। उसका मन स्थिर होने लगता है। वैदिक साधना पद्धति में, बौद्धों में मणि पद्मे हं, जैनों में नमस्कार महामंत्र, अर्हम् आदि ध्वनियों के उदाहरण हैं। उन ध्वनियों का उपयोग करना चाहिये जिनसे मन परमात्मा में लयहीन हो जाये।<blockquote>तस्य वाचकः प्रणवः। तज्जपस्तदर्थभावनम् ।</blockquote>पातंजल योग सूत्र के अनुसार ईश्वर का वाचक प्रणव (ओंकार) है। इसका जप करते हुये अन्त में इसके अर्थ अर्थात् परमात्म रूप हो जाना मंत्र का प्रमुख उद्देश्य है। मंत्र के जप के साथ उसके अर्थ, छन्द, ऋषि या देवता का अधिकाधिक रूप में मनन किया जाता है। तब वह शीघ्र सिद्ध होता है। मंत्र सिद्धि के द्वारा मन, मंत्र तथा आराध्य देव की पृथक्ता का बोध साधक को नहीं होता है।<blockquote>मननात् त्राणनाच्चैव मद्रपस्यावबोध नात्। मंत्र इत्युच्यते सम्यक् मदधिष्ठानत प्रिये॥(रुद्रयामल)</blockquote>अर्थ-<blockquote>भवन्ति मन्त्रयोगस्य षोडशांगानि निश्चितम्। यथा सुधांशोर्जायन्ते कला षोडशशोभना॥ | |
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| भक्ति शुद्धिश्चासनं च पञ्चांगस्यापि सेवनम्। आचार धारणे दिव्यदेशसेवनमित्यपि॥ | | भक्ति शुद्धिश्चासनं च पञ्चांगस्यापि सेवनम्। आचार धारणे दिव्यदेशसेवनमित्यपि॥ |