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सुधार जारि
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===गीतम् ॥ Geeta===
 
===गीतम् ॥ Geeta===
संस्कृत  वाङ्ममय में ' गीत, वाद्य, तथा नृत्य इन तीनों की त्रयी को संगीत कहा गया है।<blockquote>गीतं वाद्यं तथा नृत्तं त्रयं संगीतमुच्यते।(संगीत रत्नाकर१/२१)</blockquote>संगीत में वाद्य गीत का अनुगामी है और नृत्य वाद्य का। अतः गीत ही प्रधान एवं प्रथम है।<blockquote>नृत्यं वाद्यानुगं प्रोक्तं वाद्यं गीतानुवर्ति च। अतो गीतं प्रधानत्वादत्रादावभिधीयते॥ (संगीत रत्नाकर १/२५)</blockquote>गीत नादब्रह्म की साधना है, फलतः पुरुषार्थ चतुष्टय की साधक है-<blockquote>धर्मार्थकाममोक्षाणामिदमेवैकसाधनम् ।(संगीत रत्नाकर १/३०)</blockquote>आचार्य शार्गदेवके अनुसार मनोरंजक स्वरसमुदाय की संज्ञा गीत है-<blockquote>रञ्जकः स्वरसन्दर्भो गीतमित्यभिधीयते।((संगीत रत्नाकर ४/१)</blockquote>संगीतकला के उद्भावक ब्रह्मा अथवा आदिदेव भगवान् शिव हैं। उनके पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और आकाशोन्मुख इन पाँच मुखों से क्रमशः भैरव, हिण्डोल, मेघ, दीपक और श्रीराग उद्भूत हुये हैं। नन्दिकेश्वर, नारद, स्वाति, भरत, तुम्बरु आदि संगीत के आद्य आचार्य हैं। गायन कला का स्रोत वेदों में सामवेद और उपवेदों में गान्धर्ववेद है। बृहदारण्यक उपनिषद् में <nowiki>'''</nowiki>साम<nowiki>''</nowiki> शब्द की अत्यन्त सुन्दर निरुक्ति है-<blockquote>सा च अमश्चेति तत्साम्नः सामत्वम् ॥</blockquote>'सा' का अर्थ है- 'ऋक्' और 'अम्' का अर्थ है-गान्धार आदि स्वर ऋक् से सम्बद्ध स्वरबद्ध गायन ही साम है।ऋग्वेद में भी सामगान का बहुशः उल्लेख हुआ है।
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संस्कृत  वाङ्ममय में ' गीत, वाद्य, तथा नृत्य इन तीनों की त्रयी को संगीत कहा गया है।<blockquote>गीतं वाद्यं तथा नृत्तं त्रयं संगीतमुच्यते।(संगी०रत्ना० १/२१)<ref>पण्डित सुब्रह्मण्यशास्त्रिण, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.553647/page/n18/mode/1up?view=theater संगीत रत्नाकर], अध्याय१, श्लोक २५),अडयार् -पुस्तकालय,१९४० (पृ० १३)।</ref></blockquote>संगीत में वाद्य गीत का अनुगामी है और नृत्य वाद्य का। अतः गीत ही प्रधान एवं प्रथम है।<blockquote>नृत्यं वाद्यानुगं प्रोक्तं वाद्यं गीतानुवर्ति च। अतो गीतं प्रधानत्वादत्रादावभिधीयते॥(संगी०रत्ना० १/२५)<ref>पण्डित सुब्रह्मण्यशास्त्रिण, संगीत रत्नाकर, अध्याय१, श्लोक २५),अडयार् -पुस्तकालय,१९४० (पृ० १५)।</ref></blockquote>गीत नादब्रह्म की साधना है, फलतः पुरुषार्थ चतुष्टय की साधक है-<blockquote>धर्मार्थकाममोक्षाणामिदमेवैकसाधनम् ।(संगीत रत्नाकर १/३०)</blockquote>आचार्य शार्गदेवके अनुसार मनोरंजक स्वरसमुदाय की संज्ञा गीत है-<blockquote>रञ्जकः स्वरसन्दर्भो गीतमित्यभिधीयते।((संगीत रत्नाकर ४/१)</blockquote>संगीतकला के उद्भावक ब्रह्मा अथवा आदिदेव भगवान् शिव हैं।
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मयैव पंचभिर्वक्त्रैः सृष्टाः पूर्वकुतूहलात् ।(औमापतम्)
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उनके पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और आकाशोन्मुख इन पाँच मुखों से क्रमशः भैरव, हिण्डोल, मेघ, दीपक और श्रीराग उद्भूत हुये हैं। नन्दिकेश्वर, नारद, स्वाति, भरत, तुम्बरु आदि संगीत के आद्य आचार्य हैं। गायन कला का स्रोत वेदों में सामवेद और उपवेदों में गान्धर्ववेद है। बृहदारण्यक उपनिषद् में साम शब्द की अत्यन्त सुन्दर निरुक्ति है-<blockquote>सा च अमश्चेति तत्साम्नः सामत्वम् ॥ (बृहदारण्यक उपनिषद् १/३/२२)</blockquote>सा का अर्थ है- ऋक् और अम् का अर्थ है- गान्धार आदि स्वर ऋक् से सम्बद्ध स्वरबद्ध गायन ही साम है। ऋग्वेद में भी सामगान का बहुशः उल्लेख हुआ है।( ऋग्वेद १/१०७/२)
    
सामगान के चार प्रकार हैं
 
सामगान के चार प्रकार हैं
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#ऊहगान
 
#ऊहगान
 
#ऊह्यगान
 
#ऊह्यगान
नारदीय शिक्षा के अनुसार साम के स्वरमण्डल में-७ स्वर, ३ग्राम, २१ मूर्च्छ्नायें तथा ४९ तान हैं।
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नारदीय शिक्षा के अनुसार साम के स्वरमण्डल में-७ स्वर, ३ग्राम, २१ मूर्च्छ्नायें तथा ४९ तान हैं। <ref>भट्टशोभाकर, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.424433/page/n25/mode/1up?view=theater नारदीय शिक्षा], दतिया-श्रीपीताम्बरापीठ-संस्कृत-परिषद् द्वितीय काण्ड श्लोक २-७ (पृ०७)।</ref>
    
गीत कला के दो भेद हैं- गान्धर्व और गान।
 
गीत कला के दो भेद हैं- गान्धर्व और गान।
#गान्धर्व-सनातनकाल से प्रचलित, गन्धर्वों द्वारा प्रयुक्त, श्रेयस् का हेतु गीत सम्प्रदन्य <nowiki>''</nowiki>गान्धर्व" कहा जाता है। इसे ही भरतादि आचार्यों द्वारा प्रयुक्त मार्ग संगीत कहते हैं। भगवान् विरिञ्चि द्वारा इसका मार्गण या खोज होने के कारण इसे मार्ग कहा गया है।
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#गान्धर्व-सनातनकाल से प्रचलित, गन्धर्वों द्वारा प्रयुक्त, श्रेयस् का हेतु गीत सम्प्रदन्य गान्धर्व कहा जाता है। इसे ही भरतादि आचार्यों द्वारा प्रयुक्त मार्ग संगीत कहते हैं। भगवान् विरिञ्चि द्वारा इसका मार्गण या खोज होने के कारण इसे मार्ग कहा गया है।
 
#गान - लोकगायकों द्वारा रचित देशी रागादि से युक्त लोकरंजक गीत गान कहा जाता है। इसी की संज्ञा देशी गीत है।
 
#गान - लोकगायकों द्वारा रचित देशी रागादि से युक्त लोकरंजक गीत गान कहा जाता है। इसी की संज्ञा देशी गीत है।
 
===वाद्यम् ॥ Vadya===
 
===वाद्यम् ॥ Vadya===
 
कामसूत्र की 64 कलाओं में द्वितीय कला है वाद्यम् अर्थात् वादन-कला। गीत, नृत्य और नाट्य की पूर्णता वाद्य से मानी गई है। अतः संगीत के अन्तर्गत वाद्य का विशेष महत्त्व है।
 
कामसूत्र की 64 कलाओं में द्वितीय कला है वाद्यम् अर्थात् वादन-कला। गीत, नृत्य और नाट्य की पूर्णता वाद्य से मानी गई है। अतः संगीत के अन्तर्गत वाद्य का विशेष महत्त्व है।
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संगीत के स्वरों की उत्पत्ति सर्वप्रथम मानव की शरीररूपी वीणा पर हुई, तत्पश्चात् दारवी (लकड़ी की) वीणा पर। तदन्तर ये स्वर पुष्कर एवं घन वाद्यों में संक्रान्त हुये हैं। नारदीयशिक्षा के अनुसार वाद्य पाँच प्रकार के हैं। प्रथम ईश्वरनिर्मित मानव कण्ठ नैसर्गिक वाद्य है, अन्य चार मनुष्यनिर्मित हैं। मानवनिर्मित वाद्य चार प्रकार के हैं -<blockquote>ततं चैवावनद्धं च घनं सुषिरमेव च । चतुर्विधं तु विज्ञेयमातोद्यं लक्षणान्वितम् ॥</blockquote>(1) तत (2) अवनद्ध (3) घन तथा (4) सुषिर वाद्य। वीणा आदि तन्त्री - वाद्य तत वाद्य कहे जाते हैं। मृदङ्ग, मर्दल, दुन्दुभि आदि पुष्करवाद्य अवनद्ध (चमड़े की डोरियों से बँधे हुये) वाद्य हैं। ताल, घण्टा, मंजीरा आदि की संज्ञा घनवाद्य है। वंशी, तूर्य, शंख, शृड्ग आदि सुषिर (छिद्रयुक्त) वाद्य हैं।
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संगीत के स्वरों की उत्पत्ति सर्वप्रथम मानव की शरीररूपी वीणा पर हुई, तत्पश्चात् दारवी (लकड़ी की) वीणा पर। तदन्तर ये स्वर पुष्कर एवं घन वाद्यों में संक्रान्त हुये हैं। नारदीयशिक्षा के अनुसार वाद्य पाँच प्रकार के हैं। प्रथम ईश्वरनिर्मित मानव कण्ठ नैसर्गिक वाद्य है, अन्य चार मनुष्यनिर्मित हैं। मानवनिर्मित वाद्य चार प्रकार के हैं -<blockquote>ततं चैवावनद्धं च घनं सुषिरमेव च । चतुर्विधं तु विज्ञेयमातोद्यं लक्षणान्वितम् ॥<ref>भरतमुनि, [https://sanskritdocuments.org/doc_z_misc_major_works/natya28.html नाट्यशास्त्रं], अध्याय २८,श्लोक १।</ref></blockquote>(1) तत (2) अवनद्ध (3) घन तथा (4) सुषिर वाद्य। वीणा आदि तन्त्री - वाद्य तत वाद्य कहे जाते हैं। मृदङ्ग, मर्दल, दुन्दुभि आदि पुष्करवाद्य अवनद्ध (चमड़े की डोरियों से बँधे हुये) वाद्य हैं। ताल, घण्टा, मंजीरा आदि की संज्ञा घनवाद्य है। वंशी, तूर्य, शंख, शृड्ग आदि सुषिर (छिद्रयुक्त) वाद्य हैं।<ref>भरतमुनि, नाट्यशास्त्रं, अध्याय २८,श्लोक २।</ref>
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इन चतुर्विध वाद्यों की उत्पत्ति, प्रकार, वाद्यवादनपद्धति, उत्तम वादक के गुण, वाद्यवादन के अवसर एवं फल का वर्णन भरत के नाट्यशास्त्र में विस्तार से हुआ है।<ref>भरतमुनि, नाट्यशास्त्रं, अध्याय २८,श्लोक ३३।</ref> वादनकला के सन्दर्भ ऋग्वेद से ही प्राप्त होने लगते हैं।
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वाणस्य सप्तधातुः।<ref>ऋग्वेद- १०, ३२, ०४।</ref>
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इन चतुर्विध वाद्यों की उत्पत्ति, प्रकार, वाद्यवादनपद्धति, उत्तम वादक के गुण, वाद्यवादन के अवसर एवं फल का वर्णन भरत के नाट्यशास्त्र में विस्तार से हुआ है। वादनकला के सन्दर्भ ऋग्वेद से ही प्राप्त होने लगते हैं। यहाँ वीणा के लिये 'वाण' शब्द का प्रयोग हुआ है। हिरण्यकेशी सूक्त में 'आघाटी' शब्द का प्रयोग वाद्यवृन्द के लिये हुआ है।
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यहाँ वीणा के लिये वाण शब्द का प्रयोग हुआ है। हिरण्यकेशी सूक्त में आघाटी शब्द का प्रयोग वाद्यवृन्द के लिये हुआ है।
    
रामायण के साथ किया लव-कुश तन्त्री-लय द्वारा रामकथा का गायन गया है उत्सव, पुत्रजन्म, विवाह, नृप-मंगल (राज्याभिषेक, दिग्विजय), नाट्यप्रयोग आदि वाद्यकला के प्रयोग के अवसर हैं। ऋतु के अनुकूल वाद्ययोजना भी भारत का वैशिष्ट्य है। वर्षा में घनगर्जन के समान गम्भीर मृदङ्ग की थाप तो ग्रीष्म में शीतल वंशी की सुरीली तान, सब कुछ प्रकृति के छन्द मिलाते हुये हैं।
 
रामायण के साथ किया लव-कुश तन्त्री-लय द्वारा रामकथा का गायन गया है उत्सव, पुत्रजन्म, विवाह, नृप-मंगल (राज्याभिषेक, दिग्विजय), नाट्यप्रयोग आदि वाद्यकला के प्रयोग के अवसर हैं। ऋतु के अनुकूल वाद्ययोजना भी भारत का वैशिष्ट्य है। वर्षा में घनगर्जन के समान गम्भीर मृदङ्ग की थाप तो ग्रीष्म में शीतल वंशी की सुरीली तान, सब कुछ प्रकृति के छन्द मिलाते हुये हैं।
 
===नृत्यम् ॥ Nrtya===
 
===नृत्यम् ॥ Nrtya===
नृत्यम् मानव की अन्तश्चेतना में निहित आनन्दोपासना की चिरन्तन प्रवृत्ति नृत्यकला को जन्म देती है। ‘नृत्य' संगीत का अंग भी है और एक स्वतन्त्र कला भी। सृष्टि का प्रारम्भ इस ‘नर्तन’ से ही हुआ है।<blockquote>अत्रा वो नृत्यतामिव तीव्रो रेणुरपातयत।</blockquote>सुसंरब्ध, निष्पन्द अवस्था में विद्यमान सृष्टि के उपादानों में स्पन्दन एवं तीव्र विक्षोभ ही सृष्टि का आरम्भ है अतः नर्तन मूल प्रवृत्ति के रूप में प्राणिजगत् में सर्वत्र देखा जाता है। '‘हम दीर्घजीवी होकर नृत्य और आनन्द के लिये अभ्युदय की ओर अग्रसर हों<nowiki>''</nowiki> यह कामना विश्व के प्रथम ग्रंथ ऋग्वेद में सुस्पष्ट है। ‘नृत्य’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘नृत्' धातु से हुई है, जिसका अर्थ है नर्तन या अङ्गविक्षेप। यह नर्तन दो प्रकार से हो सकता है-
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नृत्यम् मानव की अन्तश्चेतना में निहित आनन्दोपासना की चिरन्तन प्रवृत्ति नृत्यकला को जन्म देती है। नृत्य संगीत का अंग भी है और एक स्वतन्त्र कला भी। सृष्टि का प्रारम्भ इस नर्तन से ही हुआ है।<blockquote>अत्रा वो नृत्यतामिव तीव्रो रेणुरपातयत।</blockquote>सुसंरब्ध, निष्पन्द अवस्था में विद्यमान सृष्टि के उपादानों में स्पन्दन एवं तीव्र विक्षोभ ही सृष्टि का आरम्भ है अतः नर्तन मूल प्रवृत्ति के रूप में प्राणिजगत् में सर्वत्र देखा जाता है। '‘हम दीर्घजीवी होकर नृत्य और आनन्द के लिये अभ्युदय की ओर अग्रसर हों<nowiki>''</nowiki> यह कामना विश्व के प्रथम ग्रंथ ऋग्वेद में सुस्पष्ट है। नृत्य शब्द की व्युत्पत्ति नृत् धातु से हुई है, जिसका अर्थ है नर्तन या अङ्गविक्षेप। यह नर्तन दो प्रकार से हो सकता है-
 
#केवल ताल और लय के आधार पर नर्तन, इसे ही नृत्त, देशी अथवा लोकनृत्य कहा जाता है।
 
#केवल ताल और लय के आधार पर नर्तन, इसे ही नृत्त, देशी अथवा लोकनृत्य कहा जाता है।
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चरण-राग के लिये लाक्षारस या अलक्तक का प्रयोग होता था। इसका सर्वाधिक मनोरम वर्णन मालविकाग्निमित्र में हुआ है। नैसर्गिक रूप से अरुण चरणों पर अलक्तक की मसृण शोभा वैसी ही होती थी जैसी कमलकोश पर बाल-अरुण की कोमल धूप वस्तुतः 'दशन-वसन-अंगरागाः' वस्त्रों के साथ ही शरीर के विभिन्न अंगों की उज्ज्वल रंग से रंगने एवं उसके माध्यम से जीवन में रागसृष्टि की कला थी।
 
चरण-राग के लिये लाक्षारस या अलक्तक का प्रयोग होता था। इसका सर्वाधिक मनोरम वर्णन मालविकाग्निमित्र में हुआ है। नैसर्गिक रूप से अरुण चरणों पर अलक्तक की मसृण शोभा वैसी ही होती थी जैसी कमलकोश पर बाल-अरुण की कोमल धूप वस्तुतः 'दशन-वसन-अंगरागाः' वस्त्रों के साथ ही शरीर के विभिन्न अंगों की उज्ज्वल रंग से रंगने एवं उसके माध्यम से जीवन में रागसृष्टि की कला थी।
===मणिभूमिकाकर्म॥===
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===मणिभूमिकाकर्म॥ Manibhumika karma===
 
अपने भासुर वर्ण और स्थायी चमक के कारण मणियाँ प्राचीन काल से ही मानव को लुब्ध करती रही हैं। अंधकार में भी आलोक बिखेरने वाली दमकती हुई मणियों को आभूषणों में तो गूँथा गया ही है, राजभवनों और प्रासादों के भूमिनिर्माण के कार्य में भी इनका उपयोग हुआ है। प्राचीन भारत में बहुवर्णी मणियों से कलात्मक डिज़ाइनों में भवन के फर्श की रचना एक शिल्प या कला के रूप में मान्य रही है जिसे वात्स्यायन ने मणि-भूमिका कर्म कहा है। संस्कृत साहित्य में राज-प्रासादों के वर्णनप्रसंग में `मणि-भूमि या मणि-कुट्टिम का बहुलता से वर्णन हुआ है।
 
अपने भासुर वर्ण और स्थायी चमक के कारण मणियाँ प्राचीन काल से ही मानव को लुब्ध करती रही हैं। अंधकार में भी आलोक बिखेरने वाली दमकती हुई मणियों को आभूषणों में तो गूँथा गया ही है, राजभवनों और प्रासादों के भूमिनिर्माण के कार्य में भी इनका उपयोग हुआ है। प्राचीन भारत में बहुवर्णी मणियों से कलात्मक डिज़ाइनों में भवन के फर्श की रचना एक शिल्प या कला के रूप में मान्य रही है जिसे वात्स्यायन ने मणि-भूमिका कर्म कहा है। संस्कृत साहित्य में राज-प्रासादों के वर्णनप्रसंग में `मणि-भूमि या मणि-कुट्टिम का बहुलता से वर्णन हुआ है।
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ऋग्वेद में अश्विनीकुमारों को 'पुष्करसृज' कमलपुष्पों की माला धारण करने वाला कहा गया है। रामायण में कमलों की माला को धारण करती हुई वनवासिनी सीता की उपमा पद्मिनी से दी गई है।
 
ऋग्वेद में अश्विनीकुमारों को 'पुष्करसृज' कमलपुष्पों की माला धारण करने वाला कहा गया है। रामायण में कमलों की माला को धारण करती हुई वनवासिनी सीता की उपमा पद्मिनी से दी गई है।
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संस्कृत साहित्य में नाना प्रकार की मालाओं का वर्णन हुआ है-कदम्ब, नवकेसर और केतकी की सिर पर धारण की जाने वाली मालायें, बकुलमाला, वेणीस्रक्, वनमाला, वक्षःस्थल को सुशोभित करने वाले पुष्पहार, कण्ठ से वक्षःस्थल तक लटकती हुई 'प्रालम्ब' मालायें, कण्ठमालिका, आजानुलम्बी वैकक्षक (बाँये कन्धे से दाहिनी ओर एवं दाहिने कंधे से बाँई ओर जाती हुई मध्य में स्वस्तिकाकार) मालायें, पैरों का स्पर्श करती हुई आप्रपदीन माला, कौतुकमालिका, वन्दनमाला आदि ।
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संस्कृत साहित्य में नाना प्रकार की मालाओं का वर्णन हुआ है-कदम्ब, नवकेसर और केतकी की सिर पर धारण की जाने वाली मालायें, बकुलमाला, वेणीस्रक्, वनमाला, वक्षःस्थल को सुशोभित करने वाले पुष्पहार, कण्ठ से वक्षःस्थल तक लटकती हुई प्रालम्ब मालायें, कण्ठमालिका, आजानुलम्बी वैकक्षक (बाँये कन्धे से दाहिनी ओर एवं दाहिने कंधे से बाँई ओर जाती हुई मध्य में स्वस्तिकाकार) मालायें, पैरों का स्पर्श करती हुई आप्रपदीन माला, कौतुकमालिका, वन्दनमाला आदि ।
    
इसी प्रकार केसरदामकांची, विलासमेखला, शिरीषकुसुमस्तबक-कर्णपूर आदि पुष्पाभरणों का सौन्दर्य भी देखा जा सकता है।
 
इसी प्रकार केसरदामकांची, विलासमेखला, शिरीषकुसुमस्तबक-कर्णपूर आदि पुष्पाभरणों का सौन्दर्य भी देखा जा सकता है।
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===प्रहेलिका ॥ Prahelika एवं प्रतिमाला ॥ Pratima===
 
===प्रहेलिका ॥ Prahelika एवं प्रतिमाला ॥ Pratima===
 
प्रहेलिका अर्थात् पहेली बूझना और प्रतिमाला अर्थात् अन्त्याक्षरी, दोनों ही लोक प्रसिद्ध मनोविनोदात्मक क्रीडायें हैं। ऋग्वेद के सृष्टिविषयक दार्शनिक प्रश्नों को प्रहेलिका के माध्यम से भी प्रस्तुत किया गया है जिसे विभिन्न भाष्यकारों ने अपनी-अपनी दृष्टि से बूझा है। दण्डी ने क्रीडागोष्ठियों, गुप्तभाषण, परिहास आदि के लिये प्रहेलिका को उपयोगी माना है।<blockquote>क्रीडागोष्ठीविनोदेषु तज्ज्ञैराकीर्णमन्त्रणे । परव्यामोहने चापि सोपयोगाः प्रहेलिकाः॥</blockquote>समागता, वंचिता, परुषा, संख्याता आदि इसके भेद-प्रभेद हैं। कादम्बरी में महाराज शूद्रक को अक्षरच्युतक, मात्राच्युतक, बिन्दुमती प्रहेलिका आदि काव्यक्रीडाओं से मनोरंजन करते हुये वर्णित किया गया है।
 
प्रहेलिका अर्थात् पहेली बूझना और प्रतिमाला अर्थात् अन्त्याक्षरी, दोनों ही लोक प्रसिद्ध मनोविनोदात्मक क्रीडायें हैं। ऋग्वेद के सृष्टिविषयक दार्शनिक प्रश्नों को प्रहेलिका के माध्यम से भी प्रस्तुत किया गया है जिसे विभिन्न भाष्यकारों ने अपनी-अपनी दृष्टि से बूझा है। दण्डी ने क्रीडागोष्ठियों, गुप्तभाषण, परिहास आदि के लिये प्रहेलिका को उपयोगी माना है।<blockquote>क्रीडागोष्ठीविनोदेषु तज्ज्ञैराकीर्णमन्त्रणे । परव्यामोहने चापि सोपयोगाः प्रहेलिकाः॥</blockquote>समागता, वंचिता, परुषा, संख्याता आदि इसके भेद-प्रभेद हैं। कादम्बरी में महाराज शूद्रक को अक्षरच्युतक, मात्राच्युतक, बिन्दुमती प्रहेलिका आदि काव्यक्रीडाओं से मनोरंजन करते हुये वर्णित किया गया है।
===दुर्वचकयोगाः ॥ Durvachaka yog===
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===दुर्वाचकयोगाः ॥ Durvachaka yog===
 
ऐसी पदावली जिसका उच्चारण और अर्थबोध दोनों ही कठिन हो, का प्रयोग एवं अर्थबोध भी एक कला है। इसका प्रयोजन भी मनोरंजन और प्रतिस्पर्धा है। आनन्द की भी सृष्टि करती थी। इस प्रकार के कवि कवित्वशक्ति के क्षीण होने पर भी विदग्धगोष्ठियों में बिहार के योग्य हो जाते हैं-
 
ऐसी पदावली जिसका उच्चारण और अर्थबोध दोनों ही कठिन हो, का प्रयोग एवं अर्थबोध भी एक कला है। इसका प्रयोजन भी मनोरंजन और प्रतिस्पर्धा है। आनन्द की भी सृष्टि करती थी। इस प्रकार के कवि कवित्वशक्ति के क्षीण होने पर भी विदग्धगोष्ठियों में बिहार के योग्य हो जाते हैं-
===कृशे कवित्वेऽपि जनाः कृतश्रमाः विदग्धगोष्ठीषु विहर्तुमीशते।।===
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कृशे कवित्वेऽपि जनाः कृतश्रमाः विदग्धगोष्ठीषु विहर्तुमीशते।।
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===पुस्तकवाचनम् ॥ Pustaka vachana===
 
===पुस्तकवाचनम् ॥ Pustaka vachana===
वाक्सौन्दर्य पर आश्रित वाचिक कलाओं में से एक है- पुस्तकवाचन अर्थात् पुस्तक बाँचने की कला। ज्ञान-विज्ञान, धर्म-दर्शन, कला और शिल्प की महनीय विरासत को एक पीढ़ी से एक दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाती हुई पुस्तकें हजारों वर्षों से ज्ञानवर्धन और आत्मिक आनन्द का स्रोत रही हैं। प्राचीन भारत में और आज भी रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत, पुराण आदि के वाचन की लोकानुरंजिनी परम्परा रही है। इस कला में विशेष रूप से निपुण पुस्तक वाचक या कथा वाचक होते थे। बाणभट्ट की मित्रमण्डली में पुस्तकवाचक ‘सुदृष्टि’ भी था जो सरस्वती की नूपुर ध्वनि के समान, गमक नामक मधुर स्वर में, श्रोताओं को आकर्षित करता हुआ पुराण वाचन करता था । सरस गीतों के साथ वंशी आदि वाद्यों की संगत इस कलाप्रस्तुति को अत्यंत मनोरम और श्रुतिसुभग बना देती थी । वस्तुतः वाचन-कौशल द्वारा श्रव्य से ही दृश्य का भी आनन्द देने की कला है-पुस्तकवाचन कला ।
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वाक्सौन्दर्य पर आश्रित वाचिक कलाओं में से एक है- पुस्तकवाचन अर्थात् पुस्तक बाँचने की कला। ज्ञान-विज्ञान, धर्म-दर्शन, कला और शिल्प की महनीय विरासत को एक पीढ़ी से एक दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाती हुई पुस्तकें हजारों वर्षों से ज्ञानवर्धन और आत्मिक आनन्द का स्रोत रही हैं। प्राचीन भारत में और आज भी रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत, पुराण आदि के वाचन की लोकानुरंजिनी परम्परा रही है। इस कला में विशेष रूप से निपुण पुस्तक वाचक या कथा वाचक होते थे। बाणभट्ट की मित्रमण्डली में पुस्तकवाचक सुदृष्टि भी था जो सरस्वती की नूपुर ध्वनि के समान, गमक नामक मधुर स्वर में, श्रोताओं को आकर्षित करता हुआ पुराण वाचन करता था । सरस गीतों के साथ वंशी आदि वाद्यों की संगत इस कलाप्रस्तुति को अत्यंत मनोरम और श्रुतिसुभग बना देती थी । वस्तुतः वाचन-कौशल द्वारा श्रव्य से ही दृश्य का भी आनन्द देने की कला है-पुस्तकवाचन कला।
 
===नाटिकाख्यायिकादर्शनम्  ॥ Natika Akhyayika darshana===
 
===नाटिकाख्यायिकादर्शनम्  ॥ Natika Akhyayika darshana===
 
जनमानस का समाराधन करने वाली कलाओं में से एक कला है- नाटक-आख्यायिका दर्शन। दर्शन शब्द यहाँ केवल प्रत्यक्ष दर्शन या अवलोकन का पर्याय नहीं अपितु चिन्तन-दृष्टि, समझ और परिज्ञान का भी वाचक है। अतः इस कला का अर्थ हुआ नाटक और आख्यायिका को देखने-परखने और रस-आस्वादन की कला ।
 
जनमानस का समाराधन करने वाली कलाओं में से एक कला है- नाटक-आख्यायिका दर्शन। दर्शन शब्द यहाँ केवल प्रत्यक्ष दर्शन या अवलोकन का पर्याय नहीं अपितु चिन्तन-दृष्टि, समझ और परिज्ञान का भी वाचक है। अतः इस कला का अर्थ हुआ नाटक और आख्यायिका को देखने-परखने और रस-आस्वादन की कला ।
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नाटक और आख्यायिका काव्यशास्त्र के पारिभाषिक शब्द हैं। नाट्य को दृश्य होने के कारण रूप कहा जाता है। संस्कृत वाङ्मय में इतिहासपुरुषों के जीवन को आख्यायिकाओं के माध्यम से संगृहीत किया गया है। आख्यानों के अभिनेय प्रसंगों का नटों द्वारा अभिनय भी किया जाता था। कृष्णलीला, हर-लीला, मदन-लीला आदि का भी अभिनय होता था। इस प्रकार यह कला कविहृदय के साथ संवाद स्थापित करने की और साहित्य के शिव तत्त्व से जीवन को मंगलमय बनाने की कला है ।
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नाटक और आख्यायिका काव्यशास्त्र के पारिभाषिक शब्द हैं। नाट्य को दृश्य होने के कारण रूप कहा जाता है। संस्कृत वाङ्मय में इतिहासपुरुषों के जीवन को आख्यायिकाओं के माध्यम से संगृहीत किया गया है। आख्यानों के अभिनेय प्रसंगों का नटों द्वारा अभिनय भी किया जाता था। कृष्णलीला, हर-लीला, मदन-लीला आदि का भी अभिनय होता था। इस प्रकार यह कला कविहृदय के साथ संवाद स्थापित करने की और साहित्य के शिव तत्त्व से जीवन को मंगलमय बनाने की कला है।
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