Introduction to Bharatiya Kalas - Part 1 (कलाओं का संक्षिप्त परिचय)

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गीतम् ॥ Geeta

संस्कृत वाङ्ममय में ' गीत, वाद्य, तथा नृत्य इन तीनों की त्रयी को संगीत कहा गया है।

गीतं वाद्यं तथा नृत्तं त्रयं संगीतमुच्यते।(संगी०रत्ना० १/२१)[1]

संगीत में वाद्य गीत का अनुगामी है और नृत्य वाद्य का। अतः गीत ही प्रधान एवं प्रथम है।

नृत्यं वाद्यानुगं प्रोक्तं वाद्यं गीतानुवर्ति च। अतो गीतं प्रधानत्वादत्रादावभिधीयते॥(संगी०रत्ना० १/२५)[2]

गीत नादब्रह्म की साधना है, फलतः पुरुषार्थ चतुष्टय की साधक है-

धर्मार्थकाममोक्षाणामिदमेवैकसाधनम् ।(संगीत रत्नाकर १/३०)

आचार्य शार्गदेवके अनुसार मनोरंजक स्वरसमुदाय की संज्ञा गीत है-

रञ्जकः स्वरसन्दर्भो गीतमित्यभिधीयते।((संगीत रत्नाकर ४/१)

संगीतकला के उद्भावक ब्रह्मा अथवा आदिदेव भगवान् शिव हैं।

मयैव पंचभिर्वक्त्रैः सृष्टाः पूर्वकुतूहलात् ।(औमापतम्)

उनके पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और आकाशोन्मुख इन पाँच मुखों से क्रमशः भैरव, हिण्डोल, मेघ, दीपक और श्रीराग उद्भूत हुये हैं। नन्दिकेश्वर, नारद, स्वाति, भरत, तुम्बरु आदि संगीत के आद्य आचार्य हैं। गायन कला का स्रोत वेदों में सामवेद और उपवेदों में गान्धर्ववेद है। बृहदारण्यक उपनिषद् में साम शब्द की अत्यन्त सुन्दर निरुक्ति है-

सा च अमश्चेति तत्साम्नः सामत्वम् ॥ (बृहदारण्यक उपनिषद् १/३/२२)

सा का अर्थ है- ऋक् और अम् का अर्थ है- गान्धार आदि स्वर ऋक् से सम्बद्ध स्वरबद्ध गायन ही साम है। ऋग्वेद में भी सामगान का बहुशः उल्लेख हुआ है।( ऋग्वेद १/१०७/२)

सामगान के चार प्रकार हैं

  1. वेयगान या (ग्राम) गेय गान
  2. आरण्य गान
  3. ऊहगान
  4. ऊह्यगान

नारदीय शिक्षा के अनुसार साम के स्वरमण्डल में-७ स्वर, ३ग्राम, २१ मूर्च्छ्नायें तथा ४९ तान हैं। [3]

गीत कला के दो भेद हैं- गान्धर्व और गान।

  1. गान्धर्व-सनातनकाल से प्रचलित, गन्धर्वों द्वारा प्रयुक्त, श्रेयस् का हेतु गीत सम्प्रदन्य गान्धर्व कहा जाता है। इसे ही भरतादि आचार्यों द्वारा प्रयुक्त मार्ग संगीत कहते हैं। भगवान् विरिञ्चि द्वारा इसका मार्गण या खोज होने के कारण इसे मार्ग कहा गया है।
  2. गान - लोकगायकों द्वारा रचित देशी रागादि से युक्त लोकरंजक गीत गान कहा जाता है। इसी की संज्ञा देशी गीत है।

संगीत कला एवं गान्धर्ववेद॥ Sangit kala And gandharva veda

सामवेद तथा गान्धर्ववेद की शास्त्रीय परम्परा की संगीत कला के साथ अविच्छिन्न सम्बन्ध भारतीय संस्कृति में निरन्तर अनुस्यूत है क्योंकि भारतीय मनीषा अपने पारम्परिक ज्ञान का स्रोत वेद को ही स्वीकार करती है। भारतीय परम्परा में सामवेद का आधिदैविक स्वरूप हयवदनात्मक है। इनके वामहस्त में शोभित शंख प्राणवायु से उद्भूत ध्वनिमाधुर्य का तथा दाहिने हाथ में धृत माला हस्तादि-अंगोद्गत ध्वनिलहरी का उपलक्षक है। ये दो ही विधायें समग्र संगीत कला में व्याप्त रहती हैं।

वाद्यम् ॥ Vadya

कामसूत्र की 64 कलाओं में द्वितीय कला है वाद्यम् अर्थात् वादन-कला। गीत, नृत्य और नाट्य की पूर्णता वाद्य से मानी गई है। अतः संगीत के अन्तर्गत वाद्य का विशेष महत्त्व है।

संगीत के स्वरों की उत्पत्ति सर्वप्रथम मानव की शरीररूपी वीणा पर हुई, तत्पश्चात् दारवी (लकड़ी की) वीणा पर। तदन्तर ये स्वर पुष्कर एवं घन वाद्यों में संक्रान्त हुये हैं। नारदीयशिक्षा के अनुसार वाद्य पाँच प्रकार के हैं। प्रथम ईश्वरनिर्मित मानव कण्ठ नैसर्गिक वाद्य है, अन्य चार मनुष्यनिर्मित हैं। मानवनिर्मित वाद्य चार प्रकार के हैं -

ततं चैवावनद्धं च घनं सुषिरमेव च । चतुर्विधं तु विज्ञेयमातोद्यं लक्षणान्वितम् ॥[4]

(1) तत (2) अवनद्ध (3) घन तथा (4) सुषिर वाद्य। वीणा आदि तन्त्री - वाद्य तत वाद्य कहे जाते हैं। मृदङ्ग, मर्दल, दुन्दुभि आदि पुष्करवाद्य अवनद्ध (चमड़े की डोरियों से बँधे हुये) वाद्य हैं। ताल, घण्टा, मंजीरा आदि की संज्ञा घनवाद्य है। वंशी, तूर्य, शंख, शृड्ग आदि सुषिर (छिद्रयुक्त) वाद्य हैं।[5]

इन चतुर्विध वाद्यों की उत्पत्ति, प्रकार, वाद्यवादनपद्धति, उत्तम वादक के गुण, वाद्यवादन के अवसर एवं फल का वर्णन भरत के नाट्यशास्त्र में विस्तार से हुआ है।[6] वादनकला के सन्दर्भ ऋग्वेद से ही प्राप्त होने लगते हैं।

वाणस्य सप्तधातुः।[7]

यहाँ वीणा के लिये वाण शब्द का प्रयोग हुआ है। हिरण्यकेशी सूक्त में आघाटी शब्द का प्रयोग वाद्यवृन्द के लिये हुआ है।

रामायण के साथ किया लव-कुश तन्त्री-लय द्वारा रामकथा का गायन गया है उत्सव, पुत्रजन्म, विवाह, नृप-मंगल (राज्याभिषेक, दिग्विजय), नाट्यप्रयोग आदि वाद्यकला के प्रयोग के अवसर हैं। ऋतु के अनुकूल वाद्ययोजना भी भारत का वैशिष्ट्य है। वर्षा में घनगर्जन के समान गम्भीर मृदङ्ग की थाप तो ग्रीष्म में शीतल वंशी की सुरीली तान, सब कुछ प्रकृति के छन्द मिलाते हुये हैं।

नृत्यम् ॥ Nrtya

नृत्यम् मानव की अन्तश्चेतना में निहित आनन्दोपासना की चिरन्तन प्रवृत्ति नृत्यकला को जन्म देती है। नृत्य संगीत का अंग भी है और एक स्वतन्त्र कला भी। सृष्टि का प्रारम्भ इस नर्तन से ही हुआ है।

अत्रा वो नृत्यतामिव तीव्रो रेणुरपातयत।

सुसंरब्ध, निष्पन्द अवस्था में विद्यमान सृष्टि के उपादानों में स्पन्दन एवं तीव्र विक्षोभ ही सृष्टि का आरम्भ है अतः नर्तन मूल प्रवृत्ति के रूप में प्राणिजगत् में सर्वत्र देखा जाता है। '‘हम दीर्घजीवी होकर नृत्य और आनन्द के लिये अभ्युदय की ओर अग्रसर हों'' यह कामना विश्व के प्रथम ग्रंथ ऋग्वेद में सुस्पष्ट है। नृत्य शब्द की व्युत्पत्ति नृत् धातु से हुई है, जिसका अर्थ है नर्तन या अङ्गविक्षेप। यह नर्तन दो प्रकार से हो सकता है-

  1. केवल ताल और लय के आधार पर नर्तन, इसे ही नृत्त, देशी अथवा लोकनृत्य कहा जाता है।
  1. रस और भाव के अभिनय से युक्त नर्तन को नृत्य कहा जाता है। है। भावाश्रय नृत्य में भावाभिव्यञ्जना प्रमुख होती है। अतः नन्दिकेश्वर ने नृत्य की परिभाषा इस प्रकार दी है-रसभावव्यंजनादियुक्तं नृत्यमितीर्यते। नर्तक द्वारा गीत और वाद्य के साथ करणों और अंगहारों का प्रदर्शन करते हुये; रस एवं भाव की कलात्मक अभिव्यक्ति नृत्य कही जाती है।

भरतमुनि के अनुसार नृत्य के आद्य आचार्य भगवान् शिव हैं। दक्ष के यज्ञध्वंस के पश्चात् भगवान् शिव द्वारा रेचक, अङ्गहार, पिण्डीबन्ध आदि के साथ नृत्य की शिक्षा तण्डु मुनि को दी गई। तण्डु द्वारा गीत और वाद्य के साथ इसका नाट्य में प्रयोग किया गया। तण्डु द्वारा प्रयुक्त होने के कारण इसकी संज्ञा ताण्डव है। ताण्डव उद्धत नृत्य है । नृत्य में मधुर भावों के निवेश के लिये पार्वती ने ''लास्य नृत्य'' की उद्भावना की ।

नाट्यदर्पण में नृत्य चार अड्ग कहे गये हैं-गीत, अभिनय, भाव एवं ताल यशोधर ने इनमें करणों और अङ्गहारों का योग कर इनकी संख्या छः बताई है। लौकिक संस्कृत साहित्य में संगीतकला का सबसे सुन्दर उदाहरण मालविका द्वारा प्रस्तुत छलिक नृत्य (मा. ग्नि. 218) है। अप्सरायें नृत्यकला में विशेष निपुण कही गई हैं।

आलेख्यम् ॥ Alekhya

संस्कृत वाङ्मय में चित्रकला के लिये लेख्य या आलेख्य पद का तथा चित्रांकन के लिये ‘लिखितम्', 'लिखितानि', 'आलिखन्ती' आदि पदों का बहुल प्रयोग हुआ है। लिखू धातु का प्रयोग चित्रकला में रेखा (लेखा) के महत्त्व को स्पष्ट करता है। रेखाओं में चित्र उसी प्रकार प्रतिष्ठित होता है, जिस प्रकार रीतियों में काव्य। 'लेखा' से ही चित्र के अंगप्रत्यङ्ग का लावण्य उन्मीलित होता है। 'चित्र' शब्द का प्रयोग सामान्य रूप से अलोकसामान्य या विस्मयजनक के लिये किया जाता है। ब्राह्मी और मानसी सृष्टि के असंख्य रूपों और भावों को वर्णों और रेखाओं के माध्यम से प्रत्यक्ष कराता हुआ चित्र, विस्मयजनक आनन्द की सृष्टि के कारण 'चित्र' कहा जाता है। चित्रकला रूपात्मक ललितकलाओं में सर्वोपरि है। इसे सभी शिल्पों में प्रमुख शरीर में मुख के समान माना गया है-

चित्रं हि सर्वशिल्पानां मुखं लोकस्य च प्रियम् ।

चित्रकला इहलौकिक और पारलौकिक दोनों ही प्रयोजनों को सिद्ध करती है। अतः विष्णुधर्मोत्तर पुराण में कहा गया है-

कलानां प्रवरं चित्रं धर्मकामार्थमोक्षदम् ।

चित्रसूत्र के अनुसार नारायण मुनि ने लोकहित की कामना से देवाङ्गनाओं के अहंकार को समाप्त करने के लिये अपने ऊरु पर सहकाररस से एक सुन्दर स्त्री का चित्र बनाया जिससे उर्वशी नामक अप्सरा का जन्म हुआ। सर्वलक्षणसमन्वित वह प्रथम चित्र था जिसकी शिक्षा एक कला के रूप में नारायण मुनि द्वारा विश्वकर्मा को दी गई। शास्त्रीय ग्रंथों में आलेख्य कला से सम्बद्ध निम्न विषयों का वर्णन हुआ है- (1) चित्र का महत्त्व, उद्देश्य एवं उत्पत्ति (2) चित्र के प्रकार एवं विषय, (3) भूमिबन्ध एवं लेप्य कर्म (4) अण्डक प्रमाण एवं मान (5) ऋज्वायतादि स्थानलक्षण (5) चित्र के गुण-दोष (6) रसदृष्टि (7) चित्रद्रव्य-वर्तिका, लेखनी, वर्ण आदि (8) चित्र के षडग । यशोधर के अनुसार चित्र के ये छह अंग हैं

रूपभेदाः प्रमाणानि लावण्यं भावयोजनम् । सादृश्यं वर्णिकाभङ्ग इति चित्रं षडङ्गकम् ।।

चित्र के कई प्रकार हैं-पटचित्र, पट्टचित्र एवं भित्तिचित्र, विद्धचित्र, अविद्धचित्र, रसचित्र एवं धूलिचित्र आदि ।

जो तरङ्ग, अग्निशिखा, धूम, ध्वजा और स्वरलहरी को वायु की गति के साथ उठता-गिरता, काँपता और लहराता हुआ दिखा पाता है, जो सोये हुये को चेतनायुक्त, मृत को चेतनारहित तथा निम्नोन्नत विभागपूर्वक चित्ररचना में समर्थ है वही श्रेष्ठ चित्रकार है। चित्र के संबंध में दर्शकों की अभिरुचियाँ भिन्न होती हैं। आचार्य रेखाओं के समीक्षक और प्रशंसक होते हैं, तो समालोचक वर्तना के । स्त्रियाँ चित्र के अलंकरण से आकर्षित होती हैं तो सामान्य जन वर्णों की चमक-दमक से । चित्रकला के सुन्दर उदाहरण रामायण, महाभारत, मालविकाग्निमित्र, अभिज्ञानशाकुन्तल, उत्तररामचरित, कादम्बरी, नैषध आदि काव्यग्रंथों में देखे जा सकते हैं ।

विशेषकच्छेद्यम् ॥ Visheshakacchedya

कस्तूरी, अगुरु, चन्दन आदि से तिलकरचना एवं बिन्दी आदि रचना के लिये छेद्य (खाके) बनाने की कला विशेषकच्छेद्य कही जाती है। प्राचीन भारत में तिलक रचना के लिये भूर्ज, तमाल, स्वर्णादि पत्रों को विभिन्न आकृतियों में काटकर खाके बनाये जाते थे। अथवा उन पत्राकृतियों को ही चिपका लिया जाता था। अतः इस कला को पत्रच्छेद्य भी कहा गया है।

विशेषक का अर्थ है- तिलक। विलासिनियों को अति प्रिय होने के कारण; विशेष आदर की अभिव्यक्ति के लिये इसे विशेषक नाम दिया गया है। माघ भी कहते हैं-

स्निग्धांजनश्यामरुचिः सुवृत्तो वध्वाः । विशेषको वा विशिशेष यस्याः श्रियम् ॥

अमरकोश के अनुसार विशेषक के तीन पर्य्याय हैं-तमालपत्र, तिलक एवं चित्रक। तिलकरचना के दो नाम हैं-पत्रलेखा एवं पत्रांगुलि संस्कृत साहित्य में पत्रलता, पत्रप्रपंच, पत्ररचना, पत्रप्रबन्ध, पत्रभङ्ग, पत्रविशेषक, पत्रभक्ति, भक्तिच्छेद, विच्छिति आदि पद इस कला के लिये प्रयुक्त हुये हैं। पत्रलता की आकृतियाँ बारीक तूलिका या लेखनी से ललाट, कपोल, चिबुक, वक्षः स्थल, बाहु आदि पर लिखी जाती थीं। शुक्ल अगुरु या चन्दन के लेप से त्वचा को गौर बनाकर उस पर कृष्ण अगुरु के गाढ़े घोल अथवा कुंकुम रस से पत्ररचना की जाती थी -

कालागुरुदत्तपत्रभक्तिर्भुवश्चन्दनकल्पितेव ॥

पत्रलेख से स्त्रीशरीर की शोभा उसी प्रकार खिल उठती थी जैसे चक्रवाक मिथुनों से अङ्कित सैकत तट वाली गंगा की शोभा शोभायमान होती है।

विन्यस्तशुक्लागुरु चक्रुरङ्गं गोरोचनापत्रविभक्तमस्याः। सा चक्रवाकाङ्कितसैकतायास्त्रिस्रोतसः कान्तिमतीत्य तस्थौ ।।

पत्ररचना में कटावदार पत्राकृतियों के साथ अन्य आकृतियाँ भी बनाई जाती थीं यथा-परस्परसंसक्त चक्रवाकमिथुन, उड़ते हुये हंस, गुँथे हुये मत्स्य एवं मकरसमूह ' भक्तिरचना भूति, श्री और मंगल के लिये की जाती थी। यह निसर्ग के सुन्दर चित्रों को सुगंधित वर्णों से स्वयं अपने शरीर पर सजा लेने की कला थी। यह आधुनिक ''टेटू'' रचना का उत्कृष्ट स्वास्थ्यकर स्वरूप है।

तण्डुलकुसुमयलिविकाराः ॥ Tandula kusumayalivikara

अक्षत (अखण्डित चावल) और पुष्पों को पूजा के लिये सजाना भी एक कला है अक्षतों को अनेक वर्गों में रंगकर देवमदिरों या गृहभूमि पर सुन्दर आकृति की रचना तथा बहुवर्णी पुष्पों के संयोजन से पुष्पोपहार की रचना, प्राचीन भारत की एक ललित कला रही है। जिसे आचार्य वात्स्यायन ने कहा है- ‘तण्डुलकुसमबलिविकाराः’ द्वारा निष्पन्न ‘बलि’ धातु से 'इन्’ प्रत्यय शब्द का अर्थ है-पूजा के दानार्थक बल् लिये भक्तिपूर्वक दिया गया उपहार या नैवेद्य। मेघदूत की विरहिणी यक्षिणी पति के माङ्गल्य के लिये प्रायः पुष्पबलि देती हुई दिखाई पड़ती है। राजभवनों की मणिमय भूमि (फर्श) पर चम्पकदलों के उपहार स्वर्णदीप के समान प्रतीत होते हैं कांचनदीपायमानं चम्पकदलोपहारैः किया प्रातःकाल और संध्याकाल इस ललितकला से था-'अहो विविधसुगन्धिकुसुमोपहारचित्रलिखितभूमिभागस्य' मानी गई थी। यह रंगोली के रूप एक मनोहारी कला जाता को।

श्रीसम्पन्न ......भवनद्वारस्य सश्रीकता।

यह एक मनोहारी कला मानी गई थी यह रंगोली के रूप में विकसित हुई है।

पुष्पास्तरणम् ॥ Pushpaastarana

पुष्पास्तरणम् (पुष्पसज्जा) का देश है। षड् ऋतुओं ने भारत पुष्पों की विविधता सुगन्ध के ऋतुपुष्पों से इस भारतभूमि का शृंगार किया है। निसर्ग की इस मनोरम पुष्प समृद्धि को, कला के कोमलतम उपादान को, मानव ने गृहवाटिकाओं एवं उद्यानों में संजोया तथा पुष्पास्तरण की सुकुमार कला के रूप में जीवन्त किया है। यशोधरा के अनुसार-नानावर्णो बाँधकर वासगृह, उपस्थान-मण्डप आदि की कलात्मक सज्जा के पुष्पों को गूंथकर या सज्जा पुष्प-आधारों या पात्रों पुष्पास्तरण कही जाती है। पुष्प-समृद्धि के उस युग में यह में ही नहीं की अपितु गृहभूमि, उपवनवेदिका, राजमार्ग आदि पर पुष्पों को बिछाकर की जाती थी; अतः इसकी संज्ञा पुष्पास्तरण थी। पुष्पशयन की रचना भी इसी कला का एक अंग थी।

श्रीराम के अभिषेक के अवसर पर पुरवासियों द्वारा सम्पूर्ण राजपथ को कमलों और उत्पलों से सजाया गया था-

सिक्तराजपथां कृत्स्नां प्रकीर्णकमलोत्पलाम्।

लाल या गुलाबी कमलों और नील उत्पलों का संयोजन नयनाभिराम होता था।

कालिदास के अनुसार, हर्थों में सजाये गये पुष्पों की गंध दूर से ही पथिकों के मार्गश्रम को हर लेती थी। था। वात्स्यायन ने पुष्पसज्जा को गृहिणी का आवश्यक दैनिक कर्तव्य माना है। उस युग में जीवन का कोई भी उत्सव पुष्पसज्जा के बिना पूर्ण नहीं होता था। पुष्पसज्जा की कला का आज भी व्यापक उपयोग है।

दशनवसनाङ्गरागाः ॥ Dashana vasananga raga

जीवन को सुन्दर रंगों से सजाने का शिल्प था दशनवसनागराग, अर्थात् दाँत, वस्त्र और शरीर के अंगों को रंगने की कला। रञ्ज धातु से भाव अथवा करण अर्थ में घञ् प्रत्यय लगकर निष्पन्न 'राग' शब्द रंजन क्षमता को व्यक्त करता है। इस रंजनक्षमता के कारण ही सभ्यता के उषःकाल से मानव-मन रंगों के प्रति आकर्षित होता आया है।

(१) दशनराग-प्राचीन भारत में विलासिनी स्त्रियाँ सामने के कुछ दाँतों को रँगती थीं। आचार्य भरत ने नेपथ्यविधि के अन्तर्गत इस कला का उल्लेख किया है। संस्कृत साहित्य में इसके अन्य सन्दर्भ अन्वेषणीय हैं।

(ii) वसनराग-उज्ज्वल रंगों से वस्त्रों को रंगकर पहनने की कला है। संस्कृत साहित्य में नाना रंगों-कुसुम्भराग -अरुण, तरुण अर्कराग, बाल अरुण-बभ्रु पाटल, कुसुम्भ- बभ्रु लाक्षालोहित, रक्त, नील, मेचक, शुकपिच्छनील, अलिनील, शुकोदरश्याम, हरिद्रापिञ्जर आदि नाना रंगोंवाले वस्त्रों का वर्णन हुआ है। विलासिनी स्त्रियाँ वसन्त ऋतु में कुङ्कुमराग-पिंजर अंशुकों का प्रयोग करती थीं तो हेमन्त में सराग कौशेयक का । रक्त वर्ण के प्रति अंगनाओं की अभिरुचि अधिक थी- तनूनि लाक्षारसरञ्जितानि धत्ते जनः काममदालसाङ्गः। इस कला में निपुण रंजकों का वर्ग तो था ही, घर की कन्यायें, वधुयें और प्रौढ़ायें भी इस कला में निपुण होती थीं। हर्षचरित में विभिन्न प्रकार की बाँधनू की रंगाई और वस्त्रों पर फूल-पत्तों की छपाई के कार्य में निपुण स्त्रियों का वर्णन हुआ है । वस्त्र रंगने की इस 'डाइंग' कला का आज भी विस्तृत कारोबार है ।

(iii) अंगराग- शरीर के सौंदर्य की वृद्धि के लिये अंगराग का उपयोग अत्यंत प्राचीन काल से होता रहा है। साहित्य में अंगराग के दो गुणों का बहुशः वर्णन हुआ है। प्रथम-लाल रंग, द्वितीय- मनोरम गंध। अंगराग से ललाट, मुख, कपोल एवं वक्षः स्थल को रंजित किया जाता था। अधरराग और चरणराग की कला भी संस्कृत कवियों का वर्ण्य विषय बनी है। आचार्य भरत ने 'अधर-संस्कार' को अधरों का 'विभूषक' माना है। रतिसर्वस्व अधरों में अति माधुर्य, उच्छूनता एवं लालिमा की सृष्टि के लिये निपुण हाथों से रंग भरकर, अधरों की रेखाओं को जब कुछ अधिक गाढ़े रंग से स्पष्ट कर दिया जाता था, तब उनकी छवि अपूर्व लावण्य से भर उठती थी।

चरण-राग के लिये लाक्षारस या अलक्तक का प्रयोग होता था। इसका सर्वाधिक मनोरम वर्णन मालविकाग्निमित्र में हुआ है। नैसर्गिक रूप से अरुण चरणों पर अलक्तक की मसृण शोभा वैसी ही होती थी जैसी कमलकोश पर बाल-अरुण की कोमल धूप वस्तुतः 'दशन-वसन-अंगरागाः' वस्त्रों के साथ ही शरीर के विभिन्न अंगों की उज्ज्वल रंग से रंगने एवं उसके माध्यम से जीवन में रागसृष्टि की कला थी।

मणिभूमिकाकर्म॥ Manibhumika karma

अपने भासुर वर्ण और स्थायी चमक के कारण मणियाँ प्राचीन काल से ही मानव को लुब्ध करती रही हैं। अंधकार में भी आलोक बिखेरने वाली दमकती हुई मणियों को आभूषणों में तो गूँथा गया ही है, राजभवनों और प्रासादों के भूमिनिर्माण के कार्य में भी इनका उपयोग हुआ है। प्राचीन भारत में बहुवर्णी मणियों से कलात्मक डिज़ाइनों में भवन के फर्श की रचना एक शिल्प या कला के रूप में मान्य रही है जिसे वात्स्यायन ने मणि-भूमिका कर्म कहा है। संस्कृत साहित्य में राज-प्रासादों के वर्णनप्रसंग में `मणि-भूमि या मणि-कुट्टिम का बहुलता से वर्णन हुआ है।

इस ऋतु, अवसर और स्थान के अनुकूल मणि-भूमि की रचना में ही कला थी। ग्रीष्म में श्वेत स्फटिक मणि की योजना होती थी जिसे मलयज रस से धोकर और अधिक शीतल बना लिया जाता था। आकाश की नील शोभा की सृष्टि के लिये इन्द्रनीलमणि का प्रयोग होता था तो उपवनों की हरीतिका के मध्य मरकतमणि से भूमिरचना की जाती थी ऋतु द्वारा ‘मणिभूमिका-कर्म’ द्वारा रत्नगर्भा भूमि को रत्नों से सजाने की कला गृह-प्राङ्गण और उपवन की भूमि पर मणियों से रचे गये पुष्पचित्र और इन्द्र धनुष हजारों वर्ष बाद भी म्लान नहीं हुये हैं।

शयनरचनम् ॥ Shayana rachana

शयन-रचन शय्या की विरचना (विशेष रचना) की कला है जिसमें शयन सुख का आनन्द भी समाहित है। शय्या पति-पत्नी के दाम्पत्य जीवन का मर्मस्थान है। व्यक्ति की आयु, वैभव, आवश्यकता, ऋतु, प्रसंग आदि के अनुरूप विविध प्रकार की सुन्दर, सुखद, सुकोमल, कमनीय शय्यायों की रचना एक ऐसी जीवनोपयोगिनी कला है जिसमें सौन्दर्यबोध और कौशल दोनों ही निहित है।

प्रसंगानुकूल शय्या के लिये उपयुक्त स्थान एवं सामग्री का चयन, शय्या की कल्पना, साज-सज्जा एवं अलंकरण आदि का बहुल वर्णन संस्कृत साहित्य में हुआ है। नानाप्रकार की पत्र-पुष्प शय्यायें, यथा-तमालपत्रास्तरण, नवपत्लवसंस्तर, प्रवालशय्या, हेमपल्लवविभङ्गसंस्तर, नलिनीदलशयन, कमलकुमुदकुवलयशयन, कदलीतलप, सुश्लक्ष्म, उपधान, धवल, उत्तरच्छद, हंसधवलशयनतल आदि शयन-रचन की विविधता को सूचित करते हैं।

शय्या की सार्थकता पति-पत्नी के मथुरमिलन में थी। इसका लक्ष्य था-स्वस्थ, सुन्दर सर्जन अर्थात् प्रजनन। ''प्रजायै शयनम'' ही शयनरचना का सार था जिसे वैदिक मन्त्र भी कहते हैं-आरोह तल्पं सुमनस्यमानेह प्रजा जनय पत्ये अस्मै॥

उदकवाद्यम् ॥ Udakavadya

रघुवंश महाकाव्य में महाराज कुश की कलानिपुण अन्तःपुरिकाओं को सरयू नदी में इस कला का आनन्द लेते हुये वर्णित किया गया है। इस वारि-मृदंग ध्वनि का अभिनन्दन तटवर्ती मयूर अपनी केका ध्वनि से करते हैं। वस्तुतः जलप्रवाह में स्वयं ही एक नाद और छन्द होता है। जल के इस नाद को राग और लय में बाँध लेना ही मानवीय कौशल है जिसे प्राचीन भारत की नागरिकाओं ने जलक्रीड़ा के माध्यम से अधिगत किया था।

उदकघातः ॥ Udakaghata

उदकघात-‘उदकघात’ का अर्थ है-जल से आघात; अर्थात् मनोरंजन के लिये एक दूसरे पर जल के छींटे मारना। यह दो प्रकार से संभव है- हाथ से अथवा यन्त्र (पिचकारी) से। जलक्रीड़ा में सच्चा विनोद या मनोरंजन इसी क्रिया से होता है। मोती के समान स्थूल जलकणों से जब प्रहार किया जाता है, तब विलासिनियों को अपने टूटते हुये मुक्ताहारों का भी बोध नहीं रहता। जल से मोती की लड़ियों या चाँद की कतारों का बनना तभी संभव है जब निरन्तर एक लय में पानी उछाला जाये और यही इस विनोद का कलात्मक पक्ष है।

इस कला का दूसरा रूप है- पिचकारी से जलाघात। महाकवि माघ के अनुसार इस कलात्मक विनोद के साधन हैं- स्वर्णरचित चमकते हुये शृंग, कस्तूरी-कुङ्कुमादि सुगन्धित द्रव्य, कुसुम्भी रंग के वस्त्र, मादक मदिरा और प्रिय का सान्निध्य। वर्तमान होली या फाग के रूप में यह कला आज भी जीवित है।

चित्रायोगाः ॥ Chitrayoga

मणि, मन्त्र, औषधियों के विचित्र प्रयोगों की विद्या या इनकी शक्ति से असंभव को भी संभव बना लेने की कला 'चित्रयोग' कही गई है। इस कला का बीज ऋग्वेद में एवं विकसित स्वरूप अथर्ववेद में प्राप्त होता है । ऋग्वेद में यज्ञों में प्रयुक्त हवि से असपत्न (शत्रुहीन) होने की कामना की गई है

अभीवर्तेन हविषा येनेन्द्रो अभिवावृते । तेनास्मान् ब्रह्मणस्पते ऽभि राष्ट्राय वर्तय ।। येनेन्द्रो हविषा कृत्व्यभवद्युम्न्युत्तमः । इदं तदक्रि देवा असपत्नः किलाभुवम् ।।

अथर्ववेद में 'जगिड' मणि को कृत्या-नाशिनी, आरोग्यदायिनी और आयुष्यवर्धिनी कहा गया है। कौटिल्य अर्थशास्त्र के औपनिषदिक अधिकरण में ऐसे अनेक अद्भुत योगों, भैषज्य और मन्त्र प्रयोगों का वर्णन है, जिनसे रूपपरिवर्तन, महीनों तक भूख न लगना, श्वेतीकरण, कुष्ठयोग, शरीर पर बिना पीड़ा के आग जला लेना, अंगारों के ऊपर चलना, मुँह से आग छोड़ना, जल में आग जलाना, घन अंधकार में भी वस्तुओं को देख पाना, अदृश्य हो जाना, पानी पर चलना आदि अद्भुत क्रियाओं को किया जा सकता है। 'प्रस्वापन' मंत्र की शक्ति से सभी को सुला देना, बन्द दरवाजे को खोल देना, आदि विस्मयजनक यौगिक क्रियायों का वर्णन भी हुआ है। कामसूत्र के औपनिषदिक अधिकरण में 'चित्रयोग' नामक प्रकरण में भी ऐसे अद्भुत प्रयोगों का निरूपण हुआ है।

माल्यग्रथनविकल्पाः ॥ Malyagrathana vikalpa

संस्कृत साहित्य में 'माल्य' शब्द का प्रयोग दो अर्थों में हुआ है, पुष्प के अर्थ में तथा पुष्पों से रचित माला' के अर्थ में । अतः 'माल्यग्रथनविकल्प' से अभिप्राय-पुष्पों को सुन्दर कलात्मक ढंग से गूंथकर या बाँधकर माला, करधनी, कर्णाभूषण, शिरोभूषण आदि बनाने की कला है। सभ्यता के प्रथम चरण में जब सामान्य जन ने स्वर्णादि धातुओं का प्रयोग नहीं सीखा था; तब माल्य ही मानव के प्रथम प्रसाधन बने । प्राचीन भारत में माल्य देवता और मनुष्य दोनों के ही नेपथ्यविधान का अनिवार्य अंग था। वैदिक उल्लेखों से लेकर अद्यतन युग तक, संपूर्ण संस्कृत साहित्य में शायद ही कोई ऐसी कृति हो जिसमें माल्य का उल्लेख न हुआ हो।

ऋग्वेद में अश्विनीकुमारों को 'पुष्करसृज' कमलपुष्पों की माला धारण करने वाला कहा गया है। रामायण में कमलों की माला को धारण करती हुई वनवासिनी सीता की उपमा पद्मिनी से दी गई है।

संस्कृत साहित्य में नाना प्रकार की मालाओं का वर्णन हुआ है-कदम्ब, नवकेसर और केतकी की सिर पर धारण की जाने वाली मालायें, बकुलमाला, वेणीस्रक्, वनमाला, वक्षःस्थल को सुशोभित करने वाले पुष्पहार, कण्ठ से वक्षःस्थल तक लटकती हुई प्रालम्ब मालायें, कण्ठमालिका, आजानुलम्बी वैकक्षक (बाँये कन्धे से दाहिनी ओर एवं दाहिने कंधे से बाँई ओर जाती हुई मध्य में स्वस्तिकाकार) मालायें, पैरों का स्पर्श करती हुई आप्रपदीन माला, कौतुकमालिका, वन्दनमाला आदि ।

इसी प्रकार केसरदामकांची, विलासमेखला, शिरीषकुसुमस्तबक-कर्णपूर आदि पुष्पाभरणों का सौन्दर्य भी देखा जा सकता है।

भरतमुनि के अनुसार संरचना की दृष्टि से माल्य पाँच प्रकार के होते हैं वेष्टिम, संघात्य, ग्रन्थिमत् एवं प्रलम्बित ‘माल्यग्रथन' एक सुन्दर हस्तशिल्प था जिसमें अन्य कलाओं की भाँति ही विदग्धता की अपेक्षा रहती थी। माल्यग्रथन की अनेक व्यक्तिगत शैलियाँ थीं। कुन्दमाला नाटक इसका सुन्दर उदाहरण है। माल्यग्रथनविकल्प जीवन के शृंगार की कला है। यह प्रेम की ऐसी मूक भाषा है, जिसे मानव ने कोमल पुष्पों के बहुवर्णी वैविध्य के माध्यम से मुखर किया है।

केशशेखरापीडयोजनम् ॥ Keshashekharapeeda yojana

‘शेखरक' और 'आपीड' सिर पर धारण किये जाने वाले दो पुष्परचित अलंकार हैं? यह कला माल्यग्रथन का ही अङ्ग है तथापि सुन्दर ढंग से इसकी योजना में भी एक प्रकार की कलात्मकता है। अतः वात्स्यायन ने इसे एक स्वतन्त्र कला माना है। यशोधर के अनुसार शेखर और आपीड में सूक्ष्म भेद है। शेखर शिखास्थान में अवलम्बन्यास से पहना जाता है तथा इसकी रचना शिखराकार होती है। आपीड मालाकार गूँथा जाता है तथा सिर को घेरते हुये काष्ठिका (पिन) आदि की सहायता से पहना जाता है। कालिदास के युग में मौलिमाला या मौलिक् का ही प्रयोग हुआ है। बाणभट्ट के युग में इसने शेखर का रूप ले लिया। शूद्रक के मस्तक को आमोदित मालती-कुसुम-शेखर

अलंकृत करते हैं तो राजकुमार चन्द्रापीड की पहचान ही चन्द्रमा की किरणों के समान उज्ज्वल शेखर से होती है

वाल्मीकि के अनुसार आपीड दाक्षिणात्यों का विशिष्ट शिरोभूषण था। बाणभट्ट इसके स्थान पर ‘मुण्डमाला” शब्द का प्रयोग करते हैं। वर्तमान समय में शेखरक विवाह के अवसर पर वर द्वारा धारण किये गये सेहरे के रूप में एवं आपीड वधुओं की शिरोमाला के रूप में दिखाई देते हैं।

नेपथ्ययोगाः ॥ Nepathyayoga

वात्स्यायन द्वारा वर्णित चौंसठ कलाओं में से एक महत्त्वपूर्ण कला है- नेपथ्ययोग अर्थात् वेशभूषाधारण करने की कला या प्रसाधनकला। यशोधर के अनुसार देश और काल के अनुरूप वस्त्र, माल्य, आभूषणादि से स्वयं को या दूसरों को, शोभा के लिये मण्डित करने की कला नेपथ्ययोग है।

नेपथ्य नाट्यशास्त्र का पारिभाषिक शब्द है, जिसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-नेता का पथ्य (नेः नेता तस्य पथ्यम्), अर्थात वे साधन जो सामाजिक को रसानुभूति की ओर ले जाने वाले अभिनयव्यापार में सहयोगी होते हैं-नेपथ्य हैं । आचार्य भरत के अनुसार 'आहार्य' अभिनय का नाम ही नेपथ्यविधान है। संस्कृत साहित्य में नेपथ्य शब्द का प्रयोग प्रारम्भ में केवल नटों द्वारा धारण की जाने वाली वेशभूषा, मंचसज्जा आदि के लिये हुआ । आद्य नाट्यकार भास ने इसी अभिप्राय से नेपथ्यपालिनी' शब्द का प्रयोग किया है। बाद में जन-जीवन में स्त्री-पुरुष द्वारा धारण की जाने वाली विशिष्ट वेशभूषा को भी नेपथ्य कहा गया। भरत के पश्चात् नेपथ्यकला का सर्वप्रथम सागोपांग वर्णन कालिदास की कृतियों में हुआ है। नेपथ्ययोग कलात्मक ढंग से सुसज्जित होने की कला थी । स्नान के पश्चात् नेपथ्यविधि प्रारम्भ होती थी। इसके निम्नलिखित मुख्य अंग थे-

  • केशरचना।
  • अनुलेप या अंगराग।
  • पत्रावलीरचना।
  • अलंकारयोग।
  • वस्त्रयोग।
  • माल्यप्रयोग।

सुरुचिपूर्ण नेपथ्य सुसंस्कृत अभिरुचि, आभिजात्य और समृद्धि का परिचायक था। नेपथ्यकला की कसौटी ''वधूनेपथ्य'' को माना गया था। इस कला का सम्प्रति ब्यूटीपार्लर द्वारा व्यवसाय के स्वरूप में प्रचलन है।

कर्णपत्रभङ्गाः ॥ Karnapatrabhanga

हाथीदाँत, शंख, आदि से पत्राकृति कर्णाभूषण बनाने की कला कर्णपत्रभंग कही जाती के अनुकरण पर जिस प्रकार कनक-कमल आदि आभूषणों की रचना हुई उसी प्रकार कटावदार तरंगायित पत्रों के अनुकरण पर 'कर्णपत्र' की। भंग का अर्थ है- अंश या टुकड़ा। अतः कर्णपत्रभंग से अभिप्राय है, हाथीदाँत के टुकड़ों से पत्ते के आकार की आभरणरचना जिसकी विशेष संज्ञा 'दन्तपत्र' है। दन्तपत्र को धारण करने के सन्दर्भ अत्यंत प्राचीन काल से ही प्राप्त होते हैं उदाहरण स्वरूप विवाह के अवसर पर पार्वती के मुख को शोभित करने वाला कर्णावसक्त दन्तपत्र दन्तपत्र के प्रति स्त्रियों की अनुरक्ति का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि चन्द्रापीड से मिलने आई कादम्बरी ने अन्य आभूषणों का प्रयोग किया था।

गन्धयुक्तिः ॥ Gandhayukti

गन्ध पृथ्वी का गुण है। प्रत्येक पार्थिव तत्त्व में यही गन्ध बसी हुई है। प्रकृति ने मानव को उपहार के रूप में पुष्प, चन्दन, केसर, कुकुम, अगुरु, कस्तूरी जैसे सुगंधित द्रव्य प्रदान किये हैं। निसर्ग के इन उपादानों का बहुविध संयोजन कर मानव ने गन्धयुक्ति की कला विकसित की है। कलाप्रेमी भारत के नागरक-नागरिकाओं को संभवतः सर्वाधिक प्रेम सुगन्धित द्रव्यों से रहा है। वाल्मीकि का साक्ष्य इसका प्रमाण है। अयोध्या के नागरिकों में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जो सुगन्ध का उपयोग न करता हो । वस्तुतः प्राचीन भारत में गर्भाधान से लेकर, अन्त्येष्टि पर्यन्त मानव के सम्पूर्ण जीवन में सुगन्ध रची बसी थी।

मूलतः पाँच प्रक्रियाओं से गन्ध प्राप्त की जा सकती थी

(i)चूर्ण से; यथा- लोध्रचूर्ण, पारिजातचूर्ण आदि।

(ii) घर्षण से; यथा- चन्दन, अगुरुपंक आदि को पानी के साथ घिस कर प्राप्त किया जाता था।

(ii) दाहाकर्षण से–विभिन्न प्रकार की धूप, गुग्गुलु आदि को जलाकर सुगन्ध पाई जाती थी।

(iv) सम्मर्दन से-करवी, बिल्व, गन्धिनी, केतकी आदि के पत्र-पुष्पों के निष्पीडन से सुगन्धित रस निकाला जाता था।

(v) प्राणी के अंग से; यथा मृगनाभि से उत्पन्न कस्तूरी से।

बृहत्संहिता में निम्नलिखित हुआ है-गन्धोदक, गन्धद्रव्य, गन्धधूप, गन्धतेल, शिरःस्नान, स्नानचूर्ण, पटवास एवं मुखवास । वराहमिहिर के अनुसार गणित के प्रकार एवं प्रस्तार भेद से गन्धों की संख्या एक लाख चौहत्तर हजार सात सौ बीस तक हो सकती है। बकुल चम्पक, अतिमुक्तक, उत्पल आदि के समान कृत्रिम गन्ध भी बनाई जा सकती है।

सुगन्धित यौगिकों की निर्माण विधि एवं उपयोग का वर्णन

भूषणयोजनम् ॥ Bhushanayojana

शरीर के विभिन्न अंगों को भूषित करने वाले आभूषणों की योजना भी एक कला है। मानव के अत्यधिक अलंकरण- प्रेम, जीवन के प्रति कलात्मक दृष्टिकोण एवं प्राचीनभारत की भौतिक समृद्धि ने भूषण-योजन की कला को जन्म दिया है।

इस कला के दो रूप हैं- प्रथम विभिन्न अंगों में इस प्रकार आभूषणों की योजना करना कि वे सम्पूर्ण शरीर एवं उसके माध्यम से समग्र व्यक्तित्व को मण्डित करने वाले वन जायें । कला का यह रूप नेपथ्य - विधि का अंग है। द्वितीय प्रकार है कि आभूषणों में इस प्रकार मणि-मुक्ता रत्नादि की योजना करना कि वे स्वयं एक ललित कलासृष्टि बन जायें। अतः इस शिल्प का सम्बन्ध आभूषणरचना या निर्माण की कला से है। संस्कृत साहित्य में निम्नलिखित आभूषणों की योजना हुई हैं

(1) शिरोभूषण-मस्तकी, अर्द्धमुकुट, पट्टबन्ध, शिखापाश, चूड़ामणि, मुकुट, किरीट, चूड़ामणिमकरिका, चटुला तिलकमणि, आदि ।

(2) कर्णाभूषण-कुण्डक, शिखिपत्र, वेणीगुच्छ, मोचक, कर्णिका, कर्णवलय, पत्रकर्णिका, कुण्डल, कर्णमुद्रा, कर्णपूर, कर्णोत्कीलक तथा नानाविध रत्नजटित दन्तपत्र, अवतंस आदि।

(3) कण्ठाभूषण-मणिग्रीव, रुक्म, हार, मुक्ताहार, एकावली, हारयष्टि, ताराहार, शेषहार, महाहार, मुक्ताकलाप, प्रालम्बहार रत्नावली, कण्ठसूत्र आदि ।

(4) कराभूषण - अंगद, वलय, कांचनवलय, शिंजावलय, दोलावलय, कटक, कङ्कण, केयूर, अंगुलीयक आदि ।

(5) कटि एवं श्रोणि- देश के आभरण-शृंखला, कटिसूत्र, कांची, क्वणितकनककांची, मेखला, रशना, मुक्ताजाल, तलक और कलाप ।

(6) पादाभूषण-नूपुर, शिञ्जितनूपुर, मणिनूपुर, मंजीर, पादहंसक, किङ्किणीका, घण्टिका, रत्नजालक, कटक, पैरों की अंगुलियों में अंगुलीय और अंगुष्ठ में तिलक।

इन्द्रजालम् ॥ Indrajala

मनोरंजनात्मक कलाओं में प्रमुख है- इन्द्रजाल या जादू का खेल । इसके मूल में निहित है चमत्कार या अलौकिकता का तत्त्व । यह कला विस्मयजनक आनन्द द्वारा मानव का मनोरंजन करती है। 'इन्द्रजाल' का शाब्दिक अर्थ है - 'इन्द्र का जाल' या 'इन्द्रियों की शक्ति को बांध लेने वाला जाल' । यह शब्द वैदिक आर्यों के महान् देवता इन्द्र के नाम से प्रचलित हुआ है जो अपनी माया शक्ति से असंख्य रूपों को धारण कर सकते हैं? शक्तिशाली इन्द्र का यह जाल भी महान् है।

बृहद्धि जालं बृहतः शक्रस्य वाजिनीवतः' जिसे फैलाकर वे अनेक चमत्कारपूर्ण मायावी कार्य करते हैं ।

जादूगर या ऐन्द्रजालिक का मायाजाल भी दर्शकों की दृष्टि को आच्छन्न कर असत्य दृश्यों की सृष्टि करता है। संस्कृत साहित्य में इस कला के संबंध में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण जानकारी 'दशकुमारचरित' में प्राप्त होती है। इस कला में सर्वप्रथम सामाजिकों के मन को बाँधने के लिये उच्च स्वर में वाद्य बजाये जाते हैं, फिर गायिकाओं द्वारा मधुर गीत गाया जाता है, तत्पश्चात् ऐन्द्रजालिक मयूरपिच्छ को घुमाते हुये दर्शकों की दृष्टि को बाँधता है।

कौचुमारयोगाः ॥ Kauchumarayoga

कुचुमार द्वारा कथित वाजीकरण, सुभगंकरण आदि औपनिषदिक (रहस्यमय गुप्त) योग इस कला के अन्तर्गत आते हैं। मानव कितना भी सभ्य या सुसंस्कृत क्यों न हो जाये, आज भी ऐसी क्रियाओं पर विश्वास रखनेवाले एवं इनका प्रयोग करने वाले लोग मिल जाते हैं। कौचुमार योग का बीज हम ऋग्वेद में पाते हैं। इन्द्रपत्नी इन्द्राणी सपत्नी-बाधन और पति-वशीकरण के लिये औषधि का प्रयोग करती हैं। कामसूत्र के औपनिषदिक अधिकरण के सुभगंकरण, वशीकरण, वृष्ययोग, नष्टरागप्रत्यायन, औपरिष्टक आदि प्रकरणों में इन गुप्त योगों का सविस्तार निरूपण हुआ है। ‘वृष्य योग’ में बल-वीर्य, राग और रतिक्षमतावर्धक कुछ नुस्खे दिये गये हैं। भास के नाटक स्वप्नवासवदत्तम् में 'अविधवाकरण' एवं 'सपत्नीमर्दन' नामक औषधियों का उल्लेख है जिन्हें कौतुकमाला (विवाहमाला) के साथ गूँथा जाता था।

हस्तलाघवम् ॥ Hastalaghava

हाथ की सफाई या फुर्ती से यन्त्र के समान हस्त-संचालन 'हस्तलाघव' कहा जाता है। सभी कार्यों में लघुहस्तताशिल्प एक विशिष्ट गुण है जिसकी अपेक्षा शिल्पी में की जाती है। इस कला में वे सभी क्रियायें आ जाती हैं जो विस्मयसृष्टि और जनानुरंजन के लिये की जाती हैं। इन्द्रजाल या जादू के खेल का यही प्राण तत्त्व है।

चित्रशाकापूपभक्ष्यविकारक्रिया ॥ Chitrashakapupabhakyavikara kriya

नानाप्रकार के शाक, यूष (सूप, रसा) एवं भोज्य पदार्थ बनाने की कला या पाक-कला भी चतुःषष्टि कलाओं में परिगणित होती है। सृष्टिप्रक्रिया में अग्नि में सोम की निरन्तर आहुति दी जाती है। मनुष्य भी अपनी जठराग्नि में भक्ष्य और पेय की हवि देता है। इस हवि को ही 'आहार' कहा गया है। आहार की सामान्य संज्ञा 'अन्न' है। मानव ने सृष्टिकर्ता द्वारा प्रदत्त नैसर्गिक अन्न को अपने कौशल से सुसंस्कृत कर 'पाककला' का विकास किया है।

ग्रहण की पद्धति के आधार पर आहार पाँच प्रकार के हो सकते हैं-भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोष्य और पेय । संस्कृत साहित्य में इनका उल्लेख अत्यन्त प्राचीन काल से ही प्राप्त । भरद्वाज मुनि के आश्रम में कुमार भरत और उनकी सेना के स्वागत में जो भोजन प्रस्तुत किया गया था उसमें ये पाँचों प्रकार के पदार्थ थे-भक्ष्यं भोज्यं च लेह्यं च विविधं बहु ।

कालिदास के अनुसार राजप्रासादों के महानस में इन पंचविध आहारों को बनाने की विपुल सामग्री और सुनियोजित तैयारी को देखकर ही विदूषक जैसे भोजनप्रिय आनन्दित हो उठते थे। जनश्रुति के अनुसार राजा नल पाककला में अत्यंत निपुण थे। उनका पाकदर्पण पाककला का एक संग्रहणीय ग्रंथ है जिसमें नानाप्रकार के यूष, सूप आदि बनाने की विधि का वर्णन हुआ है।

विवाह, राज्याभिषेक, उत्सव आदि के अवसर पर असंख्य प्रकार के भोज्य पदार्थ बनाये जाते थे। दमयन्ती के विवाह में इतने प्रकार के भोजन बने थे कि बारातियों के लिये उन्हें जीमना (खाना) तो दूर, गिनना भी कठिन हो गया था । भोजन को परोसना भी एक कला मानी जाती थी। मनु के अनुसार परोसने वाले को प्रसन्नचित्त होकर एक-एक व्यंजन के गुणों की प्रशंसा करते हुये, सावधानी के साथ धीरे-धीरे भोजन कराना चाहिये। इस प्रकार परमब्रह्म के उपासक इस देश ने 'अन्नब्रह्म' साधना भी पूर्ण मनोयोग से की है।

पानकरसरागासवयोजनम् ॥ Panakarasaragasava yojana

जल ही जीवन है। इस जीवन-रस से स्वयं को जीवन्त करने के साथ ही रसनेन्द्रिय की तृप्ति के लिये मानव ने विविध प्रकार के पानक रसों (पेय पदार्थों) को बनाने की कला विकसित की है। इसे ही वात्स्यायन ने पानकरसराग आसवयोजन कहा है।

यशोधर के अनुसार पेय दो प्रकार के होते हैं- (1) अग्निनिष्पाद्य (2) अनग्निनिष्पाद्य। ये भी दो प्रकार के हो सकते हैं-सन्धानकृत तथा असंधानकृत । संस्कृत साहित्य में-रसाल, सहकारभंग, तिन्तिका-पानक, प्रपाणक, आसव, पुष्पा सव, फलासव, मधु, कादम्बर मधु, द्राक्षामधु, मैरेय, शीथु, वारुणी आदि पेयों के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं।

गन्धमाल्य से सुसज्जित ऋतु के अनुकूल आकर्षक 'पानभूमि' की रचना' और 'समापान'' सामूहिक पानगोष्ठियों का आयोजन भी इस कला का एक अंग था।

सूचीवापकर्म ॥ Suchivapakarma

यशोधर के अनुसार सूची (सुई) का काम 'सूचीवान' कहा जाता है। इसके अन्तर्गत तीन क्रियायें आती हैं-

  1. सीवन - कंचुकादि वस्त्रों को सिलना ।
  2. ऊतन-कटे-फटे वस्त्रों को इस प्रकार सिलना, रफू करना कि त्रुटि या दोष दिखाई न दे।
  3. विरचन-कुथा (गलीचा) आस्तरण (बिछौना) आदि बनाना तथा दुइल, चोलक आदि वस्त्रों पर बेलबूटे काढ़ना ।

‘कसीदाकारी’ की कला वैदिक समाज से ही प्रचलित थी । इस कार्य में लगी हुई स्त्रियों को ‘पेशस्करी' कहा जाता था। ऋग्वेद में उषा और रात्रि की कल्पना ऐसी स्त्रियों के रूप में की गई है जो आकाशरूपी वस्त्र पर धागे से सुन्दर रूप की सृष्टि करती हैं। प्राचीन भारत में कढ़ाई में सोने के तारों के साथ माणिक्य, मूँगा, मरकत आदि रत्न पिरोकर भी पत्र-पुष्प-लता आदि की डिज़ाइन बनाई जाती थीं। बाणभट्ट ऐसी दो डिज़ाइनों का वर्णन करते हैं-

  • (i) स्तबकित-पुष्पगुच्छ के समान डिजाइन।
  • (ii) उपचीयमान-सम्पूर्ण वस्त्र को भर देने वाली डिज़ाइन।

इसमें मोतियों को सीधी, तिरछी, आड़ी, लहरदार, कोणाकार आदि रेखाकृतियों में टाँका जाता था। कालिदास ऐसे रत्नखचित उत्तरीय और राजशेखर मणिखचित कञ्चुक का वर्णन करते हैं।

वीणाडमरुकसूत्रक्रीडा ॥ Veena damaruka sutra kreeda

वात्स्यायन के अनुसार वीणा और डमरुक वाद्य का वादन एक कला है। यद्यपि वाद्य कला के अन्तर्गत ही इस कला का भी अन्तर्भाव होता है, तथापि वाद्यों में तन्त्रीवाद्यों में भी वीणा के महत्व को प्रदर्शित करने के लिये वीणावादन को एक स्वतन्त्र कला माना गया है। यशोधर इसी तथ्य को रेखांकित करते हुये कहते हैं-

वादित्रान्तर्गतत्वेऽपि तन्त्रीवाद्यं प्रधानम् । तत्रापि वीणावाद्यम् ॥

वीणा को असमुद्रोत्पन्न रत्न माना गया है। देवी सरस्वती की कच्छपी वीणा, ब्रह्म के नाम से प्रसिद्ध ब्रह्मवीणा, रुद्रों से सम्बद्ध रुद्रवीणा, पिनाकपाणि से सम्बद्ध पिनाकीवीणा, देवर्षि नारद की महतीवीणा, तुम्बरु ऋषि की तुम्बरु वीणा, ऋषि स्वाति की विपंचीवीणा, विश्वावसु गन्धर्व की बृहती वीणा, किन्नरों की किन्नरी वीणा, रावण की रावणी अथवा रावणहस्ता आदि वीणा की प्राचीनता एवं महत्ता को प्रमाणित करते हैं ।

डमरुक वाद्य अवनद्ध वाद्य है। इसका स्वतन्त्र परिगणन भी संगीतसृष्टि में इसकी महत्ता को सूचित करने के लिये है। डमरु नटराज भगवान् शिव का वाद्य है। वर्णमाला की ध्वनियों की सृष्टि इसी वाद्य से हुई है। डमरु वाद्य से ही पाणिनि के 14 सूत्रों एवं संगीत के स्वरों की सृष्टि हुई है।

प्रहेलिका ॥ Prahelika एवं प्रतिमाला ॥ Pratima

प्रहेलिका अर्थात् पहेली बूझना और प्रतिमाला अर्थात् अन्त्याक्षरी, दोनों ही लोक प्रसिद्ध मनोविनोदात्मक क्रीडायें हैं। ऋग्वेद के सृष्टिविषयक दार्शनिक प्रश्नों को प्रहेलिका के माध्यम से भी प्रस्तुत किया गया है जिसे विभिन्न भाष्यकारों ने अपनी-अपनी दृष्टि से बूझा है। दण्डी ने क्रीडागोष्ठियों, गुप्तभाषण, परिहास आदि के लिये प्रहेलिका को उपयोगी माना है।

क्रीडागोष्ठीविनोदेषु तज्ज्ञैराकीर्णमन्त्रणे । परव्यामोहने चापि सोपयोगाः प्रहेलिकाः॥

समागता, वंचिता, परुषा, संख्याता आदि इसके भेद-प्रभेद हैं। कादम्बरी में महाराज शूद्रक को अक्षरच्युतक, मात्राच्युतक, बिन्दुमती प्रहेलिका आदि काव्यक्रीडाओं से मनोरंजन करते हुये वर्णित किया गया है।

दुर्वाचकयोगाः ॥ Durvachaka yog

ऐसी पदावली जिसका उच्चारण और अर्थबोध दोनों ही कठिन हो, का प्रयोग एवं अर्थबोध भी एक कला है। इसका प्रयोजन भी मनोरंजन और प्रतिस्पर्धा है। आनन्द की भी सृष्टि करती थी। इस प्रकार के कवि कवित्वशक्ति के क्षीण होने पर भी विदग्धगोष्ठियों में बिहार के योग्य हो जाते हैं-

कृशे कवित्वेऽपि जनाः कृतश्रमाः विदग्धगोष्ठीषु विहर्तुमीशते।।

पुस्तकवाचनम् ॥ Pustaka vachana

वाक्सौन्दर्य पर आश्रित वाचिक कलाओं में से एक है- पुस्तकवाचन अर्थात् पुस्तक बाँचने की कला। ज्ञान-विज्ञान, धर्म-दर्शन, कला और शिल्प की महनीय विरासत को एक पीढ़ी से एक दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाती हुई पुस्तकें हजारों वर्षों से ज्ञानवर्धन और आत्मिक आनन्द का स्रोत रही हैं। प्राचीन भारत में और आज भी रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत, पुराण आदि के वाचन की लोकानुरंजिनी परम्परा रही है। इस कला में विशेष रूप से निपुण पुस्तक वाचक या कथा वाचक होते थे। बाणभट्ट की मित्रमण्डली में पुस्तकवाचक सुदृष्टि भी था जो सरस्वती की नूपुर ध्वनि के समान, गमक नामक मधुर स्वर में, श्रोताओं को आकर्षित करता हुआ पुराण वाचन करता था । सरस गीतों के साथ वंशी आदि वाद्यों की संगत इस कलाप्रस्तुति को अत्यंत मनोरम और श्रुतिसुभग बना देती थी । वस्तुतः वाचन-कौशल द्वारा श्रव्य से ही दृश्य का भी आनन्द देने की कला है-पुस्तकवाचन कला।

नाटिकाख्यायिकादर्शनम्  ॥ Natika Akhyayika darshana

जनमानस का समाराधन करने वाली कलाओं में से एक कला है- नाटक-आख्यायिका दर्शन। दर्शन शब्द यहाँ केवल प्रत्यक्ष दर्शन या अवलोकन का पर्याय नहीं अपितु चिन्तन-दृष्टि, समझ और परिज्ञान का भी वाचक है। अतः इस कला का अर्थ हुआ नाटक और आख्यायिका को देखने-परखने और रस-आस्वादन की कला ।

नाटक और आख्यायिका काव्यशास्त्र के पारिभाषिक शब्द हैं। नाट्य को दृश्य होने के कारण रूप कहा जाता है। संस्कृत वाङ्मय में इतिहासपुरुषों के जीवन को आख्यायिकाओं के माध्यम से संगृहीत किया गया है। आख्यानों के अभिनेय प्रसंगों का नटों द्वारा अभिनय भी किया जाता था। कृष्णलीला, हर-लीला, मदन-लीला आदि का भी अभिनय होता था। इस प्रकार यह कला कविहृदय के साथ संवाद स्थापित करने की और साहित्य के शिव तत्त्व से जीवन को मंगलमय बनाने की कला है।

उद्धरण॥ References

  1. पण्डित सुब्रह्मण्यशास्त्रिण, संगीत रत्नाकर, अध्याय१, श्लोक २५),अडयार् -पुस्तकालय,१९४० (पृ० १३)।
  2. पण्डित सुब्रह्मण्यशास्त्रिण, संगीत रत्नाकर, अध्याय१, श्लोक २५),अडयार् -पुस्तकालय,१९४० (पृ० १५)।
  3. भट्टशोभाकर, नारदीय शिक्षा, दतिया-श्रीपीताम्बरापीठ-संस्कृत-परिषद् द्वितीय काण्ड श्लोक २-७ (पृ०७)।
  4. भरतमुनि, नाट्यशास्त्रं, अध्याय २८,श्लोक १।
  5. भरतमुनि, नाट्यशास्त्रं, अध्याय २८,श्लोक २।
  6. भरतमुनि, नाट्यशास्त्रं, अध्याय २८,श्लोक ३३।
  7. ऋग्वेद- १०, ३२, ०४।