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| === मल्लिकार्जुन === | | === मल्लिकार्जुन === |
− | मल्लिकार्जुन नामक ज्योतिर्लिग श्रीशैल पर्वत पर स्थित है। श्रीशेल आन्ध्र प्रदेश में कर्नूल जिले के अन्तर्गत पवित्र कृष्णा नदी के तटपर है। इसे दक्षिण का केंलासभी कहा जाता है। कृष्णा नदी की जिस शाखा पर यह तीर्थ स्थित हैं उसे पातालगंगा नाम दिया गया है। श्रीशैल पर भगवान शंकर पार्वती के साथ सदैव विराजमान रहते हैं. यह मान्यता हैं। यहाँ पार्वती को मल्लिका तथा शिव को अर्जुन नाम दिया गया है। पौराणिक कथा के अनुसारअपने रुष्टपुत्र स्वामी कार्तिकेय को मनाने के लिए शिव-शक्ति यहाँ पधारे और ज्योतिर्लिग के रूप में विराजमान हो गये ।एक स्थानीय कथा केअनुसार एक राजकन्या अपने पिता के दुव्र्यवहार से बचने के लिए श्रीशैल पर्वत पर गोप-ग्वालों के मध्य रहने लगी। ग्वालों की एक शयामा गाय थी जो खूब दूध देती थी। कुछ दिन उस गाय ने दूध देना बन्द कर दिया | जाँच करने पर पता चला कि गाय स्वेच्छा से शिखर पर स्थित शिवलिंग पर अपना दूध चढ़ा देती है। तब वहाँ एक मन्दिर का निर्माण कराया गया और शिवलिंग मल्लिकार्जुन के नाम से जगतप्रसिद्ध हुआ। यहाँ पर स्थित एक शिलालेख केअनुसार स्वयं शिव एक आखेटक के रूप में पधारे तथा यहाँ के शान्त और मनोरम वातावरण के कारण यहीं विराजित हो गये । इस मन्दिर को पुरातत्वेत्ता डेढ़ से दो हजार वर्ष पुराना मानते हैं। शिवरात्रि के अवसर पर यहाँ विशाल मेला लगता है। मन्दिर की पश्चिमी दिशा में जगदम्बा का मन्दिर हैं। यहाँ पर पार्वती को माधवी या भ्रमराम्बा के नाम सेपुकारा जाता है।भ्रमराम्बा ५१ शक्तिपीठों में से एक है। नवरात्र में यहाँ मेला लगता है। यहाँ पर सती की ग्रीवा का पतन हुआ था। महाभारत के वन पर्व, शिव पुराण तथा पद्म पुराण में इस क्षेत्र के मन्दिर का निर्माण कराया गया। ११ मई १९५१ को भारत के प्रथम राष्ट्रपति महात्म्य का वर्णन किया गया है। | + | मल्लिकार्जुन नामक ज्योतिर्लिग श्रीशैल पर्वत पर स्थित है। श्रीशैल आन्ध्र प्रदेश में कर्नूल जिले के अन्तर्गत पवित्र कृष्णा नदी के तटपर है। इसे दक्षिण का कैलास भी कहा जाता है। कृष्णा नदी की जिस शाखा पर यह तीर्थ स्थित हैं उसे पातालगंगा नाम दिया गया है। श्रीशैल पर भगवान शंकर पार्वती के साथ सदैव विराजमान रहते हैं. यह मान्यता हैं। यहाँ पार्वती को मल्लिका तथा शिव को अर्जुन नाम दिया गया है। पौराणिक कथा के अनुसारअपने रुष्टपुत्र स्वामी कार्तिकेय को मनाने के लिए शिव-शक्ति यहाँ पधारे और ज्योतिर्लिग के रूप में विराजमान हो गये ।एक स्थानीय कथा के अनुसार एक राजकन्या अपने पिता के दुर्व्यवहार से बचने के लिए श्रीशैल पर्वत पर गोप-ग्वालों के मध्य रहने लगी। ग्वालों की एक शयामा गाय थी जो खूब दूध देती थी। कुछ दिन उस गाय ने दूध देना बन्द कर दिया | जाँच करने पर पता चला कि गाय स्वेच्छा से शिखर पर स्थित शिवलिंग पर अपना दूध चढ़ा देती है। तब वहाँ एक मन्दिर का निर्माण कराया गया और शिवलिंग मल्लिकार्जुन के नाम से जगतप्रसिद्ध हुआ। यहाँ पर स्थित एक शिलालेख के अनुसार स्वयं शिव एक आखेटक के रूप में पधारे तथा यहाँ के शान्त और मनोरम वातावरण के कारण यहीं विराजित हो गये । इस मन्दिर को पुरातत्वेत्ता डेढ़ से दो हजार वर्ष पुराना मानते हैं। शिवरात्रि के अवसर पर यहाँ विशाल मेला लगता है। मन्दिर की पश्चिमी दिशा में जगदम्बा का मन्दिर हैं। यहाँ पर पार्वती को माधवी या भ्रमराम्बा के नाम से पुकारा जाता है।भ्रमराम्बा ५१ शक्तिपीठों में से एक है। नवरात्र में यहाँ मेला लगता है। यहाँ पर सती की ग्रीवा का पतन हुआ था। महाभारत के वन पर्व, शिव पुराण तथा पद्म पुराण में इस क्षेत्र के मन्दिर का निर्माण कराया गया। ११ मई १९५१ को भारत के प्रथम राष्ट्रपति महात्म्य का वर्णन किया गया है। |
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| + | === महाकालेश्वर === |
| + | महाकालेश्वर ज्योतिलिंग क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित उज्जयिनी (अवन्तिक) नगरी में है। उज्जयिनी भारत की सप्तपुरियों में से एक है। सप्तपुरी प्रकरण में इसका वर्णन है। |
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| + | === ओम्कारेश्वर === |
| + | ओम्कारेश्वर मध्यभारत का प्रमुख पावन तीर्थ स्थल है।भारत के तीर्थ स्थानों की परम्परा मेंइसका अति महत्वपूर्ण स्थान है। नर्मदा(रेव) नदी के पवित्र तट पर स्थित ओम्कारेश्वर मन्दिर शिवभक्तों को अतिप्रिय हैं। नर्मदा नदी यहाँ कई शाखाओं में बंट कर बहती है। जिससे नदी के मध्य एक द्वीप बन जाता है। इसे मान्धाता द्वीप या शिवपुरी कहा जाता है। यह ज्योतिर्लिग दो स्थानों पर ओम्कारेश्वर तथा अमरेश्वर के रूप में स्थित है इक्ष्वाकु वंशीय राजा मान्धाता ने यहाँ भगवान् शिव की पूजा की थी। तपस्या से प्रसन्न शिव ने यहीं लिंग रूप में रहने का आश्वासन दिया। ओम्कारेश्वर अनगढ़ प्रतिमा है जिसके चारों ओर जल भरा रहता है। शिव-विग्रह के पास में ही पार्वती की, और मन्दिर के परकोटे में पंचमुखी गणेश जी की प्रतिमा है। प्रतापी पेशवाओं ने इसका जीणोद्धार कराया।अमरेश्वर तीर्थ भी इसी से सम्बन्धित है। यहाँ पर रानी अहिल्याबाई का बनवाया हुआ मन्दिर हैं । |
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| + | ओम्कारेश्वर / अमरेश्वर के सम्बन्ध में पौराणिक उल्लेख इस प्रकार है: |
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| + | विंध्याचल पर्वत ने ऑकारेश्वर की पूजा की। पूजा से शिव प्रसन्न हुए, तब विन्धय ने पार्थिव तथा यत्र रूप में शिव को वहीं विराजित रहने की प्रार्थना की। तभी यह ज्योतिर्लिग दो स्थानों पर अवस्थित हो गया । कार्तिक मास की पूर्णिमा व महाशिवरात्रि पर यहाँ विशाल मेला लगता हैं।भक्त सच्चे मन से पूजा कर अपनी मनोकामना पूर्ण करते हैं। |
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| + | === केदारनाथ === |
| + | हिमालय के सुरम्यक्षेत्र में केदारपर्वत पर केदारेश्वर अथवा केदारनाथ ज्योतिर्लिग विराजमान है। सत्ययुग में उपमन्यु ने यहाँ भगवान् शिव की आराधना कीथी।द्वापरमें पाण्डवों ने भी यहाँ तपस्या की थी। शिव पुराण के अनुसार नर-नारायण ने इस क्षेत्र में भगवान् शिव की आराधना की। उससे प्रसन्न हो शिव ने वर माँगने को कहा तो उन्होंने शिव से लोक-कल्याण के लिए वहीं प्रतिष्ठित होने की प्रार्थना की, फलस्वरूप देवाधि-देव केदार तीर्थ में ज्योतिर्लिग के रूप में स्थित हो गये । स्कन्द पुराण मेंभी केदार क्षेत्र का उल्लेख आया है। महाभारत के वनपर्व में इस क्षेत्र का वर्णन आया है। इसक्षेत्र में स्नान-दान सेअक्षयपुण्य प्राप्त होता है।भारवि व कालिदास ने इस क्षेत्र कीप्राकृतिक सुषमा तथा आध्यात्मिक शान्ति का मार्मिक चित्रण किया है। यहीं अर्जुन ने दिव्यास्त्रों कीप्राप्ति के लिए तपस्या की। तब उसकी परीक्षा के लिए किरात रूप में शांकर ने युद्ध किया और प्रसन्न होकर पाशुपत अस्त्र प्रदान किया। केदार क्षेत्र सिद्धों यक्षों तथा साधुओं का निवास है। भगवान् शिव यहाँ योग मुद्रा में विराजमान हैं। |
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| + | केदारनाथ समुद्रतल से ६९४० मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ सदैव हिम जमा रहता है। ग्रीष्म ऋतु में हिम पिघलने परमन्दिर के कपाट कुछ दिनों के लिए खुलते हैं, तभी केदारेश्वर के दर्शन होते हैं। केदारनाथ के पास से मन्दाकिनी नदी निकलती हैं। यह नदी रुद्र प्रयाग में अलकनन्दा में मिल जाती है जो आगे चलकर भागीरथी से मिलकर पतित पावनी गंगा का रूप लेती है।पास में ही गौरीकुण्ड हैजहाँ भगवती पार्वती ने स्नान किया था। भगवान् शिव औरपार्वती के विवाह के साक्षी रूप प्रज्वलित अग्नि अग्निकुण्ड के रूप में आज भी विद्यमान है। हरिद्वार में कुंभ और अर्द्धकुंभ के अवसरपर केदारनाथ की यात्रा का विशेष महात्म्य है। |
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| ==References== | | ==References== |