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| यह सम्बन्ध शारीरिक से शुरू होकर आत्मिक तक पहुँचता है और एकात्मता साधी जाती है । वह भले ही स्थूल सम्भोग से प्रारम्भ हुआ हो, भले ही उसका प्रेरक तत्त्व मैथुन रहा हो, मैथुन की वृत्ति रही हो, भले ही इसमें मन के स्तर पर आसक्ति रहती हो, भले ही इसमें बुद्धि के स्तर पर कर्तव्य भावना का भी विकास होता हो तो भी इसकी परिणति, इसकी चरम परिणति तो आत्मिक सम्बन्धमें और आनन्द में ही होनी चाहिये । यह सब विवाह संस्कार के माध्यम से स्त्री और पुरुष को, पति और पत्नी को सिखाया जाता है और सिखाया जाना चाहिये । | | यह सम्बन्ध शारीरिक से शुरू होकर आत्मिक तक पहुँचता है और एकात्मता साधी जाती है । वह भले ही स्थूल सम्भोग से प्रारम्भ हुआ हो, भले ही उसका प्रेरक तत्त्व मैथुन रहा हो, मैथुन की वृत्ति रही हो, भले ही इसमें मन के स्तर पर आसक्ति रहती हो, भले ही इसमें बुद्धि के स्तर पर कर्तव्य भावना का भी विकास होता हो तो भी इसकी परिणति, इसकी चरम परिणति तो आत्मिक सम्बन्धमें और आनन्द में ही होनी चाहिये । यह सब विवाह संस्कार के माध्यम से स्त्री और पुरुष को, पति और पत्नी को सिखाया जाता है और सिखाया जाना चाहिये । |
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− | विवाह का दूसरा उद्देश्य है परम्परा बनाये रखने की व्यवस्था करना और इसी दृष्टि से विवाह को भी व्याख्यायित किया गया है। विवाह का उद्देश्य काम प्रेरित सुख नहीं है। ऐसे जीवन में स्त्री और पुरुष के आयुष्य में एक समय ऐसा आता है, कि स्त्री को पुरुष से ही सुख मिलता है, पुरुष को स्त्री से ही सुख मिलता है, यह काम सुख है । और इस दृष्टि से स्त्री और पुरुष का साथ आना अनिवार्य भी बन जाता है । इस अनिवार्यता को समाज की मान्यता, कानून की मान्यता मिले ऐसी व्यवस्था की जाती है । यह मान्यता इसलिये चाहिये कि दोनों फिर एक दूसरे को धोखा न दे । स्वसुरक्षा की भावना से ही यह सम्बन्ध बनता है और इसलिये उसको करार कहा जाता है । करार में दोनों पक्ष अपनेअपने सुख की रक्षा करने की चिन्ता करते हैं । इस कारण से भारत में कुटुम्ब भी नहीं बनता, समाज भी नहीं बनता | भारत में विवाह का उद्देश्य केवल काम सुख नहीं है, काम सुख की प्राप्ति नहीं है, विवाह का उद्देश्य परम्परा बनाना है, कुल परम्परा बनाना है, वंश परम्परा बनाना है और इसलिये कुटुम्ब के लिये, गृहस्थाश्रमी के लिये ऋणत्रय की कल्पना की गयी है । | + | विवाह का दूसरा उद्देश्य है परम्परा बनाये रखने की व्यवस्था करना और इसी दृष्टि से विवाह को भी व्याख्यायित किया गया है। विवाह का उद्देश्य काम प्रेरित सुख नहीं है। ऐसे जीवन में स्त्री और पुरुष के आयुष्य में एक समय ऐसा आता है, कि स्त्री को पुरुष से ही सुख मिलता है, पुरुष को स्त्री से ही सुख मिलता है, यह काम सुख है । और इस दृष्टि से स्त्री और पुरुष का साथ आना अनिवार्य भी बन जाता है । इस अनिवार्यता को समाज की मान्यता, कानून की मान्यता मिले ऐसी व्यवस्था की जाती है । यह मान्यता इसलिये चाहिये कि दोनों फिर एक दूसरे को धोखा न दे । स्वसुरक्षा की भावना से ही यह सम्बन्ध बनता है और इसलिये उसको करार कहा जाता है । करार में दोनों पक्ष अपनेअपने सुख की रक्षा करने की चिन्ता करते हैं । इस कारण से भारत में कुटुम्ब भी नहीं बनता, समाज भी नहीं बनता । भारत में विवाह का उद्देश्य केवल काम सुख नहीं है, काम सुख की प्राप्ति नहीं है, विवाह का उद्देश्य परम्परा बनाना है, कुल परम्परा बनाना है, वंश परम्परा बनाना है और इसलिये कुटुम्ब के लिये, गृहस्थाश्रमी के लिये ऋणत्रय की कल्पना की गयी है । |
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| सब से पहला ऋण है पितृऋण । पतिपत्नी बन कर मातापिता बनना है । मातापिता बनने के लिये ही विवाह किया जाता है, पतिपत्नी बना जाता है । मातापिता बन कर बालक को जन्म देना यह सब से महत्त्वपूर्ण दायित्व है, महत्वपूर्ण कर्तव्य है क्योंकि मातापिता के कारण से ही हमारा जन्म हुआ है । यह पितुऋण से मुक्त होने का माध्यम है । पूर्वजों की असंख्य पीढ़ियों की परम्परा हमारे जन्म से आगे बढ़ी है । इसे आगे बढ़ाना हमारा कर्तव्य है । इसलिये आगे की पीढ़ी की शुरूआत हम जिस बालक को जन्म देंगे, उससे होगी इसलिये विवाह करना है । विवाह का दूसरा उद्देश्य संस्कृति की परम्परा निभाना है । यह भी पितृऋण से मुक्त होने का दूसरा प्रकार है। गृहस्थाश्रमी के लिये दूसरा ऋण ऋषिऋण है । हमारे देश में ज्ञान की जो परम्परा बनी है, ज्ञान देने वालें जो पूर्वज हैं, जिनको गुरु कहा जाता है, ऋषि कहा जाता है, ज्ञानी कहा जाता है, उनसे हमें जो ज्ञान प्राप्त हुआ है, संस्कार प्राप्त हुए हैं, जीवन की दृष्टि प्राप्त हुई है, जीवन की पद्धति प्राप्त हुई है, हमारी समझ बनी हैं उससे ऋण मुक्त भी बालक को जन्म देने से ही हुआ जाता है । इसलिये उनके ज्ञान के परिणाम स्वरूप जो संस्कार संस्कृति, रीतिरिवाज, परम्परायें हमारे तक पहुँची है उन्हें आगे तक पहुँचाने का हमारा कर्तव्य बनता है, हमारा दायित्व बनता है । | | सब से पहला ऋण है पितृऋण । पतिपत्नी बन कर मातापिता बनना है । मातापिता बनने के लिये ही विवाह किया जाता है, पतिपत्नी बना जाता है । मातापिता बन कर बालक को जन्म देना यह सब से महत्त्वपूर्ण दायित्व है, महत्वपूर्ण कर्तव्य है क्योंकि मातापिता के कारण से ही हमारा जन्म हुआ है । यह पितुऋण से मुक्त होने का माध्यम है । पूर्वजों की असंख्य पीढ़ियों की परम्परा हमारे जन्म से आगे बढ़ी है । इसे आगे बढ़ाना हमारा कर्तव्य है । इसलिये आगे की पीढ़ी की शुरूआत हम जिस बालक को जन्म देंगे, उससे होगी इसलिये विवाह करना है । विवाह का दूसरा उद्देश्य संस्कृति की परम्परा निभाना है । यह भी पितृऋण से मुक्त होने का दूसरा प्रकार है। गृहस्थाश्रमी के लिये दूसरा ऋण ऋषिऋण है । हमारे देश में ज्ञान की जो परम्परा बनी है, ज्ञान देने वालें जो पूर्वज हैं, जिनको गुरु कहा जाता है, ऋषि कहा जाता है, ज्ञानी कहा जाता है, उनसे हमें जो ज्ञान प्राप्त हुआ है, संस्कार प्राप्त हुए हैं, जीवन की दृष्टि प्राप्त हुई है, जीवन की पद्धति प्राप्त हुई है, हमारी समझ बनी हैं उससे ऋण मुक्त भी बालक को जन्म देने से ही हुआ जाता है । इसलिये उनके ज्ञान के परिणाम स्वरूप जो संस्कार संस्कृति, रीतिरिवाज, परम्परायें हमारे तक पहुँची है उन्हें आगे तक पहुँचाने का हमारा कर्तव्य बनता है, हमारा दायित्व बनता है । |
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| == आत्मीयता एक आधारभूत तत्त्व == | | == आत्मीयता एक आधारभूत तत्त्व == |
− | आत्मीयता का अर्थ है अपनापन । अपनापन की | + | आत्मीयता का अर्थ है अपनापन । अपनेपन की आधारभूत भावना प्रेम की होती है । प्रेम का व्यवहार, स्वार्थ का त्याग और दूसरों का विचार पहले करना यही होता है । सेवा और त्याग इसके प्रमुख लक्षण है । दूसरों के लिये कष्ट करना यह भी स्वाभाविक कार्य है । इसलिये परिवार भावना के सूत्र पर जब सामाजिक व्यवहार बनता है तब लोग अपने से पहले दूसरों का विचार करते हैं । जब लोग स्वाभाविक रूप से ऐसा करते हैं तब सबके सुरक्षा, सम्मान और सबके अधिकार तथा आवश्यकताओं का रक्षण अपने आप हो जाता है । लोग अधिकार की भाषा नहीं बोलते, कर्तव्य की भाषा बोलते हैं इसलिये सुख और सौजन्य यह बातें स्वभाविक बन जाती हैं । किसी को किसी से अपनी रक्षा करने की आवश्यकता नहीं पड़ती । विश्वास ही सम्बन्ध सूत्र बनता है और विश्वास के कारण से समाज में शांति बनी रहती है और तनाव भी नहीं बढ़ता । एक दूसरे के प्रति अविश्वास नहीं होने के कारण से संघर्ष और हिंसा नहीं बढ़ते । छलकपट नहीं होता और इसी से समृद्धि, शान्ति, सुख, स्नेह आदि में वृद्धि होती है। इसी को सुसंस्कृत समाज कहा जाता है । ऐसा सुसंस्कृत समाज बनाने के लिये आत्मीयता का सम्बन्ध बहुत आवश्यक है । |
| | | |
− | आधारभूत भावना प्रेम की होती है । प्रेम का व्यवहार, | + | भारत में परिवार भावना इस आत्मीयता की भावना ही है और समाज जीवन के सभी व्यवहारों में आत्मीयता ही आधारभूत तत्त्व है । भारत में बाजार भी चलता है तो इस परिवार भावना के सूत्र को लेकर ही चलता है । व्यवसाय किये जाते हैं उसी और प्रेरक तत्त्व से और राज्य व्यवस्था, इसी तत्त्व को लेकर होती है । वाणिज्य व्यवस्था इसी भी तत्त्व को लेकर होती है । कारीगरी भी इसी तत्त्व को लेकर होती है । इसलिये भारत का समाज सुसंस्कृत समाज कहा जाता है और इसका एक अत्यन्त व्यावहारिक परिणाम है कि ऐसा समाज दीर्घजीवी बनता है । ऐसे समाज का नाश नहीं होता और इतिहास साक्षी है कि भारत का नाश नहीं हुआ है। यह आत्मीयता परिवार जीवन का सब से महत्त्वपूर्ण पहलू है । |
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− | स्वार्थ का त्याग और दूसरों का विचार पहले करना यही
| + | पतिपत्नी की एकात्मता से प्रारम्भ हुआ यह सम्बन्ध मातापिता और सन्तानों में विकसित होता है । इसलिये मातापिता का और सन्तानों का सम्बन्ध भी एकात्म सम्बन्ध, आत्मीय सम्बन्ध है । पश्चिम की तरह बच्चों का स्वतंत्र जीवन, स्वतंत्र सुख, स्वतंत्र रुचि, ऐसी कल्पना यहाँ नहीं की गई है परन्तु पीढ़ियों की निरन्तरता में अपने आप को व्यवस्थित करना यही सन्तानों से भी अपेक्षा है । इसलिये माता-पिता के जीवन का विस्तार ही सन्तति है । मातापिता का जो स्वभाव और जो गुण लक्षण हैं वे भी सन्तति में उतरते हैं और माता-पिता का जो सामाजिक दायित्व है वह विरासत उसकी सन्तानों को मिलती है । पिता के यश का भागी पुत्र है । पिता के ऋण का भी भागी पुत्र है । पिता यदि ऋण छोड़ कर गये हैं तो पुत्र का स्वाभाविक कर्तव्य बनता है कि उस ऋण को चुकाये । इस दृष्टि से एकात्मता के सम्बन्ध का विस्तार माता-पिता और सन्तानों के सम्बन्ध में हुआ । इसका अगला चरण है सहोदर सम्बन्ध । भाईबहनों में एकात्मता एक ही मातापिता की सन्तान होने के कारण से बनती है । और एक ही विरासत के वे सभी समान रूप से भागी बनते हैं । उनका समान रूप से अधिकार भी बनता है । भारत में सम्पत्ति की व्यवस्था और विरासत के जो भी कानून या जो भी नियम बनाये गये थे वे इस एक़ात्मता सिद्धान्त के आधार पर ही बनते थे । सहोदरों में आत्मीयता इसका विस्तार मित्रों में होता है । आगे चलकर इसका विस्तार होते होते “वसुधैव कुट्म्बकम् की भावना स्थापित होती है । |
| | | |
− | होता है । सेवा और त्याग इसके प्रमुख लक्षण है । दूसरों
| + | श्रेष्ठ संस्कृति का लक्षण यह है कि भूत मात्र के प्रति आत्मीय सम्बन्ध रखना हर मनुष्य का कर्तव्य माना गया है । हर एक का उपकार मानना हर एक के प्रति कृतज्ञता दर्शाना यही मनुष्य का परम कर्तव्य बताया गया है । |
− | | |
− | के लिये कष्ट करना यह भी स्वाभाविक कार्य है । इसलिये
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− | | |
− | परिवार भावना के सूत्र पर जब सामाजिक व्यवहार बनता है
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− | | |
− | तब लोग अपने से पहले दूसरों का विचार करते हैं । जब
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− | | |
− | लोग स्वाभाविक रूप से ऐसा करते हैं तब सबके सुरक्षा,
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− | | |
− | सम्मान और सबके अधिकार तथा आवश्यकताओं का
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− | | |
− | रक्षण अपने आप हो जाता है । लोग अधिकार की भाषा
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− | | |
− | नहीं बोलते, कर्तव्य की भाषा बोलते हैं इसलिये सुख और
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− | | |
− | सौजन्य यह बातें स्वभाविक बन जाती हैं । किसी को किसी
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− | | |
− | से अपनी रक्षा करने की आवश्यकता नहीं पड़ती । विश्वास
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− | | |
− | ही सम्बन्ध सूत्र बनता है और विश्वास के कारण से समाज
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− | | |
− | में शांति बनी रहती है और तनाव भी नहीं बढ़ता । एक
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− | | |
− | दूसरे के प्रति अविश्वास नहीं होने के कारण से संघर्ष और
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− | | |
− | हिंसा नहीं बढ़ते । छलकपट नहीं होता और इसी से समृद्धि,
| |
− | | |
− | शान्ति, सुख, स्नेह आदि में वृद्धि होती है। इसी को
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− | | |
− | सुसंस्कृत समाज कहा जाता है । ऐसा सुसंस्कृत समाज
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− | | |
− | बनाने के लिये आत्मीयता का सम्बन्ध बहुत आवश्यक है ।
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− | | |
− | भारत में परिवार भावना इस आत्मीयता की भावना ही है
| |
− | | |
− | और समाज जीवन के सभी व्यवहारों में आत्मीयता ही
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− | | |
− | आधारभूत तत्त्व है । भारत में बाजार भी चलता है तो इस
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− | | |
− | परिवार भावना के सूत्र को लेकर ही चलता है । व्यवसाय
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− | | |
− | किये जाते हैं उसी और प्रेरक तत्त्व से और राज्य व्यवस्था,
| |
− | | |
− | इसी तत्त्व को लेकर होती है । वाणिज्य व्यवस्था इसी भी
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− | | |
− | तत्त्व को लेकर होती है । कारीगरी भी इसी तत्त्व को लेकर
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− | | |
− | होती है । इसलिये भारत का समाज सुसंस्कृत समाज कहा
| |
− | | |
− | जाता है और इसका एक अत्यन्त व्यावहारिक परिणाम है
| |
− | | |
− | कि ऐसा समाज दीर्घजीवी बनता है । ऐसे समाज का नाश
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− | | |
− | नहीं होता और इतिहास साक्षी है कि भारत का नाश नहीं
| |
− | | |
− | हुआ है। यह आत्मीयता परिवार जीवन का सब से
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− | | |
− | महत्त्वपूर्ण पहलू है । पतिपत्नी की एकात्मता से प्रारम्भ
| |
− | | |
− | हुआ यह सम्बन्ध मातापिता और सन्तानों में विकसित होता
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− | | |
− | BI
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− | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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− | | |
− | है । इसलिये मातापिता का और सन्तानों का सम्बन्ध भी
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− | | |
− | एकात्म सम्बन्ध, आत्मीय सम्बन्ध है । पश्चिम की तरह
| |
− | | |
− | बच्चों का स्वतंत्र जीवन, स्वतंत्र सुख, स्वतंत्र रुचि, ऐसी
| |
− | | |
− | कल्पना यहाँ नहीं की गई है परन्तु पीढ़ियों की निरन्तरता में
| |
− | | |
− | अपने आप को व्यवस्थित करना यही सन्तानों से भी
| |
− | | |
− | अपेक्षा है । इसलिये माता-पिता के जीवन का विस्तार ही
| |
− | | |
− | सन्तति है । मातापिता का जो स्वभाव और जो गुण लक्षण
| |
− | | |
− | हैं वे भी सन्तति में उतरते हैं और माता-पिता का जो
| |
− | | |
− | सामाजिक दायित्व है वह विरासत उसकी सन्तानों को
| |
− | | |
− | मिलती है । पिता के यश का भागी पुत्र है । पिता के ऋण
| |
− | | |
− | का भी भागी पुत्र है । पिता यदि ऋण छोड़ कर गये हैं तो
| |
− | | |
− | पुत्र का स्वाभाविक कर्तव्य बनता है कि उस ऋण को
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− | | |
− | चुकाये । इस दृष्टि से एकात्मता के सम्बन्ध का विस्तार
| |
− | | |
− | माता-पिता और सन्तानों के सम्बन्ध में हुआ | इसका
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− | | |
− | अगला चरण है सहोदर सम्बन्ध । भाईबहनों में एकात्मता
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− | | |
− | एक ही मातापिता की सन्तान होने के कारण से बनती है ।
| |
− | | |
− | और एक ही विरासत के वे सभी समान रूप से भागी बनते
| |
− | | |
− | हैं । उनका समान रूप से अधिकार भी बनता है । भारत में
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− | | |
− | सम्पत्ति की व्यवस्था और विरासत के जो भी कानून या जो
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− | | |
− | भी नियम बनाये गये थे वे इस एक़ात्मता सिद्धान्त के
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− | | |
− | आधार पर ही बनते थे । सहोदरों में आत्मीयता इसका
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− | | |
− | विस्तार मित्रों में होता है । आगे चलकर इसका विस्तार
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− | | |
− | होते होते “वसुधैव कुट्म्बकम् की भावना स्थापित होती है ।
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− | | |
− | श्रेष्ठ संस्कृति का लक्षण यह है कि भूत मात्र के प्रति | |
− | | |
− | आत्मीय सम्बन्ध रखना हर मनुष्य का कर्तव्य माना गया | |
− | | |
− | है । हर एक का उपकार मानना हर एक के प्रति कृतज्ञता | |
− | | |
− | दर्शाना यही मनुष्य का परम कर्तव्य बताया गया है । | |
| | | |
| == गृहसंचालन के कार्य == | | == गृहसंचालन के कार्य == |
− | परिवार व्यवस्था में दूसरा आयाम है गृह संचालन | + | परिवार व्यवस्था में दूसरा आयाम है गृह संचालन। परिवार में बहुत सारे काम होते हैं । परिवार बनाये रखने के लिये, परिवार चलाने के लिये, अनेक प्रकार की कुशलताओं की आवश्यकता होती हैं । इन कुशलताओं में परिवार के सारे कामों का समावेश होता है । इसलिये शिक्षा की व्यवस्था में कुटुम्ब जीवन की शिक्षा यह भी प्रमुख मुद्दा है। बाल शिक्षा में इसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा मानकर इसका समावेश करने की आवश्यकता है । पूर्व में यह अपने आप होती थी । परिवार भी शिक्षा और संस्कार का बहुत बडा केन्द्र था । परिवार संस्कार देने का भी बहुत बडा केन्द्र था । बालक की शिक्षा गर्भाधान के क्षण से ही शुरू हो जाती है । यह शिक्षा तो अनिवार्य रूप से कुटुम्ब में ही दी जाती है । माता और पिता मिलकर यह शिक्षा देते हैं । इसलिये माता को प्रथम और पिता को दूसरा गुरु कहा गया है । चरित्र निर्माण का सारा दायित्व माता और पिता का ही है । संस्कार देने का, कौशल सिखाने का दायित्व भी माता और पिता का है । इसलिये परिवार चलाने के सारे के सारे काम बालकों को सिखाना यह उनकी शिक्षा का प्रमुख हिस्सा है । ये सभी काम अत्यंत छोटे से लेकर बहुत बड़े तक हो सकते हैं । इसकी मोटी मोटी सूची इस प्रकार बन सकती है । |
− | | + | # व्यक्तिगत स्वच्छता के सारे काम । उदाहरण के लिये सभी को स्नान करना, दाँत साफ करना, बाल ठीक करना, वस्त्र साफ करना, ये सब सिखाया जाना चाहिये । यह व्यक्तिगत काम हुए परन्तु इसके आगे घर की सफाई करना । उसमें भी वस्त्र धोना, बर्तन साफ करना, साजसज्जा करना आदि सभी कामों का समावेश होता है । बालकों को ये अच्छी तरह से करना सिखाना चाहिये । उसमें उनकी रूचि जागृत करनी चाहिये । ये काम करने में उनको आनन्द आना चाहिये। यही शिक्षा का लक्षण है। यह काम जबरदस्ती से किये जाते हैं या ये काम करना है ऐसी भावना पनपती है । ऐसी भावना विकसित नहीं होनी चाहिये । बल्कि अपना केवल कर्तव्य ही नहीं तो इन कामों को करने में रुचि है, आनन्द है उत्साह है ऐसी शिक्षा देने की आवश्यकता है । |
− | परिवार में बहुत सारे काम होते हैं । परिवार बनाये रखने के | + | # इससे भी एक महत्त्वपूर्ण काम है । खरीदी करना । वस्तुओं की गुणवत्ता की परख करना, इनके उपयोग कुशलता पूर्वक करना, इनका अपव्यय नहीं करना, यह सब बहुत ही आवश्यक काम है । आवश्यक गुण भी है, यह सिखाना चाहिये । |
− | | + | # घर के सामान का रख-रखाव करना, उनकी संभाल करना यह भी एक महत्त्वपूर्ण कुशलता सिखाने की आवश्यकता है । |
− | लिये, परिवार चलाने के लिये, अनेक प्रकार की | + | # भोजन बनाना और बालकों का संगोपन करना यह तो कुटुम्ब के सर्वतोपरि महत्त्वपूर्ण और श्रेष्ठ काम हैं । अगर हम मनुष्य जीवन के लिये उपयोगी, मनुष्य जीवन को उन्नत बनाने वाले, मनुष्य जीवन को श्रेष्ठ बनाने वाले दस कामों की सूची बनायें तो इसमें सब से ऊपर सब से प्रमुख काम होगा बालकों का संगोपन करना और दूसरा काम होगा भोजन बनाना क्योंकि बालकों के संगोपन से पीढ़ी निर्माण होती है और भोजन से संस्कारों की सुरक्षा होती है । भोजन से तो शरीर प्राण, मन, बुद्धि, चित्त सभी का पोषण होता है इसलिये अन्न को हमने ब्रह्म कहा है और भोजन को पवित्र कार्य बताया गया है । अतः भोजन बनाना, भोजन करना और करवाना यह कुटुम्ब का महत्त्वपूर्ण काम है। सब परिवार जनों को यह काम आना चाहिये । इसमें कुशलता है, भावना है, और संस्कार भी है । |
− | | + | # बच्चों का संगोपन, उनकी परिचर्या कैसे करना, उनको छोटे-छोटे काम कैसे सिखाना, उनका चरित्र निर्माण कैसे करना, उनके गुणों का विकास कैसे करना यह सारी बातें अच्छी तरह से सीखने योग्य है और यह सिखाना बालकों की शिक्षा का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है । |
− | कुशलताओं की आवश्यकता होती हैं । इन कुशलताओं में | + | # परिवार में अतिथि सत्कार करना यह समाज से जुड़ने का सबसे प्रमुख माध्यम है इसलिये घर के सभी लोगों को अतिथि सत्कार भी आना चाहिये । सामाजिक कर्तव्य, समाज की सेवा करना, व्यवसाय का चयन करना भी समाज सेवा की दृष्टि से ही होना चाहिये । इस व्यवसाय के लिये कुशलतायें अर्जित करना यह भी परिवार में ही होता है । सामाजिक कर्तव्य जैसे दान करना, यज्ञ करना आदि भी आना चाहिये । |
− | | |
− | परिवार के सारे कामों का समावेश होता है । इसलिये शिक्षा | |
− | | |
− | की व्यवस्था में कुटुम्ब जीवन की शिक्षा यह भी प्रमुख मुद्दा | |
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− | ............. page-235 .............
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− | पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा
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− | है। बाल शिक्षा में इसेमहत्त्वपूर्ण मुद्दा मानकर इसका | |
− | | |
− | समावेश करने की आवश्यकता है । पूर्व में यह अपने आप | |
− | | |
− | होती थी । परिवार भी शिक्षा और संस्कार का बहुत बडा | |
− | | |
− | केन्द्र था । परिवार संस्कार देने का भी बहुत बडा केन्द्र | |
− | | |
− | था । बालक की शिक्षा गर्भाधान के क्षण से ही शुरू हो | |
− | | |
− | जाती है । यह शिक्षा तो अनिवार्य रूप से कुटुम्ब में ही दी | |
− | | |
− | जाती है । माता और पिता मिलकर यह शिक्षा देते हैं । | |
− | | |
− | इसलिये माता को प्रथम और पिता को दूसरा गुरु कहा गया | |
− | | |
− | है । चरित्र निर्माण का सारा दायित्व माता और पिता का ही | |
− | | |
− | है । संस्कार देने का, कौशल सिखाने का दायित्व भी माता | |
− | | |
− | और पिता का है । इसलिये परिवार चलाने के सारे के सारे | |
− | | |
− | काम बालकों को सिखाना यह उनकी शिक्षा का प्रमुख | |
− | | |
− | हिस्सा है । ये सभी काम अत्यंत छोटे से लेकर बहुत बड़े | |
− | | |
− | तक हो सकते हैं । इसकी मोटीमोटी सूची इस प्रकार बन | |
− | | |
− | सकती है । | |
− | | |
− | (१) व्यक्तिगत स्वच्छता के सारे काम । उदाहरण के
| |
− | | |
− | लिये सभी को स्नान करना, दाँत साफ करना, बाल ठीक | |
− | | |
− | करना, वस्त्र साफ करना, ये सब सिखाया जाना चाहिये । | |
− | | |
− | यह व्यक्तिगत काम हुए परन्तु इसके आगे घर की सफाई | |
− | | |
− | करना । उसमें भी वस्त्र धोना, बर्तन साफ करना, साजसज्जा | |
− | | |
− | करना आदि सभी कामों का समावेश होता है । बालकों को | |
− | | |
− | ये । अच्छी तरह से करना सिखाना चाहिये । उसमें उनकी | |
− | | |
− | रूचि जागृत करनी चाहिये । ये काम करने में उनको आनन्द | |
− | | |
− | आना चाहिये। यही शिक्षा का लक्षण है। यह काम | |
− | | |
− | जबरदस्ती से किये जाते हैं या ये काम करना है ऐसी | |
− | | |
− | भावना पनपती है । ऐसी भावना विकसित नहीं होनी | |
− | | |
− | चाहिये । बल्कि अपना केवल कर्तव्य ही नहीं तो इन कामों | |
− | | |
− | को करने में रुचि है, आनन्द है उत्साह है ऐसी शिक्षा देने | |
− | | |
− | की आवश्यकता है । इससे भी एक महत्त्वपूर्ण काम है । | |
− | | |
− | खरीदी करना । वस्तुओं की गुणवत्ता की परख करना, इनके | |
− | | |
− | उपयोग कुशलता पूर्वक करना, इनका अपव्यय नहीं करना, | |
− | | |
− | यह सब बहुत ही आवश्यक काम है । आवश्यक गुण भी | |
− | | |
− | है, यह सिखाना चाहिये । घर के सामान का रख-रखाव | |
− | | |
− | करना, उनकी संभाल करना यह भी एक महत्त्वपूर्ण | |
− | | |
− | कुशलता सिखाने की आवश्यकता है । भोजन बनाना और | |
− | | |
− | रश१९
| |
− | | |
− | बालकों का संगोपन करना यह तो | |
− | | |
− | कुटुम्ब के सर्वतोपरि महत्त्वपूर्ण और श्रेष्ठ काम हैं । अगर | |
− | | |
− | हम मनुष्य जीवन के लिये उपयोगी, मनुष्य जीवन को उन्नत | |
− | | |
− | बनाने वाले, मनुष्य जीवन को श्रेष्ठ बनाने वाले दस कामों | |
− | | |
− | की सूची बनायें तो इसमें सब से ऊपर सब से प्रमुख काम | |
− | | |
− | होगा बालकों का संगोपन करना और दूसरा काम होगा | |
− | | |
− | भोजन बनाना क्योंकि बालकों के संगोपन से पीढ़ी निर्माण | |
− | | |
− | होती है और भोजन से संस्कारों की सुरक्षा होती है । भोजन | |
− | | |
− | से तो शरीर प्राण, मन, बुद्धि, चित्त सभी का पोषण होता है | |
− | | |
− | इसलिये अन्न को हमने ब्रह्म कहा है और भोजन को पवित्र | |
− | | |
− | कार्य बताया गया है । अतः भोजन बनाना, भोजन करना | |
− | | |
− | और करवाना यह कुटुम्ब का महत्त्वपूर्ण काम है। सब | |
− | | |
− | परिवार जनों को यह काम आना चाहिये । इसमें कुशलता | |
− | | |
− | है, भावना है, और संस्कार भी है । बच्चों का संगोपन, | |
− | | |
− | उनकी परिचर्या कैसे करना, उनको छोटे-छोटे काम कैसे | |
− | | |
− | सिखाना, उनका चरित्र निर्माण कैसे करना, उनके गुणों का | |
− | | |
− | विकास कैसे करना यह सारी बातें अच्छी तरह से सीखने | |
− | | |
− | योग्य है और यह सिखाना बालकों की शिक्षा का महत्त्वपूर्ण | |
− | | |
− | हिस्सा है । परिवार में अतिथि सत्कार करना यह समाज से | |
− | | |
− | जुड़ने का सबसे प्रमुख माध्यम है इसलिये घर के सभी | |
− | | |
− | लोगों को अतिथि सत्कार भी आना चाहिये । सामाजिक | |
− | | |
− | कर्तव्य, समाज की सेवा करना, व्यवसाय का चयन करना | |
− | | |
− | भी समाज सेवा की दृष्टि से ही होना चाहिये । इस व्यवसाय | |
− | | |
− | के लिये कुशलतायें अर्जित करना यह भी परिवार में ही | |
− | | |
− | होता है । सामाजिक कर्तव्य जैसे दान करना, यज्ञ करना | |
− | | |
− | आदि भी आना चाहिये । | |
| | | |
| == कुटुम्ब शिक्षा के पाठ्यक्रम == | | == कुटुम्ब शिक्षा के पाठ्यक्रम == |
− | घर में संस्कार का एक आयाम है पूजा करना । | + | घर में संस्कार का एक आयाम है पूजा करना । अपने अपने इष्ट देव अपने अपने कुल देवता की पूजा करना, उनसे और अपने कुल धर्म से सम्बन्धित व्रत, पर्व, उत्सव, त्योहार मनाने की विधि क्या है यह भी आना चाहिये । इस प्रकार कुटुम्ब जीवन को केन्द्र बनाते हुए अनेक प्रकार की कुशलतायें अर्जित करना यह कुटुम्ब व्यवस्था का, कुटुम्ब जीवन का एक महत्त्वपूर्ण भाग है । |
| | | |
− | SAA FI AMAA कुल देवता की पूजा करना
| + | परिवार की रचना तीसरा अंग है। परिवार की रचना सम्बन्धों से होती है । यह सम्बन्ध पति-पत्नी से शुरू होता है और सहोदरों तक और बाद में चाचा, मामा, बुआ, मौसी इत्यादि के रूप में इनका विस्तार होता रहता है । यह बहुत बड़ा कुटुम्ब है, इसकी रचना क्या है, रचना में अपना स्थान क्या है, अपने उस स्थान के अनुसार अपने दायित्व क्या बनते हैं, इसकी शिक्षा यह कुटुम्ब शिक्षा का एक अहम मुद्दा है । इस शिक्षा की भी व्यवस्था होनी चाहिये । |
| | | |
− | उनसे और अपने कुल धर्म से सम्बन्धित व्रत, पर्व, उत्सव,
| + | इस प्रकार विद्यापीठ ने परिवार जीवन को व्याख्यायित करने का प्रथम प्रयास किया । इसका ग्रन्थ बना गृहशास्त्र । इसके छोटेछोटे हिस्से बनाये गये और इनकों व्यापक रूप में प्रसारित करने की योजना भी बनी । कुटुम्ब जीवन प्रारम्भ करने के लिये व्यवस्थित शिक्षा देने की आवश्यकता है । इसका अनुभव कर गृहशास्त्र के आधार पर छोटे-छोटे पाठ्यक्रम भी बनाये गये । ये पाठ्यक्रम इस प्रकार थे । |
| + | # सब से पहला था वर-वधु चयन और विवाह संस्कार । इस पाठ्यक्रम की जो विषय वस्तु थी वह इस प्रकार है । |
| + | ## अच्छा वर और अच्छी वधू कैसे कैसे बना जाता है इसकी शिक्षा देना । यह माता-पिता का कर्तव्य है कि वे अपने पुत्र को अच्छा वर बनाने के प्रयास करें। अपनी पुत्री को अच्छी वधू बनाने का प्रयत्न करें । |
| + | ## कौन से अच्छे वर के लिये कौन सी वधू कौनसी वधू के लिये कौन सा अच्छा वर सुयोग्य है, इसका विचार करना । |
| + | ## विवाह के लक्षण क्या है, विवाह का उद्देश्य क्या है, विवाह का प्रयोजन क्या है, विवाह का स्वरूप क्या है यह जानना । |
| + | ## विवाह विधि, मन्त्रों का उच्चारण, उनका अर्थ, उनके. निहितार्थ यह समझाना । इसप्रकार गृहस्थाश्रमी के कर्तव्य कया हैं यह मुदूदा इसमें समविष्ट था । गृहस्थाश्रमी, राष्ट्र जीवन में और विश्वजीवन में अपना योगदान कैसे दे सकता है यह उसका अगला हिस्सा था । इस प्रकार से वर-वधु चयन और विवाहसंस्कार' बनाया गया और इसको सिखाने की व्यवस्था और स्थान-स्थान पर इसको सिखानेवाले शिक्षकों का भी निर्माण हुआ । |
| + | # दूसरा पाठ्यक्रम, “समर्थ बालक के समर्थ मातपिता' कैसे बना जाता है । |
| + | # तीसरा था गृहस्थाश्रमी का समाज धर्म । इसका भी एक पाठ्यक्रम बनाया गया । इस में छोटे-छोटे काम कैसे किये जाते हैं । इसका विशेष रूप से समावेश था । व्यवसाय का चयन करना, व्यवसाय के प्रकार, उन में से हानिकारक, लाभकारी एवं उपयोगी हैं, यह समझना और उसके आधार पर अधथर्जिन की प्रवृत्ति करना, व्यवसाय का चयन करना यह भी गृहस्थाश्रमी के समाजधर्म का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था । |
| + | # चौथा था समाज जीवन की व्यवस्थायें । इन व्यवस्थाओं में राज्य व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था, समाज व्यवस्था आदि का सांस्कृतिक स्वरूप क्या हैं इसका निरूपण इसका हिस्सा था । एक परिवार अपने कर्तव्य कैसे निभा सकता है इसको सिखाने की व्यवस्था की गई । गुरुकुल के लोगों को यह आशंका थी की इन पाठ्यक्रमों के लिये लोग नहीं आयेंगे क्योंकि इसमें अथर्जिन की व्यवस्था नहीं थी, इसका कोई प्रमाणपत्र मिलने वाला नहीं था । इसमें नौकरी मिलने की कोई संभावना नहीं। इसलिये आज के व्यस्त जीवन में से कौन इन पाठ्यक्रमों के लिये आयेगा ऐसी आशंकायें बनती थी । परन्तु आश्चर्य यह था कि लोगों ने इसका बहुत स्वागत किया जैसे वर-वधू चयन और विवाह संस्कार के लिये अनेक युवक-युवतियाँ आगे आये । इसकी प्रस्तावना के रूप में अनेक महाविद्यालयों के प्रधानाचार्य ने अपने छात्रों के लिये इस विषय के मार्गदर्शन की व्यवस्था की । इसलिये गुरुकुल के लोग तो बहुत व्यस्त हो गये । स्थान-स्थान पर उन्हें बुलाया जाता था और अपने युवा छात्रों का मार्गदर्शन करने के लिये उनसे निवेदन किया जाता था । छात्रों में भी इसको लेकर बहुत जिज्ञासायें थीं । यह सर्वसामान्य प्रतिभाव ऐसा था कि इन बातों पर विचार ही कभी नहीं सुनने को मिलें हैं। इन बातों का भी विचार करना होता हैं इसकी कल्पना शिशु के जन्म के साथ ही तक युवाओं को नहीं है । |
| + | # ''इस दृष्टि से युवाओं ने इसका... सभीको अपनी-अपनी भूमिका प्राप्त होती है । जब तक'' |
| + | ''बहुत हृदयपूर्वक स्वागत किया । इसलिये इनके शिक्षकों के. शिशु का जन्म नहीं होता माता-पिता केवल पति-पत्नी होते'' |
| | | |
− | त्योहार मनाने की विधि क्या है यह भी आना चाहिये । इस
| + | ''निर्माणकी व्यवस्था करनी पड़ी । अनेक प्राध्यापकों को... हैं, जन्म के साथ ही माता-पिता बनते हैं । उसी प्रकार शिशु'' |
| | | |
− | प्रकार कुटुम्ब जीवन को केन्द्र बनाते हुए अनेक प्रकार की
| + | ''<nowiki>*</nowiki>वरवधू चयन और विवाहसंस्कार' इस पाठ्यक्रम के... के जन्म के साथ ही चाचा, बुआ, दादा, दादी आदि का भी'' |
| | | |
− | कुशलतायें अर्जित करना यह कुटुम्ब व्यवस्था का, कुटुम्ब
| + | ''शिक्षक बनने हेतु प्रशिक्षण की व्यवस्था भी की गई । इसमें. जन्म होता है । उन सबको नई भूमिका प्राप्त होती है । नई'' |
| | | |
− | जीवन का एक महत्त्वपूर्ण भाग है । परिवार की ca ae
| + | ''योगाचार्य आयुर्वेदाचार्य, ज्योतिषाचार्य, धर्माचार्य आदि... भूमिका के साथ नया दायित्व भी प्राप्त होता है । इसलिये'' |
| | | |
− | ............. page-236 ............. | + | ''सभी के सहयोग की भी आवश्यकता निर्माण हुई और उन... केवल माता-पिता को ही नहीं तो पूरे कुटुम्ब को बालक के'' |
| | | |
− | तीसरा अंग है। परिवार की cat
| + | ''लोगों ने भी बहुत उत्साह से इसमें सहयोग किया । इसका... प्रति अपना जो दायित्व है उसे निभाना सीखना चाहिये ।'' |
| | | |
− | सम्बन्धों से होती है । यह सम्बन्ध पति-पत्नी से शुरू होता
| + | ''बहुत बड़ा शास्त्र भी बना । बहुत बडा मार्गदर्शक साहित्य अभिभावक शिक्षा के चरण बालक की आयु के'' |
| | | |
− | है और सहोदरों तक और बाद में चाचा, मामा, बुआ,
| + | ''भी निर्माण हुआ और इस साहित्य के वितरण में अनेक... अनुसार हो सकते हैं । जैसे जैसे बालक बड़ा होता जाता'' |
| | | |
− | मौसी इत्यादि के रूप में इनका विस्तार होता रहता है । यह
| + | ''लोगों ने सहयोग किया । इससे भी अधिक जब इच्छित... है, माता-पिता भी बड़े होते जाते हैं उस दौरान यदि दूसरे'' |
| | | |
− | Fed IS Hers है, इसकी रचना क्या है, रचना में अपना
| + | ''सन्तान को, अर्थात पुत्र या पुत्री नहीं, गुण की दृष्टि से, बालक का जन्म होता है तो सीखी हुई बातों का पुनरावर्तन'' |
| | | |
− | स्थान क्या है, अपने उस स्थान के अनुसार अपने दायित्व
| + | ''कौशल की दृष्टि से, ज्ञान एवं संस्कार की दृष्टि से हम जैसा... होता है जिससे अनुभव बढ़ता है । इन्हें अनुभवी माता-'' |
| | | |
− | क्या बनते हैं, इसकी शिक्षा यह कुटुम्ब शिक्षा का एक
| + | ''बालक चाहते हैं वैसे बालक को जन्म दे सकते हैं इस सूत्र. पिता कहते हैं ।'' |
| | | |
− | अहम मुद्दा है । इस शिक्षा की भी व्यवस्था होनी चाहिये ।
| + | ''को पकड़ कर जब प्रबोधन किया गया तो सन्तान इच्छुक मुख्य रूप से माता-पिता की और उनके साथ-साथ'' |
| | | |
− | इस प्रकार विद्यापीठ ने परिवार जीवन को व्याख्यायित करने | + | ''दम्पतियों ने इसको बहुत अच्छा प्रतिसाद दिया । घर के अन्य लोगों की शिक्षा के चरण इस प्रकार हैं'' |
| | | |
− | का प्रथम प्रयास किया । इसका ग्रन्थ बना गृहशास्त्र । इसके
| + | ''इसकी भी एक व्यवस्थित योजना बनी । समर्थ'' |
| | | |
− | छोटेछोटे हिस्से बनाये गये और इनकों व्यापक रूप में
| + | ''बालक के समर्थ माता-पिता, ऐसा इस पाठ्यक्रम का नाम माता-पिता बनने की पूर्वतैयारी'' |
| | | |
− | प्रसारित करने की योजना भी बनी । कुटुम्ब जीवन प्रारम्भ
| + | ''था और इसके भी व्यवस्थित विद्यालय शुरु हुए। ये वैसे तो इसका बहुत बडा हिस्सा गर्भावस्था की और'' |
| | | |
− | करने के लिये व्यवस्थित शिक्षा देने की आवश्यकता है ।
| + | ''विद्यालय कुटुम्ब विद्यालय के नाम से ही प्रसिद्ध हुए ।.. शिशुअवस्था की शिक्षा के अन्तर्गत आ गया है फिर भी'' |
| | | |
− | इसका अनुभव कर गृहशास्त्र के आधार पर छोटे-छोटे
| + | ''कुटुम्ब विद्यालय भी स्थान-स्थान पर स्थापित होने लगे ।.... यहाँ कुछ बातों का निर्देश आवश्यक है। कहीं कहीं'' |
| | | |
− | पाठ्यक्रम भी बनाये गये । ये पाठ्यक्रम इस प्रकार थे ।
| + | ''इनके छात्र युवा दम्पति थे । और ऐसा लगने लगा ऐसा... पुनरावर्तन हो सकता है परन्तु उसे टालने का प्रयास अवश्य'' |
| | | |
− | (१) सब से पहला था वर-वधु चयन और विवाह
| + | ''आभास हुआ कि लोग तो अच्छे बालक चाहते ही हैं, . रहेगा ।'' |
| | | |
− | संस्कार । इस पाठ्यक्रम की जो विषय वस्तु थी वह इस
| + | ''लोग तो अच्छे घर चाहते ही हैं । आजकल मातापिता बनने की क्रिया और प्रक्रिया को'' |
| | | |
− | प्रकार है ।
| + | ''आयुर्विज्ञान अर्थात् चिकित्साशास्त्र की दृष्टि से ही देखा'' |
| | | |
− | १, अच्छा वर और अच्छी वधू कैसे कैसे बना
| + | ''जाता है। आयुर्विज्ञान सम्पूर्ण जीवन विज्ञान का एक'' |
| | | |
− | जाता है इसकी शिक्षा देना । यह माता-पिता
| + | ''अभिभावक का अर्थ है बालक का संगोपन करने... महत्त्वपूर्ण हिस्सा भले ही हो परंतु एक छोटा हिस्सा है ।'' |
| | | |
− | का कर्तव्य है कि वे अपने पुत्र को अच्छा वर
| + | ''वाले, उसकी देखभाल और सुरक्षा करने वाले, उसे प्रेरणा... माता-पिता बनने को सांस्कृतिक दृष्टि से देखा जाना'' |
| | | |
− | बनाने के प्रयास करें । अपनी पुत्री को अच्छी
| + | ''और संस्कार देने वाले तथा उसका सर्व प्रकार से हित... चाहिये । माता-पिता को चाहिये कि वे अपने आपको'' |
| | | |
− | वधू बनाने का प्रयत्न करें ।
| + | ''चाहने वाले वे सभी लोग जो उसके आसपास रहते हैं ।... संस्कृति के वाहक के रूप में प्रस्तुत करें और तैयार करें ।'' |
| | | |
− | २. कौन से अच्छे वर के लिये कौन सी वधू
| + | ''उनमें प्रमुख और केन्द्रवर्ती स्थान पर हैं माता-पिता, साथ इससे तात्पर्य क्या है ? संस्कृति का व्यावहारिक'' |
| | | |
− | कौनसी वधू के लिये कौन सा अच्छा वर
| + | ''में हैं दादा -दादी, चाचा, बुआ और सारे कुट्म्बीजन जो... केन्द्र है घर । घर में संस्कृति पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परा बनकर'' |
| | | |
− | सुयोग्य है, इसका विचार करना ।
| + | ''घर में रहते हैं । घर के बालक के विकास में इन सबकी... उतर आती है । माता-पिता को उसे ग्रहण कर अगली पीढ़ी'' |
| | | |
− | ३. विवाह के लक्षण क्या है, विवाह का उद्देश्य
| + | ''भूमिका रहती है और वह बहुत महत्त्वपूर्ण होती है । अर्थात् अपने बालक को देना है । अतः माता-पिता को'' |
− | | |
− | क्या है, विवाह का प्रयोजन क्या है, विवाह का
| |
− | | |
− | स्वरूप क्या है यह जानना ।
| |
− | | |
− | ४. विवाह विधि, मन्त्रों का उच्चारण, उनका अर्थ,
| |
− | | |
− | उनके. निहितार्थ यह समझाना । इसप्रकार
| |
− | | |
− | गृहस्थाश्रमी के कर्तव्य कया हैं यह मुदूदा इसमें
| |
− | | |
− | समविष्ट था । गृहस्थाश्रमी, राष्ट्र जीवन में और
| |
− | | |
− | विश्वजीवन में अपना योगदान कैसे दे सकता है
| |
− | | |
− | यह उसका अगला हिस्सा था । इस प्रकार से
| |
− | | |
− | २२०
| |
− | | |
− | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
| |
− | | |
− | <nowiki>*</nowiki>वर-वधु चयन और विवाहसंस्कार' बनाया
| |
− | | |
− | गया और इसको सिखाने की व्यवस्था और
| |
− | | |
− | स्थान-स्थान पर इसको सिखानेवाले शिक्षकों
| |
− | | |
− | का भी निर्माण हुआ ।
| |
− | | |
− | (२) दूसरा पाठ्यक्रम, “समर्थ बालक के समर्थ
| |
− | | |
− | मातपिता' कैसे बना जाता है ।
| |
− | | |
− | (३) तीसरा था गृहस्थाश्रमी का समाज धर्म । इसका
| |
− | | |
− | भी एक पाठ्यक्रम बनाया गया । इस में छोटे-छोटे काम
| |
− | | |
− | कैसे किये जाते हैं । इसका विशेष रूप से समावेश था ।
| |
− | | |
− | व्यवसाय का चयन करना, व्यवसाय के प्रकार, उन में से
| |
− | | |
− | हानिकारक, लाभकारी एवं उपयोगी हैं, यह समझना और
| |
− | | |
− | उसके आधार पर अधथर्जिन की प्रवृत्ति करना, व्यवसाय का
| |
− | | |
− | चयन करना यह भी गृहस्थाश्रमी के समाजधर्म का एक
| |
− | | |
− | महत्वपूर्ण हिस्सा था ।
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− | | |
− | (४) चौथा था समाज जीवन की व्यवस्थायें । इन
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− | | |
− | व्यवस्थाओं में राज्य व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था, समाज
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− | | |
− | व्यवस्था आदि का सांस्कृतिक स्वरूप क्या हैं इसका
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− | | |
− | निरूपण इसका हिस्सा था । एक परिवार अपने कर्तव्य कैसे
| |
− | | |
− | निभा सकता है इसको सिखाने की व्यवस्था की गई ।
| |
− | | |
− | गुरुकुल के लोगों को यह आशंका थी की इन पाठ्यक्रमों
| |
− | | |
− | के लिये लोग नहीं आयेंगे क्योंकि इसमें अथर्जिन की
| |
− | | |
− | व्यवस्था नहीं थी, इसका कोई प्रमाणपत्र मिलने वाला नहीं
| |
− | | |
− | था । इसमें नौकरी मिलने की कोई संभावना नहीं oft |
| |
− | | |
− | इसलिये आज के व्यस्त जीवन में से कौन इन पाठ्यक्रमों
| |
− | | |
− | के लिये आयेगा ऐसी आशंकायें बनती थी । परन्तु आश्चर्य
| |
− | | |
− | यह था कि लोगों ने इसका बहुत स्वागत किया जैसे वर-
| |
− | | |
− | वधू चयन और विवाह संस्कार के लिये अनेक युवक-
| |
− | | |
− | युवतियाँ आगे आये । इसकी प्रस्तावना के रूप में अनेक
| |
− | | |
− | महाविद्यालयों के प्रधानाचार्य ने अपने छात्रों के लिये इस
| |
− | | |
− | विषय के मार्गदर्शन की व्यवस्था की । इसलिये गुरुकुल के
| |
− | | |
− | लोग तो बहुत व्यस्त हो गये । स्थान-स्थान पर उन्हें
| |
− | | |
− | बुलाया जाता था और अपने युवा छात्रों का मार्गदर्शन करने
| |
− | | |
− | के लिये उनसे निवेदन किया जाता था । छात्रों में भी इसको
| |
− | | |
− | लेकर बहुत जिज्ञासायें थीं । यह सर्वसामान्य प्रतिभाव ऐसा
| |
− | | |
− | था कि इन बातों पर विचार ही कभी नहीं सुनने को मिलें
| |
− | | |
− | ............. page-237 .............
| |
− | | |
− | पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा
| |
− | | |
− | हैं। इन बातों का भी विचार करना होता हैं इसकी कल्पना शिशु के जन्म के साथ ही
| |
− | | |
− | तक युवाओं को नहीं है । इस दृष्टि से युवाओं ने इसका... सभीको अपनी-अपनी भूमिका प्राप्त होती है । जब तक
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− | | |
− | बहुत हृदयपूर्वक स्वागत किया । इसलिये इनके शिक्षकों के. शिशु का जन्म नहीं होता माता-पिता केवल पति-पत्नी होते
| |
− | | |
− | निर्माणकी व्यवस्था करनी पड़ी । अनेक प्राध्यापकों को... हैं, जन्म के साथ ही माता-पिता बनते हैं । उसी प्रकार शिशु
| |
− | | |
− | <nowiki>*</nowiki>वरवधू चयन और विवाहसंस्कार' इस पाठ्यक्रम के... के जन्म के साथ ही चाचा, बुआ, दादा, दादी आदि का भी
| |
− | | |
− | शिक्षक बनने हेतु प्रशिक्षण की व्यवस्था भी की गई । इसमें. जन्म होता है । उन सबको नई भूमिका प्राप्त होती है । नई
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− | | |
− | योगाचार्य आयुर्वेदाचार्य, ज्योतिषाचार्य, धर्माचार्य आदि... भूमिका के साथ नया दायित्व भी प्राप्त होता है । इसलिये
| |
− | | |
− | सभी के सहयोग की भी आवश्यकता निर्माण हुई और उन... केवल माता-पिता को ही नहीं तो पूरे कुटुम्ब को बालक के
| |
− | | |
− | लोगों ने भी बहुत उत्साह से इसमें सहयोग किया । इसका... प्रति अपना जो दायित्व है उसे निभाना सीखना चाहिये ।
| |
− | | |
− | बहुत बड़ा शास्त्र भी बना । बहुत बडा मार्गदर्शक साहित्य अभिभावक शिक्षा के चरण बालक की आयु के
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− | | |
− | भी निर्माण हुआ और इस साहित्य के वितरण में अनेक... अनुसार हो सकते हैं । जैसे जैसे बालक बड़ा होता जाता
| |
− | | |
− | लोगों ने सहयोग किया । इससे भी अधिक जब इच्छित... है, माता-पिता भी बड़े होते जाते हैं उस दौरान यदि दूसरे
| |
− | | |
− | सन्तान को, अर्थात पुत्र या पुत्री नहीं, गुण की दृष्टि से, बालक का जन्म होता है तो सीखी हुई बातों का पुनरावर्तन
| |
− | | |
− | कौशल की दृष्टि से, ज्ञान एवं संस्कार की दृष्टि से हम जैसा... होता है जिससे अनुभव बढ़ता है । इन्हें अनुभवी माता-
| |
− | | |
− | बालक चाहते हैं वैसे बालक को जन्म दे सकते हैं इस सूत्र. पिता कहते हैं ।
| |
− | | |
− | को पकड़ कर जब प्रबोधन किया गया तो सन्तान इच्छुक मुख्य रूप से माता-पिता की और उनके साथ-साथ
| |
− | | |
− | दम्पतियों ने इसको बहुत अच्छा प्रतिसाद दिया । घर के अन्य लोगों की शिक्षा के चरण इस प्रकार हैं
| |
− | | |
− | इसकी भी एक व्यवस्थित योजना बनी । समर्थ
| |
− | | |
− | बालक के समर्थ माता-पिता, ऐसा इस पाठ्यक्रम का नाम माता-पिता बनने की पूर्वतैयारी
| |
− | | |
− | था और इसके भी व्यवस्थित विद्यालय शुरु हुए। ये वैसे तो इसका बहुत बडा हिस्सा गर्भावस्था की और
| |
− | | |
− | विद्यालय कुटुम्ब विद्यालय के नाम से ही प्रसिद्ध हुए ।.. शिशुअवस्था की शिक्षा के अन्तर्गत आ गया है फिर भी
| |
− | | |
− | कुटुम्ब विद्यालय भी स्थान-स्थान पर स्थापित होने लगे ।.... यहाँ कुछ बातों का निर्देश आवश्यक है। कहीं कहीं
| |
− | | |
− | इनके छात्र युवा दम्पति थे । और ऐसा लगने लगा ऐसा... पुनरावर्तन हो सकता है परन्तु उसे टालने का प्रयास अवश्य
| |
− | | |
− | आभास हुआ कि लोग तो अच्छे बालक चाहते ही हैं, . रहेगा ।
| |
− | | |
− | लोग तो अच्छे घर चाहते ही हैं । आजकल मातापिता बनने की क्रिया और प्रक्रिया को
| |
− | | |
− | आयुर्विज्ञान अर्थात् चिकित्साशास्त्र की दृष्टि से ही देखा
| |
− | | |
− | जाता है। आयुर्विज्ञान सम्पूर्ण जीवन विज्ञान का एक
| |
− | | |
− | अभिभावक का अर्थ है बालक का संगोपन करने... महत्त्वपूर्ण हिस्सा भले ही हो परंतु एक छोटा हिस्सा है ।
| |
− | | |
− | वाले, उसकी देखभाल और सुरक्षा करने वाले, उसे प्रेरणा... माता-पिता बनने को सांस्कृतिक दृष्टि से देखा जाना
| |
− | | |
− | और संस्कार देने वाले तथा उसका सर्व प्रकार से हित... चाहिये । माता-पिता को चाहिये कि वे अपने आपको
| |
− | | |
− | चाहने वाले वे सभी लोग जो उसके आसपास रहते हैं ।... संस्कृति के वाहक के रूप में प्रस्तुत करें और तैयार करें ।
| |
− | | |
− | उनमें प्रमुख और केन्द्रवर्ती स्थान पर हैं माता-पिता, साथ इससे तात्पर्य क्या है ? संस्कृति का व्यावहारिक
| |
− | | |
− | में हैं दादा -दादी, चाचा, बुआ और सारे कुट्म्बीजन जो... केन्द्र है घर । घर में संस्कृति पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परा बनकर
| |
− | | |
− | घर में रहते हैं । घर के बालक के विकास में इन सबकी... उतर आती है । माता-पिता को उसे ग्रहण कर अगली पीढ़ी
| |
− | | |
− | भूमिका रहती है और वह बहुत महत्त्वपूर्ण होती है । अर्थात् अपने बालक को देना है । अतः माता-पिता को | |
| | | |
| == समग्र विकास प्रतिमान हेतु अभिभावक शिक्षा == | | == समग्र विकास प्रतिमान हेतु अभिभावक शिक्षा == |
− | BWW
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− |
| |
− | ............. page-238 .............
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− |
| |
− | जो शिक्षा ग्रहण करनी है वह कुछ इस
| |
− |
| |
− | प्रकार की है...
| |
− |
| |
− | अपने पूर्वजों का, अपने कुल का, अपने घर का
| |
− |
| |
− | इतिहास जानना और अपने आपको उसके साथ जोड़ना ।
| |
− |
| |
− | होने वाली माता के लिये यह विशेष रूप से आवश्यक है
| |
− |
| |
− | क्योंकि वह दूसरे कुटुम्ब से इस Herat में आई है । उसे
| |
− |
| |
− | अपने पितृ कुल का इतिहास तो मालूम है परन्तु पति कुल
| |
− |
| |
− | का मालूम करना है । इससे वह अपने पति के कुल के साथ
| |
− |
| |
− | जुड़ेगी । आजकल लड़कियाँ अपने पति के साथ जुड़ती हैं,
| |
− |
| |
− | पति के परिवारजनों के साथ नहीं । आत्मीयता के सम्बन्ध
| |
− |
| |
− | अपने मायके के लोगों के साथ ही होते हैं । अब तो वे
| |
− |
| |
− | अपने नाम के साथ मायके का और बाद में पति का
| |
− |
| |
− | कुलनाम भी जोड़ने लगी हैं । उन्हें लगता है कि यह उनके
| |
− |
| |
− | स्वतन्त्र व्यक्तित्व की पहचान है । परन्तु इसका परिणाम तो
| |
− |
| |
− | विभाजित व्यक्तित्व ही है । ऐसे विभाजित व्यक्तित्व से
| |
| | | |
− | एकात्म सम्बन्ध कभी नहीं बनते । अतः अपने कुल, गोत्र, | + | जो शिक्षा ग्रहण करनी है वह कुछ इस प्रकार की है: अपने पूर्वजों का, अपने कुल का, अपने घर का इतिहास जानना और अपने आपको उसके साथ जोड़ना । होने वाली माता के लिये यह विशेष रूप से आवश्यक है क्योंकि वह दूसरे कुटुम्ब से इस घर में आई है । उसे अपने पितृ कुल का इतिहास तो मालूम है परन्तु पति कुल का मालूम करना है । इससे वह अपने पति के कुल के साथ जुड़ेगी । आजकल लड़कियाँ अपने पति के साथ जुड़ती हैं, पति के परिवारजनों के साथ नहीं । आत्मीयता के सम्बन्ध अपने मायके के लोगों के साथ ही होते हैं । अब तो वे अपने नाम के साथ मायके का और बाद में पति का कुलनाम भी जोड़ने लगी हैं । उन्हें लगता है कि यह उनके स्वतन्त्र व्यक्तित्व की पहचान है । परन्तु इसका परिणाम तो विभाजित व्यक्तित्व ही है । ऐसे विभाजित व्यक्तित्व से एकात्म सम्बन्ध कभी नहीं बनते । अतः अपने कुल, गोत्र, पूर्वज, कुटुम्बीजनों आदि के विषय में जानकारी प्राप्त कर लेना और उन सबसे भावात्मक रूप से जुड़ना आवश्यक है । पति को तो यह सब पहले से ही अवगत होना अपेक्षित है । यदि नहीं है तो उसे भी इसकी शिक्षा प्राप्त कर लेनी चाहिये । पत्नी अपने पति से अथवा पति-पत्नी दोनों कुटुम्ब के वृद्धजनों से ऐसी शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं । |
− | | |
− | पूर्वज, कुट्म्बीजन आदि के विषय में जानकारी प्राप्त कर | |
− | | |
− | लेना और उन सबसे भावात्मक रूप से जुड़ना आवश्यक है । | |
− | | |
− | पति को तो यह सब पहले से ही अवगत होना अपेक्षित है । | |
− | | |
− | यदि नहीं है तो उसे भी इसकी शिक्षा प्राप्त कर लेनी चाहिये । | |
− | | |
− | पत्नी अपने पति से अथवा पति-पत्नी दोनों कुटुम्ब के | |
− | | |
− | वृद्धजनों से ऐसी शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं । | |
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| == संस्कार एवं संस्कार प्रक्रिया के सम्बन्ध में जानना == | | == संस्कार एवं संस्कार प्रक्रिया के सम्बन्ध में जानना == |
− | ब्रह्माण्ड में जो जीव है वे अपने लायक माता-पिता | + | ब्रह्माण्ड में जो जीव है वे अपने लायक माता-पिता की खोज में रहते हैं । जैसे ही वे अपने लायक माता-पिता को देखते हैं वे गर्भ के रूप में माता की कोख में प्रवेश करते हैं, पलते हैं और जन्म लेते हैं । माता-पिता यदि अच्छे हैं तो वे अच्छे जीव को आकर्षित करेंगे, यदि साधारण हैं तो साधारण जीव को । सन्तान ही माता-पिता का चयन करती है । इसलिये हर माता-पिता को अपनी सिद्धता कर लेनी चाहिये । हमें यदि अच्छी सन्तान चाहिये तो उसके लायक बनना यही मातापिता की शिक्षा है । बालक अपने साथ संस्कार लेकर आता है । वह, जैसा आजकल कहा जाता है, कोरी स्लेट नहीं होता । जो संस्कार वह लेकर आता है उनमें पूर्वजन्म के संस्कार प्रमुख हैं । माता-पिता के अपने चरित्र के संस्कार और बालक के पूर्वजन्म के संस्कारों का मेल होकर ही बालक माता की कोख में आता है । अतः एक है पूर्वजन्म के संस्कार । दूसरे हैं मातापिता के माध्यम से आनुवंशिक संस्कार । पिता की चौदह पीढ़ियों के और माता की पाँच पीढ़ियों के संस्कार गर्भाधान के समय ही माता-पिता के माध्यम से बालक में उतरते हैं । अतः अब वह जितना अपने पूर्वजन्म के साथ जुड़ा है उतना ही अपने कुल के साथ, अपने पूर्वजों के साथ भी जुड़ जाता है । यह जुड़ाव कभी मिटता नहीं, प्रयास करने पर भी मिटता नहीं । तीसरे होते हैं संस्कृति के संस्कार जो पूर्वजों एवं माता-पिता के माध्यम से ही उतरकर आते हैं । ये तीनों प्रकार के संस्कार तो गर्भाधान के साथ ही उसके पिंड का हिस्सा बन जाते हैं । जन्म के बाद होते हैं वातावरण के संस्कार । ये बाह्य जगत के संस्कार हैं । वे भी प्रभावी अवश्य हैं परन्तु पूर्व के तीन अधिक प्रभावी हैं । |
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− | की खोज में रहते हैं । जैसे ही वे अपने लायक माता-पिता | |
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− | को देखते हैं वे गर्भ के रूप में माता की कोख में प्रवेश | |
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− | करते हैं, पलते हैं और जन्म लेते हैं । माता-पिता यदि | |
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− | अच्छे हैं तो वे अच्छे जीव को आकर्षित करेंगे, यदि | |
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− | साधारण हैं तो साधारण जीव को । सन्तान ही माता-पिता | |
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− | का चयन करती है । इसलिये हर माता-पिता को अपनी | |
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− | सिद्धता कर लेनी चाहिये । हमें यदि अच्छी सन्तान चाहिय | |
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− | तो उसके लायक बनना यही मातापिता की शिक्षा है । | |
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− | बालक अपने साथ संस्कार लेकर आता है । वह, | |
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− | जैसा आजकल कहा जाता है, कोरी स्लेट नहीं होता । जो | |
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− | BRR
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− | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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− | संस्कार वह लेकर आता है उनमें पूर्वजन्म के संस्कार प्रमुख | |
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− | हैं । माता-पिता के अपने चरित्र के संस्कार और बालक के | |
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− | पूर्वजन्म के संस्कारों का मेल होकर ही बालक माता की | |
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− | कोख में आता है । अतः एक है पूर्वजन्म के संस्कार । | |
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− | दूसरे हैं मातापिता के माध्यम से आनुवंशिक संस्कार । पिता | |
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− | की चौदह पीढ़ियों के और माता की पाँच पीछ़ियों के | |
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− | संस्कार गर्भाधान के समय ही माता-पिता के माध्यम से | |
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− | बालक में उतरते हैं । अतः अब वह जितना अपने पूर्वजन्म | |
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− | के साथ जुड़ा है उतना ही अपने कुल के साथ, अपने | |
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− | पूर्वजों के साथ भी जुड़ जाता है । यह जुड़ाव कभी मिटता | |
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− | नहीं, प्रयास करने पर भी मिटता नहीं । तीसरे होते हैं | |
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− | संस्कृति के संस्कार जो पूर्वजों एवं माता-पिता के माध्यम | |
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− | से ही उतरकर आते हैं । ये तीनों प्रकार के संस्कार तो | |
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− | गर्भाधान के साथ ही उसके पिंड का हिस्सा बन जाते हैं । | |
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− | जन्म के बाद होते हैं वातावरण के संस्कार । ये बाह्य जगत | |
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− | के संस्कार हैं । वे भी प्रभावी अवश्य हैं परन्तु पूर्व के तीन | |
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− | अधिक प्रभावी हैं । | |
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− | आज की जो स्थिति है उसमें इन संस्कारों के सन्दर्भ
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− | में कुछ अधिक चिन्ता करने की आवश्यकता है ।
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− | ०. हम देखते हैं कि आज लोग एकदूसरे का विश्वास
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− | नहीं करते, किसी की किसी में श्रद्धा नहीं है, कोई
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− | किसी के लिये आदर का पात्र नहीं है, सारे सम्बन्ध
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− | स्वार्थ प्रेरित हो गये हैं । ऐसा समाज सुखी नहीं हो
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− | सकता । ऐसे समाज में शान्ति और सुरक्षा हो नहीं
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− | सकती । इस स्थिति का मूल कहाँ है ? यदि पति-
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− | पत्नी ही एकदूसरे के साथ एकात्म सम्बन्ध से जुड़ेंगे
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− | नहीं तो श्रद्धा और विश्वास का जन्म होगा ही नहीं ।
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− | माता-पिता. और सन्तानों में एकत्व की भावना
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− | पनपेगी ही नहीं ।
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− | हम देखते हैं कि कोई बालक जन्म से ही स्वर और
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− | ताल की समझ लेकर आता है । यह समझ कहाँ से
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− | आती है ? या तो पूर्वजन्म से अथवा अपने किसी
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− | पूर्वज से । इसी प्रकार दुर्गुण भी पूर्वजन्म से या पूर्वज
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− | से आते हैं । माता-पिता कितने भी अच्छे हों तो भी
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− | इस दुर्गुण को रोक नहीं सकते ।
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− | पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा
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− | हम देखते हैं कि मातापिता कितनी भी साधना करते
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− | हों, कितना भी पवित्र जीवन जीते हों तो भी उनके
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− | घर में दुश्चरित्र बालक का जन्म होता है । विश्व में
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− | ऐसे अनेक महापुरुषों के भी उदाहरण मिलेंगे जिनकी
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− | सन्तति दुर्गति की ओर ही गई है । सामान्य जनों में
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− | भी हम देखते हैं कि माता-पिताने अपने बच्चों की
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− | पढ़ाई के लिये बहुत कष्ट किये हैं परन्तु बच्चों में न
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− | उनके प्रति कृतज्ञता है, न उनके प्रति आदर । न उनमें
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− | वृद्धि है, न कार्यकुशलता, न सदूगुण । वे सर्वथा
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− | निठछ्ले होते हैं। दूसरी ओर गरीब, दुराचारी माता-
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− | पिता के घर में भी संस्कारवान, कर्तृत्ववान, बुद्धिमान
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− | बच्चों का जन्म होता है। इसका मूल कहाँ है ?
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− | इसका मूल एक तो पूर्वजों में है । दूसरा इस बात में
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− | है कि शिक्षा, पैसा, सुविधा आदि का संस्कार के
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− | साथ कोई सम्बन्ध नहीं । संस्कार का सम्बन्ध
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− | आन्तरिक भाव कैसा है, इसके साथ है ।
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− | कभी-कभी प्रश्न उठ सकता है कि माता-पिता सर्व
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− | प्रकार के प्रयास करें तो भी राम, कृष्ण, शिवाजी,
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− | याज्ञवल्क्य, राणा प्रताप, झाँसी रानी को क्यों जन्म
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− | नहीं दे सकते ? इसका खुलासा भी पूर्वजों की पिता
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− | की चौदह और माता की पाँच पीछ़ियों में है । पति-
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− | पत्नी के वश में अपने पूर्वज तो नहीं हैं ।
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− | गर्भावस्था में बालक मातृज भाव और पितृज भाव
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− | ग्रहण करता है । शरीर का रूप रंग तो वह दोनों से
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− | ग्रहण करता है यह तो साधारण बात है परन्तु
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− | भावनायें, कुशलतायें एवं स्वभाव के लक्षण भी ग्रहण
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− | करता है । अब तो आयुर्विज्ञान मानने लगा है कि
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− | कुछ बिमारियाँ भी माता-पिता से प्राप्त होती हैं ।
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− | अर्थात् माता और पिता के गुण और दोष बालक
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− | विरासत में प्राप्त करता है । ये भी संस्कार हैं । अतः
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− | बालक अपनी ओर से विरासत में क्या प्राप्त करे और
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− | क्या न करे इसकी चिन्ता माता-पिता को करनी
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− | चाहिये और उसके अनुसार अपने स्वभाव और
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− | व्यवहार में परिवर्तन करना चाहिये ।
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− | इस अवस्था की शिक्षा केवल पुस्तक पढ़ने की
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− | RR’
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− | शिक्षा. नहीं होती ।
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− | व्यावहारिक शिक्षा होती है । अतः पति और पत्नी ने
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− | किसी न किसी का शिष्यत्व ग्रहण करना चाहिये ।
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− | जिसका शिष्यत्व ग्रहण करे वह आप्तजन होना
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− | चाहिये । “यह मेरा कभी भी अहित नहीं सोचेगा,
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− | सदैव मेरा भला चाहेगा और सही मार्गदर्शन करने में
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− | समर्थ है' ऐसी श्रद्धा जिसके प्रति है उसे आप्तजन
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− | मानना चाहिये । सामान्य रूप से गर्भिणी की माता,
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− | सास, बड़ी बहन, अनुभवी सखी, संन्यासिनी, साध्वी
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− | आदि को आप्तजन मानना चाहिये । उसी प्रकार पति
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− | के लिये माता-पिता, बडे भाई-भाभी, बडे बहन-
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− | बहनोई, अनुभवी मित्र और मित्रपत्नी को आप्तजन
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− | मानना चाहिये । इनके परामर्श के अनुसार खान-
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− | पान, सोना-जागना, उठना-बैठना, आराम-व्यायाम,
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− | आनन्द-प्रमोद, स्वाध्याय-सत्संग, वेशभूषा आदि
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− | बातों का व्यवहार करना चाहिये । इन सबके कुछ
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− | सामान्य नियम होते हैं परन्तु इनकी शिक्षा तो
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− | व्यक्तिगत ही होती है क्योंकि इन नियमों को केवल
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− | जानना आवश्यक नहीं है, जानकर मानना और
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− | मानकर आचरण में लाना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है ।
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− | नियम आचरण में आ सर्के इस दृष्टि से सम्हालने
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− | वाला और करवा लेने वाला हर घर में कोई
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− | चाहिये । वह आप्तजन है और यही आसप्तजन से प्राप्त
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− | शिक्षा है ।
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− | सगर्भावस्था में पिता की भूमिका सुरक्षात्मक है । माता
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− | और बालक के प्रति सुरक्षा का भाव होना नितान्त
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− | आवश्यक है । सीमन्तोन्नयन संस्कार उसी दृष्टि से
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− | किये जाते हैं । साथ ही आने वाला बालक पिता पर
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− | गर्व कर सके ऐसा चरित्र का सामर्थ्य प्राप्त करना भी
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− | उसका दायित्व बनता है । यह सामर्थ्य कैसे प्राप्त होता
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− | है ? कुछ तो स्वभावगत होता है, कुछ वंशगत होता
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− | है, शेष पुरुषार्थ से प्राप्त करना होता है । इस दृष्टि से
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− | ज्ञानवान होना आवश्यक है । उससे भी अधिक
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− | गुणवान होना आवश्यक है । सेवाभावी होना,
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− | परोपकारी होना, प्रामाणिक होना, दूसरों के धन या
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− | स्त्री के प्रति कुदृष्टि नहीं करना, भौतिक
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− | पदार्थों के या प्रतिष्ठा के आकर्षणों में फैंसकर अन्याय
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− | या अत्याचारपूर्ण आचरण नहीं करना चरित्र के लक्षण
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− | है। ऐसे चरित्र के लक्षण जिसमें हैं उसमें शास््रज्ञान
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− | नहीं है या पैसा अधिक नहीं है तो भी बालक को
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− | कोई फरक नहीं पड़ता । इसी कारण से तो निर्धन और
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− | आज की भाषा में जिन्हें अशिक्षित कहते हैं उनके घरों
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− | में गुणवान बालकों का जन्म होता है । पिता ने अपने
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− | आपको इसके लायक बनाना है ।
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− | आज प्रश्न यह उठता है कि माता-पिता दोनों ही
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− | उच्चशिक्षित हैं तो वे नौकरी अथवा व्यवसाय करते हैं । ऐसे
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− | व्यवसाय या नौकरी में उनका इतना अधिक समय जाता है
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− | कि वे अपने लिये, अपनी पत्नी या अपने पति के लिये या
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− | अपने आने वाले बालक के लिये समय ही नहीं निकाल
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− | पाते । वे केवल शारीरिक रूप से ही व्यस्त रहते हैं ऐसा नहीं
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− | है, मानसिक और बौद्धिक रूप से भी उतने ही व्यस्त रहते
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− | हैं । कहीं-कहीं तो समाज सेवा के नाम पर भी व्यस्त रहते
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− | हैं। ऐसे माता-पिता समर्थ माता-पिता नहीं बन सकते ।
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− | समर्थ तो क्या, योग्य माता-पिता भी नहीं बन सकते । इसमें
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− | शारीरिक रूप से व्यवसाय में व्यस्त होने की बात तो समझ
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− | में आती है । कभी-कभी अर्थाजन की विवशता हो जाती
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− | है । परन्तु ऐसे में भी मानसिक रूप से एकदूसरे के साथ और
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− | बालक के साथ होना यदि सम्भव हुआ तो यह कमी भर
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− | जाती है । परन्तु वह वास्तव में विवशता होनी चाहिये, धन
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− | के या काम के आकर्षण से यदि व्यस्तता होती है तो उसका
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− | सन्देश बालक तक अवश्य पहुँचता है ।
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− | अतः एक अच्छे बालक को जन्म देकर संस्कृति की
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− | परम्परा का जतन करना है, परम्परा की शृंखला को आगे
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− | बढाना है तो अपनी व्यक्तिगत रुचियों को, इन्द्रियों के
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− | आकर्षणों को, बाहरी दबावों को एक ओर रखकर बालक
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− | केन्द्रित बनना होगा । बालक केन्द्रित होते हैं तभी तो वे
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− | माता-पिता होते हैं अन्यथा या तो पति-पत्नी होते हैं या तो
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− | कोई व्यावसायिक स्त्री या पुरुष होते हैं ।
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− | कोई कह सकता है कि संस्कृति, परम्परा, परोपकार,
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− | चरित्र आदि बातों को हम नहीं मानते । हम ऐसा करना नहीं
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− | RRS
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− | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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− | चाहते । आज के जमाने में यह सब होना सम्भव नहीं है,
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− | और यदि व्यक्तिगत रूप से सम्भव हो भी गया तो जमाने पर
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− | उसका प्रभाव होने वाला नहीं है। हम ही अकेले पड़
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− | जायेंगे । हम यह सब करना नहीं चाहते ।
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− | ऐसा कहने वाले युवक-युवतियों की संख्या अधिक
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− | है । सुनने, जानने, मानने वालों की संख्या छोटी है । ऐसे में | + | आज की जो स्थिति है उसमें इन संस्कारों के सन्दर्भ में कुछ अधिक चिन्ता करने की आवश्यकता है । |
| + | * हम देखते हैं कि आज लोग एकदूसरे का विश्वास नहीं करते, किसी की किसी में श्रद्धा नहीं है, कोई किसी के लिये आदर का पात्र नहीं है, सारे सम्बन्ध स्वार्थ प्रेरित हो गये हैं । ऐसा समाज सुखी नहीं हो सकता । ऐसे समाज में शान्ति और सुरक्षा हो नहीं सकती । इस स्थिति का मूल कहाँ है ? यदि पति- पत्नी ही एकदूसरे के साथ एकात्म सम्बन्ध से जुड़ेंगे नहीं तो श्रद्धा और विश्वास का जन्म होगा ही नहीं । माता-पिता और सन्तानों में एकत्व की भावना पनपेगी ही नहीं । |
| + | * हम देखते हैं कि कोई बालक जन्म से ही स्वर और ताल की समझ लेकर आता है । यह समझ कहाँ से आती है ? या तो पूर्वजन्म से अथवा अपने किसी पूर्वज से । इसी प्रकार दुर्गुण भी पूर्वजन्म से या पूर्वज से आते हैं । माता-पिता कितने भी अच्छे हों तो भी इस दुर्गुण को रोक नहीं सकते । |
| + | * हम देखते हैं कि मातापिता कितनी भी साधना करते हों, कितना भी पवित्र जीवन जीते हों तो भी उनके घर में दुश्चरित्र बालक का जन्म होता है । विश्व में ऐसे अनेक महापुरुषों के भी उदाहरण मिलेंगे जिनकी सन्तति दुर्गति की ओर ही गई है । सामान्य जनों में भी हम देखते हैं कि माता-पिता ने अपने बच्चों की पढ़ाई के लिये बहुत कष्ट किये हैं परन्तु बच्चों में न उनके प्रति कृतज्ञता है, न उनके प्रति आदर । न उनमें वृद्धि है, न कार्यकुशलता, न सदूगुण । वे सर्वथा निठल्ले होते हैं। दूसरी ओर गरीब, दुराचारी माता-पिता के घर में भी संस्कारवान, कर्तृत्ववान, बुद्धिमान बच्चों का जन्म होता है। इसका मूल कहाँ है ? इसका मूल एक तो पूर्वजों में है । दूसरा इस बात में है कि शिक्षा, पैसा, सुविधा आदि का संस्कार के साथ कोई सम्बन्ध नहीं । संस्कार का सम्बन्ध आन्तरिक भाव कैसा है, इसके साथ है । |
| + | * कभी-कभी प्रश्न उठ सकता है कि माता-पिता सर्व प्रकार के प्रयास करें तो भी राम, कृष्ण, शिवाजी, याज्ञवल्क्य, राणा प्रताप, झाँसी रानी को क्यों जन्म नहीं दे सकते? इसका खुलासा भी पूर्वजों की पिता की चौदह और माता की पाँच पीछ़ियों में है । पति-पत्नी के वश में अपने पूर्वज तो नहीं हैं । |
| + | * गर्भावस्था में बालक मातृज भाव और पितृज भाव ग्रहण करता है । शरीर का रूप रंग तो वह दोनों से ग्रहण करता है यह तो साधारण बात है परन्तु भावनायें, कुशलतायें एवं स्वभाव के लक्षण भी ग्रहण करता है । अब तो आयुर्विज्ञान मानने लगा है कि कुछ बिमारियाँ भी माता-पिता से प्राप्त होती हैं । अर्थात् माता और पिता के गुण और दोष बालक विरासत में प्राप्त करता है । ये भी संस्कार हैं । अतः बालक अपनी ओर से विरासत में क्या प्राप्त करे और क्या न करे इसकी चिन्ता माता-पिता को करनी चाहिये और उसके अनुसार अपने स्वभाव और व्यवहार में परिवर्तन करना चाहिये । |
| + | * इस अवस्था की शिक्षा केवल पुस्तक पढ़ने की शिक्षा नहीं होती । व्यावहारिक शिक्षा होती है । अतः पति और पत्नी ने किसी न किसी का शिष्यत्व ग्रहण करना चाहिये । जिसका शिष्यत्व ग्रहण करे वह आप्तजन होना चाहिये । “यह मेरा कभी भी अहित नहीं सोचेगा, सदैव मेरा भला चाहेगा और सही मार्गदर्शन करने में समर्थ है' ऐसी श्रद्धा जिसके प्रति है उसे आप्तजन मानना चाहिये । सामान्य रूप से गर्भिणी की माता, सास, बड़ी बहन, अनुभवी सखी, संन्यासिनी, साध्वी आदि को आप्तजन मानना चाहिये । उसी प्रकार पति के लिये माता-पिता, बडे भाई-भाभी, बडे बहन- बहनोई, अनुभवी मित्र और मित्रपत्नी को आप्तजन मानना चाहिये । इनके परामर्श के अनुसार खान-पान, सोना-जागना, उठना-बैठना, आराम-व्यायाम, आनन्द-प्रमोद, स्वाध्याय-सत्संग, वेशभूषा आदि बातों का व्यवहार करना चाहिये । इन सबके कुछ सामान्य नियम होते हैं परन्तु इनकी शिक्षा तो व्यक्तिगत ही होती है क्योंकि इन नियमों को केवल जानना आवश्यक नहीं है, जानकर मानना और मानकर आचरण में लाना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । नियम आचरण में आ सर्के इस दृष्टि से सम्हालने वाला और करवा लेने वाला हर घर में कोई चाहिये । वह आप्तजन है और यही आसप्तजन से प्राप्त शिक्षा है । |
| + | * सगर्भावस्था में पिता की भूमिका सुरक्षात्मक है । माता और बालक के प्रति सुरक्षा का भाव होना नितान्त आवश्यक है । सीमन्तोन्नयन संस्कार उसी दृष्टि से किये जाते हैं । साथ ही आने वाला बालक पिता पर गर्व कर सके ऐसा चरित्र का सामर्थ्य प्राप्त करना भी उसका दायित्व बनता है । यह सामर्थ्य कैसे प्राप्त होता है ? कुछ तो स्वभावगत होता है, कुछ वंशगत होता है, शेष पुरुषार्थ से प्राप्त करना होता है । इस दृष्टि से ज्ञानवान होना आवश्यक है । उससे भी अधिक गुणवान होना आवश्यक है । सेवाभावी होना, परोपकारी होना, प्रामाणिक होना, दूसरों के धन या स्त्री के प्रति कुदृष्टि नहीं करना, भौतिक पदार्थों के या प्रतिष्ठा के आकर्षणों में फैंसकर अन्याय या अत्याचारपूर्ण आचरण नहीं करना चरित्र के लक्षण है। ऐसे चरित्र के लक्षण जिसमें हैं उसमें शास्त्रज्ञान नहीं है या पैसा अधिक नहीं है तो भी बालक को कोई अंतर नहीं पड़ता । इसी कारण से तो निर्धन और आज की भाषा में जिन्हें अशिक्षित कहते हैं उनके घरों में गुणवान बालकों का जन्म होता है । पिता ने अपने आपको इसके लायक बनाना है । |
| + | आज प्रश्न यह उठता है कि माता-पिता दोनों ही उच्चशिक्षित हैं तो वे नौकरी अथवा व्यवसाय करते हैं । ऐसे व्यवसाय या नौकरी में उनका इतना अधिक समय जाता है कि वे अपने लिये, अपनी पत्नी या अपने पति के लिये या अपने आने वाले बालक के लिये समय ही नहीं निकाल पाते । वे केवल शारीरिक रूप से ही व्यस्त रहते हैं ऐसा नहीं है, मानसिक और बौद्धिक रूप से भी उतने ही व्यस्त रहते हैं । कहीं-कहीं तो समाज सेवा के नाम पर भी व्यस्त रहते हैं। ऐसे माता-पिता समर्थ माता-पिता नहीं बन सकते । समर्थ तो क्या, योग्य माता-पिता भी नहीं बन सकते । इसमें शारीरिक रूप से व्यवसाय में व्यस्त होने की बात तो समझ में आती है । कभी-कभी अर्थाजन की विवशता हो जाती है । परन्तु ऐसे में भी मानसिक रूप से एकदूसरे के साथ और बालक के साथ होना यदि सम्भव हुआ तो यह कमी भर जाती है । परन्तु वह वास्तव में विवशता होनी चाहिये, धन के या काम के आकर्षण से यदि व्यस्तता होती है तो उसका सन्देश बालक तक अवश्य पहुँचता है । |
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− | कया किया जाय ?
| + | अतः एक अच्छे बालक को जन्म देकर संस्कृति की परम्परा का जतन करना है, परम्परा की शृंखला को आगे बढाना है तो अपनी व्यक्तिगत रुचियों को, इन्द्रियों के आकर्षणों को, बाहरी दबावों को एक ओर रखकर बालक केन्द्रित बनना होगा । बालक केन्द्रित होते हैं तभी तो वे माता-पिता होते हैं अन्यथा या तो पति-पत्नी होते हैं या तो कोई व्यावसायिक स्त्री या पुरुष होते हैं । कोई कह सकता है कि संस्कृति, परम्परा, परोपकार, चरित्र आदि बातों को हम नहीं मानते । हम ऐसा करना नहीं चाहते । आज के जमाने में यह सब होना सम्भव नहीं है, और यदि व्यक्तिगत रूप से सम्भव हो भी गया तो जमाने पर उसका प्रभाव होने वाला नहीं है। हम ही अकेले पड़ जायेंगे। हम यह सब करना नहीं चाहते । ऐसा कहने वाले युवक-युवतियों की संख्या अधिक है । सुनने, जानने, मानने वालों की संख्या छोटी है । ऐसे में क्या किया जाय ? |
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| == परम्परा का अज्ञान == | | == परम्परा का अज्ञान == |