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लेख सम्पादित किया
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== कुटुम्ब कैसे बनता है? ==
 
== कुटुम्ब कैसे बनता है? ==
कुटुम्ब जीवन का केन्द्रबिन्दु है - पति और पत्नी
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कुटुम्ब जीवन का केन्द्रबिन्दु है - पति और पत्नी। पतिपत्नी को जोड़ने वाला विवाह संस्कार होता है एक सर्वथा अपरिचित पुरुष और सर्वथा अपरिचित स्त्री विवाह संस्कार से जुड़कर पतिपत्नी बनते हैं और अब वे अपरिचित नहीं परन्तु परम परिचित जैसे बनते हैं । ये दो नहीं रहते एक बनते हैं । इसलिये पतिपत्नी की एकात्मता यह कुटुम्ब जीवन का केन्द्र बिन्दु है। इस एकात्मता का स्रोत क्या है ? जैसे हमने पूर्व में भी देखा है यह सृष्टि परमात्मा से निसृत हुई है । परमात्मा ने अपने में से ही इसे बनाया है । इसलिये सृष्टि के सारे पदार्थों में एकात्म सम्बन्ध रहता है। सृष्टि निसृत हुई इसलिये सृष्टि के सारे पदार्थ सारे व्यक्तित्व पुनः परमात्मा में एकात्म हो जाने के लिये ही अपने जीवन की गति करते हैं। सर्वथा अपरिचित, सर्वथा अलग ऐसे स्त्री और पुरुष विवाह संस्कार से जब एक बनते हैं तो यह एकात्मता की साधना है।
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पतिपत्नी को जोड़ने वाला विवाह संस्कार होता है । एक
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पतिपत्नी का सम्बन्ध यह एकात्मता की साधना का प्रारम्भ बिन्दु है। इसलिये विवाह संस्कार को सभी संस्कारों में सर्वश्रेष्ठ, सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है । आज विवाह जीवन की दुर्दशा हुई है। पति-पत्नी की एकात्मता की संकल्पना गृहीत नहीं है, वह स्वीकृत भी नहीं है । विवाह हो जाने के बाद भी दोनों अपनी स्वतन्त्र पहचान बनाये रखना चाहते हैं । हमेशा स्वतन्त्रता की भाषा बोली जाती है। हमेशा अपनीअपनी रुचि की भाषा बोली जाती है । इसलिये पतिपत्नी भी एक दूसरे से स्वतन्त्र रहना चाहते हैं, इसी में गौरव समझते हैं। इसी के लिये पढ़ाई होती है। इसी के लिये अथर्जिन होता है । इसी के लिये अपनेअपने स्वतन्त्र क्षेत्र चुने जाते हैं । इसलिये स्वतन्त्र करियर की भी भाषा होती है। परन्तु यह स्वतन्त्रता सही अर्थ में स्वतन्त्रता नहीं है । यह स्वतन्त्रता अलग होने के और अलग रहने के पर्याय स्वरूप ही रहती है । इसलिये विवाहसंस्कार से जुड़कर एकात्मता की बहुत महत्त्वपूर्ण साधना स्त्री और पुरुष दोनों को करनी होती है। इस दृष्टि से हमारे यहाँ विवाह को संस्कार का स्वरूप दिया गया है ।
 
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सर्वथा अपरिचित पुरुष और सर्वथा अपरिचित स्त्री विवाह
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संस्कार से जुड़कर पतिपत्नी बनते हैं और अब वे
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अपरिचित नहीं परन्तु परम परिचित जैसे बनते हैं । ये दो
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नहीं रहते एक बनते हैं । इसलिये पतिपत्नी की एकात्मता
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we Hera जीवन का केन्द्र बिन्दु है । इस एकात्मता का
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स्रोत कया है ? जैसे हमने पूर्व में भी देखा है यह सृष्टि
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परमात्मा से निसृत हुई है । परमात्मा ने अपने में से ही इसे
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बनाया है । इसलिये सृष्टि के सारे पदार्थों में एकात्म सम्बन्ध
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रहता है । सृष्टि निसृत हुई इसलिये सृष्टि के सारे पदार्थ सारे
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व्यक्तित्व पुनः परमात्मा में एकात्म हो जाने के लिये ही
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अपने जीवन की गति करते हैं । सर्वथा अपरिचित, सर्वथा
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अलग ऐसे स्त्री और पुरुष विवाह संस्कार से जब एक बनते
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हैं तो यह एकात्मता की साधना है । पतिपत्नी का सम्बन्ध
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यह एकात्मता की साधना का प्रारम्भ बिन्दु है । इसलिये
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विवाह संस्कार को सभी संस्कारों में सर्वश्रेष्ठ, सबसे अधिक
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महत्त्वपूर्ण माना गया है । आज विवाह जीवन की दुर्दशा हुई
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है । पति-पत्नी की एकात्मता की संकल्पना गृहीत नहीं है,
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वह स्वीकृत भी नहीं है । विवाह हो जाने के बाद भी दोनों
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अपनी स्वतन्त्र पहचान बनाये रखना चाहते हैं । हमेशा
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स्वतन्त्रता की भाषा बोली जाती है । हमेशा अपनीअपनी
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रुचि की भाषा बोली जाती है । इसलिये पतिपत्नी भी एक
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दूसरे से स्वतन्त्र रहना चाहते हैं, इसी में गौरव समझते हैं ।
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इसी के लिये पढ़ाई होती है । इसी के लिये अथर्जिन होता
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है । इसी के लिये अपनेअपने स्वतन्त्र क्षेत्र चुने जाते हैं ।
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इसलिये स्वतन्त्र करियर की भी भाषा होती है । परन्तु यह
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स्वतन्त्रता सही अर्थ में स्वतन्त्रता नहीं है । यह स्वतन्त्रता
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अलग होने के और अलग रहने के पर्याय स्वरूप ही रहती
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है । इसलिये विवाहसंस्कार से जुड़कर एकात्मता की बहुत
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महत्त्वपूर्ण साधना स्त्री और पुरुष दोनों
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को करनी होती है। इस दृष्टि से हमारे यहाँ विवाह को
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संस्कार का स्वरूप दिया गया है ।
      
== विवाह के उद्देश्य ==
 
== विवाह के उद्देश्य ==
यह सम्बन्ध शारीरिक से शुरू होकर आत्मिक तक
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यह सम्बन्ध शारीरिक से शुरू होकर आत्मिक तक पहुँचता है और एकात्मता साधी जाती है । वह भले ही स्थूल सम्भोग से प्रारम्भ हुआ हो, भले ही उसका प्रेरक तत्त्व मैथुन रहा हो, मैथुन की वृत्ति रही हो, भले ही इसमें मन के स्तर पर आसक्ति रहती हो, भले ही इसमें बुद्धि के स्तर पर कर्तव्य भावना का भी विकास होता हो तो भी इसकी परिणति, इसकी चरम परिणति तो आत्मिक सम्बन्धमें और आनन्द में ही होनी चाहिये । यह सब विवाह संस्कार के माध्यम से स्त्री और पुरुष को, पति और पत्नी को सिखाया जाता है और सिखाया जाना चाहिये ।
 
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पहुँचता है और एकात्मता साधी जाती है । वह भले ही
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स्थूल सम्भोग से प्रारम्भ हुआ हो, भले ही उसका प्रेरक
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तत्त्व मैथुन रहा हो, मैथुन की वृत्ति रही हो, भले ही इसमें
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मन के स्तर पर आसक्ति रहती हो, भले ही इसमें बुद्धि के
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स्तर पर कर्तव्य भावना का भी विकास होता हो तो भी
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इसकी परिणति, इसकी चरम परिणति तो आत्मिक
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सम्बन्धमें और आनन्द में ही होनी चाहिये । यह सब विवाह
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संस्कार के माध्यम से स्त्री और पुरुष को, पति और पत्नी
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को सिखाया जाता है और सिखाया जाना चाहिये ।  
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'''विवाह का दूसरा उद्देश्य है परम्परा बनाये रखने की व्यवस्था करना और इसी दृष्टि से विवाह को भी व्याख्यायित किया गया है।''' विवाह का उद्देश्य काम प्रेरित सुख नहीं है । ऐसे जीवन
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में स्त्री और पुरुष के आयुष्य में एक समय ऐसा आता है
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fe of at ges a ही सुख मिलता है, पुरुष को स्त्री से ही
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सुख मिलता है, यह काम सुख है । और इस दृष्टि से स्त्री
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विवाह का दूसरा उद्देश्य है परम्परा बनाये रखने की व्यवस्था करना और इसी दृष्टि से विवाह को भी व्याख्यायित किया गया है। विवाह का उद्देश्य काम प्रेरित सुख नहीं है। ऐसे जीवन में स्त्री और पुरुष के आयुष्य में एक समय ऐसा आता है, कि स्त्री को पुरुष से ही सुख मिलता है, पुरुष को स्त्री से ही सुख मिलता है, यह काम सुख है । और इस दृष्टि से स्त्री और पुरुष का साथ आना अनिवार्य भी बन जाता है । इस अनिवार्यता को समाज की मान्यता, कानून की मान्यता मिले ऐसी व्यवस्था की जाती है । यह मान्यता इसलिये चाहिये कि दोनों फिर एक दूसरे को धोखा न दे । स्वसुरक्षा की भावना से ही यह सम्बन्ध बनता है और इसलिये उसको करार कहा जाता है । करार में दोनों पक्ष अपनेअपने सुख की रक्षा करने की चिन्ता करते हैं । इस कारण से भारत में कुटुम्ब भी नहीं बनता, समाज भी नहीं बनता | भारत में विवाह का उद्देश्य केवल काम सुख नहीं है, काम सुख की प्राप्ति नहीं है, विवाह का उद्देश्य परम्परा बनाना है, कुल परम्परा बनाना है, वंश परम्परा बनाना है और इसलिये कुटुम्ब के लिये, गृहस्थाश्रमी के लिये ऋणत्रय की कल्पना की गयी है ।
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और पुरुष का साथ आना अनिवार्य भी बन जाता है । इस
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सब से पहला ऋण है पितृऋण  । पतिपत्नी बन कर मातापिता बनना है । मातापिता बनने के लिये ही विवाह किया जाता है, पतिपत्नी बना जाता है । मातापिता बन कर बालक को जन्म देना यह सब से महत्त्वपूर्ण दायित्व है, महत्वपूर्ण कर्तव्य है क्योंकि मातापिता के कारण से ही हमारा जन्म हुआ है । यह पितुऋण से मुक्त होने का माध्यम है । पूर्वजों की असंख्य पीढ़ियों की परम्परा हमारे जन्म से आगे बढ़ी है । इसे आगे बढ़ाना हमारा कर्तव्य है । इसलिये आगे की पीढ़ी की शुरूआत हम जिस बालक को जन्म देंगे, उससे होगी इसलिये विवाह करना है । विवाह का दूसरा उद्देश्य संस्कृति की परम्परा निभाना है । यह भी पितृऋण से मुक्त होने का दूसरा प्रकार है। गृहस्थाश्रमी के लिये दूसरा ऋण ऋषिऋण है । हमारे देश में ज्ञान की जो परम्परा बनी है, ज्ञान देने वालें जो पूर्वज हैं, जिनको गुरु कहा जाता है, ऋषि कहा जाता है, ज्ञानी कहा जाता है, उनसे हमें जो ज्ञान प्राप्त हुआ है, संस्कार प्राप्त हुए हैं, जीवन की दृष्टि प्राप्त हुई है, जीवन की पद्धति प्राप्त हुई है, हमारी समझ बनी हैं उससे ऋण मुक्त भी बालक को जन्म देने से ही हुआ जाता है । इसलिये उनके ज्ञान के परिणाम स्वरूप जो संस्कार संस्कृति, रीतिरिवाज, परम्परायें हमारे तक पहुँची है उन्हें आगे तक पहुँचाने का हमारा कर्तव्य बनता है, हमारा दायित्व बनता है ।
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अनिवार्यता को समाज की मान्यता, कानून की मान्यता
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तीसरा कण है समाज ऋण - हम पूर्ण समाज के अंगभूत घटक हैं । बिना समाज के हम अच्छा जीवन जी ही नहीं सकते । इसलिये समाज के ऋण से मुक्त होने के लिये भी गृहस्थाश्रमी को सिद्ध होना है । पतिपत्नी केवल स्त्री पुरुष नहीं है, केवल पतिपत्नी भी नहीं है, वे गृहस्थ और गृहिणी भी हैं और गृहस्थ और गृहिणी का सामाजिक दायित्व होता है । इस सामाजिक दायित्व को ही लोकऋण अथवा नृक्रण कहा गया है । इससे मुक्त होने के लिये बालक को जन्म देना हैं ।
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मिले ऐसी व्यवस्था की जाती है । यह मान्यता इसलिये
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वैसे तो और भी एक ऋण कीकल्पना की गई है वह है भूतऋण । प्रकृति के प्रति जो हमारा ऋण है वह अर्थात्‌ प्रकृति के बिना पंचमहाभूत, वनस्पति, जगत, पशु, पक्षी, प्राणी आदि के बिना भी हमारा जीवन सम्भव नहीं है । उनके हमारे पर अनन्त उपकार हैं । उनके उपकारों के प्रति कृतज्ञता दर्शाने के लिए इस भूत ऋण की कल्पना की गई है । यह निभाने के लिये पतिपत्नी को गृहस्थ बनना है और गृहस्थ बनने के साथसाथ मातापिता भी बनना है।
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चाहिये कि दोनों फिर एक दूसरे को धोखा न दे । स्वसुरक्षा
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इसलिये सुदृढ़ीकरण में जो स्पष्टतायें की गई वे इस प्रकार हैं ।  
 
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# पतिपत्नी का सम्बन्ध केवल शारीरिक या प्राणिक नहीं अपितु आत्मिक है ।
की भावना से ही यह सम्बन्ध बनता है और इसलिये उसको
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# पतिपत्नी को एकात्म सम्बन्ध विकसित करना है ।
 
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# पतिपत्नी को गृहस्थ और गृहिणी बनना है । गृहस्थ और गृहिणी मिलकर गृहस्थाश्रम बनता है। चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम को श्रेष्ठ कहा गया है इसका अर्थ है कि पति-पत्नी का जीवन केवल अपने में सीमित नहीं है परन्तु अपने परिवार के केन्ट्ररूप बनकर सम्पूर्ण परिवार की व्यवस्था निभाना, सम्पूर्ण परिवार के प्रति अपना कर्तव्य निभाना है। यही पतिपत्नी की गृहस्थाश्रमी बनने की शुरुआत है ।
करार कहा जाता है । करार में दोनों पक्ष अपनेअपने सुख
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# गृहस्थ और गृहिणी केवल अपने परिवार के लिये नहीं होते । सम्पूर्ण परिवार बनकर और मिलकर जो गृह बनता है उसका एक सामाजिक दायित्व, सामाजिक कर्तव्य है, वह है गृहस्थाश्रमी का समाज धर्म । पति-पत्नी को इस स्तर पर भी गृहस्थ और गृहिणी बनना है।
 
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# पतिपत्नी को मातापिता भी बनना है। सर्वप्रकार की परम्परायें बनाये रखने के लिये और उनका संवर्धन करने के लिये पतिपत्नी को मातापिता भी बनना है ।
की रक्षा करने की चिन्ता करते हैं । इस कारण से भारत में
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कुटुम्ब भी नहीं बनता, समाज भी नहीं बनता | भारत में
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विवाह का उद्देश्य केवल काम सुख नहीं है, काम सुख की
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प्राप्ति नहीं है, विवाह का उद्देश्य परम्परा बनाना है, कुल
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परम्परा बनाना है, वंश परम्परा बनाना है और इसलिये
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कुटुम्ब के लिये, गृहस्थाश्रमी के लिये ऋणत्रय की कल्पना
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की गयी है ।
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सब से पहला ऋण है पितृक्रण । पतिपत्नी बन कर
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रश्द
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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मातापिता बनना है । मातापिता बनने के लिये ही विवाह
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किया जाता है, पतिपत्नी बना जाता है । मातापिता बन कर
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बालक को जन्म देना यह सब से महत्त्वपूर्ण दायित्व है,
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महत्वपूर्ण कर्तव्य है क्योंकि मातापिता के कारण से ही
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हमारा जन्म हुआ है । यह पितुऋण से मुक्त होने का माध्यम
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है । पूर्वजों की असंख्य पीढ़ियों की परम्परा हमारे जन्म से
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आगे बढ़ी है । इसे आगे बढ़ाना हमारा कर्तव्य है । इसलिये
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आगे की पीढ़ी की शुरूआत हम जिस बालक को जन्म
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देंगे, उससे होगी इसलिये विवाह करना है ।
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विवाह का दूसरा उद्देश्य संस्कृति की परम्परा
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निभाना है । यह भी पितृ्रण से मुक्त होने का दूसरा प्रकार
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है । गृहस्थाश्रमी के लिये दूसरा ऋण ऋषिकऋण है । हमारे
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देश में ज्ञान की जो परम्परा बनी है, ज्ञान देने वालें जो
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पूर्वज हैं, जिनको गुरु कहा जाता है, ऋषि कहा जाता है,
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ज्ञानी कहा जाता है, उनसे हमें जो ज्ञान प्राप्त हुआ है,
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संस्कार प्राप्त हुए हैं, जीवन की दृष्टि प्राप्त हुई है, जीवन की
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पद्धति प्राप्त हुई है, हमारी समझ बनी हैं उससे रण मुक्त भी
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बालक को जन्म देने से ही हुआ जाता है । इसलिये उनके
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ज्ञान के परिणाम स्वरूप जो संस्कार संस्कृति, रीतिरिवाज,
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परम्परायें हमारे तक पहुँची है उन्हें आगे तक पहुँचाने का
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हमारा कर्तव्य बनता है, हमारा दायित्व बनता है ।
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तीसरा कण है समाज ऋण - हम पूर्ण समाज के
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अंगभूत घटक हैं । बिना समाज के हम अच्छा जीवन जी
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ही नहीं सकते । इसलिये समाज के क्रण से मुक्त होने के
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लिये भी गृहस्थाश्रमी को सिद्ध होना है । पतिपत्नी केवल
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स्त्री पुरुष नहीं है, केवल पतिपत्नी भी नहीं है, वे गृहस्थ
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और गृहिणी भी हैं और गृहस्थ और गृहिणी का सामाजिक
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दायित्व होता है । इस सामाजिक दायित्व को ही लोककऋण
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अथवा नृक्रण कहा गया है । इससे मुक्त होने के लिये
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बालक को जन्म देना हैं । वैसे तो और भी एक रण की
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कल्पना की गई है वह है भूतक्रूण । प्रकृति के प्रति जो
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हमारा ऋण है वह अर्थात्‌ प्रकृति के बिना पंचमहाभूत,
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वनस्पति, जगत, पशु, पक्षी, प्राणी आदि के बिना भी
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हमारा जीवन सम्भव नहीं है । उनके हमारे पर अनन्त
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उपकार हैं । उनके उपकारों के प्रति कृतज्ञता द्शनि के लिए
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पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा
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इस भूत करण की कल्पना की गई है । यह निभाने के लिये
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पतिपत्नी को गृहस्थ बनना है और गृहस्थ बनने के
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साथसाथ मातापिता भी बनना है। इसलिये sere
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सुदृढ़ीकरण में जो स्पष्टतायें की गई वे इस प्रकार हैं । (१)
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पतिपत्नी का सम्बन्ध केवल शारीरिक या प्राणिक नहीं
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अपितु आत्मिक है । (२) पतिपत्नी को एकात्म सम्बन्ध
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विकसित करना है । (३) पतिपत्नी को गृहस्थ और गृहिणी
  −
 
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बनना है । गृहस्थ और गृहिणी मिलकर गृहस्थाश्रम बनता
  −
 
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है। चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम को श्रेष्ठ कहा गया है
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इसका अर्थ है कि पति-पत्नी का जीवन केवल अपने में
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सीमित नहीं है परन्तु अपने परिवार के केन्ट्ररूप बनकर
  −
 
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सम्पूर्ण परिवार की व्यवस्था निभाना, सम्पूर्ण परिवार के
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प्रति अपना कर्तव्य निभाना है। यही पतिपत्नी की
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गृहस्थाश्रमी बनने की शुरुआत है । (४) गृहस्थ और गृहिणी
  −
 
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केवल अपने परिवार के लिये नहीं होते । सम्पूर्ण परिवार
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बनकर और मिलकर जो गृह बनता है उसका एक
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सामाजिक दायित्व, सामाजिक कर्तव्य है, वह है
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गृहस्थाश्रमी का समाज धर्म । पति-पत्नी को इस स्तर पर
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भी गृहस्थ और गृहिणी बनना है। (५) पतिपत्नी को
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मातापिता भी बनना है। सर्वप्रकार की परम्परायें बनाये
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रखने के लिये और उनका संवर्धन करने के लिये पतिपत्नी
  −
 
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को मातापिता भी बनना है ।
      
== परिवार व्यवस्था के सूत्र ==
 
== परिवार व्यवस्था के सूत्र ==
इन पाँच बिन्दुओं को ध्यान में रखकर पतिपत्नी के
+
इन पाँच बिन्दुओं को ध्यान में रखकर पतिपत्नी के सम्बन्धों की व्याख्या की गयी है। उस व्याख्या को चरितार्थ करने के लिये उनकी व्यवस्थायें भी सोची गई हैं । इन व्यवस्थाओं के कुछ मूल सूत्र इस प्रकार हैं :-
 
+
# कोई भी पारिवारिक या सांस्कृतिक कार्य पति या पत्नी अकेले नहीं कर सकते । दोनों को मिलकर करना है। यज्ञ करना है तो दोनों को करना है । कन्यादान दोनों मिलकर ही दे सकते हैं । किसी प्रकार का दान भी दोनों मिलकर ही दे सकते हैं । संकल्प दोनों का मिलकर ही होता है । राजा का भी जब राज्याभिषेक होता है तो राजा और रानी दोनों का ही होता है । केवल अकेले राजा का नहीं होता । इस दृष्टि से सभी कार्यों में, सभी अनुष्ठानों में पति और पत्नी साथ में ही रहते हैं कभी भी अकेले नहीं रहते ।
सम्बन्धों की व्याख्या की गयी है। उस व्याख्या को
+
# व्यवसाय भी पतिपत्नी साथ मिलकर ही करते हैं ऐसी ही हमारी परम्परा रही है । व्यवसाय अथर्जिन का और समाज सेवा का माध्यम है । यहाँ भी दोनों को साथ में ही रहना है । इसलिये पति वैद्य है तो पत्नी भी वैद्य का ज्ञान अर्जित करती है । दोनों साथ मिलकर व्यवसाय करते हैं। जितनी भी कारिगरी हैं वह सभी कारिगरी पतिपत्नी मिलकर ही करते हैं । इतना ही नहीं तो जब बच्चे होते हैं तो वे भी इस व्यवसाय में शामिल होते हैं ।
 
+
# अथर्जिन कुटुम्ब के निर्वाह के लिये होता है । इस कुटुम्ब के संचालन में भी दोनों की एक साथ भूमिका रहती है । अथार्जिन करने का मुख्य दायित्व यदि पति का है तो प्राप्त किये हुए अर्थ का विनियोग करने का दायित्व पत्नी का होता है और इस दृष्टि से परिवार संचालन यह पत्नी का प्रमुख दायित्व बनता है । अर्थ का विनियोग करने का उसका दायित्व और अधिकार दोनों उसी के पास है ।
चरितार्थ करने के लिये उनकी व्यवस्थायें भी सोची गई हैं ।
+
# बालक के संगोपन में दोनों की समान भूमिका बनती है । इस दृष्टि से दोनों साथ मिलकर ही जब करते हैं तो एक दूसरे से स्वतन्त्रता का कहीं प्रश्न नहीं रहता । दोनों स्वतन्त्र करियर बनायेंगे इसकी कभी भी परिवार जीवन में कल्पना नहीं की जाती थी । ऐसी कल्पना आज की जाती है और आज जब स्वतन्त्र व्यवसाय एक दूसरे के हो जाते हैं तो अनेक प्रकार की विसंगतियाँ निर्माण होती हैं यह तो हमारा सबका अनुभव है। इस दृष्टि से पतिपत्नी की एकात्मता का व्यवहारिक स्वरूप क्या है इसका यहाँ हमने चार या पाँच बिन्दुओं में ही उल्लेख किया है । कुटुम्ब की इस व्याख्या को प्रस्तुत करने के लिये, प्रतिष्ठित करने के लिये, गुरुकुल ने इसे ग्रन्थ का स्वरूप दिया और गृहशास्त्र ग्रन्थ की रचना की । गृहशास्त्र के तीन आयाम थे । परिवार की रचना, परिवार की व्यवस्था और परिवार की भावना परिवार की भावना सब्से प्रमुख तत्त्व है । परिवार भावना का अर्थ होता है आत्मीयता । भारतीय समाज में आत्मीयता यह व्यवस्था और व्यवहार का आधारभूत सूत्र है ।
 
  −
इन व्यवस्थाओं के कुछ मूल सूत्र इस प्रकार हैं :-
  −
 
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(१) कोई भी पारिवारिक या सांस्कृतिक कार्य पति
  −
 
  −
या पत्नी अकेले नहीं कर सकते । दोनों को मिलकर करना
  −
 
  −
है। यज्ञ करना है तो दोनों को करना है । कन्यादान दोनों
  −
 
  −
मिलकर ही दे सकते हैं । किसी प्रकार का दान भी दोनों
  −
 
  −
मिलकर ही दे सकते हैं । संकल्प दोनों का मिलकर ही
  −
 
  −
होता है । राजा का भी जब राज्याभिषेक होता है तो राजा
  −
 
  −
और रानी दोनों का ही होता है । केवल अकेले राजा का
  −
 
  −
२१७
  −
 
  −
नहीं होता । इस दृष्टि से सभी कार्यों में,
  −
 
  −
सभी अनुष्ठानों में पति और पत्नी साथ में ही रहते हैं कभी
  −
 
  −
भी अकेले नहीं रहते ।
  −
 
  −
(२) व्यवसाय भी पतिपत्नी साथ मिलकर ही करते
  −
 
  −
हैं ऐसी ही हमारी परम्परा रही है । व्यवसाय अथर्जिन का
  −
 
  −
और समाज सेवा का माध्यम है । यहाँ भी दोनों को साथ में
  −
 
  −
ही रहना है । इसलिये पति वैद्य है तो पत्नी भी वैद्य का
  −
 
  −
ज्ञान अर्जित करती है । दोनों साथ मिलकर व्यवसाय करते
  −
 
  −
हैं। जितनी भी कारिगरी हैं वह सभी कारिगरी पतिपत्नी
  −
 
  −
मिलकर ही करते हैं । इतना ही नहीं तो जब बच्चे होते हैं
  −
 
  −
तो वे भी इस व्यवसाय में शामिल होते हैं ।
  −
 
  −
(३) अथर्जिन कुटुम्ब के निर्वाह के लिये होता है ।
  −
 
  −
इस कुटुम्ब के संचालन में भी दोनों की एक साथ भूमिका
  −
 
  −
रहती है । अथार्जिन करने का मुख्य दायित्व यदि पति का है
  −
 
  −
तो प्राप्त किये हुए अर्थ का विनियोग करने का दायित्व
  −
 
  −
पत्नी का होता है और इस दृष्टि से परिवार संचालन यह
  −
 
  −
पत्नी का प्रमुख दायित्व बनता है । अर्थ का विनियोग करने
  −
 
  −
का उसका दायित्व और अधिकार दोनों उसी के पास है ।
  −
 
  −
(४) बालक के संगोपन में दोनों की समान भूमिका
  −
 
  −
बनती है । इस दृष्टि से दोनों साथ मिलकर ही जब करते हैं
  −
 
  −
तो एक दूसरे से स्वतन्त्रता का कहीं प्रश्न नहीं रहता । दोनों
  −
 
  −
स्वतन्त्र करियर बनायेंगे इसकी कभी भी परिवार जीवन में
  −
 
  −
कल्पना नहीं की जाती थी । ऐसी कल्पना आज की जाती
  −
 
  −
है और आज जब स्वतन्त्र व्यवसाय एक दूसरे के हो जाते
  −
 
  −
हैं तो अनेक प्रकार की विसंगतियाँ निर्माण होती हैं यह तो
  −
 
  −
हमारा सबका अनुभव है। इस दृष्टि से पतिपत्नी की
  −
 
  −
एकात्मता का व्यवहारिक स्वरूप क्या है इसका यहाँ हमने
  −
 
  −
चार या पाँच बिन्‍्दुओं में ही उल्लेख किया है । कुटुम्ब की
  −
 
  −
इस व्याख्या को प्रस्तुत करने के लिये, प्रतिष्ठित करने के
  −
 
  −
लिये, गुरुकुल ने इसे ग्रन्थ का स्वरूप दिया और गृहशास्त्र
  −
 
  −
ग्रन्थ की रचना की । गृहशास्त्र के तीन आयाम थे । परिवार
  −
 
  −
की रचना, परिवार की व्यवस्था और परिवार की भावना
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परिवार की भावना सब्से प्रमुख तत्त्व है । परिवार भावना
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का अर्थ होता आत्मीयता । भारतीय समाज में आत्मीयता
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यह व्यवस्था और व्यवहार का आधारभूत सूत्र है ।
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== आत्मीयता एक आधारभूत तत्त्व ==
 
== आत्मीयता एक आधारभूत तत्त्व ==

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