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| == परम्परा का अज्ञान == | | == परम्परा का अज्ञान == |
− | वास्तव में आज की विषमता ही यह है । भारत के ही | + | वास्तव में आज की विषमता ही यह है । भारत के ही लोग भारतीय परम्परा के प्रति आस्थावान नहीं हैं और न उन्हें उस परम्परा का ज्ञान है । परन्तु तटस्थता से देखेंगे तो ध्यान में आयेगा कि इसमें इनका दोष नहीं है । विगत दस पीढ़ियों से हमारी शिक्षा व्यवस्था ही ऐसी हो गई है जिसमें भारतीयता का ज्ञान या भारतीयता के प्रति आस्था या गौरव का भाव सिखाया ही नहीं जाता । हम भारत के विषय में यूरोप और अमेरिका के अभिप्रायों को ही जानते हैं । देश उसी ज्ञान और दृष्टि के आधार पर चल रहा है । हमारे विषय से सम्बन्धित है ऐसी दो बातों की हम विशेष चर्चा करेंगे । |
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− | लोग भारतीय परम्परा के प्रति आस्थावान नहीं हैं और न
| + | एक है व्यक्तिकेन्द्रित उपभोग परायण जीवनदृष्टि और दूसरी है पुनर्जन्म और जन्मजन्मान्तर के विषय में सम्श्रम । पहली बात के अनुसार हर व्यक्ति केवल अपने लिये जीना ही अपना कार्य समझता है। अपने जीवन का लक्ष्य भी कामनाओं की पूर्ति को मानता है । कामनाओं की पूर्ति के लिये उपभोग परायण बनता है । उपभोग के पदार्थों की प्राप्ति के लिये अर्थाजन करते हैं । अर्थाजन हेतु दिन-रात खपते हैं । यह तो उनकी अपनी व्यक्तिगत बात हुई । परन्तु अपनी कामनाओं की पूर्ति कि लिये उन्हें अन्य मनुष्यों तथा सृष्टि के अन्य घटकों पर भी निर्भर रहना पड़ता है । तब वे सब मेरे लिये ही हैं और मैं उन सबका मेरे सुख के लिये किस प्रकार उपयोग कर सकूँ इसी फिराक में वे रहते हैं । उनका पुनर्जन्म पर विश्वास नहीं इसलिये कर्म, कर्मफल, सुख-दुःख, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक आदि पर भी विश्वास नहीं । इस जन्म का ही विचार करना है तो दूसरों का विचार करने की क्या आवश्यकता है ? सत्कर्म आदि करने से क्या लाभ ? उल्टे हानि ही है । दूसरों की चिन्ता मुझे क्यों करनी चाहिये ? सब अपनी-अपनी चिन्ता कर लेंगे । कोई दुःखी है, कोई रोगी है, कोई दरिद्र है, कोई भूखा है तो मुझे उससे क्या लेना देना ? बौद्धिक स्तर पर वे मानते हैं कि उनका कोई दायित्व बनता ही नहीं है । |
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− | उन्हें उस परम्परा का ज्ञान है । परन्तु तटस्थता से देखेंगे तो
| + | भारत का युवक इन दोनों बातों में आत्यन्तिक भूमिका नहीं ले सकता है क्योंकि हजारों पीढ़ियों के संस्कृति के संस्कार उसके अन्तर्मन में होते हैं परन्तु दस पीढ़ियों के विपरीत संस्कारों के नीचे वे दबे पड़े हैं। वर्तमान जीवनशैली, आज की शिक्षा और संस्कार व्यवस्था के अनुसार चलती है और अन्तर्मन की प्रेरणा कुछ और रहती है । इसलिये वह आधा यह आधा वह ऐसा जीता है । एक आन्तरिक संघर्ष प्रच्छन्न रूप से उसके अन्तःकरण में चलता ही रहता है । इसके परिणाम स्वरूप छोटी-मोटी अनेक बातों में वह जानता कुछ अलग है, मानता कुछ अलग है और करता कुछ तीसरा ही है । ज्ञान, अज्ञान और मिथ्याज्ञान की चक्की में वह पिसता रहता है । उसे कोई बताने वाला न मिले तो वह आराम से अभारतीय जीवनशैली अपनाकर ही जीता है । कोई बताने वाला मिले तो वह उसका विरोध करता है क्योंकि जीवनशैली छोड़ना या बदलना उसके लिये यदि असम्भव न भी हो तो भी कठिन होता है । विपरीत ज्ञान के कारण वह तर्क करके विरोध करता है और मानसिक दुर्बलता के कारण अव्यावहारिकता के बहाने बनाता है, परन्तु उसका आन्तह्वन्द्र तो शुरु हो ही जाता है । इन सब कारणों से भारतीय संस्कृति के अनुसार मात-पिता बनना उसके लिये बहुत कठिन है यह बात तो ठीक है, परन्तु कहीं से प्रारम्भ तो करना ही पड़ेगा । आज की तुलना में कम शिक्षित पति-पत्नी के लिये मातापिता बनना इतना कठिन नहीं है जितना सुशिक्षित और उच्चशिक्षित पति-पत्नी के लिये । इस कथन का तात्पर्य तो आप अब समझ ही गये होंगे । |
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− | ध्यान में आयेगा कि इसमें इनका दोष नहीं है । विगत दस
| + | == माता बालक की प्रथम गुरु == |
| + | संस्कार देने लायक माता-पिता बनें इसके बाद शिशु संगोपन का विषय आता है जो सीखना होता है । फिर एक बार संगोपन केवल शारीरिक स्तर पर नहीं होता, भावात्मक स्तर अधिक महत्त्वपूर्ण होता है । यह बात सही है कि बालक छोटा होता है तब माता की ही भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण होती है । शास्त्रों ने कहा ही है कि बालक के लिये माता प्रथम गुरु होती है । इस कथन के अनुसार हर माता को गुरु बनना सीखना है । गुरु बनने का महत्त्व बताने वाला एक श्लोक है - |
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− | पीढ़ियों से हमारी शिक्षा व्यवस्था ही ऐसी हो गई है जिसमें
| + | उपाध्यायान् द्शाचार्य: आचार्याणां शतं पिता । |
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− | भारतीयता का ज्ञान या भारतीयता के प्रति आस्था या गौरव
| + | सहसं तु पितुन माता गौरवेणातिरिच्यते ।। |
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− | का भाव सिखाया ही नहीं जाता । हम भारत के विषय में
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− | यूरोप और अमेरिका के अभिप्रायों को ही जानते हैं । देश
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− | उसी ज्ञान और दृष्टि के आधार पर चल रहा है । हमारे विषय
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− | से सम्बन्धित है ऐसी दो बातों की हम विशेष चर्चा करेंगे ।
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− | एक है व्यक्तिकेन्द्रित उपभोग परायण जीवनदृष्टि और दूसरी है
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− | पुनर्जन्म और जन्मजन्मान्तर के विषय में सम्श्रम । पहली
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− | बात के अनुसार हर व्यक्ति केवल अपने लिये जीना ही
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− | अपना कार्य समझता है। अपने जीवन का लक्ष्य भी
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− | कामनाओं की पूर्ति को मानता है । कामनाओं की पूर्ति के
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− | लिये उपभोग परायण बनता है । उपभोग के पदार्थों की प्राप्ति
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− | के लिये अर्थाजन करते हैं । अर्थाजन हेतु दिन-रात खपते
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− | हैं । यह तो उनकी अपनी व्यक्तिगत बात हुई । परन्तु अपनी
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− | कामनाओं की पूर्ति कि लिये उन्हें अन्य मनुष्यों तथा सृष्टि के
| + | अर्थात् |
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− | अन्य घटकों पर भी निर्भर रहना पड़ता है । तब वे सब मेरे
| + | एक उपाध्याय से आचार्य द्श गुना अधिक श्रेष्ठ है, एक आचार्य से पिता सौ गुना अधिक गौरवमय है और एक पिता से माता सहस्रगुना अधिक गौरवमयी है । |
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− | लिये ही हैं और मैं उन सबका मेरे सुख के लिये किस प्रकार
| + | गौरव शब्द ही गुरु से बना है । सुभाषित कहता है कि माता जैसा कोई गुरु नहीं । अतः अपने बालक का गुरु बनना हर माता का दायित्व है । गुरु सिखाता है, गुरु ज्ञान देता है, गुरु चरित्रनिर्माण करता है, गुरु जीवन गढ़ता है । माता को यह सब करना है । इस बात का ज्ञान नहीं होने के कारण आज की मातायें चरित्र-निर्माण, ज्ञान, जीवन गढ़ना आदि बातों से अनभिज्ञ होती हैं इसलिये जानती ही नहीं कि क्या करना और क्या नहीं करना । माता यदि मातृभाव से परिपूर्ण है तो उसका प्रभाव टी.वी, से या बाहर के किसी भी अन्य आकर्षणों से अधिक होता है । आजकल हम एक शिकायत हमेशा सुनते हैं कि बच्चे टी.वी. और इण्टरनेट के कारण बिगड़ जाते हैं । इसका मूल कारण माता और पिता का गुरुत्व कम हो गया है, यह है । उनका प्रभाव न संस्कार देने में है, न टी.वी. आदि से परावृत करने में । और एक शिकायत भी सुनने को मिलती है कि आजकल बच्चे माता-पिता का या बडों का कहना नहीं मानते हैं । इसका भी मूल कारण माता-पिता या बड़े अपना गुरुत्व और बडप्पन बनाये नहीं रखते हैं, यही है । सारांश यह है कि माता को गुरु बनना सीखना है । परन्तु सीखना याने क्या करना ? |
| + | # बालक के सामने अन्य सभी बातों को गौण मानना । अपने से भी पहले बालक को मानना । चाहिये । परिचर्या का अर्थ है स्नान, मालिश, शौच, |
| + | ''माता ऐसा करती है कि नहीं इसका पता बालक को स्वच्छता, कपड़े, बिस्तर आदि के रूप में सेवा ।'' |
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− | उपयोग कर सकूँ इसी फिराक में वे रहते हैं ।
| + | ''स्वतः से चल जाता है इसलिये इसमें कोई दिखावा भोजन की ही तरह ये सब भी सम्बन्ध बनाने के'' |
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− | उनका पुनर्जन्म पर विश्वास नहीं इसलिये कर्म,
| + | ''नहीं चलता । माध्यम है ।'' |
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− | कर्मफल, सुख-दुःख, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक आदि पर भी
| + | ''2. बालक को अपने हाथ से खिलाना चाहिए। एक. ४... बालक के लिये माता को और जो बातें सीखनी हैं वे'' |
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− | विश्वास नहीं । इस जन्म का ही विचार करना है तो दूसरों का
| + | ''श्लोक है - हैं उसके खिलौने, उसके कपडे आदि का aaa |'' |
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− | विचार करने की क्या आवश्यकता है ? सत्कर्म आदि करने
| + | ''aM कुर्यात् स्वहस्तेन परहस्तेन मर्दनम् । खिलौनों और कपडों का पूरा शास्ख्र होता है । माता'' |
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− | ............. page-241 .............
| + | ''alge Age Ase ANTAL II al $8 Bret Al wa eat ated | Ha Pilea'' |
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− | पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा
| + | ''अर्थात् दान अपने हाथ से करना चाहिये, शरीर की परन्तु श्रद्धावान माता आप्तजनों से यह ज्ञान प्राप्त कर'' |
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− | से क्या लाभ ? उल्टे हानि ही है । दूसरों की चिन्ता मुझे | |
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− | क्यों करनी चाहिये ? सब अपनी-अपनी चिन्ता कर लेंगे ।
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− | कोई दुःखी है, कोई रोगी है, कोई दरिद्र है, कोई भूखा है तो
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− | मुझे उससे कया लेना देना ? बौद्धिक स्तर पर वे मानते हैं कि
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− | उनका कोई दायित्व बनता ही नहीं है ।
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− | भारत का युवक इन दोनों बातों में आत्यन्तिक भूमिका
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− | नहीं ले सकता है क्योंकि हजारों पीढ़ियों के संस्कृति के
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− | संस्कार उसके अन्तर्मन में होते हैं परन्तु दस पीढ़ियों के
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− | विपरीत संस्कारों के नीचे वे दबे पड़े हैं। वर्तमान
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− | जीवनशैली, आज की शिक्षा और संस्कार व्यवस्था के
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− | अनुसार चलती है और अन्तर्मन की प्रेरणा कुछ और रहती
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− | है । इसलिये वह आधा यह आधा वह ऐसा जीता है । एक
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− | आन्तरिक संघर्ष प्रच्छन्न रूप से उसके अन्तःकरण में चलता
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− | ही रहता है । इसके परिणाम स्वरूप छोटी-मोटी अनेक बातों
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− | में वह जानता कुछ अलग है, मानता कुछ अलग है और
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− | करता कुछ तीसरा ही है । ज्ञान, अज्ञान और मिध्याज्ञान की
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− | चक्की में वह पिसता रहता है । उसे कोई बताने वाला न
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− | मिले तो वह आराम से अभारतीय जीवनशैली अपनाकर ही
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− | जीता है । कोई बताने वाला मिले तो वह उसका विरोध
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− | करता है क्योंकि जीवनशैली छोड़ना या बदलना उसके लिये
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− | यदि असम्भव न भी हो तो भी कठिन होता है । विपरीत
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− | ज्ञान के कारण वह तर्क करके विरोध करता है और मानसिक
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− | दुर्बलता के कारण अव्यावहारिकता के बहाने बनाता है,
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− | परन्तु उसका आन्तह्वन्द्र तो शुरु हो ही जाता है । इन सब | |
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− | कारणों से भारतीय संस्कृति के अनुसार मात-पिता बनना
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− | उसके लिये बहुत कठिन है यह बात तो ठीक है, परन्तु कहीं
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− | से प्रारम्भ तो करना ही पड़ेगा । आज की तुलना में कम
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− | शिक्षित पति-पत्नी के लिये मातापिता बनना इतना कठिन
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− | नहीं है जितना सुशिक्षित और उच्चशिक्षित पति-पत्नी के
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− | लिये । इस कथन का तात्पर्य तो आप अब समझ ही गये
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− | होंगे ।
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− | == माता बालक की प्रथम गुरु ==
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− | संस्कार देने लायक माता-पिता बनें इसके बाद शिशु
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− | संगोपन का विषय आता है जो सीखना होता है । फिर एक
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− | र२५
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− | बार संगोपन केवल शारीरिक स्तर पर
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− | नहीं होता, भावात्मक स्तर अधिक महत्त्वपूर्ण होता है । यह
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− | बात सही है कि बालक छोटा होता है तब माता की ही
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− | भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण होती है । शास्त्रों ने कहा ही है कि
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− | बालक के लिये माता प्रथम गुरु होती है । इस कथन के
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− | अनुसार हर माता को गुरु बनना सीखना है । गुरु बनने का
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− | महत्त्व बताने वाला एक श्लोक है -
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− | उपाध्यायान् द्शाचार्य: आचार्याणां शतं पिता ।
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− | सहसं तु पितुन माता गौरवेणातिरिच्यते ।।
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− | अर्थात्
| + | ''मालिश दूसरे के हाथ से करवाना अच्छा है, औषध वैद्य के सकती है, उच्चशिक्षित माता शाख्रग्रन्थों का स्वयं'' |
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− | एक उपाध्याय से आचार्य द्श गुना अधिक श्रेष्ठ है,
| + | ''हाथ से लेने में भलाई है और भोजन माता के हाथ से करना अध्ययन कर अथवा शास्त्र वेत्ताओं से यह ज्ञान प्राप्त'' |
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− | एक आचार्य से पिता सौ गुना अधिक गौरवमय है और एक
| + | ''श्रेयस्कर है । कर सकती है । खिलौनों और कपडों का विषय'' |
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− | पिता से माता सहस्रगुना अधिक गौरवमयी है ।
| + | ''माता के हाथ से भोजन का अर्थ है बालक के लिये स्वास्थ्य और संस्कार दोनों दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । इस'' |
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− | गौरव शब्द ही गुरु से बना है । सुभाषित कहता है कि
| + | ''भोजन बनाना और बालक को भोजन करवाना । विषय के नितान्त अज्ञान के कारण माता-पिता महँगे'' |
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− | माता जैसा कोई गुरु नहीं । अतः अपने बालक का गुरु
| + | ''स्तनपान से यह कार्य शुरू होता है और पूर्ण भोजन कपडे और खिलौने लाने में ही इति कर्तव्यता मानते'' |
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− | बनना हर माता का दायित्व है ।
| + | ''तक पहुँचता है । भोजन का प्रभाव शरीर, प्राण, मन, हैं । प्लास्टिक के खिलौने, सोफ्ट टोयझ, पोलिएस्टर'' |
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− | गुरु सिखाता है, गुरु ज्ञान देता है, गुरु चरित्रनिर्माण
| + | ''बुद्धि, चित्त सभी पर होता है । इसका अर्थ है भोजन के कपड़े, ढेर सारे कृत्रिम प्रसाधन, स्वास्थ्य और'' |
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− | करता है, गुरु जीवन गढ़ता है । माता को यह सब करना है ।
| + | ''के माध्यम से माता का भी बालक के मन, बुद्धि संस्कार दोनों दृष्टि से हानिकारक हैं परन्तु जिनकी'' |
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− | इस बात का ज्ञान नहीं होने के कारण आज की मातायें
| + | ''आदि सब पर प्रभाव होता है । बालक के लिये भोजन खरीदी का आधार केवल विज्ञापन और दुकान का शो'' |
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− | चसित्र-निर्माण, ज्ञान, जीवन गढ़ना आदि बातों से अनभिज्ञ
| + | ''बनाते समय केवल भोजन के विषय में नहीं अपितु केस है अथवा दुकानदार की चाट्कारिता है अथवा'' |
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− | होती हैं इसलिये जानती ही नहीं कि क्या करना और क्या
| + | ''बालक के विषय में भी पता चलता है । बालक की धनवानों की खरीदी पर है वे अपनी समझ से कैसे'' |
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− | नहीं करना ।
| + | ''रुचि-अरुचि, स्वभाव, गुण-दोष, स्वास्थ्य, क्षमतायें कुछ भी कर सकते हैं । वास्तव में इनमें से कोई'' |
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− | माता यदि मातृभाव से परिपूर्ण है तो उसका प्रभाव
| + | ''आदि सभी बातों की जानकरी प्राप्त होती है । बालक हमारा आप्त नहीं है । हमें अपने आप्त कौन हैं इसकी'' |
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− | टी.वी, से या बाहर के किसी भी अन्य आकर्षणों से अधिक
| + | ''जिस प्रकार अन्तम्प्रज्ञा से सबकुछ समझता है उसी तो पहचान होनी ही चाहिये ।'' |
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− | होता है । आजकल हम एक शिकायत हमेशा सुनते हैं कि
| + | ''प्रकार माता भी अन्तर्मन से बालक के विषय में 4. अब माता के साथ पिता भी जुड़ सकते हैं । वैसे घर'' |
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− | बच्चे टी.वी. और इण्टरनेट के कारण बिगड़ जाते हैं । इसका
| + | ''सबकुछ जानती है । इतनी निकटता “मातृहस्तेन के अन्य लोग भी जुड़ सकते हैं । विषय है बच्चों के'' |
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− | मूल कारण माता और पिता का गुरुत्व कम हो गया है, यह
| + | ''भोजनम्' के माध्यम से प्राप्त होती है । “मातृहस्तेन साथ बात करना, खेलना, उन्हें कहानी बताना । जब'' |
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− | है । उनका प्रभाव न संस्कार देने में है, न टी.वी. आदि से
| + | ''MS केवल बालक का ही नहीं, माता का भी बात करके देखते हैं, कहानी सुनाकर देखते हैं या'' |
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− | परावृत करने में । और एक शिकायत भी सुनने को मिलती
| + | ''अधिकार है । खेलकर देखते हैं तभी पता चलता है कि यह कितना'' |
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− | है कि आजकल बच्चे माता-पिता का या बडों का कहना | + | ''मन से इसको स्वीकार करने के लिये और इसके कठिन कार्य है । इन बातों को सीखने के लिये सर्व'' |
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− | नहीं मानते हैं । इसका भी मूल कारण माता-पिता या बड़े
| + | ''आवश्यक कला-कौशल सीखने के लिये माता को अपनी प्रथम आवश्यकता है धैर्य । दूसरी आवश्यकता होती'' |
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− | अपना गुरुत्व और बडप्पन बनाये नहीं रखते हैं, यही है । | + | ''करिअर, अपना वेतन, अपना जॉब, अपना शौक, अपना है संयम की । क्रोध न करना, नियम नहीं सिखाना,'' |
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− | सारांश यह है कि माता को गुरु बनना सीखना है ।
| + | ''घर का काम आदि सभी बातों से भी बालक का भोजन डाँटना नहीं, चिछ्लाना नहीं आदि के लिये बहुत संयम'' |
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− | परन्तु सीखना याने क्या करना ?
| + | ''अधिक महत्त्वपूर्ण है ऐसा लगना चाहिये । की आवश्यकता होती है । इन्हीं अवसरों पर जीवन'' |
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− | 2.) बालक के सामने अन्य सभी बातों को गौण मानना ।
| + | ''3. इसी प्रकार शिशु की परिचर्या करना भी सीखना का दृष्टिकोण विकसित होता है ।'' |