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→‎ख) धर्म का अर्थ है कर्तव्य: लेख सम्पादित किया
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=== ख) धर्म का अर्थ है कर्तव्य ===
 
=== ख) धर्म का अर्थ है कर्तव्य ===
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धर्म का अर्थ कर्तव्य भी होता है । कर्तव्य के भी दो हिस्से है । एक है सामासिक धर्म या समाज के प्रत्येक घटकद्वारा अपेक्षित कर्तव्य और दूसरा हिस्सा है व्यक्तिगत स्तर के कर्तव्य । सामान्य धर्म के विषय में मनुस्मृति में कहा है -
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धर्म का अर्थ कर्तव्य भी होता है । कर्तव्य के भी दो हिस्से है । एक है सामासिक धर्म या समाज के प्रत्येक घटक द्वारा अपेक्षित कर्तव्य और दूसरा हिस्सा है व्यक्तिगत स्तर के कर्तव्य ।
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सामान्य धर्म के विषय में मनुस्मृति में कहा है<ref>मनुस्मृति </ref>:
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अहिंसा सत्य अस्तेयं शाप्रचमिन्द्रियनिग्रह: ।
 
अहिंसा सत्य अस्तेयं शाप्रचमिन्द्रियनिग्रह: ।
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एतं सामासिकं धर्मं चातुरर््वण्येऽब्रवीन्मनु:  ॥  ( मनुस्मृती १० - १६३)
 
एतं सामासिकं धर्मं चातुरर््वण्येऽब्रवीन्मनु:  ॥  ( मनुस्मृती १० - १६३)
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भावार्थ : अहिंसा, सत्य, चोरी न करना, अंतर्बाह्य स्वच्छता और इंन्द्रिय संयम यह समाज के प्रत्येक घटक के सभी वर्णों के हर व्यक्ति के कर्तव्य है । व्यक्ति के भी समाज के अन्य घटकों के साथ जो परस्पर संबंध है उन के अनुसार व्यक्तिगत कर्तव्य भी होते है । जप्रसे पत्नी से संबंधित पति के कर्तव्यों को पतिधर्म कहा जाता है । पडोसी से संबंधित कर्तवुव्यों को पडोसीधर्म कहा जाता है । बेटे-बेटी के अपने मातापिता के प्रति कर्तव्यं को पुत्रधर्म कहा जाता है । व्यापारी के ग्राहक के प्रति कर्तवों को व्यापारी धर्म कहा जाता है । सप्रनिक के अपने देश के प्रति कर्तव्यों को सप्रनिकधर्म कहा जाता है।  
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'''भावार्थ''' : अहिंसा, सत्य, चोरी न करना, अंतर्बाह्य स्वच्छता और इंन्द्रिय संयम यह समाज के प्रत्येक घटक के सभी वर्णों के हर व्यक्ति के कर्तव्य है ।  
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व्यक्ति के भी समाज के अन्य घटकों के साथ जो परस्पर संबंध है उन के अनुसार व्यक्तिगत कर्तव्य भी होते है । जैसे पत्नी से संबंधित पति के कर्तव्यों को पतिधर्म कहा जाता है । पडोसी से संबंधित कर्तव्यों को पडोसीधर्म कहा जाता है । बेटे-बेटी के अपने मातापिता के प्रति कर्तव्य को पुत्रधर्म कहा जाता है । व्यापारी के ग्राहक के प्रति कर्तव्यों को व्यापारी धर्म कहा जाता है । सैनिक के अपने देश के प्रति कर्तव्यों को सैनिकधर्म कहा जाता है।  
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इस मे एक बात महत्वपूर्ण है । कोई भी व्यक्तिगत स्तर का कर्तव्य सामासिक धर्म अर्थात् अहिंसा, सत्य, चोरी न करना, अंतर्बाह्य स्वच्छता और इंन्द्रिय संयम आदि कर्तव्यों के विपरीत नही होना चाहिये । इसी कर्तव्य संबंधों का एक पहलू नीचे दिया है:
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त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।
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ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥
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'''भावार्थ''' : जब कुल पर संकट हो तो व्यक्ति को कुल के हित में त्याग करना चाहिये । अर्थात कुल के लिए व्यक्तिगत हित को तिलांजली देनी चाहिये। कुल का हित और ग्राम का हित इन में चयन की स्थिति में ग्राम के हित को प्राधान्य देना चाहिये । जनपद के हित में ग्रामहित को तिलांजली देनी चाहिये । और जिस कारण आत्मा का हनन होता है, ऐसे समय अन्य सभी बातों का त्याग करना चाहिये ।
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इस मे एक बात महत्वपूर्ण है । कोई भी व्यक्तिगत स्तर का कर्तव्य सामासिक धर्म अर्थात् अहिंसा, सत्य, चोरी न करना, अंतर्बाह्य स्वच्छता और इंन्द्रिय संयम आदि कर्तव्यों के विपरीत नही होना चाहिये । इसी कर्तव्य संबंधों का एक पहलू नीचे दिया है  -
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=== ग)  धर्म मानव और पशू में अंतर ===
त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।
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आहार, निद्रा, डर और विषयवासना यह चार मूलभूत भावनाएं मानव और पशू में समान है । मानव की विशेषता इसी में है की वह धर्म का पालन करता है। मानव के लिये नियोजित धर्म का जो पालन नही करता उसे पशू ही माना जाता है । इसी का वर्णन नीचे किया है -  
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥
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भावार्थ : जब कुलपर संकट हो तो व्यक्ति ने कुल के हित में त्याग करना चाहिये । या कुल न ए व्य्क्ति के हित को तिलांजली देनी चाहिये। कुल का हित और ग्राम का हित इन में चयन की स्थिति में ग्राम के हित को प्राधान्य देना चाहिये । जनपद के हित में ग्रामहित को तिलांजली देनी चाहिये । और जिस कारण आत्मा का हनन होता है, ऐसे समय अन्य सभी बातों का त्याग करना चाहिये ।
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ग)  धर्म मानव और पशू में अंतर
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आहार, निद्रा, डर और विषयवासना यह चार मूलभूत भावनाएं मानव और पशू में समान है । मानव की विशेषता इसी में है की वह धर्म का पालन करता है। मानव के लिये नियोजित धर्म का जो पालन नही करता उसे पशू ही माना जाता है । इसी का वर्णन नीचे किया है -  
   
आहार निद्रा भय मैथुनंच सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
 
आहार निद्रा भय मैथुनंच सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
 
धर्मोऽहितेषामधिकोविशेषो धर्मेण हीन: पशुभि:समान: ।
 
धर्मोऽहितेषामधिकोविशेषो धर्मेण हीन: पशुभि:समान: ।
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