Line 21: |
Line 21: |
| अहिंसा सत्य अस्तेयं शाप्रचमिन्द्रियनिग्रह: । | | अहिंसा सत्य अस्तेयं शाप्रचमिन्द्रियनिग्रह: । |
| | | |
− | एतं सामासिकं धर्मं चातुरर््वण्येऽब्रवीन्मनु: ॥ ( मनुस्मृती १० - १६३) | + | एतं सामासिकं धर्मं चातुरर््वण्येऽब्रवीन्मनु: ॥ ( मनुस्मृति १० - १६३) |
| | | |
| '''भावार्थ''' : अहिंसा, सत्य, चोरी न करना, अंतर्बाह्य स्वच्छता और इंन्द्रिय संयम यह समाज के प्रत्येक घटक के सभी वर्णों के हर व्यक्ति के कर्तव्य है । | | '''भावार्थ''' : अहिंसा, सत्य, चोरी न करना, अंतर्बाह्य स्वच्छता और इंन्द्रिय संयम यह समाज के प्रत्येक घटक के सभी वर्णों के हर व्यक्ति के कर्तव्य है । |
Line 35: |
Line 35: |
| '''भावार्थ''' : जब कुल पर संकट हो तो व्यक्ति को कुल के हित में त्याग करना चाहिये । अर्थात कुल के लिए व्यक्तिगत हित को तिलांजली देनी चाहिये। कुल का हित और ग्राम का हित इन में चयन की स्थिति में ग्राम के हित को प्राधान्य देना चाहिये । जनपद के हित में ग्रामहित को तिलांजली देनी चाहिये । और जिस कारण आत्मा का हनन होता है, ऐसे समय अन्य सभी बातों का त्याग करना चाहिये । | | '''भावार्थ''' : जब कुल पर संकट हो तो व्यक्ति को कुल के हित में त्याग करना चाहिये । अर्थात कुल के लिए व्यक्तिगत हित को तिलांजली देनी चाहिये। कुल का हित और ग्राम का हित इन में चयन की स्थिति में ग्राम के हित को प्राधान्य देना चाहिये । जनपद के हित में ग्रामहित को तिलांजली देनी चाहिये । और जिस कारण आत्मा का हनन होता है, ऐसे समय अन्य सभी बातों का त्याग करना चाहिये । |
| | | |
− | === ग) धर्म मानव और पशू में अंतर === | + | === ग) धर्म: मानव और पशु में अंतर === |
− | आहार, निद्रा, डर और विषयवासना यह चार मूलभूत भावनाएं मानव और पशू में समान है । मानव की विशेषता इसी में है की वह धर्म का पालन करता है। मानव के लिये नियोजित धर्म का जो पालन नही करता उसे पशू ही माना जाता है । इसी का वर्णन नीचे किया है - | + | आहार, निद्रा, डर और विषयवासना यह चार मूलभूत भावनाएं मानव और पशु में समान है । मानव की विशेषता इसी में है कि वह धर्म का पालन करता है। मानव के लिये नियोजित धर्म का जो पालन नही करता उसे पशु ही माना जाता है । इसी का वर्णन नीचे किया है: |
− | आहार निद्रा भय मैथुनंच सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
| + | |
− | धर्मोऽहितेषामधिकोविशेषो धर्मेण हीन: पशुभि:समान: ।
| + | आहार निद्रा भय मैथुनंच सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् । |
− | रामायण में बाली ने जब राम से पूछ की आप से तो मेरी कोई शत्रुता नही थी । फिर आपने मुझे क्याप्त मारा ? राम ने उन्हे याद दिलाया की तुम्हारा व्यवहार मानव धर्म के विपरित रहा था । और पशू को आखेट में मारना यह क्षत्रिय का धर्म है । इसलिये मैने तुम्हें मारा है ।
| + | |
− | घ ) दशलक्षण धर्म | + | धर्मोऽहितेषामधिकोविशेषो धर्मेण हीन: पशुभि:समान: । |
− | धर्म की मनुस्मृती में दी गई दशलक्षण धर्म की व्याख्या भी बडे प्रमाण में ग्राह्य मानी जाती है । वह है -
| + | |
− | धृति क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रिय्निग्रह: । धीर्विद्यासत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणं ॥
| + | रामायण में बाली ने जब राम से पूछा कि आप से तो मेरी कोई शत्रुता नही थी । फिर आपने मुझे क्यों मारा ? राम ने बाली को याद दिलाया की उसका व्यवहार मानव धर्म के विपरित रहा था । पशु को आखेट में मारना यह क्षत्रिय का धर्म है । इसलिये मैने तुम्हें मारा है । |
− | भावार्थ : धैर्य, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इंद्रियनिग्रह, विवेक, ज्ञान, सत्य और अक्रोध यह धर्म के दस लक्षण है। इन के अर्थ भी समझना महत्वपूर्ण है ।
| + | |
− | धैर्य का अर्थ है विपरीत स्थिती में भी संयमित व्यवहार करना । सामान्य शब्दों में धीरज से काम लेना ।
| + | === घ ) दशलक्षण धर्म === |
− | क्षमा का अर्थ है किसी ने अपने साथ किये अपराध के लिये उसे माफ करना । क्षमा करना यह बडप्पन का लक्षण है । किन्तु क्षमा अनधिकार नही होनी चाहिये । उदा. सहकारी संस्था के एक कर्मचारी ने संस्था के पप्रसों का अपहार किया । संस्था संचालक ने उसे माफ कर दिया । तब यह संस्था के संचालक की अनधिकार चेष्टा हुई । संस्था के सदस्य उस संस्था के मालिक है । उन की अनुमति के सिवा उस कर्मचारी को माफ करना संचालक के लिये अनधिकार कृत्य ही है । और एक उदाहरण लें । पृथ्वीराज चौहान ने घोरी को कई बार युध्द में हराया । और हर बार क्षमा कर दी । एक राजा के तौरपर ऐसी क्षमा करने के परिणाम क्या हो सकते है ? उन परिणामों को निरस्त करने के लिये कार्यवाही किये बगप्रर ही ऐसी क्षमा करने का अर्थ है की पृथ्वीराज ने, जनता ने उसे जो अधिकार दिये थे (प्रजा के संरक्षण के) उन का उल्लंघन किया था । अतएव पृथ्वीराज का घोरी को पहली बार क्षं करना एक बार क्षम्य माना जा सकता है । दूसरी बार क्षमा करना तो तब ही क्षम्य माना जा सकता है जब घोरीद्वारा पुन: आक्रमण की सभी संभावनाएं नष्ट कर दी गयी हों । और बारबार क्षमा करना तो पृथ्वीराज की मूर्खता का ही लक्षण और राजधर्म का उल्लंघन ही माना जाएगा । इस संबंध में भी घोरी को क्षमा के कारण केवल पृथ्वीराज को केवल व्यक्तिगत हानी होनेवाली होती तो भी पृथ्वीराज का क्षमाशीलता के लिये काप्रतुक किया जा सकता है । किंतु जब हर बार होनेवाले आक्रमण में हजारों सप्रनिक मारे जाते थे और पराभव के बाद तो कत्लेआम ही हुवा । इन सबका अपश्रेय पृथ्वीराज को और उसने क्षमा के लगाए गलत अर्थ को जाता है ।
| + | धर्म की मनुस्मृति में दी गई दशलक्षण धर्म की व्याख्या भी बडे प्रमाण में ग्राह्य मानी जाती है । वह है: |
− | दम का अर्थ है तप । सातत्य से एक बात की आस लेकर प्रयत्नों की पराकाष्टा करते हुए भी उसे प्राप्त करने को दम कहते है ।
| + | धृति क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रिय्निग्रह: । |
− | अस्तेय का अर्थ है अचौर्य । चोरी नही करना । किसी की अनुमति के बिना उस की वस्तू लेना या उस का उपयोग करना चोरी कहा जाता है । अर्थात् जो मेरे परिश्रम की कमाई का नही है और मै उस का उपभोग करता हूं तो मैं चोरी करता हूं ।
| + | |
− | शौच का अर्थ है शरीर (बाहर की), मन, बुध्दि और चित्त इन सब की अर्थात् (अंत:करण की) ऐसी अंतर्बाह्य स्वच्छता।
| + | धीर्विद्यासत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणं ॥ |
− | धी का अर्थ है विवेक । योग्य अयोग्य, सत्य असत्य, करणीय अकरणीय, सर्वहितकारी क्या है और क्या नही है और क्या कितना सर्वहितकारी है यह समझना आदि में अंतर समझने की क्षमता को और उस के अनुरूप जो योग्य है, सत्य के पक्ष में है, सर्वहितकारी है उस के अनुसार व्यवहार करने को धी कहते है ।
| + | |
− | ज्ञान अर्थात् योग्य जानकारी प्राप्त करना और उस का सर्वहितकारी पध्दति से उपयोग करने की कला को विद्या कहते है । यह विद्या ही है जो मनुष्य को मोक्षमार्गपर आगे बढाती है । इसीलिये कहा गया है सा विद्या या विमुक्तये ।
| + | भावार्थ : धैर्य, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इंद्रियनिग्रह, विवेक, ज्ञान, सत्य और अक्रोध यह धर्म के दस लक्षण है। |
− | सत्य का अर्थ है मनसा, वाचा और कर्मणा सत्य व्यवहार करना । मन में भी असत्य का साथ देने की इच्छा नही जगना । वाणी से असत्य भाषण नही करना और कृति से असत्य का साथ ना देना इन सब का मिलाकर अर्थ है सत्य धर्म का पालन करना । सत्य की कसाप्रटि तो तब ही लगती है जब सत्य व्यवहार के कारण मेरा नुसान होगा यह निश्चित होते हुए भी मै सत्य का व्यवहार करूं ।
| + | |
− | अक्रोध का अर्थ है किसी भी परिस्थिति में गुस्से में आकर कोई कृति नही करना । श्रीमद्भगवद्गीता में भी उपदेश है की 'युध्दस्य विगत ज्वर:’ अर्थात् युध्द भी करो तो क्रोध में आकर ना करो। असूरों का संहार तो करो किन्तु विवेक से करो । गुस्से में आकर नहीं। गीता में श्रीकृष्ण क्रोध का परिणाम अंत में सर्वनाश में कैसे होता है, इस का वर्णन करते है -
| + | इन के अर्थ भी समझना महत्वपूर्ण है । '''धैर्य''' का अर्थ है विपरीत स्थिति में भी संयमित व्यवहार करना । सामान्य शब्दों में धीरज से काम लेना । |
− | क्रोधात् भवति संमोहात् संमोहात स्मृतिविभ्रम: । स्मृतिभ्रंशात बुध्दिनाशो बुध्दिनाशात प्रणश्यति ॥
| + | |
− | छ) धर्म का अर्थ कानून | + | '''क्षमा''' का अर्थ है कि यदि किसी ने अपने साथ कोई अपराध किया तो उसे माफ करना । क्षमा करना यह बडप्पन का लक्षण है । किन्तु क्षमा अनधिकार नही होनी चाहिये । उदाहरण, सहकारी संस्था के एक कर्मचारी ने संस्था के पैसों का अपहार किया । संस्था संचालक ने उसे माफ कर दिया । तब यह संस्था के संचालक की अनधिकार चेष्टा हुई । संस्था के सदस्य उस संस्था के मालिक है । उन की अनुमति के सिवा उस कर्मचारी को माफ करना संचालक के लिये अनधिकार कृत्य ही है ।और एक उदाहरण लें । पृथ्वीराज चौहान ने घोरी को कई बार युध्द में हराया । और हर बार क्षमा कर दिया । एक राजा के तौर पर ऐसी क्षमा करने के परिणाम क्या हो सकते है ? उन परिणामों को निरस्त करने के लिये कार्यवाही किये बगैर ही ऐसी क्षमा करने का अर्थ है कि पृथ्वीराज ने, जनता ने उसे जो अधिकार दिये थे (प्रजा के संरक्षण के), उन का उल्लंघन किया था । अतएव पृथ्वीराज का घोरी को पहली बार क्षमा करना एक बार क्षम्य माना जा सकता है । दूसरी बार क्षमा करना तो तब ही क्षम्य माना जा सकता है जब घोरी द्वारा पुन: आक्रमण की सभी संभावनाएं नष्ट कर दी गयी हों । और बार बार क्षमा करना तो पृथ्वीराज की मूर्खता का ही लक्षण और राजधर्म का उल्लंघन ही माना जाएगा । इस संबंध में भी घोरी को क्षमा के कारण केवल पृथ्वीराज को केवल व्यक्तिगत हानि होने वाली होती तो भी पृथ्वीराज का क्षमाशीलता के लिये आश्चर्य किया जा सकता है । किंतु जब हर बार होनेवाले आक्रमण में हजारों सैनिक मारे जाते थे और पराभव के बाद तो कत्लेआम ही हुआ । इन सबका अपश्रेय पृथ्वीराज को और उसने क्षमा के जो गलत अर्थ लगाये , उनको जाता है । |
− | महाभारत में राज्य के निर्माण की आवश्यकता कैसे हुई इस बात का विवरण करते समय बताते है -
| + | |
| + | '''दम''' का अर्थ है तप । सातत्य से एक बात की आस लेकर प्रयत्नों की पराकाष्ठा करते हुए भी उसे प्राप्त करने को दम कहते है । '''अस्तेय''' का अर्थ है अचौर्य । चोरी नही करना । किसी की अनुमति के बिना उस की वस्तू लेना या उस का उपयोग करना चोरी कहा जाता है । अर्थात् जो मेरे परिश्रम की कमाई का नही है और मै उस का उपभोग करता हूं तो मैं चोरी करता हूं । '''शौच''' का अर्थ है शरीर (बाहर की), मन, बुध्दि और चित्त इन सब की अर्थात् (अंत:करण की) ऐसी अंतर्बाह्य स्वच्छता।'''धी''' का अर्थ है विवेक । योग्य अयोग्य, सत्य असत्य, करणीय अकरणीय, सर्वहितकारी क्या है और क्या नही है और क्या कितना सर्वहितकारी है यह समझना, इनमे अंतर समझने की क्षमता को और उस के अनुरूप जो योग्य है, सत्य के पक्ष में है, सर्वहितकारी है उस के अनुसार व्यवहार करने को धी कहते है । |
| + | |
| + | '''ज्ञान''' अर्थात् योग्य जानकारी प्राप्त करना और उस का सर्वहितकारी पध्दति से उपयोग करने की कला को विद्या कहते है । यह विद्या ही है जो मनुष्य को मोक्ष मार्गपर आगे बढाती है । इसीलिये कहा गया है: |
| + | |
| + | सा विद्या या विमुक्तये । |
| + | |
| + | '''सत्य''' का अर्थ है मनसा, वाचा और कर्मणा सत्य व्यवहार करना । मन में भी असत्य का साथ देने की इच्छा नही जगना । वाणी से असत्य भाषण नही करना और कृति से असत्य का साथ ना देना इन सब का मिलाकर अर्थ है सत्य धर्म का पालन करना । सत्य की कसौटी तो तब ही लगती है जब सत्य व्यवहार के कारण मेरा नुकसान होगा यह निश्चित होते हुए भी मै सत्य का व्यवहार करूं । |
| + | |
| + | '''अक्रोध''' का अर्थ है किसी भी परिस्थिति में गुस्से में आकर कोई कृति नही करना । |
| + | |
| + | श्रीमद्भगवद्गीता<ref>श्रीमद् भगवद्गीता |
| + | </ref> में भी उपदेश है कि 'युध्दस्य विगत ज्वर:’ अर्थात् युध्द भी करो तो क्रोध में आकर ना करो। असुरों का संहार तो करो किन्तु विवेक से करो । गुस्से में आकर नहीं। गीता में श्रीकृष्ण क्रोध का परिणाम अंत में सर्वनाश में कैसे होता है, इस का वर्णन करते है: |
| + | |
| + | क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः। |
| + | स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63।। |
| + | |
| + | === छ) धर्म का अर्थ कानून === |
| + | महाभारत में राज्य के निर्माण की आवश्यकता कैसे हुई इस बात का विवरण करते समय बताते है - |
| न राज्यं न राजासित न दंण्डयो न च दाण्डिका: । धर्मेणप्रव प्रजास्सर्वं रक्षति स्म परस्परम् । | | न राज्यं न राजासित न दंण्डयो न च दाण्डिका: । धर्मेणप्रव प्रजास्सर्वं रक्षति स्म परस्परम् । |
| अर्थ : किसी समय पहले न कोई राजा था, न कोई दंडशक्ति थी । सारी प्रजा धर्मानुकूल जीवन जीती थी और परस्पर सुख साप्रहार्द से रहती थी । यहाँ धर्म का अर्थ सामाजिक व्यवहार के नियमों से अर्थ्ता् आज की भाषा में कानून से ही है । | | अर्थ : किसी समय पहले न कोई राजा था, न कोई दंडशक्ति थी । सारी प्रजा धर्मानुकूल जीवन जीती थी और परस्पर सुख साप्रहार्द से रहती थी । यहाँ धर्म का अर्थ सामाजिक व्यवहार के नियमों से अर्थ्ता् आज की भाषा में कानून से ही है । |