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==== <big>पतंजलि</big> ====
 
==== <big>पतंजलि</big> ====
महान् वैयाकरण, आयुर्वेदाचार्य और योगदर्शनाचार्य, जिन्होंने वाणी की शुद्धि के लिए व्याकरण शास्त्र का ,शरीर-शुद्धि के लिए वैद्यक शास्त्र का और चित्त-शुद्धि के लिए योगशास्त्र का प्रणयन किया। गोनर्द प्रदेश में जन्मे पतंजलि ने पाणिनि की ' अष्टाध्यायी ' पर अपना उच्चकोटि का'महाभाष्य' लिखा तथा योगदर्शन के प्रतिपादनहेतु'योगसूत्र' की रचना की। प्रचलित राजयोग की सम्पूर्ण पद्धति, परिणाम और अन्तर्निहित सिंद्धात को इन्होंने 194 सूत्रों में संग्रहीत किया। योगसूत्रों में प्रतिपादित विषयों को साधारणत: चार भागों में बाँटा जा सकता है-योग-साधना सम्बन्धी विचार, यौगिक सिद्धियों का परिचय, योग के चरम बिंदुसमाधि का विवेचन और योग विद्या का दर्शन। पतङजलि के अनुसार चित्तवृत्तियों का निरोध योग है। चित्त की वृत्तियों के निरोध के बिनापुरुष (जीव) अपने शुद्ध रूप (कैवल्य) में नहीं स्थित होता। इस स्वरूपाव स्थान के लिए अष्टांग योग—यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का प्रतिपादन किया गया है। पतङजलि वैदिक संस्कृति के रक्षक सम्राट् पुष्यमित्र शुग के कुलगुरु और मार्गदर्शक कहे जाते हैं। उनका महाभाष्य संस्कृत व्याकरण का सर्वोच्च प्रमाण-ग्रंथ माना जाता है।
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महान् वैयाकरण, आयुर्वेदाचार्य और योगदर्शनाचार्य, जिन्होंने वाणी की शुद्धि के लिए व्याकरण शास्त्र का, शरीर-शुद्धि के लिए वैद्यक शास्त्र का और चित्त-शुद्धि के लिए योगशास्त्र का प्रणयन किया। गोनर्द प्रदेश में जन्मे पतंजलि ने पाणिनि की अष्टाध्यायी पर अपना उच्चकोटि का महाभाष्य लिखा तथा योगदर्शन के प्रतिपादन हेतु '''योगसूत्र''' की रचना की। प्रचलित राजयोग की सम्पूर्ण पद्धति, परिणाम और अन्तर्निहित सिंद्धात को इन्होंने 194 सूत्रों में संग्रहीत किया। योगसूत्रों में प्रतिपादित विषयों को साधारणत: चार भागों में बाँटा जा सकता है-योग-साधना सम्बन्धी विचार, यौगिक सिद्धियों का परिचय, योग के चरम बिंदुसमाधि का विवेचन और योग विद्या का दर्शन। पतङजलि के अनुसार चित्तवृत्तियों का निरोध योग है। चित्त की वृत्तियों के निरोध के बिना पुरुष (जीव) अपने शुद्ध रूप (कैवल्य) में नहीं स्थित होता। इस स्वरूपाव स्थान के लिए अष्टांग योग—यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का प्रतिपादन किया गया है। पतङजलि वैदिक संस्कृति के रक्षक सम्राट पुष्यमित्र शुंग के कुलगुरु और मार्गदर्शक कहे जाते हैं। उनका महाभाष्य संस्कृत व्याकरण का सर्वोच्च प्रमाण-ग्रंथ माना जाता है।
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'''<big>शंकराचार्य [युगाब्द 2593-2625(ई०पू० 509-477)]</big>'''  
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==== <big>शंकराचार्य</big> ====
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मालाबार (केरल के कालडी ग्राम में जन्मे महान् दार्शनिक [युगाब्द 2593-2625(ई०पू० 509-477)]। बत्तीस वर्ष की अल्पायु में देहावसान होने से पूर्व इन्होंने जो-जो कार्य कर दिखाये, उनका कोई समतुल्य नहीं। आचार्य शंकर ने गीता, ब्रह्मसूत्र और उपनिषदों पर अत्युच्च कोटि के भाष्य लिखे, दक्षिण से उत्तर, पश्चिम से पूर्व, सारे देश की यात्राएँ कर शास्त्रार्थ में सब ओर दिग्विजय प्राप्त की और चारों दिशाओं में देश के चार कोनों में मठ स्थापित किये, जो राष्ट्रीय एकता के दिक्पाल बनकर खड़े हैं। बौद्ध मत में विकार आ जाने पर उसे प्रभावहीन बनाकर, वैदिक परम्परा की पुन:स्थापना करने में शंकर की महान भूमिका रही है। उन्होंने ब्रह्म को एकमात्र सत्य माना और अद्वैत मत एवं मायावाद का प्रतिपादन किया। इस मत पर उनका मुख्य ग्रंथ '''शारीरक भाष्य''' नाम से प्रसिद्ध है। आचार्य शंकर के विराधी उनको प्रच्छन्न बौद्ध कहते थे, क्योंकि उन्हें शंकर के अद्वैतवाद में बौद्धों के शून्यवाद की झलक दिखाई देती थी। दूसरी बात यह भी थी कि शंकराचार्य महात्मा बुद्ध का बहुत आदर करते थे। शंकराचार्य ने वेदान्त दर्शन को नवचैतन्य प्रदान किया और देश को सांस्कृतिक एकता में आबद्ध किया। अखिल भारतीय स्तर पर लोगोंं के व्यापक मेल-मिलाप के कारण भूत कुम्भ मेले की विच्छिन्न हुई परम्परा और तीर्थयात्राओं को उन्होंने फिर से प्रारम्भ कराया और शैव, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य आदि के पारस्परिक मतभेदों को मिटाते हुए मन्दिरों में सर्वमान्य पंचायतन पूजा की पद्धति डाली। अपने दार्शनिक विचारों में संसार को मिथ्या मानते हुए भी, मातृभूमि के कण-कण में पुण्यभूमि का भाव जगाते हुए आचार्य शंकर अपनी देशयात्रा में पड़ने वाले नदी-पर्वतादि की स्तुति में काव्य-रचना करते चलते थे। पिता शिवगुरु और माता आर्याम्बा के ऐसे अद्भुत, मेधावी, अद्भुतकर्मा पुत्र ने आठ वर्ष की आयु में ही संन्यास ले लिया था। इनके गुरु गोविन्द भगवत्पाद प्रसिद्ध अद्वैतवादी चिन्तक गौड़पादाचार्य के शिष्य थे।
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मालाबार (केरल के कालडी ग्राम में जन्मे महान् दार्शनिक। बत्तीस वर्ष की अल्पायु में देहावसान होने से पूर्व इन्होंने जो-जो कार्य कर दिखाये उनका कोई समतुल्य नहीं। आचार्य शंकर ने गीता,ब्रह्मसूत्र और उपनिषदों पर अत्युच्च कोटि के भाष्य लिखे, दक्षिण से उत्तर, पश्चिम से पूर्व,सारे देश की यात्राएँ कर शास्त्रार्थ में सब ओर दिग्विजय प्राप्त की औरचारों दिशाओं में देश के चार कोनों में मठ स्थापित किये जो राष्ट्रीय एकता के दिक्पाल बनकर खड़े हैं। बौद्ध मत में विकार आ जाने पर उसे प्रभावहीन बनाकर वैदिक परम्परा की पुन:स्थापना करने में शंकर की महान् भूमिका रही है। उन्होंने ब्रह्म को एकमात्र सत्य माना और अद्वैत मत एवं मायावाद का प्रतिपादन किया। इस मत पर उनका मुख्य ग्रंथ 'शारीरक भाष्य' नाम से प्रसिद्ध है। आचार्य शंकर के विराधी उनको प्रच्छन्न बौद्ध कहते थे, क्योंकि उन्हें शंकर के अद्वैतवाद में बौद्धों के शून्यवाद की झलक दिखाई देती थी। दूसरी बात यह भी थी कि शंकराचार्य महात्मा बुद्ध का बहुत आदर करते थे। शंकराचार्य ने वेदान्त दर्शन को नवचैतन्य प्रदान किया और देश को सांस्कृतिक एकता में आबद्धकिया। अखिल भारतीयस्तर पर लोगोंं के व्यापक मेल-मिलाप के कारणभूत कुम्भमेले की विच्छिन्न हुई परम्परा और तीर्थयात्राओं को उन्होंने फिर से प्रारम्भ कराया और शैव, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य आदि के पारस्परिक मतभेदों को मिटाते हुए मन्दिरों में सर्वमान्य पंचायतन पूजा की पद्धति डाली। अपने दार्शनिक विचारों में संसार को मिथ्या मानते हुए भी, मातृभूमि के कण-कण में पुण्यभूमि का भाव जगाते हुए आचार्य शंकर अपनी देशयात्रा में पड़ने वाले नदी-पर्वतादि की स्तुति में काव्य-रचना करते चलते थे। पिता शिवगुरु और माता आर्याम्बा के ऐसे अद्भुत, मेधावी, अद्भुतकर्मा पुत्र ने आठ वर्ष की आयु में ही संन्यास ले लिया था। इनके गुरु गोविन्द भगवत्पाद प्रसिद्ध अद्वैतवादी चिन्तक गौड़पादाचार्य के शिष्य थे।
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==== <big>मध्वाचार्य</big> ====
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युगाब्द की 44वीं अर्थात् ईसवी 13वीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध दार्शनिक एवं द्वैतवाद के प्रवक्ता वैष्णव आचार्य, जिनका जन्म कर्नाटक में उडुपी के समीप हुआ था। ग्यारह वर्ष की अवस्था में मध्व ने श्री अच्युत प्रज्ञाचार्य से संन्यास-दीक्षा ले ली। वैष्णव मत के प्रचारार्थ इन्होंने दीर्घकाल तक भारत में यात्राएँ कीं। आचार्य मध्व ने जीव की नित्य पृथक सत्ता का प्रतिपादन किया। प्रस्थानत्रयी अर्थात उपनिषद, ब्रह्मसूत्र तथा भगवद्गीता पर आचार्य ने भाष्य ग्रंथ लिखे। मध्यकाल में भारतीय भाषाओं के भक्ति-साहित्य को आचार्य मध्व के मत और विचारों ने प्रेरित तथा प्रभावित किया।
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'''<big>मध्वाचार्य</big>'''
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==== <big>निम्बार्काचार्य</big> ====
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आन्ध्र में गोदावरी-तट पर वैदूर्यपत्तन के पास निम्बार्क का आविर्भाव हुआ। ये द्वैताद्वैत मत के प्रवक्ता थे, जिसके अनुसार जीव और जगत ब्रह्म से भिन्न भी हैं और अभिन्न भी। दक्षिण में जन्मे निम्बार्काचार्य मथुरा के समीप ध्रुव क्षेत्र मे आश्रम बनाकर रहते थे। वेदान्त-पारिजात-सौरभ इनका वेदान्त सूत्रों पर लिखा भाष्य है। इन्होंने प्रस्थानत्रयी के स्थान पर प्रस्थानचतुष्ट्य को प्रधान माना और उसमें से चौथे प्रस्थान श्रीमद्भागवत को ही परम प्रमाण स्वीकार किया। भारतीय भाषाओं में मध्य-काल में रचे गये वैष्णव भक्ति-साहित्य पर निम्बार्काचार्य के मत का बहुत प्रभाव पड़ा है।
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युगाब्द की 44वीं अर्थात् ईसवी 13वीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध दार्शनिक एवं द्वैतवाद के प्रवक्ता वैष्णव आचार्य, जिनका जन्म कर्नाटक में उडुपी के समीप हुआ था। ग्यारह वर्ष की अवस्था में मध्व ने श्री अच्युत प्रज्ञाचार्य से संन्यास-दीक्षा ले ली। वैष्णव मत के प्रचारार्थ इन्होंने दीर्घकाल तक भारत में यात्राएँ कीं। आचार्य मध्व ने जीव की नित्य पृथक सत्ता का प्रतिपादन किया। प्रस्थानक्रयी अर्थात्उपनिषद्,ब्रह्मसूत्र तथा भगवद्गीता पर आचार्य ने भाष्य ग्रंथ लिखे। मध्यकाल में भारतीय भाषाओं के भक्ति-साहित्य को आचार्य मध्व के मत और विचारों ने प्रेरित तथा प्रभावित किया।
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==== <big>रामानुजाचार्य</big> ====
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विशिष्टाद्वैत सिद्वांत के प्रवक्ता रामानुजाचार्य का जन्म दक्षिण भारत के तिरुकुन्नूर गाँव में केशव भट्ट के घर हुआ था (युगाब्द 4118-4237)। पिता की मृत्यु के समय रामानुज छोटे थे। कांची जाकर यादवप्रकाश नामक गुरु से इन्होंने विद्या प्राप्त की और बाद में यामुनाचार्य से वैष्णव दीक्षा प्राप्त की। महात्मा नाम्बि ने इन्हें श्री नारायण मंत्र की दीक्षा दी, जिसे लोक-कल्याण के लिए रामानुजाचार्य ने सब लोगोंं को सुनाया। अपने विशिष्टाद्वैत सिद्वांत के अनुसार इन्होंने प्रस्थानत्रयी पर 'श्रीभाष्य' लिखा। इन्होंने एक अंत्यज जाति के साधु से भी उपदेश प्राप्त किया था और अस्पृश्यता-निवारण के सामाजिक कार्य में लगे थे। इन्होंने शास्त्रीय आचार एवं भक्ति की भारत में पुन: प्रतिष्ठा की।
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'''<big>निम्बाकाचार्य</big>'''
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==== <big>वल्लभाचार्य</big> ====
 
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कलियुग की 46वीं (अर्थात् ईसवी 15वीं) शताब्दी के प्रसिद्ध आचार्य, जिनका मत 'शुद्धाद्वैतवाद' के नाम से और जिनका भक्ति-मार्ग ‘पुष्टिमार्ग' के नाम से विख्यात है। आन्ध्र प्रदेश में जन्मे श्री वल्लभाचार्य गृहस्थ आचार्य थे। छोटी आयु में ही काशी में शास्त्राध्ययन पूर्ण कर चुकने पर ये वृन्दावन चले गये और कुछ दिन ब्रजवास करके तीर्थाटन को निकले। श्री विट्ठलनाथ इन के पुत्र थे। कहा जाता है कि वल्लभाचार्य की श्री चैतन्य महाप्रभु से भी भेंट हुई थी। भगवान् का अनुग्रह ही पुष्टि है और इसी अनुग्रह से भक्ति का उदय होताहै, ऐसी श्री वल्लभाचार्य की मान्यता थी। इन्होंने 'अणुभाष्य' नाम से ब्रह्मसूत्र का भाष्य लिखा। 52 वर्ष की अवस्था में ये वाराणसी में ज्योतिरूप में विलीन हो गये।
आन्ध्र में गोदावरी-तट पर वैदूर्यपत्तन के पास निम्बार्क का आविर्भाव हुआ। ये द्वैताद्वैत मत के प्रवक्ता थे, जिसके अनुसार जीव और जगत ब्रह्म से भिन्न भी हैं और अभिन्न भी। दक्षिण में जन्मे निम्बाकाचार्य मथुरा के समीप ध्रुव क्षेत्र मे आश्रम बनाकर रहते थे। वेदान्त-पारिजात-सौरभ इनका वेदान्त सूत्रों पर लिखा भाष्य है। इन्होंने प्रस्थानक्रयी के स्थान पर प्रस्थानचतुष्ट्य को प्रधान माना और उसमें से चौथे प्रस्थान श्रीमद्भागवत को ही परम प्रमाण स्वीकार किया। भारतीय भाषाओंमें मध्य-काल में रचे गये वैष्णव भक्ति-साहित्य पर निम्बाकाचार्य के मत का बहुत प्रभाव पड़ा है।
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'''<big>रामानुजाचार्य (युगाब्द 4118-4237)</big>'''
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विशिष्टाद्वैत सिद्वांत के प्रवक्ता रामानुजाचार्य का जन्म दक्षिण भारत के तिरुकुन्नूर गाँव में केशव भट्ट के घर हुआ था। पिता की मृत्यु के समय रामानुज छोटे थे। कांची जाकर यादवप्रकाश नामक गुरु से इन्होंने विद्या प्राप्त की और बाद में यामुनाचार्य से वैष्णव दीक्षा प्राप्त की। महात्मा नाम्बि ने इन्हें श्री नारायण मंत्र की दीक्षा दी, जिसे लोक-कल्याण के लिए रामानुजाचार्य ने सब लोगोंं को सुनाया। अपने विशिष्टाद्वैत सिद्वांत के अनुसार इन्होंने प्रस्थानन्त्रयी पर 'श्रीभाष्य' लिखा। इन्होंने एक अंत्यज जाति के साधु से भी उपदेश प्राप्त किया था और अस्पृश्यता—निवारण के सामाजिक कार्य में लगे थे। इन्होंने शास्त्रीय आचार एवं भक्ति की भारत में पुन: प्रतिष्ठा की।
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'''<big>वल्लभाचार्य</big>'''
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कलियुग की 46वीं (अर्थात् ईसवी 15वीं) शताब्दी के प्रसिद्ध आचार्य, जिनका मत 'शुद्धाद्वैतवाद' के नाम से और जिनका भक्ति-मार्ग ‘पुष्टिमार्ग' के नाम से विख्यात है। आन्ध्र प्रदेश में जन्मे श्री वल्लभाचार्य गृहस्थ आचार्य थे। छोटी आयु में ही काशी में शास्त्राध्ययन पूर्ण कर चुकने पर ये वृन्दावन चले गये और कुछ दिन ब्रजवास करके तीर्थाटन को निकले। श्री विट्ठलनाथ इन के पुत्र थे। कहा जाता है कि वल्लभाचार्य की श्री चैतन्य महाप्रभु से भी भेंट हुई थी। भगवान् का अनुग्रह ही पुष्टि है और इसी अनुग्रह से भक्ति का उदय होताहै,ऐसी श्री वल्लभाचार्य की मान्यता थी। इन्होंने 'अणुभाष्य' नाम से ब्रह्मसूत्र का भाष्य लिखा। 52 वर्ष की अवस्था में ये वाराणसी में ज्योतिरूप में विलीन हो गये।
      
[[File:Bharat ekatmata new 3.PNG|center|thumb]]
 
[[File:Bharat ekatmata new 3.PNG|center|thumb]]
 
<blockquote>'''झुलेलालोऽथ चैतन्यः तिरुवल्लुवरस्तथा। नायन्मारालवाराश्च कंबश्च बसवेश्वरः ॥ १६॥'''</blockquote>
 
<blockquote>'''झुलेलालोऽथ चैतन्यः तिरुवल्लुवरस्तथा। नायन्मारालवाराश्च कंबश्च बसवेश्वरः ॥ १६॥'''</blockquote>
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'''<big>झूलेलाल</big>'''
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==== <big>झूलेलाल</big> ====
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सिन्ध प्रान्त के युगाब्द 41वीं शती (अर्थात् ईसा की 10वीं शताब्दी) के पूज्य पुरुष। मुसलमान नवाब ने सारी प्रजा का बलात् सामूहिक धर्मान्तरण करना चाहा। श्री झूलेलाल ने अपने कर्तृत्व से उसकी इस दुष्ट योजना को विफल कर दिया। इन्हें वरुण देव का अवतार माना जाता है।
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सिन्ध प्रान्त के युगाब्द 41वीं शती (अर्थात् ईसा की 10वीं शताब्दी) के पूज्य पुरुष। मुसलमान नवाब ने सारी प्रजा का बलात् सामूहिक धर्मान्तरण करना चाहा। श्रीझूलेलाल ने अपने कर्तृत्व से उसकी इस दुष्ट योजना को विफल कर दिया। इन्हें वरुण देव का अवतार माना जाता है।  
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==== <big>श्री चैतन्य</big> ====
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कलियुग की 45वीं (ईसा की 14वीं) शताब्दी में बंगाल प्रांत के नवद्वीप ग्राम में जन्मे गौर-सुन्दर निमाई अर्थात श्री चैतन्य महाप्रभु ने भक्ति तथा कृष्ण-कीर्तन की धारा प्रवाहित कर लोकचित्त को श्रीकृष्ण के रंग में रंग दिया। 24 वर्ष की आयु में गृहस्थाश्रम त्याग कर चैतन्य ने केशव भारती नामक संन्यासी से संन्यास-दीक्षा ग्रहण की। आध्यात्मिक महापुरुष होने के साथ ही वे महान नैयायिक भी थे। उन्होंने न्यायशास्त्र पर एक उत्कृष्ट ग्रंथ भी लिखा था। उनकी कृष्ण-भक्ति उत्कृष्ट भाव वाली थी। उनके भाव विभोर नृत्य-कीर्तन में साथ देते हुए लोगोंं की भारी भीड़ उनके साथ चलती थी। नवद्वीप छोड़कर उन्होंने श्री जगन्नाथ धाम में निवास किया था। काशी, वृन्दावन, दक्षिण भारत और मध्य भारत की यात्राएँ भी उन्होंने कीं और अंत में जगन्नाथ धाम में पधार कर कहा जाता है कि जगन्नाथ जी के विग्रह में ही वे विलीन हो गये। जगन्नाथ पुरी में महाप्रभु चैतन्य का मठविद्यमान है।  
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'''<big>श्री चैतन्य</big>'''  
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==== <big>तिरुवल्लुवर</big> ====
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'तिरुक्कुरल' नामक तमिल सुभाषित ग्रंथ के रचयिता तिरुवल्लुवर का जन्म कलियुग की 30वीं अर्थात् ईसा-पूर्व प्रथम शताब्दी में हुआ था। वे बुनकर का व्यवसाय करते थे। 'कुरल' (तिरुक्कुरल) में उन्होंने सम्पूर्ण मानवीय जीवन को प्रकाशित किया है। इस ग्रंथ में धर्म, अर्थ, काम, इन तीन पुरुषार्थों का प्रतिपादन हुआ है। 'कुरल' में 1330 द्विपदियाँ हैं। इसको तमिल साहित्य में बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त है और इसका भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद हुआ है। तिरुक्कुरल में पारम्परिक हिन्दू विचार और जीवन-पद्धति की छाया सर्वत्र व्याप्त है।
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कलियुग की 45वीं (अर्थात्ईसा की 14वीं) शताब्दी में बंगाल प्रांत के नवद्वीप ग्राम मेंजन्मे गौर-सुन्दर निमाई अर्थात श्री चैतन्य महाप्रभु ने भक्ति तथा कृष्ण-कीर्तन की धारा प्रवाहित कर लोकचित्त को श्रीकृष्ण के रंग में रंग दिया। 24 वर्ष की आयु में गृहस्थाश्रम त्याग कर चैतन्य ने केशव भारती नामक संन्यासी से संन्यास-दीक्षा ग्रहण की। आध्यात्मिक महापुरुष होने के साथ ही वे महान् नैयायिक भी थे। उन्होंने न्यायशास्त्र पर एक उत्कृष्ट ग्रंथ भी लिखा था। उनकी कृष्ण-भक्ति उत्कृष्ट भाव वाली थी। उनके भाव विभोर नृत्य-कीर्तन में साथ देते हुए लोगोंं की भारी भीड़ उनके साथ चलती थी। नवद्वीप छोड़कर उन्होंने श्री जगन्नाथ धाम में निवास किया था। काशी, वृन्दावन, दक्षिण भारत और मध्य भारत की यात्राएँ भी उन्होंने कीं और अंत में जगन्नाथ धाम में पधार कर कहा जाता है कि जगन्नाथ जी के विग्रह में ही वे विलीन हो गये। जगन्नाथ पुरी में महाप्रभु चैतन्य का मठविद्यमान है।
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==== <big>नायन्मार</big> ====
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तमिलनाडु के 63 शैव संत, जिनका समय कलियुगाब्द 33वीं से 40वीं शती (अर्थात् ईसा की द्वितीय शताब्दी से नौवीं शताब्दी) तक माना जाता है। तमिलनाडु के प्रमुख शैव मन्दिरों में नायन्मार सन्तों की मूर्तियाँ स्थापित की गयी हैं। नायन्मार सन्त विभिन्न जातियों से सम्बन्धित थे। इनमें तीन महिलाएँ भी हैं। ये जातिभेद और छुआछूत को नहीं मानते थे। इन्हें समाज के सभी वर्गों और जातियों की श्रद्धा प्राप्त हुई थी। ऊंची जाति और तथाकथित छोटी जाति के नायन्मार सन्तों में परस्पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था। शिव-भक्ति में और शिव-भक्तों की सेवा में पूर्णतया निमग्न नायन्मार संतों ने अपूर्व नि:स्वार्थ भावना, सामाजिक समता, सेवा और त्याग का आदर्श प्रस्तुत किया।
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'''<big>तिरुवल्लुवर</big>'''
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==== <big>आलवार</big> ====
 
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दक्षिण भारत के वैष्णव सन्त, जिनकी संख्या बारह कही जाती है। इनमें नम्मालवार, कुलशेखर, तिरुमगई और आण्डाल का अधिक महत्व है। नायन्मार भक्तों के समान आलवार भी जातिप्रथा को नहीं मानते थे। इनके अनुयायियों और भक्तों में अनेक तथाकथित निम्न जातियों में से थे। आलवार भक्त भी थे और कवि भी। आलवार सन्तों के रचे गीतों का संग्रह 'प्रबन्धम' नामक ग्रंथ में हुआ है। तमिलनाडु के वैष्णव सम्प्रदाय में 'प्रबन्धम्' का स्थान श्रीमद्भगवदगीता के बराबर माना जाता है। श्री रामानुजाचार्य के प्रपतिवाद का मूल आलवारों की विचारधारा में मिलता है।  
'तिरुक्कुरल' नामक तमिल सुभाषित ग्रंथ के रचयिता तिरुवल्लुवर का जन्म कलियुग की 30वीं अर्थात् ईसा-पूर्व प्रथम शताब्दी में हुआ था। वे बुनकर का व्यवसाय करते थे। 'कुरल' (तिरुक्कुरल) में उन्होंने सम्पूर्ण मानवीय जीवन को प्रकाशित किया है। इस ग्रंथ में धर्म, अर्थ, काम, इन तीन पुरुषार्थों का प्रतिपादन हुआ है। 'कुरल' में 1330 द्विपदियाँ हैं। इसको तमिल साहित्य में बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त है और इसका भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त विदेशी भाषाओं में भी अनुवादहुआ है। तिरुक्कुरल में पारम्परिक हिन्दू विचार और जीवन-पद्धति की छाया सर्वत्र व्याप्त है।
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'''<big>नायन्मार</big>'''
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तमिलनाडु के 63 शैव संत,जिनका समय कलियुगाब्द 33वीं से 40वीं शती (अर्थात् ईसा की द्वितीय शताब्दी से नौवीं शताब्दी) तक माना जाता है। तमिलनाडु के प्रमुख शैव मन्दिरों में नायन्मार सन्तों की मूर्तियाँ स्थापित की गयी हैं। नायन्मार सन्त मोची से लेकर ब्राह्मण तक विभिन्न जातियों से सम्बन्धित थे। इनमें तीन महिलाएँ भी हैं। ये जातिभेद और छुआछूत को नहीं मानते थे। इन्हें समाज के सभी वर्गों और जातियों की श्रद्धा प्राप्त हुई थी। ऊंची जाति और तथाकथित छोटी जाति के नायन्मार सन्तों में परस्पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था। शिव—भक्ति में और शिव-भक्तों की सेवा में पूर्णतया निमग्न नायन्मार संतों ने अपूर्व नि:स्वार्थ भावना, सामाजिक समता, सेवा और त्याग का आदर्श प्रस्तुत किया।
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'''<big>आलवार</big>''' 
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दक्षिण भारत के वैष्णव सन्त, जिनकी संख्या बारह कही जाती है। इनमें नम्मालवार, कुलशेखर,तिरुमगई और आण्डाल का अधिक महत्व है। नायन्मार भक्तों के समान आलवार भी जातिप्रथा को नहीं मानते थे। इनके अनुयायियों और भक्तों में अनेक तथाकथित निम्न जातियों में से थे। आलवार भक्त भी थे और कवि भी। आलवार सन्तों के रचे गीतों का संग्रह'प्रबन्धम्'नामक ग्रंथ में हुआ है। तमिलनाडु के वैष्णव सम्प्रदाय में'प्रबन्धम्'का स्थान श्रीमद्भगवदगीता के बराबर माना जाता है। श्री रामानुजाचार्य के प्रपतिवाद का मूल आलवारों की विचारधारा में मिलता है।  
      
'''<big>कम्ब</big>'''  
 
'''<big>कम्ब</big>'''  
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तमिल के महान् रामकथा कवि, जिनकी लिखी रामायण को तमिलनाडु में वैसा ही ऊँचा स्थान प्राप्त है जैसा उत्तर भारत में तुलसीदास के रामचरित मानस को। ये तमिलनाडु के शैव और वैष्णव दोनों समाजों के श्रद्धेय महाकवि थे। तमिलनाडु के तिरुवयुन्दुर नामक गाँव में अब से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व जन्मे इस प्रतिभाशाली महाकवि को श्रीरंग के पण्डितों ने ‘कवि चक्रवर्ती ' उपाधि प्रदान करके इनके रामायण की श्रेष्ठता को स्वीकार किया था। दक्षिण में रामकथा-प्रचार का अविस्मरणीय कार्य कम्ब या (कम्बन्) के हाथों सम्पन्न हुआ।  
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तमिल के महान रामकथा कवि, जिनकी लिखी रामायण को तमिलनाडु में वैसा ही ऊँचा स्थान प्राप्त है जैसा उत्तर भारत में तुलसीदास के रामचरित मानस को। ये तमिलनाडु के शैव और वैष्णव दोनों समाजों के श्रद्धेय महाकवि थे। तमिलनाडु के तिरुवयुन्दुर नामक गाँव में अब से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व जन्मे इस प्रतिभाशाली महाकवि को श्रीरंग के पण्डितों ने 'कवि चक्रवर्ती' उपाधि प्रदान करके इनके रामायण की श्रेष्ठता को स्वीकार किया था। दक्षिण में रामकथा-प्रचार का अविस्मरणीय कार्य कम्ब या (कम्बन्) के हाथों सम्पन्न हुआ।  
 
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'''<big>बसवेश्वर</big>'''
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वीरशैव सम्प्रदाय के संस्थापक श्री बसवेश्वर ने कर्नाटक तथा आन्ध्र में अपने सम्प्रदाय के सिद्धान्तों और मान्यताओं का प्रचार किया। यह सम्प्रदाय मानव समाज में किसी प्रकार का भेदभाव स्वीकार नहीं करता। बाल्यावस्था से ही बसवेश्वर के अन्त:करण में प्रखर शिवभक्ति का उदय हुआ था। भगवान् वीर महेश्वर में इनकी आस्था अडिग थी। पिता नादिराज और माता मदाम्बिका के घर इनका कलियुगाब्द 42 वीं शती (ई० 11वीं सदी) में कर्नाटक में बागवाड़ी ग्राम में जन्म हुआ। संगमनाथ नामक संन्यासी ने इनका लिंगधारण संस्कार करवाया। ये कुछकाल तक कल्याण के राजा विज्जल के मंत्री भी रहे थे।  
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वीरशैव सम्प्रदाय के संस्थापक श्री बसवेश्वर ने कर्नाटक तथा आन्ध्र में अपने सम्प्रदाय के सिद्धान्तों और मान्यताओं का प्रचार किया। यह सम्प्रदाय मानव समाज में किसी प्रकार का भेदभाव स्वीकार नहीं करता। बाल्यावस्था से ही बसवेश्वर के अन्त:करण में प्रखर शिवभक्ति का उदय हुआ था। भगवान् वीर महेश्वर में इनकी आस्था अडिग थी। पिता नादिराज और माता मदाम्बिका के घर इनका कलियुगाब्द 42 वीं शती (ई० 11वीं सदी) में कर्नाटक में बागवाड़ी ग्राम में जन्म हुआ। संगमनाथ नामक संन्यासी ने इनका लिंगधारण संस्कार करवाया। ये कुछ काल तक कल्याण के राजा विज्जल के मंत्री भी रहे थे।  
 
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<blockquote>'''देवलो रविदासश्च कबीरो गुरुनानक: । नरसिस्तुलसीदासो दशमेशो दूढ़व्रत: ॥१७॥''' </blockquote>'''<big>देवल</big>'''  
 
<blockquote>'''देवलो रविदासश्च कबीरो गुरुनानक: । नरसिस्तुलसीदासो दशमेशो दूढ़व्रत: ॥१७॥''' </blockquote>'''<big>देवल</big>'''  

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