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| # व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणाली में हर पीढी में व्यवसाय बदलने के कारण हर पीढी को नये सिरे से कुशलताओं को सीखना होता है। इस से सामान्यत: कुशलताओं में पीढी दर पीढी कमी होने की संभावना होती है। जब की जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में कुशलताओं का पीढी दर पीढी विकास होने की संभावनाएँ बहुत अधिक होतीं हैं। | | # व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणाली में हर पीढी में व्यवसाय बदलने के कारण हर पीढी को नये सिरे से कुशलताओं को सीखना होता है। इस से सामान्यत: कुशलताओं में पीढी दर पीढी कमी होने की संभावना होती है। जब की जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में कुशलताओं का पीढी दर पीढी विकास होने की संभावनाएँ बहुत अधिक होतीं हैं। |
| # व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणाली में कुशलताओं में पीढी दर पीढी कमी होने के कारण प्राकृतिक संसाधनों का अपव्यय भी बढता जाता है। जबकि जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में कुशलताओं का पीढी दर पीढी विकास होने के कारण प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग न्यूनतम होता जाता है। प्राकृतिक संसाधनों का अपव्यय नहीं होता। बचत होती है। | | # व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणाली में कुशलताओं में पीढी दर पीढी कमी होने के कारण प्राकृतिक संसाधनों का अपव्यय भी बढता जाता है। जबकि जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में कुशलताओं का पीढी दर पीढी विकास होने के कारण प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग न्यूनतम होता जाता है। प्राकृतिक संसाधनों का अपव्यय नहीं होता। बचत होती है। |
− | # व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणाली में व्यक्ति का महत्व बढता है। सामाजिकता की भावना कम होती है । परिवार बिखर जाते हैं । जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में संयुक्त कुटुंब का महत्व बढता है। कुटुंब भावना ही वास्तव में सामाजिकता की जड होती है। पारिवारिक व्यावसायिक परंपराएं बनतीं हैं । सामाजिकता की भावना बढती है। परिवार समृध्द बनते हैं। वर्तमान सामाजिक समस्याओं में से शायद 50 प्रतिशत से अधिक समस्याओं का निराकरण तो संयुक्त परिवारों की प्रतिष्ठापना से ही हो सकता है। जातिगत व्यवसाय चयन के लिये संयुक्त परिवार व्यवस्था पूरक और पोषक ही नहीं आवश्यक भी होती है। | + | # व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणाली में व्यक्ति का महत्व बढता है। सामाजिकता की भावना कम होती है । परिवार बिखर जाते हैं । जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में संयुक्त कुटुंब का महत्व बढता है। कुटुंब भावना ही वास्तव में सामाजिकता की जड़ होती है। पारिवारिक व्यावसायिक परंपराएं बनतीं हैं । सामाजिकता की भावना बढती है। परिवार समृध्द बनते हैं। वर्तमान सामाजिक समस्याओं में से शायद 50 प्रतिशत से अधिक समस्याओं का निराकरण तो संयुक्त परिवारों की प्रतिष्ठापना से ही हो सकता है। जातिगत व्यवसाय चयन के लिये संयुक्त परिवार व्यवस्था पूरक और पोषक ही नहीं आवश्यक भी होती है। |
| # यह सामान्य निरीक्षण और ज्ञान की बात है की बुध्दिमान वर्ग समाज में प्रतिष्ठा की ऊपर की पायदान पर जाने का प्रयास करता रहता है। सम्मान प्राप्त बुध्दिमान वर्ग अल्पप्रसवा भी होता है। सम्मानप्राप्त बुध्दिमान वर्ग की जनन क्षमता अन्य समाज से कम होती है। इस तरह से हर समाज में बुध्दिमान वर्ग का प्रमाण कम होता जाता है। और जब यह प्रमाण एक विशेष सीमा से कम हो जाता है अर्थात् जब वह समाज बुध्दिहीनों का हो जाता है, वह समाज नष्ट हो जाता है। महान सभ्यताएँ विकसित करनेवाले कई समाज इसी कारण नष्ट हो गये हैं। जातिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में हर जाति में बुध्दिमान वर्ग को ऊपर के स्तर पर जाने के लिये पर्याप्त अवसर होते हैं। क्योंकि यह प्रक्रिया हर जाति में चलती है। प्रत्येक जाति में प्रतिष्ठा प्राप्त वर्ग की, ऐसी हजारों जातियों की मिलाकर कुल संख्या जातिहीन समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त वर्ग की तुलना में हजारों गुना अधिक होती है। उन्नत होकर प्रतिष्ठा प्राप्त वर्ग में जाने के अवसर विपुल प्रमाण में उपलब्ध होते हैं । इसी तरह सामाजिक उन्नयन की प्रक्रिया भी जातिहीन समाज की तुलना में हजारों गुना अधिक होती है। जब की व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में ऐसे अवसर बहुत अल्प प्रमाण में उपलब्ध होते हैं । जाति बदलने के लिये 12 वर्ष तक उस जाति के जातिधर्म का पालन और साथ में व्यवसाय करने के उपरांत जाति बदलने की प्रथा आज भी कहीं कहीं अस्तित्व में है। वर्ण में परिवर्तन के लिये भी ऐसी ही 24 वर्षों की तपश्चर्या करनी पडती है (जैसी राजर्षि विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि बनने के लिये करनी पडी थी )। समाज के हित के व्यवहार की दृष्टि से अधिक श्रेष्ठ व्यवहार करने वाली जातियों को विशेष सम्मान मिलना स्वाभाविक है। ऐसा होने से सामान्य लोग और कम महत्व वाली जातियों के लोग महत्वपूर्ण जातियों के लोगोंं जैसा व्यवहार करने की प्रेरणा पाते हैं । किन्तु कम सम्मान प्राप्त जातियों में जो बुध्दिमान वर्ग है उस की जननक्षमता अन्य सामान्य लोगोंं जितनी ही यानी अधिक रहती है। इस कारण समाज में बुध्दिमानों की कभी भी कमी नहीं होती । समाज चिरंजीवी बनने में यह व्यवस्था भी योगदान देती है। | | # यह सामान्य निरीक्षण और ज्ञान की बात है की बुध्दिमान वर्ग समाज में प्रतिष्ठा की ऊपर की पायदान पर जाने का प्रयास करता रहता है। सम्मान प्राप्त बुध्दिमान वर्ग अल्पप्रसवा भी होता है। सम्मानप्राप्त बुध्दिमान वर्ग की जनन क्षमता अन्य समाज से कम होती है। इस तरह से हर समाज में बुध्दिमान वर्ग का प्रमाण कम होता जाता है। और जब यह प्रमाण एक विशेष सीमा से कम हो जाता है अर्थात् जब वह समाज बुध्दिहीनों का हो जाता है, वह समाज नष्ट हो जाता है। महान सभ्यताएँ विकसित करनेवाले कई समाज इसी कारण नष्ट हो गये हैं। जातिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में हर जाति में बुध्दिमान वर्ग को ऊपर के स्तर पर जाने के लिये पर्याप्त अवसर होते हैं। क्योंकि यह प्रक्रिया हर जाति में चलती है। प्रत्येक जाति में प्रतिष्ठा प्राप्त वर्ग की, ऐसी हजारों जातियों की मिलाकर कुल संख्या जातिहीन समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त वर्ग की तुलना में हजारों गुना अधिक होती है। उन्नत होकर प्रतिष्ठा प्राप्त वर्ग में जाने के अवसर विपुल प्रमाण में उपलब्ध होते हैं । इसी तरह सामाजिक उन्नयन की प्रक्रिया भी जातिहीन समाज की तुलना में हजारों गुना अधिक होती है। जब की व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में ऐसे अवसर बहुत अल्प प्रमाण में उपलब्ध होते हैं । जाति बदलने के लिये 12 वर्ष तक उस जाति के जातिधर्म का पालन और साथ में व्यवसाय करने के उपरांत जाति बदलने की प्रथा आज भी कहीं कहीं अस्तित्व में है। वर्ण में परिवर्तन के लिये भी ऐसी ही 24 वर्षों की तपश्चर्या करनी पडती है (जैसी राजर्षि विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि बनने के लिये करनी पडी थी )। समाज के हित के व्यवहार की दृष्टि से अधिक श्रेष्ठ व्यवहार करने वाली जातियों को विशेष सम्मान मिलना स्वाभाविक है। ऐसा होने से सामान्य लोग और कम महत्व वाली जातियों के लोग महत्वपूर्ण जातियों के लोगोंं जैसा व्यवहार करने की प्रेरणा पाते हैं । किन्तु कम सम्मान प्राप्त जातियों में जो बुध्दिमान वर्ग है उस की जननक्षमता अन्य सामान्य लोगोंं जितनी ही यानी अधिक रहती है। इस कारण समाज में बुध्दिमानों की कभी भी कमी नहीं होती । समाज चिरंजीवी बनने में यह व्यवस्था भी योगदान देती है। |
| # सुख प्राप्ति हर मानव की चाहत होती है। देशिक शास्त्र के अनुसार सुख प्राप्ति के लिये चार बातों की आवश्यकता होती है: | | # सुख प्राप्ति हर मानव की चाहत होती है। देशिक शास्त्र के अनुसार सुख प्राप्ति के लिये चार बातों की आवश्यकता होती है: |
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| कुछ लोगोंं की पक्की धारणा है कि जाति व्यवस्था मूलत: ही दोषपूर्ण थी। इन में जो विचारशील लोग हैं उन्हें समझाना होगा। और नयी व्यवस्था के पक्ष में लाना होगा। जो लोग समझते हैं कि जाति व्यवस्था कभी ठीक रही होगी। लेकिन वर्तमान में तो यह अप्रासंगिक हो गई है। ऐसे लोगोंं की यह जिम्मेदारी बनती है कि वर्तमान जाति व्यवस्था को तोडने से पहले वे एक सशक्त वैकल्पिक व्यवस्था की प्रस्तुति करें। वैकल्पिक व्यवस्था के प्रयोग कर यह सिध्द करें कि उन के द्वारा प्रस्तुत की हुई व्यवस्था वर्तमान जाति व्यवस्थाओं के सभी लाभों को बनाए रखते हुए इस के दोषों का निवारण करती है। ऐसी परिस्थिति में उन के द्वारा प्रस्तुत व्यवस्था का स्वीकार करना हर्ष की ही बात होगी। किंतु ऐसी किसी वैकल्पिक व्यवस्था की योजना के बगैर ही वर्तमान व्यवस्था को तोडने के प्रयास को बुध्दिमानी नहीं कहा जा सकता। ऐसा विकल्प जबतक नहीं मिल जाता, वर्तमान व्यवस्था को बनाए रखते हुए उस के दोषों का निवारण करने के प्रयास करने होंगे। | | कुछ लोगोंं की पक्की धारणा है कि जाति व्यवस्था मूलत: ही दोषपूर्ण थी। इन में जो विचारशील लोग हैं उन्हें समझाना होगा। और नयी व्यवस्था के पक्ष में लाना होगा। जो लोग समझते हैं कि जाति व्यवस्था कभी ठीक रही होगी। लेकिन वर्तमान में तो यह अप्रासंगिक हो गई है। ऐसे लोगोंं की यह जिम्मेदारी बनती है कि वर्तमान जाति व्यवस्था को तोडने से पहले वे एक सशक्त वैकल्पिक व्यवस्था की प्रस्तुति करें। वैकल्पिक व्यवस्था के प्रयोग कर यह सिध्द करें कि उन के द्वारा प्रस्तुत की हुई व्यवस्था वर्तमान जाति व्यवस्थाओं के सभी लाभों को बनाए रखते हुए इस के दोषों का निवारण करती है। ऐसी परिस्थिति में उन के द्वारा प्रस्तुत व्यवस्था का स्वीकार करना हर्ष की ही बात होगी। किंतु ऐसी किसी वैकल्पिक व्यवस्था की योजना के बगैर ही वर्तमान व्यवस्था को तोडने के प्रयास को बुध्दिमानी नहीं कहा जा सकता। ऐसा विकल्प जबतक नहीं मिल जाता, वर्तमान व्यवस्था को बनाए रखते हुए उस के दोषों का निवारण करने के प्रयास करने होंगे। |
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− | जिन्हें शास्त्र के अनुसार व्यवहार नही करना है उन का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में दिया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 16-23 </ref>: <blockquote>य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत: ॥</blockquote><blockquote>न स सिध्दिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥ 16-23॥ </blockquote><blockquote>अर्थात् ऐसे लोगोंं को न सुख मिलता है न कोई सिध्दी प्राप्त होती है अर्थात् कोई ना तो ऐहिक लाभ मिलते हैं और ना ही कोई पारलौकिक ही । </blockquote>ऐसे लोगोंं को उन के हाल पर छोड देना ही ठीक रहेगा । किन्तु जहाँ तत्वबोध की संभावनाएँ हैं वाद-संवाद तो करना होगा । विवाद और वितंडा वाद को टालकर ही आगे बढना होगा। एक और अत्यंत महत्व की बात की ओर भी ध्यान देना होगा। वर्ण और जाति यह व्यवस्थाएँ कितनी भी उपयुक्त समझमें आती होगी, जबतक जीवन का वर्तमान प्रतिमान (Paradigm), जो पूरी तरह से अधार्मिक (अधार्मिक) बन गया है, इसे जडसे बदलकर जीवन के धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान के एक अंग की तरह वर्ण और जाति व्यवस्थाओं को प्रतिष्ठित नहीं करते तब तक अलग से वर्ण और जाति व्यवस्थाओं को प्रतिष्ठित नहीं कर सकते। | + | जिन्हें शास्त्र के अनुसार व्यवहार नही करना है उन का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में दिया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 16-23 </ref>: <blockquote>य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत: ॥</blockquote><blockquote>न स सिध्दिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥ 16-23॥ </blockquote><blockquote>अर्थात् ऐसे लोगोंं को न सुख मिलता है न कोई सिध्दी प्राप्त होती है अर्थात् कोई ना तो ऐहिक लाभ मिलते हैं और ना ही कोई पारलौकिक ही । </blockquote>ऐसे लोगोंं को उन के हाल पर छोड देना ही ठीक रहेगा । किन्तु जहाँ तत्वबोध की संभावनाएँ हैं वाद-संवाद तो करना होगा । विवाद और वितंडा वाद को टालकर ही आगे बढना होगा। एक और अत्यंत महत्व की बात की ओर भी ध्यान देना होगा। वर्ण और जाति यह व्यवस्थाएँ कितनी भी उपयुक्त समझमें आती होगी, जबतक जीवन का वर्तमान प्रतिमान (Paradigm), जो पूरी तरह से अधार्मिक (अधार्मिक) बन गया है, इसे जड़से बदलकर जीवन के धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान के एक अंग की तरह वर्ण और जाति व्यवस्थाओं को प्रतिष्ठित नहीं करते तब तक अलग से वर्ण और जाति व्यवस्थाओं को प्रतिष्ठित नहीं कर सकते। |
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| ==References== | | ==References== |