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जाति व्यवस्था के अनेकानेक लाभों की दृष्टि से कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं का हम अब विचार करेंगे । परमात्मा ने सृष्टि निर्माण करते समय इसे संतुलन के साथ ही निर्माण किया है । समाज में इस संतुलन के लिये मनुष्य में उस प्रकार की वृत्तियाँ भीं निर्माण कीं । धार्मिक (धार्मिक) हो या अधार्मिक (अधार्मिक) हर समाज में चार वर्णों के लोग होते ही हैं। समाज को नि:स्वार्थ भाव से समाजहित के लिये मार्गदर्शन करनेवाला एक वर्ग समाज में होता है । जिस समाज में नि:स्पृह, नि:स्वार्थी, समाजहित के लिये समर्पित भाव से ज्ञानार्जन और ज्ञानदान (बिक्री नहीं) करने वाला एक वर्ग प्रभावी होता है , वह समाज विश्व में श्रेष्ठ बन जाता है। इस वर्ग को ब्राह्मण कहा गया।  
 
जाति व्यवस्था के अनेकानेक लाभों की दृष्टि से कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं का हम अब विचार करेंगे । परमात्मा ने सृष्टि निर्माण करते समय इसे संतुलन के साथ ही निर्माण किया है । समाज में इस संतुलन के लिये मनुष्य में उस प्रकार की वृत्तियाँ भीं निर्माण कीं । धार्मिक (धार्मिक) हो या अधार्मिक (अधार्मिक) हर समाज में चार वर्णों के लोग होते ही हैं। समाज को नि:स्वार्थ भाव से समाजहित के लिये मार्गदर्शन करनेवाला एक वर्ग समाज में होता है । जिस समाज में नि:स्पृह, नि:स्वार्थी, समाजहित के लिये समर्पित भाव से ज्ञानार्जन और ज्ञानदान (बिक्री नहीं) करने वाला एक वर्ग प्रभावी होता है , वह समाज विश्व में श्रेष्ठ बन जाता है। इस वर्ग को ब्राह्मण कहा गया।  
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समाज में जान की बाजी लगाकर भी दुष्टों, दुर्जनों और मूर्खों का नियंत्रण करनेवाला एक क्षत्रिय वर्ग, समाज का पोषण करने हेतु कृषि, गोरक्षण और व्यापार-उद्योग-उत्पादन करनेवाला वैश्य वर्ग और ऐसे सभी लोगों की सेवा करनेवाला शूद्र वर्ग ऐसे नाम दिये गये । इन चार वृत्तियों की हर समाज को आवश्यकता होती ही है । इन का समाज में अनुपात महत्वपूर्ण होता है । इस अनुपात के कारण समाज में संतुलन बना रहता है। यह अनुपात बिगडने से समाज व्याधिग्रस्त हो जाता है।  
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समाज में जान की बाजी लगाकर भी दुष्टों, दुर्जनों और मूर्खों का नियंत्रण करनेवाला एक क्षत्रिय वर्ग, समाज का पोषण करने हेतु कृषि, गोरक्षण और व्यापार-उद्योग-उत्पादन करनेवाला वैश्य वर्ग और ऐसे सभी लोगोंं की सेवा करनेवाला शूद्र वर्ग ऐसे नाम दिये गये । इन चार वृत्तियों की हर समाज को आवश्यकता होती ही है । इन का समाज में अनुपात महत्वपूर्ण होता है । इस अनुपात के कारण समाज में संतुलन बना रहता है। यह अनुपात बिगडने से समाज व्याधिग्रस्त हो जाता है।  
    
हमारे पूर्वजों की श्रेष्ठता यह है कि इस प्रकार से परमात्मा ने निर्माण किये अर्थात् जन्मगत वर्णों को उन्होंने ठीक से समझा और उन्हें एक व्यवस्था में बांधा । पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार मनुष्य का स्वभाव होता है । और स्वभाव के अनुसार वर्तमान जन्म के गुण और कर्म होते हैं। गुण और कर्म जन्मगत वर्णों के परिणाम स्वरूप ही होते हैं। स्वभाव को कठोर तप के बिना वर्तमान जन्म में सामान्यत: बदला नहीं जा सकता । वर्ण तो परमात्मा ने जन्मगत (आनुवांशिक नहीं) निर्माण किये हैं, किन्तु वर्ण की व्यवस्था यानि वर्णों को आनुवंशिक बनाने की व्यवस्था हमारे श्रेष्ठ पूर्वजों द्वारा निर्माण की हुई है। इन वर्णों का अनुपात और वर्णों की शुद्धता समाज में बनाए रखने की यह व्यवस्था है । समाज का संतुलन बनाए रखने की यह व्यवस्था है । इन वर्णों के आचार से धर्माचरण का संवर्धन होता है । समाज श्रेष्ठ बनता है । वर्ण व्यवस्था प्रभावी रहने से समाज चिरंजीवी भी बनता है। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 3-35</ref> <blockquote>स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।। 3-35 ।।</blockquote>यानि अपने स्वभाव के अनुरूप धर्म का सदैव पालन करना चाहिये। अपने धर्म का पालन करते हुए आया मृत्यु भी कल्याणकारी है। अन्य किसी का धर्म अधिक श्रेष्ठ दिखाई देनेपर भी हमारे लिये वह अनिष्टकारी होने से उस से हमें परहेज करना चाहिये।  
 
हमारे पूर्वजों की श्रेष्ठता यह है कि इस प्रकार से परमात्मा ने निर्माण किये अर्थात् जन्मगत वर्णों को उन्होंने ठीक से समझा और उन्हें एक व्यवस्था में बांधा । पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार मनुष्य का स्वभाव होता है । और स्वभाव के अनुसार वर्तमान जन्म के गुण और कर्म होते हैं। गुण और कर्म जन्मगत वर्णों के परिणाम स्वरूप ही होते हैं। स्वभाव को कठोर तप के बिना वर्तमान जन्म में सामान्यत: बदला नहीं जा सकता । वर्ण तो परमात्मा ने जन्मगत (आनुवांशिक नहीं) निर्माण किये हैं, किन्तु वर्ण की व्यवस्था यानि वर्णों को आनुवंशिक बनाने की व्यवस्था हमारे श्रेष्ठ पूर्वजों द्वारा निर्माण की हुई है। इन वर्णों का अनुपात और वर्णों की शुद्धता समाज में बनाए रखने की यह व्यवस्था है । समाज का संतुलन बनाए रखने की यह व्यवस्था है । इन वर्णों के आचार से धर्माचरण का संवर्धन होता है । समाज श्रेष्ठ बनता है । वर्ण व्यवस्था प्रभावी रहने से समाज चिरंजीवी भी बनता है। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 3-35</ref> <blockquote>स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।। 3-35 ।।</blockquote>यानि अपने स्वभाव के अनुरूप धर्म का सदैव पालन करना चाहिये। अपने धर्म का पालन करते हुए आया मृत्यु भी कल्याणकारी है। अन्य किसी का धर्म अधिक श्रेष्ठ दिखाई देनेपर भी हमारे लिये वह अनिष्टकारी होने से उस से हमें परहेज करना चाहिये।  
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मनुष्य को जब परमात्मा ने इच्छाएँ दीं, आवश्यकताएँ निर्माण कीं, तो उन की पूर्ति के लिये भी परमात्मा ने व्यवस्था की है । इस पूर्ति के लिये दो बातें आवश्यक हैं। पहली बात है प्राकृतिक संसाधन । परमात्मा ने प्रचूर मात्रा में प्राकृतिक संसाधन निर्माण किये हैं। दूसरी बात है क्षमताएँ और कुशलताएँ । इन कुशलताओं के अपेक्षित और आवश्यक विकास की संभावनाएँ हैं ऐसे लोगों को भी परमात्मा ने मनुष्य समाज में निर्माण किया है । इन कुशलताओं में समाज की आवश्यकताओं के अनुसार संतुलन बना रहे इस हेतु से यह कुशलताएं जिन में जन्म से ही हैं ऐसे लोगों को भी परमात्मा ने योग्य अनुपात में पैदा किया । और करता रहता है । इन कुशलताओं का नाम है जाति । इन वर्णों और जातियों (व्यावसायिक कुशलताओं) का अनुपात बिगडने से समाज की आवश्यकताओं की ठीक से पूर्ति नहीं हो पाती । वर्णों का भी संतुलन बनाए रखने के लिये हमारे दृष्टा पूर्वजों ने वर्णों को भी जातियों अर्थात् कुशलताओं के साथ जन्मजात व्यवस्था में बांधा । वर्णों को और जातियों को जन्मगत बनाया । जन्मगत जाति बनाने से समाज के लिये आवश्यक कुशलताओं का संतुलन बनाए रखने की व्यवस्था बनीं। जाति व्यवस्था के नाम से समाज को चिरंजीवी बनाने के लिये एक और व्यवस्था निर्माण की गई।   
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मनुष्य को जब परमात्मा ने इच्छाएँ दीं, आवश्यकताएँ निर्माण कीं, तो उन की पूर्ति के लिये भी परमात्मा ने व्यवस्था की है । इस पूर्ति के लिये दो बातें आवश्यक हैं। पहली बात है प्राकृतिक संसाधन । परमात्मा ने प्रचूर मात्रा में प्राकृतिक संसाधन निर्माण किये हैं। दूसरी बात है क्षमताएँ और कुशलताएँ । इन कुशलताओं के अपेक्षित और आवश्यक विकास की संभावनाएँ हैं ऐसे लोगोंं को भी परमात्मा ने मनुष्य समाज में निर्माण किया है । इन कुशलताओं में समाज की आवश्यकताओं के अनुसार संतुलन बना रहे इस हेतु से यह कुशलताएं जिन में जन्म से ही हैं ऐसे लोगोंं को भी परमात्मा ने योग्य अनुपात में पैदा किया । और करता रहता है । इन कुशलताओं का नाम है जाति । इन वर्णों और जातियों (व्यावसायिक कुशलताओं) का अनुपात बिगडने से समाज की आवश्यकताओं की ठीक से पूर्ति नहीं हो पाती । वर्णों का भी संतुलन बनाए रखने के लिये हमारे दृष्टा पूर्वजों ने वर्णों को भी जातियों अर्थात् कुशलताओं के साथ जन्मजात व्यवस्था में बांधा । वर्णों को और जातियों को जन्मगत बनाया । जन्मगत जाति बनाने से समाज के लिये आवश्यक कुशलताओं का संतुलन बनाए रखने की व्यवस्था बनीं। जाति व्यवस्था के नाम से समाज को चिरंजीवी बनाने के लिये एक और व्यवस्था निर्माण की गई।   
    
जातिगत व्यवसायों के माध्यम से समाज समृध्द भी बनता है । जन्मगत कुशलताएँ कुछ भी हों व्यवसाय का चयन दो पद्दति से किया जा सकता है । एक है व्यक्तिगत इच्छा के आधार पर व्यवसाय का चयन। यह अस्वाभाविक भी हो सकता है । दूसरा है जाति व्यवस्था या आनुवंशिकता के या जन्मजात कुशलताओं के आधार पर व्यवसाय का चयन । वर्तमान व्यक्ति केंद्रित और स्वार्थ प्रेरित शिक्षा और विकृत लोकतंत्र के कारण सामान्यत: बहुतेरे लोग व्यक्तिगत इच्छा के आधार पर ही व्यवसायों के चयन के पक्ष में दिखाई देते हैं। महाभारत में सत्य की दी हुई व्याख्या है {{Citation needed}} ‘यद्भूत हितं अत्यंत एतत्सत्यमभिधीयते ’। अर्थात् जो सब के हित में है, वही सत्य है। बहुमत से सत्य सिध्द नहीं होता है । वह होता है किस प्रकार के व्यवसाय के चयन से सभी को लाभ होता है इस बात के तथ्यों से। इस विषय में सत्य या तथ्य क्या हैं ? सब का हित किस में है, यह हम आगे दिये बिंदुओं के आधार पर देखेंगे:  
 
जातिगत व्यवसायों के माध्यम से समाज समृध्द भी बनता है । जन्मगत कुशलताएँ कुछ भी हों व्यवसाय का चयन दो पद्दति से किया जा सकता है । एक है व्यक्तिगत इच्छा के आधार पर व्यवसाय का चयन। यह अस्वाभाविक भी हो सकता है । दूसरा है जाति व्यवस्था या आनुवंशिकता के या जन्मजात कुशलताओं के आधार पर व्यवसाय का चयन । वर्तमान व्यक्ति केंद्रित और स्वार्थ प्रेरित शिक्षा और विकृत लोकतंत्र के कारण सामान्यत: बहुतेरे लोग व्यक्तिगत इच्छा के आधार पर ही व्यवसायों के चयन के पक्ष में दिखाई देते हैं। महाभारत में सत्य की दी हुई व्याख्या है {{Citation needed}} ‘यद्भूत हितं अत्यंत एतत्सत्यमभिधीयते ’। अर्थात् जो सब के हित में है, वही सत्य है। बहुमत से सत्य सिध्द नहीं होता है । वह होता है किस प्रकार के व्यवसाय के चयन से सभी को लाभ होता है इस बात के तथ्यों से। इस विषय में सत्य या तथ्य क्या हैं ? सब का हित किस में है, यह हम आगे दिये बिंदुओं के आधार पर देखेंगे:  
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# व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणाली में कुशलताओं में पीढी दर पीढी कमी होने के कारण प्राकृतिक संसाधनों का अपव्यय भी बढता जाता है। जबकि जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में कुशलताओं का पीढी दर पीढी विकास होने के कारण प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग न्यूनतम होता जाता है। प्राकृतिक संसाधनों का अपव्यय नहीं होता। बचत होती है।  
 
# व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणाली में कुशलताओं में पीढी दर पीढी कमी होने के कारण प्राकृतिक संसाधनों का अपव्यय भी बढता जाता है। जबकि जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में कुशलताओं का पीढी दर पीढी विकास होने के कारण प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग न्यूनतम होता जाता है। प्राकृतिक संसाधनों का अपव्यय नहीं होता। बचत होती है।  
 
# व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणाली में व्यक्ति का महत्व बढता है। सामाजिकता की भावना कम होती है । परिवार बिखर जाते  हैं । जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में संयुक्त कुटुंब का महत्व बढता है। कुटुंब भावना ही वास्तव में सामाजिकता की जड होती है। पारिवारिक व्यावसायिक परंपराएं बनतीं हैं । सामाजिकता की भावना बढती है। परिवार समृध्द बनते हैं। वर्तमान सामाजिक समस्याओं में से शायद 50 प्रतिशत से अधिक समस्याओं का निराकरण तो संयुक्त परिवारों की प्रतिष्ठापना से ही हो सकता है। जातिगत व्यवसाय चयन के लिये संयुक्त परिवार व्यवस्था पूरक और पोषक ही नहीं आवश्यक भी होती है।  
 
# व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणाली में व्यक्ति का महत्व बढता है। सामाजिकता की भावना कम होती है । परिवार बिखर जाते  हैं । जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में संयुक्त कुटुंब का महत्व बढता है। कुटुंब भावना ही वास्तव में सामाजिकता की जड होती है। पारिवारिक व्यावसायिक परंपराएं बनतीं हैं । सामाजिकता की भावना बढती है। परिवार समृध्द बनते हैं। वर्तमान सामाजिक समस्याओं में से शायद 50 प्रतिशत से अधिक समस्याओं का निराकरण तो संयुक्त परिवारों की प्रतिष्ठापना से ही हो सकता है। जातिगत व्यवसाय चयन के लिये संयुक्त परिवार व्यवस्था पूरक और पोषक ही नहीं आवश्यक भी होती है।  
# यह सामान्य निरीक्षण और ज्ञान की बात है की बुध्दिमान वर्ग समाज में प्रतिष्ठा की ऊपर की पायदान पर जाने का प्रयास करता रहता है। सम्मान प्राप्त बुध्दिमान वर्ग अल्पप्रसवा भी होता है। सम्मानप्राप्त बुध्दिमान वर्ग की जनन क्षमता अन्य समाज से कम होती है। इस तरह से हर समाज में बुध्दिमान वर्ग का प्रमाण कम होता जाता है। और जब यह प्रमाण एक विशेष सीमा से कम हो जाता है अर्थात् जब वह समाज बुध्दिहीनों का हो जाता है, वह समाज नष्ट हो जाता है। महान सभ्यताएँ विकसित करनेवाले कई समाज इसी कारण नष्ट हो गये हैं। जातिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में हर जाति में बुध्दिमान वर्ग को ऊपर के स्तर पर जाने के लिये पर्याप्त अवसर होते हैं। क्योंकि यह प्रक्रिया हर जाति में चलती है। प्रत्येक जाति में प्रतिष्ठा प्राप्त वर्ग की, ऐसी हजारों जातियों की मिलाकर कुल संख्या जातिहीन समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त वर्ग की तुलना में हजारों गुना अधिक होती है। उन्नत होकर प्रतिष्ठा प्राप्त वर्ग में जाने के अवसर विपुल प्रमाण में उपलब्ध होते हैं । इसी तरह सामाजिक उन्नयन की प्रक्रिया भी जातिहीन समाज की तुलना में हजारों गुना अधिक होती है। जब की व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में ऐसे अवसर बहुत अल्प प्रमाण में उपलब्ध होते हैं । जाति बदलने के लिये 12 वर्ष तक उस जाति के जातिधर्म का पालन और साथ में व्यवसाय करने के उपरांत जाति बदलने की प्रथा आज भी कहीं कहीं अस्तित्व में है। वर्ण में परिवर्तन के लिये भी ऐसी ही 24 वर्षों की तपश्चर्या करनी पडती है (जैसी राजर्षि विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि बनने के लिये करनी पडी थी )। समाज के हित के व्यवहार की दृष्टि से अधिक श्रेष्ठ व्यवहार करने वाली जातियों को विशेष सम्मान मिलना स्वाभाविक है। ऐसा होने से सामान्य लोग और कम महत्व वाली जातियों के लोग महत्वपूर्ण जातियों के लोगों जैसा व्यवहार करने की प्रेरणा पाते हैं । किन्तु कम सम्मान प्राप्त जातियों में जो बुध्दिमान वर्ग है उस की जननक्षमता अन्य सामान्य लोगों जितनी ही यानी अधिक रहती है। इस कारण समाज में बुध्दिमानों की कभी भी कमी नहीं  होती । समाज चिरंजीवी बनने में यह व्यवस्था भी योगदान देती है।  
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# यह सामान्य निरीक्षण और ज्ञान की बात है की बुध्दिमान वर्ग समाज में प्रतिष्ठा की ऊपर की पायदान पर जाने का प्रयास करता रहता है। सम्मान प्राप्त बुध्दिमान वर्ग अल्पप्रसवा भी होता है। सम्मानप्राप्त बुध्दिमान वर्ग की जनन क्षमता अन्य समाज से कम होती है। इस तरह से हर समाज में बुध्दिमान वर्ग का प्रमाण कम होता जाता है। और जब यह प्रमाण एक विशेष सीमा से कम हो जाता है अर्थात् जब वह समाज बुध्दिहीनों का हो जाता है, वह समाज नष्ट हो जाता है। महान सभ्यताएँ विकसित करनेवाले कई समाज इसी कारण नष्ट हो गये हैं। जातिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में हर जाति में बुध्दिमान वर्ग को ऊपर के स्तर पर जाने के लिये पर्याप्त अवसर होते हैं। क्योंकि यह प्रक्रिया हर जाति में चलती है। प्रत्येक जाति में प्रतिष्ठा प्राप्त वर्ग की, ऐसी हजारों जातियों की मिलाकर कुल संख्या जातिहीन समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त वर्ग की तुलना में हजारों गुना अधिक होती है। उन्नत होकर प्रतिष्ठा प्राप्त वर्ग में जाने के अवसर विपुल प्रमाण में उपलब्ध होते हैं । इसी तरह सामाजिक उन्नयन की प्रक्रिया भी जातिहीन समाज की तुलना में हजारों गुना अधिक होती है। जब की व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में ऐसे अवसर बहुत अल्प प्रमाण में उपलब्ध होते हैं । जाति बदलने के लिये 12 वर्ष तक उस जाति के जातिधर्म का पालन और साथ में व्यवसाय करने के उपरांत जाति बदलने की प्रथा आज भी कहीं कहीं अस्तित्व में है। वर्ण में परिवर्तन के लिये भी ऐसी ही 24 वर्षों की तपश्चर्या करनी पडती है (जैसी राजर्षि विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि बनने के लिये करनी पडी थी )। समाज के हित के व्यवहार की दृष्टि से अधिक श्रेष्ठ व्यवहार करने वाली जातियों को विशेष सम्मान मिलना स्वाभाविक है। ऐसा होने से सामान्य लोग और कम महत्व वाली जातियों के लोग महत्वपूर्ण जातियों के लोगोंं जैसा व्यवहार करने की प्रेरणा पाते हैं । किन्तु कम सम्मान प्राप्त जातियों में जो बुध्दिमान वर्ग है उस की जननक्षमता अन्य सामान्य लोगोंं जितनी ही यानी अधिक रहती है। इस कारण समाज में बुध्दिमानों की कभी भी कमी नहीं  होती । समाज चिरंजीवी बनने में यह व्यवस्था भी योगदान देती है।  
 
# सुख प्राप्ति हर मानव की चाहत होती है। देशिक शास्त्र के अनुसार सुख प्राप्ति के लिये चार बातों की आवश्यकता होती है:
 
# सुख प्राप्ति हर मानव की चाहत होती है। देशिक शास्त्र के अनुसार सुख प्राप्ति के लिये चार बातों की आवश्यकता होती है:
 
#* सुसाध्य आजीविका  
 
#* सुसाध्य आजीविका  
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# व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में ‘मुझे अधिक से अधिक सुख प्राप्ति के लिये अधिक से अधिक धन प्राप्त करना है। और अधिक से अधिक धन प्राप्ति के लिये के लिये उत्पादन करना है’ इस भावना से व्यक्ति काम करता है। जब की जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में व्यक्ति 'मैं मेरा कर्तव्य कर रहा हूँ’, मैं परोपकार के लिये उत्पादन कर रहा हूँ, ‘मैं मेरे जातिधर्म का पालन कर रहा हूँ’ इस भावना से उत्पादन करता है। स्वार्थत्याग में मनुष्य कमियों को सहन कर लेता है। किंतु जब वह स्वार्थ के (व्यक्तिगत चयन) लिये काम करता है तो वह कमियों को सहन नहीं कर पाता। वह या तो लाचार हो जाता है या अपराधी बन जाता है।  
 
# व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में ‘मुझे अधिक से अधिक सुख प्राप्ति के लिये अधिक से अधिक धन प्राप्त करना है। और अधिक से अधिक धन प्राप्ति के लिये के लिये उत्पादन करना है’ इस भावना से व्यक्ति काम करता है। जब की जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में व्यक्ति 'मैं मेरा कर्तव्य कर रहा हूँ’, मैं परोपकार के लिये उत्पादन कर रहा हूँ, ‘मैं मेरे जातिधर्म का पालन कर रहा हूँ’ इस भावना से उत्पादन करता है। स्वार्थत्याग में मनुष्य कमियों को सहन कर लेता है। किंतु जब वह स्वार्थ के (व्यक्तिगत चयन) लिये काम करता है तो वह कमियों को सहन नहीं कर पाता। वह या तो लाचार हो जाता है या अपराधी बन जाता है।  
 
# व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में नौकरों (गैर या अल्प जिम्मेदार, लाचार और आत्मविश्वासहीन ) की संख्या बहुत अधिक होती है। मालिकों (जिम्मेदार, स्वाभिमानयुक्त और आत्मविश्वासयुक्त ) की संख्या अत्यल्प होती है। जब की जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में मालिकों की संख्या बहुत अधिक और नौकरों की संख्या कम रहती है। इस कारण सारा समाज जिम्मेदार, स्वाभिमानी और आत्मविश्वासयुक्त बनता है।  
 
# व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में नौकरों (गैर या अल्प जिम्मेदार, लाचार और आत्मविश्वासहीन ) की संख्या बहुत अधिक होती है। मालिकों (जिम्मेदार, स्वाभिमानयुक्त और आत्मविश्वासयुक्त ) की संख्या अत्यल्प होती है। जब की जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में मालिकों की संख्या बहुत अधिक और नौकरों की संख्या कम रहती है। इस कारण सारा समाज जिम्मेदार, स्वाभिमानी और आत्मविश्वासयुक्त बनता है।  
# व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में लाभ (जितना अधिक से अधिक संभव है उतना) पर आधारित अर्थशास्त्र जन्म लेता है। इसलिये फिर विज्ञापनबाजी, झूठ, फरेब का उपयोग किया जाना सामान्य बन जाता है। सामान्य जन को इस से बचाने के लिये (मँहंगे) न्यायालय का दिखावा होता है। लेकिन वह मुश्किल से शायद एकाध प्रतिशत लोगों को ही न्याय दिला पाता है। केवल व्यक्तिगत चयन आधारित व्यवसाय पर आधारित अर्थव्यवस्था में निम्न प्रकारों से सामाजिक हानि होती है:
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# व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में लाभ (जितना अधिक से अधिक संभव है उतना) पर आधारित अर्थशास्त्र जन्म लेता है। इसलिये फिर विज्ञापनबाजी, झूठ, फरेब का उपयोग किया जाना सामान्य बन जाता है। सामान्य जन को इस से बचाने के लिये (मँहंगे) न्यायालय का दिखावा होता है। लेकिन वह मुश्किल से शायद एकाध प्रतिशत लोगोंं को ही न्याय दिला पाता है। केवल व्यक्तिगत चयन आधारित व्यवसाय पर आधारित अर्थव्यवस्था में निम्न प्रकारों से सामाजिक हानि होती है:
 
## पूरे समाज के लिये मैं अकेला ही उत्पादन करूँगा, उस से मिलनेवाले लाभ का मैं एकमात्र हकदार बनूँं ऐसी राक्षसी महत्वाकांक्षा सारे समाज में व्याप्त हो जाती है। इस वातावरण और उपजी स्पर्धा में समाज का एक बहुत छोटा वर्ग ही सफल होता है। बाकी सब लोग चूहे की मानसिकता वाले बन जाते हैं। जो अपने से दुर्बल और निश्चेष्ट किसी को भी खाते जाते हैं   
 
## पूरे समाज के लिये मैं अकेला ही उत्पादन करूँगा, उस से मिलनेवाले लाभ का मैं एकमात्र हकदार बनूँं ऐसी राक्षसी महत्वाकांक्षा सारे समाज में व्याप्त हो जाती है। इस वातावरण और उपजी स्पर्धा में समाज का एक बहुत छोटा वर्ग ही सफल होता है। बाकी सब लोग चूहे की मानसिकता वाले बन जाते हैं। जो अपने से दुर्बल और निश्चेष्ट किसी को भी खाते जाते हैं   
## व्यवसाय व्यक्तिगत और विशालतम बनते जाते हैं। जैसे मायक्रोसॉफ्ट या फोर्ड आदि। आर्थिक दृष्टि से कुछ लोग बहुत बडे बन जाते हैं । अन्य कुछ लोगों की जो बडे बन रहे हैं ऐसे लोगों की एक सीढी बनीं दिखाई देती है। किंतु इस सीढी पर बहुत कम लोग होते हैं। बहुजन तो चींटियों की तरह रेंगने लग जाते हैं । समाज में आर्थिक विषमता बढती है।  
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## व्यवसाय व्यक्तिगत और विशालतम बनते जाते हैं। जैसे मायक्रोसॉफ्ट या फोर्ड आदि। आर्थिक दृष्टि से कुछ लोग बहुत बडे बन जाते हैं । अन्य कुछ लोगोंं की जो बडे बन रहे हैं ऐसे लोगोंं की एक सीढी बनीं दिखाई देती है। किंतु इस सीढी पर बहुत कम लोग होते हैं। बहुजन तो चींटियों की तरह रेंगने लग जाते हैं । समाज में आर्थिक विषमता बढती है।  
 
## आर्थिक सत्ता के केंद्रीकरण के कारण पैसे का प्रभाव दिखाई देने लगता है। इस से गुण्डागर्दी, झूठ, फरेब और विज्ञापनबाजी की सहायता से भी आर्थिक विकास की सीढी पर शीघ्रातिशीघ्र ऊपर चढने की मानसिकता बनने लगती है। संचार माध्यमों के दुरूपयोग के लिये निमित्त बन जाता है।   
 
## आर्थिक सत्ता के केंद्रीकरण के कारण पैसे का प्रभाव दिखाई देने लगता है। इस से गुण्डागर्दी, झूठ, फरेब और विज्ञापनबाजी की सहायता से भी आर्थिक विकास की सीढी पर शीघ्रातिशीघ्र ऊपर चढने की मानसिकता बनने लगती है। संचार माध्यमों के दुरूपयोग के लिये निमित्त बन जाता है।   
 
## ज्ञान तो व्यक्ति में अंतर्निहीत ही होता है। उस का विकास वह कर सकता है। ज्ञानप्राप्ति का अधिकार हर व्यक्ति को है। किंतु कुशलता यह हर व्यक्ति की भिन्न होती है। हर व्यक्ति उस की विशिष्ट व्यावसायिक कौशल की विधा और उस विधा के विकास की संभावनाएँ लेकर ही जन्म लेता है। जन्म के उपरांत उस में परिवर्तन की संभावनाएँ बहुत कम होतीं है। परिवर्तन बहुत लम्बे और कठिन तप से ही हो सकता है। यह तप करने की तैयारी सामान्य मनुष्य की नहीं होने से वह असफल हो जाता है। दौड में पीछे रह जाता है। फिर व्यावसायिक तरीके  नहीं अन्य हथकंडे अपनाने लग जाता है। लाचार बन जाता है या निराश हो जाता है।  
 
## ज्ञान तो व्यक्ति में अंतर्निहीत ही होता है। उस का विकास वह कर सकता है। ज्ञानप्राप्ति का अधिकार हर व्यक्ति को है। किंतु कुशलता यह हर व्यक्ति की भिन्न होती है। हर व्यक्ति उस की विशिष्ट व्यावसायिक कौशल की विधा और उस विधा के विकास की संभावनाएँ लेकर ही जन्म लेता है। जन्म के उपरांत उस में परिवर्तन की संभावनाएँ बहुत कम होतीं है। परिवर्तन बहुत लम्बे और कठिन तप से ही हो सकता है। यह तप करने की तैयारी सामान्य मनुष्य की नहीं होने से वह असफल हो जाता है। दौड में पीछे रह जाता है। फिर व्यावसायिक तरीके  नहीं अन्य हथकंडे अपनाने लग जाता है। लाचार बन जाता है या निराश हो जाता है।  
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## जातिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में माँग के अनुसार उत्पादन होता है। ग्राहक को परमात्मा मानकर ही उत्पादन होता है। झूठ, फरेब और विज्ञापनबाजी से निर्माण की जानेवाली आभासी आवश्यकताओं की संभावना नहीं रहती॥   
 
## जातिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में माँग के अनुसार उत्पादन होता है। ग्राहक को परमात्मा मानकर ही उत्पादन होता है। झूठ, फरेब और विज्ञापनबाजी से निर्माण की जानेवाली आभासी आवश्यकताओं की संभावना नहीं रहती॥   
 
# जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली सर्व सहमति का लोकतंत्र छोडकर अन्य शासन व्यवस्थाओं में चल नहीं सकती। कम से कम वर्तमान अल्पमत-बहुमतवाले लोकतंत्र की प्रणाली में तो संभव ही नहीं है। छोटे भौगोलिक क्षेत्र में सर्वसहमति का लोकतंत्र अन्य किसी भी शासन व्यवस्था से ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के लिये अधिक उपयुक्त होता है। अल्पमत और बहुमत के लोकतंत्र में जातिगत व्यवसाय चयन पद्दति कभी नहीं रह सकती। अल्पमत और बहुमत का लोकतंत्र हर एक मनुष्य को व्यक्तिवादी यानि स्वार्थी बनाता है, सामाजिकता को पनपने नहीं देता है और इस जातिगत व्यवसाय चयन पद्दति को उस के पूरे लाभाप्त के साथ नष्ट कर देता है, जैसे वर्तमान में हो रहा है। जातिगत व्यवसाय चयन पद्दति ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के लिये अधिक उपयुक्त समझमें आती है।  
 
# जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली सर्व सहमति का लोकतंत्र छोडकर अन्य शासन व्यवस्थाओं में चल नहीं सकती। कम से कम वर्तमान अल्पमत-बहुमतवाले लोकतंत्र की प्रणाली में तो संभव ही नहीं है। छोटे भौगोलिक क्षेत्र में सर्वसहमति का लोकतंत्र अन्य किसी भी शासन व्यवस्था से ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के लिये अधिक उपयुक्त होता है। अल्पमत और बहुमत के लोकतंत्र में जातिगत व्यवसाय चयन पद्दति कभी नहीं रह सकती। अल्पमत और बहुमत का लोकतंत्र हर एक मनुष्य को व्यक्तिवादी यानि स्वार्थी बनाता है, सामाजिकता को पनपने नहीं देता है और इस जातिगत व्यवसाय चयन पद्दति को उस के पूरे लाभाप्त के साथ नष्ट कर देता है, जैसे वर्तमान में हो रहा है। जातिगत व्यवसाय चयन पद्दति ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के लिये अधिक उपयुक्त समझमें आती है।  
# अमर्याद व्यक्तिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में अधिक पैसा मिलने की संभावना होनेवाला व्यवसाय करने का प्रयास सब लोग करते हैं। ऐसी स्थिति में बहुत बडे प्रमाण में लोगों की जन्मगत व्यावसायिक कुशलताओं का मेल उन्होंने स्वीकार किये हुए (अधिक लाभ देनेवाले) व्यावसायिक कुशलता से नहीं बैठ पाता। व्यवसाय उन्हें बोझ लगने लग जाता है। वे आप भी दुखी रहते हैं और औरों में दुख और निराशा संक्रमित करते हैं । जिन लोगों के चयनित व्यावसायिक कुशलता के साथ उन की जन्मगत व्यावसायिक कुशलताएँ मेल खातीं हैं उन्हें व्यवसाय बोझ नहीं लगता। उस व्यवसाय के करने में उन्हें आनंद प्राप्त होता है। ऐसे व्यावसायिक खुद भी आनंद से जीते हैं और औरों को भी आनंद बाँटते रहते हैं।   
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# अमर्याद व्यक्तिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में अधिक पैसा मिलने की संभावना होनेवाला व्यवसाय करने का प्रयास सब लोग करते हैं। ऐसी स्थिति में बहुत बडे प्रमाण में लोगोंं की जन्मगत व्यावसायिक कुशलताओं का मेल उन्होंने स्वीकार किये हुए (अधिक लाभ देनेवाले) व्यावसायिक कुशलता से नहीं बैठ पाता। व्यवसाय उन्हें बोझ लगने लग जाता है। वे आप भी दुखी रहते हैं और औरों में दुख और निराशा संक्रमित करते हैं । जिन लोगोंं के चयनित व्यावसायिक कुशलता के साथ उन की जन्मगत व्यावसायिक कुशलताएँ मेल खातीं हैं उन्हें व्यवसाय बोझ नहीं लगता। उस व्यवसाय के करने में उन्हें आनंद प्राप्त होता है। ऐसे व्यावसायिक खुद भी आनंद से जीते हैं और औरों को भी आनंद बाँटते रहते हैं।   
 
# व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में कुशलताओं के विकास के लिये बडे पैमाने पर औपचारिक ढंग से खर्चिले व्यावसायिक शिक्षा के विद्यालय चलाना अनिवार्य हो जाता है। विद्यार्थी को कुशलताओं की प्राप्ति के लिये स्वतंत्र रूप से समय देना पडता है। इन कुशलताओं की प्राप्ति का सीधा संबंध अर्थार्जन से होता है। पेट पालन से होता है। इसलिये प्राथमिकता इस व्यावसायिक कुशलता प्राप्ति को ही देनी पडती है। इस के कारण अच्छा मानव बनने की या सामाजिकता की शिक्षा से व्यक्ति वंचित रह जाता है। इस का नुकसान पूरे समाज को भुगतना पडता है। जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में बच्चा अपने पारिवारिक व्यावसायिक उद्योग में अनायास ही कुशलता संपादित कर लेता है। इस के कारण बचे हुए समय में उसपर अच्छे संस्कार करने की गुंजाईश रहती है।  
 
# व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में कुशलताओं के विकास के लिये बडे पैमाने पर औपचारिक ढंग से खर्चिले व्यावसायिक शिक्षा के विद्यालय चलाना अनिवार्य हो जाता है। विद्यार्थी को कुशलताओं की प्राप्ति के लिये स्वतंत्र रूप से समय देना पडता है। इन कुशलताओं की प्राप्ति का सीधा संबंध अर्थार्जन से होता है। पेट पालन से होता है। इसलिये प्राथमिकता इस व्यावसायिक कुशलता प्राप्ति को ही देनी पडती है। इस के कारण अच्छा मानव बनने की या सामाजिकता की शिक्षा से व्यक्ति वंचित रह जाता है। इस का नुकसान पूरे समाज को भुगतना पडता है। जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में बच्चा अपने पारिवारिक व्यावसायिक उद्योग में अनायास ही कुशलता संपादित कर लेता है। इस के कारण बचे हुए समय में उसपर अच्छे संस्कार करने की गुंजाईश रहती है।  
 
# व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में अधिक पैसा देने वाले पाठयक्रमों के कारण एक और समस्या निर्माण होती है। लोग अधिकतम पैसा प्राप्त होनेवाले व्यवसायों का चयन करते हैं । वर्तमान में पढाए जाने वाले समाजशास्त्र, राज्यशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि पाठयक्रम कोई सार्थक हैं ऐसी बात नहीं है। लेकिन वे सार्थक होते तब भी इन पाठयक्रमों के लिये विद्यार्थी उपलब्ध नहीं होते। और जो होते हैं वे बहुत ही सामान्य बुद्धि रखनेवाले होते हैं । सब से अधिक हानि शिक्षा के क्षेत्र की होती है। निम्न स्तर की क्षमता और बुद्धि रखनेवाले लोग शिक्षक बनते हैं और समाज का पीढी दर पीढी पतन होता जाता है। सामाजिकता के क्षेत्र में प्रतिभा का संकट निर्माण होता है और राजनीति में चालाक लोग घुसकर बुध्दिमानों पर शासन करते हैं ।  
 
# व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में अधिक पैसा देने वाले पाठयक्रमों के कारण एक और समस्या निर्माण होती है। लोग अधिकतम पैसा प्राप्त होनेवाले व्यवसायों का चयन करते हैं । वर्तमान में पढाए जाने वाले समाजशास्त्र, राज्यशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि पाठयक्रम कोई सार्थक हैं ऐसी बात नहीं है। लेकिन वे सार्थक होते तब भी इन पाठयक्रमों के लिये विद्यार्थी उपलब्ध नहीं होते। और जो होते हैं वे बहुत ही सामान्य बुद्धि रखनेवाले होते हैं । सब से अधिक हानि शिक्षा के क्षेत्र की होती है। निम्न स्तर की क्षमता और बुद्धि रखनेवाले लोग शिक्षक बनते हैं और समाज का पीढी दर पीढी पतन होता जाता है। सामाजिकता के क्षेत्र में प्रतिभा का संकट निर्माण होता है और राजनीति में चालाक लोग घुसकर बुध्दिमानों पर शासन करते हैं ।  
 
# जातिगत व्यवसाय चयन के अनुसार जब सेना में या सुरक्षा बलों में क्षत्रिय वृत्ति के लोग काम करते हैं तब वे उस व्यवस्था को श्रेष्ठ बनाते हैं । क्षत्रियों की मानसिकता, उन का प्राण की बाजी लगाने का स्वभाव, उन की शारीरिक बलोपासना स्वास्थ्य रक्षण और युध्द आदि कार्यों के अनुरूप होते हैं । कितु जब बलपूर्वक सेना में भरती होती है तब सैनिक की उस काम में अनास्था होती है। उस का मन ठीक से सहयोग नहीं करता। दूसरी ओर कुछ लोग अन्य कुछ भी काम नहीं आता इसलिये सेना और रक्षा बलों में भरती होते हैं । इन में क्षत्रिय के गुण और लक्षण नहीं होने के कारण इन महत्वपूर्ण सामाजिक आवश्यकता की ठीक से पूर्ति नहीं हो पाती। उन का स्तर घट जाता है। यह संकट वर्तमान में सभी शिक्षा, सैनिक / पुलिस / अर्धसैनिक सामाजिक सुरक्षा और राजनीति जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अनुभव किया जा सकता है।  
 
# जातिगत व्यवसाय चयन के अनुसार जब सेना में या सुरक्षा बलों में क्षत्रिय वृत्ति के लोग काम करते हैं तब वे उस व्यवस्था को श्रेष्ठ बनाते हैं । क्षत्रियों की मानसिकता, उन का प्राण की बाजी लगाने का स्वभाव, उन की शारीरिक बलोपासना स्वास्थ्य रक्षण और युध्द आदि कार्यों के अनुरूप होते हैं । कितु जब बलपूर्वक सेना में भरती होती है तब सैनिक की उस काम में अनास्था होती है। उस का मन ठीक से सहयोग नहीं करता। दूसरी ओर कुछ लोग अन्य कुछ भी काम नहीं आता इसलिये सेना और रक्षा बलों में भरती होते हैं । इन में क्षत्रिय के गुण और लक्षण नहीं होने के कारण इन महत्वपूर्ण सामाजिक आवश्यकता की ठीक से पूर्ति नहीं हो पाती। उन का स्तर घट जाता है। यह संकट वर्तमान में सभी शिक्षा, सैनिक / पुलिस / अर्धसैनिक सामाजिक सुरक्षा और राजनीति जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अनुभव किया जा सकता है।  
 
# व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली पारिवारिक भावना और परिवार व्यवस्था को सेन्ध लगाती है। पारिवारिक व्यवसायों को तोडती है। पारिवारिक अर्थव्यवस्था को हटाकर आर्थिक बकासुरी (कारपोरेट) कारखानों और नौकरशाही की अर्थव्यवस्था स्थापित होती है। करोडों परिवारों में सुवितरित संपत्ति उन से छीनकर चंद बकासुरी (कारपोरेट) कारखानों तक ले जाती है। समाज पारिवारिक व्यवसायों को सामाजिक आवश्यकता के अनुसार समाज नियन्त्रित करता है। जब की बकासुरी (कारपोरेट) कारखाने अपनी आर्थिक आसुरी सत्ता के जरिये, नौकरशाही के माध्यम से अनैतिक, आक्रमक, भ्रामक, विज्ञापनबाजी से समाज का नियन्त्रण और शोषण करते हैं ।  
 
# व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली पारिवारिक भावना और परिवार व्यवस्था को सेन्ध लगाती है। पारिवारिक व्यवसायों को तोडती है। पारिवारिक अर्थव्यवस्था को हटाकर आर्थिक बकासुरी (कारपोरेट) कारखानों और नौकरशाही की अर्थव्यवस्था स्थापित होती है। करोडों परिवारों में सुवितरित संपत्ति उन से छीनकर चंद बकासुरी (कारपोरेट) कारखानों तक ले जाती है। समाज पारिवारिक व्यवसायों को सामाजिक आवश्यकता के अनुसार समाज नियन्त्रित करता है। जब की बकासुरी (कारपोरेट) कारखाने अपनी आर्थिक आसुरी सत्ता के जरिये, नौकरशाही के माध्यम से अनैतिक, आक्रमक, भ्रामक, विज्ञापनबाजी से समाज का नियन्त्रण और शोषण करते हैं ।  
# व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली समाज को पगढीला बनाती है। पगढीले लोगों की संख्या एक प्रमाण से अधिक बढने से समाज की संस्कृति धीरे धीरे नष्ट हो जाती है। जिस तरह शीत जल के पात्र में रखा मेंढक जल धीरे धीरे गरम करने से मर जाता है लेकिन बाहर निकलने के प्रयास नहीं करता या कर पाता। उसी तरह संस्कृति धीरे धीरे नष्ट हो जाती है और पता भी नहीं चलता।  
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# व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली समाज को पगढीला बनाती है। पगढीले लोगोंं की संख्या एक प्रमाण से अधिक बढने से समाज की संस्कृति धीरे धीरे नष्ट हो जाती है। जिस तरह शीत जल के पात्र में रखा मेंढक जल धीरे धीरे गरम करने से मर जाता है लेकिन बाहर निकलने के प्रयास नहीं करता या कर पाता। उसी तरह संस्कृति धीरे धीरे नष्ट हो जाती है और पता भी नहीं चलता।  
 
# जातिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में पूरे समाज की जातियों के लोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अन्य जातियोंपर निर्भर रहते हैं। इस तरह परस्परावलंबन, के कारण समाज संगठित हो जाता है। समाज के विरोध में या राष्ट्र विरोधी गुट इस प्रणाली में पनप नहीं सकते।   
 
# जातिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में पूरे समाज की जातियों के लोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अन्य जातियोंपर निर्भर रहते हैं। इस तरह परस्परावलंबन, के कारण समाज संगठित हो जाता है। समाज के विरोध में या राष्ट्र विरोधी गुट इस प्रणाली में पनप नहीं सकते।   
 
# जिस समाज की प्रजा ओजस्वी और तेजस्वी होती है वह समाज अन्यों से श्रेष्ठ होता है। जब स्त्री और पुरूष विवाह में कोइ बंधन नहीं रहता तब स्वैराचार पनपता है। हर सुन्दर लड़की की चाहत हर युवक को और हर सुन्दर और सुडौल युवक की चाहत हर लड़की को होती है। इसमें लडके और लड़की का प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं भी बनता तब भी इस चाहत के कारण होनेवाले चिंतन के कारण दोनों के ब्रह्मचर्य की हानि तो होती ही है। संयम के लिए कुछ मात्रा में लोकलाज ही बंधन रह जाता है। वर्त्तमान के मुक्त वातावरण के कारण लडकों और लड़कियों के सम्बन्ध भी मुक्त होने लग गए हैं। ब्रह्मचर्य पालन यह मजाक का विषय बन गया है। लेकिन जब विवाहों को जातियों का बंधन होता है तो युवक और युवातियों की दिलफेंकू वृत्ति को लगाम लग जाती है। इससे युवा वर्ग शारीरिक और मानसिक दृष्टि से अधिक संयमी बनाता है। समाज का स्वास्थ्य सुधरता है। समाज सुसंस्कृत बनता है।  
 
# जिस समाज की प्रजा ओजस्वी और तेजस्वी होती है वह समाज अन्यों से श्रेष्ठ होता है। जब स्त्री और पुरूष विवाह में कोइ बंधन नहीं रहता तब स्वैराचार पनपता है। हर सुन्दर लड़की की चाहत हर युवक को और हर सुन्दर और सुडौल युवक की चाहत हर लड़की को होती है। इसमें लडके और लड़की का प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं भी बनता तब भी इस चाहत के कारण होनेवाले चिंतन के कारण दोनों के ब्रह्मचर्य की हानि तो होती ही है। संयम के लिए कुछ मात्रा में लोकलाज ही बंधन रह जाता है। वर्त्तमान के मुक्त वातावरण के कारण लडकों और लड़कियों के सम्बन्ध भी मुक्त होने लग गए हैं। ब्रह्मचर्य पालन यह मजाक का विषय बन गया है। लेकिन जब विवाहों को जातियों का बंधन होता है तो युवक और युवातियों की दिलफेंकू वृत्ति को लगाम लग जाती है। इससे युवा वर्ग शारीरिक और मानसिक दृष्टि से अधिक संयमी बनाता है। समाज का स्वास्थ्य सुधरता है। समाज सुसंस्कृत बनता है।  
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‘समाजशास्त्राची मूलतत्त्वे’ इस डॉ. भा. कि. खडसे द्वारा लिखी शासन द्वारा अधिकृत पुस्तक में जाति व्यवस्था के निम्न दोष बताए गए हैं<ref>डॉ. भा. कि. खडसे, समाजशास्त्राची मूलतत्त्वे </ref>:  
 
‘समाजशास्त्राची मूलतत्त्वे’ इस डॉ. भा. कि. खडसे द्वारा लिखी शासन द्वारा अधिकृत पुस्तक में जाति व्यवस्था के निम्न दोष बताए गए हैं<ref>डॉ. भा. कि. खडसे, समाजशास्त्राची मूलतत्त्वे </ref>:  
 
# जाति व्यवस्था लोकतंत्र विरोधी है : वास्तव में लोकतंत्र विरोधी होने का अर्थ सर्वे भवन्तु सुखिन: का विरोधी लगाया जाता है। यह विपरीत शिक्षा के कारण है। विपरीत प्रतिमानात्मक सोच के कारण है। वास्तव में लोकतंत्र तो एक शासन व्यवस्था है। यह तो एक साधन मात्र है। साध्य है सर्वे भवन्तु सुखिन:। और जाति व्यवस्था सर्वे भवन्तु सुखिन: की विरोधक नहीं है।  
 
# जाति व्यवस्था लोकतंत्र विरोधी है : वास्तव में लोकतंत्र विरोधी होने का अर्थ सर्वे भवन्तु सुखिन: का विरोधी लगाया जाता है। यह विपरीत शिक्षा के कारण है। विपरीत प्रतिमानात्मक सोच के कारण है। वास्तव में लोकतंत्र तो एक शासन व्यवस्था है। यह तो एक साधन मात्र है। साध्य है सर्वे भवन्तु सुखिन:। और जाति व्यवस्था सर्वे भवन्तु सुखिन: की विरोधक नहीं है।  
# जाति व्यवस्था अस्पृष्यता को जन्म देती है :  मूल में जा कर देखें तो वर्ण या जाति व्यवस्था का अस्पृष्यता के साथ कोई संबंध नहीं है। हो सकता है की काल के प्रवाह में शुचिता, पवित्रता, स्वास्थ्य, शुद्धता आदि के अतिरेकी आग्रह के कारण यह दोष निर्माण हुए हों । किंतु इस अस्पृष्यता का आधार घृणा नहीं था। आज भी कई परिवारों में माहवारी के समय स्त्री का अलग बैठना, पूजा या यज्ञ करनेवाले को किसी ने नहीं छूना, अंत्ययात्रा में सहभागी व्यक्ति द्वारा घर आने पर अन्यों को और व्यक्ति को अन्यों द्वारा स्पर्श नही करना आदि बातों का पालन होता दिखाई देता है। इसे कोई बुरा नहीं मानता । बाबासाहब आंबेडकर के अनुसार गाय के प्रति आदर रखनेवाले लोगोंने मरी गाय का मांस खानेवाले लोगों को अस्पृष्य माना। लेकिन उनमें आपस में घृणा की भावना नहीं थी। मूल जाति व्यवस्था में घृणावाली अस्पृष्यता को कोई स्थान नहीं है। यह भी संभव है कि वर्ण और जाति व्यवस्था के लाभ लेकर भी इस के कर्तव्य और जिम्मेदारियों का निर्वाह नहीं करनेवाले लोगों को या परिवारों को अस्पृष्य माना जाता होगा। ऐसे परिवारों की संख्या बढने से अस्पृष्य बस्तियाँ बनीं होंगी। इसी से अस्पृष्य जातियों का निर्माण हुआ होगा। हिंदू समाज सहिष्णू होने के कारण भी अस्पृष्य बस्तियों का निर्माण हुआ ऐसा ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है। ईसाई या मुस्लिम समाजों में अस्पृष्यता नही दिखाई देती। इस का कारण वह बहुत प्रगतिशील हैं ऐसा दिया जाता है। किंतु यह सरासर गलत है। इन समाजों ने तो, जो उन की व्यवस्था को नहीं स्वीकारते उन्हें कत्ल ही कर दिया। इसलिये उन में अन्य समाजों के प्रति तीव्र घृणा की भावना रहते हुए भी अस्पृष्यता दिखाई नहीं देती। हिंदू समाज ने सामाजिक दायित्वों का निर्वाह नहीं करने वाले लोगों को अस्पृष्य माना किंतु उन्हें कत्ल नहीं किया। उन के भी जीने के अधिकार को स्वीकार किया। हिन्दू समाज के इस सहिष्णुता के व्यवहार का समर्थन और स्वागत करने के स्थान पर हिंदू समाज को गालियाँ देना ठीक नहीं है। समर्थन का अर्थ अस्पृष्यता जैसी कुरीतियों का भी समर्थन करना यह नहीं है।  
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# जाति व्यवस्था अस्पृष्यता को जन्म देती है :  मूल में जा कर देखें तो वर्ण या जाति व्यवस्था का अस्पृष्यता के साथ कोई संबंध नहीं है। हो सकता है की काल के प्रवाह में शुचिता, पवित्रता, स्वास्थ्य, शुद्धता आदि के अतिरेकी आग्रह के कारण यह दोष निर्माण हुए हों । किंतु इस अस्पृष्यता का आधार घृणा नहीं था। आज भी कई परिवारों में माहवारी के समय स्त्री का अलग बैठना, पूजा या यज्ञ करनेवाले को किसी ने नहीं छूना, अंत्ययात्रा में सहभागी व्यक्ति द्वारा घर आने पर अन्यों को और व्यक्ति को अन्यों द्वारा स्पर्श नही करना आदि बातों का पालन होता दिखाई देता है। इसे कोई बुरा नहीं मानता । बाबासाहब आंबेडकर के अनुसार गाय के प्रति आदर रखनेवाले लोगोंंने मरी गाय का मांस खानेवाले लोगोंं को अस्पृष्य माना। लेकिन उनमें आपस में घृणा की भावना नहीं थी। मूल जाति व्यवस्था में घृणावाली अस्पृष्यता को कोई स्थान नहीं है। यह भी संभव है कि वर्ण और जाति व्यवस्था के लाभ लेकर भी इस के कर्तव्य और जिम्मेदारियों का निर्वाह नहीं करनेवाले लोगोंं को या परिवारों को अस्पृष्य माना जाता होगा। ऐसे परिवारों की संख्या बढने से अस्पृष्य बस्तियाँ बनीं होंगी। इसी से अस्पृष्य जातियों का निर्माण हुआ होगा। हिंदू समाज सहिष्णू होने के कारण भी अस्पृष्य बस्तियों का निर्माण हुआ ऐसा ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है। ईसाई या मुस्लिम समाजों में अस्पृष्यता नही दिखाई देती। इस का कारण वह बहुत प्रगतिशील हैं ऐसा दिया जाता है। किंतु यह सरासर गलत है। इन समाजों ने तो, जो उन की व्यवस्था को नहीं स्वीकारते उन्हें कत्ल ही कर दिया। इसलिये उन में अन्य समाजों के प्रति तीव्र घृणा की भावना रहते हुए भी अस्पृष्यता दिखाई नहीं देती। हिंदू समाज ने सामाजिक दायित्वों का निर्वाह नहीं करने वाले लोगोंं को अस्पृष्य माना किंतु उन्हें कत्ल नहीं किया। उन के भी जीने के अधिकार को स्वीकार किया। हिन्दू समाज के इस सहिष्णुता के व्यवहार का समर्थन और स्वागत करने के स्थान पर हिंदू समाज को गालियाँ देना ठीक नहीं है। समर्थन का अर्थ अस्पृष्यता जैसी कुरीतियों का भी समर्थन करना यह नहीं है।  
 
# जाति व्यवस्था आर्थिक विकास नहीं होने देती : भारत में गत दो हजार वर्षो से विदेशी आक्रमण हो रहे थे। ये आक्रमण जाति व्यवस्था के कारण निर्माण हुई भारत की संपदा लूटने के लिये हो रहे थे। गरीबी को लूटने के लिये नहीं।  
 
# जाति व्यवस्था आर्थिक विकास नहीं होने देती : भारत में गत दो हजार वर्षो से विदेशी आक्रमण हो रहे थे। ये आक्रमण जाति व्यवस्था के कारण निर्माण हुई भारत की संपदा लूटने के लिये हो रहे थे। गरीबी को लूटने के लिये नहीं।  
 
# जाति व्यवस्था से जातिवाद पैदा होता है : जातिवाद अंग्रेजों का निर्माण किया हुआ दोष है। धर्मपाल कहते हैं कि हिंदुओं के ईसाईकरण में जाति व्यवस्था रोडा थी इसलिये अंग्रेजों ने इसे बदनाम किया। जातियों में दुश्मनी निर्माण की। ऐसे सुधारकों को समर्थन और प्रोत्साहन दिया।  
 
# जाति व्यवस्था से जातिवाद पैदा होता है : जातिवाद अंग्रेजों का निर्माण किया हुआ दोष है। धर्मपाल कहते हैं कि हिंदुओं के ईसाईकरण में जाति व्यवस्था रोडा थी इसलिये अंग्रेजों ने इसे बदनाम किया। जातियों में दुश्मनी निर्माण की। ऐसे सुधारकों को समर्थन और प्रोत्साहन दिया।  
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अब तक तो विवाह केवल सवर्णों में ही हों यही सभी की मान्यता थी। लेकिन आंतरवर्णीय विवाहों के कारण वृत्तियों के संस्कारों के स्तर में कमी आयी । काम और मोह का प्रभाव बढा। आगे पुरूष के वर्ण से कम स्तर के वर्ण की स्त्री से विवाह को भी मान्यता दी गयी। जैसे ब्राह्मण पुरूष का क्षत्रिय या वैश्य स्त्री से विवाह। क्षत्रिय पुरूष का वैश्य स्त्री से विवाह। इसे अनुलोम विवाह कहते है । ऐसे विवाह से पैदा हुई संतति को पिता के वर्ण का ही माना जाता था। किन्तु इससे उलट विवाह को मान्यता नहीं थी। इसे प्रतिलोम विवाह कहतेहै । ऐसे अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों से प्राप्त संतति को संकरित माना जाता था। ऐसे संकरों की संख्या बढने पर नयी जाति का निर्माण होता था। ऐसे विवाहों को हेय माना जाता था। लेकिन मनुष्य के स्वभाव में जो काम और मोह है, उन के कारण विवाह के समय एक वर्ण का पुरूष दूसरे वर्ण की स्त्री से विवाह के लिये उद्यत हो जाता था। ऐसा विवाह वह बडी संख्या में करने लगा। तब वर्णों में बडी संख्या में संकर होने लगा। इस लिये वर्णों में से जातियाँ निर्माण होने लगीं।  
 
अब तक तो विवाह केवल सवर्णों में ही हों यही सभी की मान्यता थी। लेकिन आंतरवर्णीय विवाहों के कारण वृत्तियों के संस्कारों के स्तर में कमी आयी । काम और मोह का प्रभाव बढा। आगे पुरूष के वर्ण से कम स्तर के वर्ण की स्त्री से विवाह को भी मान्यता दी गयी। जैसे ब्राह्मण पुरूष का क्षत्रिय या वैश्य स्त्री से विवाह। क्षत्रिय पुरूष का वैश्य स्त्री से विवाह। इसे अनुलोम विवाह कहते है । ऐसे विवाह से पैदा हुई संतति को पिता के वर्ण का ही माना जाता था। किन्तु इससे उलट विवाह को मान्यता नहीं थी। इसे प्रतिलोम विवाह कहतेहै । ऐसे अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों से प्राप्त संतति को संकरित माना जाता था। ऐसे संकरों की संख्या बढने पर नयी जाति का निर्माण होता था। ऐसे विवाहों को हेय माना जाता था। लेकिन मनुष्य के स्वभाव में जो काम और मोह है, उन के कारण विवाह के समय एक वर्ण का पुरूष दूसरे वर्ण की स्त्री से विवाह के लिये उद्यत हो जाता था। ऐसा विवाह वह बडी संख्या में करने लगा। तब वर्णों में बडी संख्या में संकर होने लगा। इस लिये वर्णों में से जातियाँ निर्माण होने लगीं।  
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यह ध्यान में रखकर और वृत्तियों और व्यावसायिक कुशलताओं में वृद्धि हो या विरलीकरण या मिलावट न हो इस लिये वर्ण के बाहर विवाह वर्जित माने जाते थे। ब्राह्मण वर्ण के युवक के साथ अन्य वर्ण की कन्या के विवाह (अनुलोम विवाह) से पैदा होनेवाली संतति में अपने पिता से कम ब्राह्मणत्व रहता है। कितु ब्राह्मण वर्ण की कन्या जब उससे कनिष्ठ वर्ण के युवक से विवाह करती है (प्रतिलोम विवाह) तब उन से पैदा होनेवाली संतति में ब्राह्मणत्व के गुण कम और अन्य वर्ण के गुण अधिक पाए जाते है। इसलिये अनुलोम विवाह और प्रतिलोम विवाह की संकल्पनाएं आगे आयी। अनुलोम विवाह और प्रतिलोम विवाह दोनों ही शास्त्र विरूध्द ही है। आग्रह तो सवर्ण वर या वधू के साथ विवाह का ही रहा किंतु मजबूरी में अनुलोम विवाह को स्वीकृति दी गई। फिर भी शास्त्र विरूध्द व्यवहार करने वाले लोगों के कारण प्रतिलोम विवाह भी होते ही रहे। ऐसे अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों से निर्माण हुई संतति को विशिष्ट जाति का नाम दिया गया। उस जाति का जातिधर्म भी तय किया गया। वर्ण तो युवक के जन्मगत स्वभाव के अनुसार ही होता है लेकिन जाति उस के माता पिता की कुशलताओं के योग से मिलती है। इस लिये विवाह अपनी जाति में होने से व्यावसायिक कुशलताओं में वृद्धि होती है । और सवर्ण विवाह होने से वर्णगत आचार और संस्कारों की शुध्दि तथा वृद्धि होती है । इस लिये अपनी जाति में किया सवर्ण विवाह सर्वश्रेष्ठ होता है। कहा है<ref>मनुस्मृति 10-8 </ref>:  <blockquote>ब्राह्मणाद्वैश्यकन्यायामम्बष्टो नाम उच्यते ।</blockquote><blockquote>निषाद: शूद्रकन्यायां य: पारशव उच्यते ॥ 10-8 ॥</blockquote><blockquote>अर्थ: ब्राह्मण पुरूष से वैश्य कन्या के संकर से जो जन्म लेता है उसे अंबष्ट जाति का और शूद्र कन्या को होने वाली संतति को निषाद जाति का माना गया।</blockquote>इसी प्रकार मनुस्मृति में (अध्याय १० - ८ से १४) मनुस्मृति में लगभग १६-१७ जातियों के नाम दिये है। १५ से आगे ४१ तक के श्लोकों में संकरित जातियों में अनुलोम और प्रतिलोम विवाह के कारण पैदा हुई दर्जनों नयी जातियों के नाम दिये है। किंतु हर पीढी में बढते संकर और प्रतिसंकरों के कारण जातियों की संख्या बढ गई और नाम, कर्म और जातिधर्म का निर्धारण करनेवाली व्यवस्था प्रभावहीन हो गयी होगी।  
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यह ध्यान में रखकर और वृत्तियों और व्यावसायिक कुशलताओं में वृद्धि हो या विरलीकरण या मिलावट न हो इस लिये वर्ण के बाहर विवाह वर्जित माने जाते थे। ब्राह्मण वर्ण के युवक के साथ अन्य वर्ण की कन्या के विवाह (अनुलोम विवाह) से पैदा होनेवाली संतति में अपने पिता से कम ब्राह्मणत्व रहता है। कितु ब्राह्मण वर्ण की कन्या जब उससे कनिष्ठ वर्ण के युवक से विवाह करती है (प्रतिलोम विवाह) तब उन से पैदा होनेवाली संतति में ब्राह्मणत्व के गुण कम और अन्य वर्ण के गुण अधिक पाए जाते है। इसलिये अनुलोम विवाह और प्रतिलोम विवाह की संकल्पनाएं आगे आयी। अनुलोम विवाह और प्रतिलोम विवाह दोनों ही शास्त्र विरूध्द ही है। आग्रह तो सवर्ण वर या वधू के साथ विवाह का ही रहा किंतु मजबूरी में अनुलोम विवाह को स्वीकृति दी गई। फिर भी शास्त्र विरूध्द व्यवहार करने वाले लोगोंं के कारण प्रतिलोम विवाह भी होते ही रहे। ऐसे अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों से निर्माण हुई संतति को विशिष्ट जाति का नाम दिया गया। उस जाति का जातिधर्म भी तय किया गया। वर्ण तो युवक के जन्मगत स्वभाव के अनुसार ही होता है लेकिन जाति उस के माता पिता की कुशलताओं के योग से मिलती है। इस लिये विवाह अपनी जाति में होने से व्यावसायिक कुशलताओं में वृद्धि होती है । और सवर्ण विवाह होने से वर्णगत आचार और संस्कारों की शुध्दि तथा वृद्धि होती है । इस लिये अपनी जाति में किया सवर्ण विवाह सर्वश्रेष्ठ होता है। कहा है<ref>मनुस्मृति 10-8 </ref>:  <blockquote>ब्राह्मणाद्वैश्यकन्यायामम्बष्टो नाम उच्यते ।</blockquote><blockquote>निषाद: शूद्रकन्यायां य: पारशव उच्यते ॥ 10-8 ॥</blockquote><blockquote>अर्थ: ब्राह्मण पुरूष से वैश्य कन्या के संकर से जो जन्म लेता है उसे अंबष्ट जाति का और शूद्र कन्या को होने वाली संतति को निषाद जाति का माना गया।</blockquote>इसी प्रकार मनुस्मृति में (अध्याय १० - ८ से १४) मनुस्मृति में लगभग १६-१७ जातियों के नाम दिये है। १५ से आगे ४१ तक के श्लोकों में संकरित जातियों में अनुलोम और प्रतिलोम विवाह के कारण पैदा हुई दर्जनों नयी जातियों के नाम दिये है। किंतु हर पीढी में बढते संकर और प्रतिसंकरों के कारण जातियों की संख्या बढ गई और नाम, कर्म और जातिधर्म का निर्धारण करनेवाली व्यवस्था प्रभावहीन हो गयी होगी।  
    
== जाति परिवर्तन ==
 
== जाति परिवर्तन ==
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समाज की व्यावसायिक कुशलताओं की आवश्यकताओं की भिन्नता कम होने के कारण किसी समय केवल चार वर्णों में ही उन की पूर्ति के लिये सभी व्यवसायों को बाँटना सरल था। कालांतर से समाज की आवश्यकताओं की भिन्नता में वृद्धि हुई। जातियों की संख्या बहुत बढ गई। बाँटने के लिये व्यवसाय के क्षेत्र कम पडने लगे। जब किसी संकर से निर्मित गुट के लिये कोई व्यवसाय निश्चित किया जाता होगा तब पहले से ही वह व्यवसाय करनेवालों पर अन्याय होता होगा । वह लोग इस को स्वीकार नही करते होंगे । दूसरी ओर उस व्यवसाय में स्पर्धा बढ जाती होगी । समाज के एक हिस्से में व्याप्त अव्यवस्था का परिणाम पुरे समाजपर होता होगा । इन समस्याओं के कारण धीरे धीरे जाति निर्धारण करने वाली व्यवस्था कुछ काल तक प्रभावहीन और बाद में नष्ट हो गई होगी।  ऐसा कोई वर्णन हमारे प्राचीन साहित्य में नही मिलता। लेकिन के वल इसलिये ऐसी व्यवस्था के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। दूसरी बात यानी आये दिन बडे पैमानेपर होनेवाले ऐसे वर्णसंकरों के लिये समाज की व्यवस्था में बारबार परिवर्तन करते रहना व्यावहारिक दृष्टि से भी असंभव हो गया होगा ।   
 
समाज की व्यावसायिक कुशलताओं की आवश्यकताओं की भिन्नता कम होने के कारण किसी समय केवल चार वर्णों में ही उन की पूर्ति के लिये सभी व्यवसायों को बाँटना सरल था। कालांतर से समाज की आवश्यकताओं की भिन्नता में वृद्धि हुई। जातियों की संख्या बहुत बढ गई। बाँटने के लिये व्यवसाय के क्षेत्र कम पडने लगे। जब किसी संकर से निर्मित गुट के लिये कोई व्यवसाय निश्चित किया जाता होगा तब पहले से ही वह व्यवसाय करनेवालों पर अन्याय होता होगा । वह लोग इस को स्वीकार नही करते होंगे । दूसरी ओर उस व्यवसाय में स्पर्धा बढ जाती होगी । समाज के एक हिस्से में व्याप्त अव्यवस्था का परिणाम पुरे समाजपर होता होगा । इन समस्याओं के कारण धीरे धीरे जाति निर्धारण करने वाली व्यवस्था कुछ काल तक प्रभावहीन और बाद में नष्ट हो गई होगी।  ऐसा कोई वर्णन हमारे प्राचीन साहित्य में नही मिलता। लेकिन के वल इसलिये ऐसी व्यवस्था के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। दूसरी बात यानी आये दिन बडे पैमानेपर होनेवाले ऐसे वर्णसंकरों के लिये समाज की व्यवस्था में बारबार परिवर्तन करते रहना व्यावहारिक दृष्टि से भी असंभव हो गया होगा ।   
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हिन्दू समाज में आश्रम व्यवस्था भी प्रस्थापित थी । इस में केवल गृहस्थाश्रमी ( गृहिणियाँ नहीं ) अर्थार्जन का काम करते थे। खेती जैसे व्यवसायों में घर की महिलायें भी व्यवसाय में हाथ बंटाती थी । किंतु अर्थार्जन गृहस्थ करे और गृहिणि अर्थ का विनियोग करे, यही घरों की व्यवस्था थी। समाज में गृहस्थ पुरूषों की संख्या १२.५ प्रतिशत ही होती है। अर्थात् केवल १२.५ प्रतिशत लोग ही अर्थार्जन करते थे। प्रत्यक्ष व्यवसाय करते थे। और फिर भी हम अत्यंत समृध्द देश  थे। केवल १२.५ प्रतिशत लोग ही अर्थार्जन करते थे तो अन्य लोग क्या करते थे ? काम तो प्रत्येक व्यक्ति करता था। किंतु अर्थार्जन के लिये नहीं। हर जाति का ब्रह्मचारी वर्ग, जिसने अभी गृहस्थाश्रम में प्रवेश नहीं किया है, अपने व्यक्तिगत उन्नयन के साथ ही समाज के हित में सार्थक योगदान देने की दृष्टि से ज्ञानार्जन, विद्यार्जन और काप्रशलार्जन में लगा रहता था। सभी वर्णों के लोग, और सभी ब्राह्मण भी संन्यासी नहीं बनते थे। किंतु अब मैंने अपने लिये नहीं समाज के लिये जीना है ऐसा मानने वाले वानप्रस्थी तो सभी वर्णों के और जातियों के लोग हुआ करते थे। ऐसे वानप्रस्थी और संन्यासी सभी अर्थार्जन की अपेक्षा के बगैर समाज के लिये काम करते थे। ब्राह्मण छोडकर अन्य वर्णों के वानप्रस्थी लोग क्या करते होंगे? सदाचार की शिक्षा देना, सामाजिक दृष्टि से जिन वर्णों के लोगों का अनुकरण करना चाहिये ऐसे लोगो का स्वत: अनुकरण करना और अन्यों को अनुकरण करने की प्रेरणा देना, ब्रह्मचर्य काल में हस्तगत किये और गृहस्थ जीवन में विकसित किये गये ज्ञान, विद्या और काप्रशलों को नयी पीढी को हस्तांतरित करना, भगवद्भक्ति में समय बिताना आदि काम ही तो करते होंगे। यह था वर्ण और आश्रम व्यवस्था का स्वरूप।   
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हिन्दू समाज में आश्रम व्यवस्था भी प्रस्थापित थी । इस में केवल गृहस्थाश्रमी ( गृहिणियाँ नहीं ) अर्थार्जन का काम करते थे। खेती जैसे व्यवसायों में घर की महिलायें भी व्यवसाय में हाथ बंटाती थी । किंतु अर्थार्जन गृहस्थ करे और गृहिणि अर्थ का विनियोग करे, यही घरों की व्यवस्था थी। समाज में गृहस्थ पुरूषों की संख्या १२.५ प्रतिशत ही होती है। अर्थात् केवल १२.५ प्रतिशत लोग ही अर्थार्जन करते थे। प्रत्यक्ष व्यवसाय करते थे। और फिर भी हम अत्यंत समृध्द देश  थे। केवल १२.५ प्रतिशत लोग ही अर्थार्जन करते थे तो अन्य लोग क्या करते थे ? काम तो प्रत्येक व्यक्ति करता था। किंतु अर्थार्जन के लिये नहीं। हर जाति का ब्रह्मचारी वर्ग, जिसने अभी गृहस्थाश्रम में प्रवेश नहीं किया है, अपने व्यक्तिगत उन्नयन के साथ ही समाज के हित में सार्थक योगदान देने की दृष्टि से ज्ञानार्जन, विद्यार्जन और काप्रशलार्जन में लगा रहता था। सभी वर्णों के लोग, और सभी ब्राह्मण भी संन्यासी नहीं बनते थे। किंतु अब मैंने अपने लिये नहीं समाज के लिये जीना है ऐसा मानने वाले वानप्रस्थी तो सभी वर्णों के और जातियों के लोग हुआ करते थे। ऐसे वानप्रस्थी और संन्यासी सभी अर्थार्जन की अपेक्षा के बगैर समाज के लिये काम करते थे। ब्राह्मण छोडकर अन्य वर्णों के वानप्रस्थी लोग क्या करते होंगे? सदाचार की शिक्षा देना, सामाजिक दृष्टि से जिन वर्णों के लोगोंं का अनुकरण करना चाहिये ऐसे लोगों का स्वत: अनुकरण करना और अन्यों को अनुकरण करने की प्रेरणा देना, ब्रह्मचर्य काल में हस्तगत किये और गृहस्थ जीवन में विकसित किये गये ज्ञान, विद्या और काप्रशलों को नयी पीढी को हस्तांतरित करना, भगवद्भक्ति में समय बिताना आदि काम ही तो करते होंगे। यह था वर्ण और आश्रम व्यवस्था का स्वरूप।   
    
== हर जाति में चार वर्ण ==
 
== हर जाति में चार वर्ण ==
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भारत के इतिहास में कई बार ब्राह्मण जाति का मनुष्य राजा बना। सम्राट यशोधर्मा, पुष्यमित्र आदि ब्राह्मण जाति के ही तो थे। शूद्र राजा भी कई हुए है। ये सब उन जातियों के क्षत्रिय वर्ण के लोग ही थे। क्षत्रिय राजा मनु द्वारा प्रस्तुत की गई 'मनुस्मृति’ हजारों वर्षों तक भारत में सबसे अधिक मान्यता प्राप्त स्मृति रही है। क्या मनु का ब्राह्मणत्व नकारा जा सकता है? इसी तरह क्या बाबासाहब अंबेडकर को ब्राह्मणत्व नकारा जा सकता है?   
 
भारत के इतिहास में कई बार ब्राह्मण जाति का मनुष्य राजा बना। सम्राट यशोधर्मा, पुष्यमित्र आदि ब्राह्मण जाति के ही तो थे। शूद्र राजा भी कई हुए है। ये सब उन जातियों के क्षत्रिय वर्ण के लोग ही थे। क्षत्रिय राजा मनु द्वारा प्रस्तुत की गई 'मनुस्मृति’ हजारों वर्षों तक भारत में सबसे अधिक मान्यता प्राप्त स्मृति रही है। क्या मनु का ब्राह्मणत्व नकारा जा सकता है? इसी तरह क्या बाबासाहब अंबेडकर को ब्राह्मणत्व नकारा जा सकता है?   
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राजा के सलाहकार कैसे हों इस विषय में बताया गया है कि राजा को विद्वान सलाहकार मंत्रियों की सहायता से राज्य चलाना चाहिये। 3 ब्राह्मण, 8 क्षत्रिय, 21 वैश्य और 3 शूद्र मंत्रियों का मंत्रिमंडल रहे। मनुस्मृति के अनुसार यह मंत्री श्रेष्ठ परंपराओं के वाहक, शास्त्र को जाननेवाले, बहादुर, ध्येयवादी, अच्छे कुलों के ऐसे होने चाहिये। उपर्युक्त मंत्रियों में से जो तीन शूद्र मंत्री है क्या उन से ब्राह्मण मंत्री की तरह ही अपेक्षाएं नहीं थीं । मंत्री के लिये अपेक्षित इन गुणों की अपेक्षा तो केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जाति के ब्राह्मण या क्षत्रिय वर्ण के लोगों से ही की जा सकती है।   
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राजा के सलाहकार कैसे हों इस विषय में बताया गया है कि राजा को विद्वान सलाहकार मंत्रियों की सहायता से राज्य चलाना चाहिये। 3 ब्राह्मण, 8 क्षत्रिय, 21 वैश्य और 3 शूद्र मंत्रियों का मंत्रिमंडल रहे। मनुस्मृति के अनुसार यह मंत्री श्रेष्ठ परंपराओं के वाहक, शास्त्र को जाननेवाले, बहादुर, ध्येयवादी, अच्छे कुलों के ऐसे होने चाहिये। उपर्युक्त मंत्रियों में से जो तीन शूद्र मंत्री है क्या उन से ब्राह्मण मंत्री की तरह ही अपेक्षाएं नहीं थीं । मंत्री के लिये अपेक्षित इन गुणों की अपेक्षा तो केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जाति के ब्राह्मण या क्षत्रिय वर्ण के लोगोंं से ही की जा सकती है।   
    
धर्मपालजी कहते हैं<ref>धर्मपाल, रमणीय वृक्ष </ref> कि सन 1800 के करीब भारत में 5 लाख से भी अधिक विद्यालय थे। इन विद्यालयों में शुल्क नहीं लिया जाता था। इन में अध्यापन करने वाले बहुत कम शिक्षक ब्राह्मण जातियों के थे। अन्य सभी जातियों के लोग शिक्षक का काम करते थे। किन्तु सभी नि:शुल्क शिक्षा ( ज्ञानदान ) ही देते थे । अर्थात् ब्राह्मण के गुण और लक्षण इन में थे। ये सब उन जातियों के ब्राह्मण वर्ण के लोग  तो हुए।   
 
धर्मपालजी कहते हैं<ref>धर्मपाल, रमणीय वृक्ष </ref> कि सन 1800 के करीब भारत में 5 लाख से भी अधिक विद्यालय थे। इन विद्यालयों में शुल्क नहीं लिया जाता था। इन में अध्यापन करने वाले बहुत कम शिक्षक ब्राह्मण जातियों के थे। अन्य सभी जातियों के लोग शिक्षक का काम करते थे। किन्तु सभी नि:शुल्क शिक्षा ( ज्ञानदान ) ही देते थे । अर्थात् ब्राह्मण के गुण और लक्षण इन में थे। ये सब उन जातियों के ब्राह्मण वर्ण के लोग  तो हुए।   
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इन सब से यह निष्कर्ष निकाले जा सकते है कि:   
 
इन सब से यह निष्कर्ष निकाले जा सकते है कि:   
# मनुष्य समाज ठीक से जी सके, समाज में संतुलन बना रहे इसलिये चार प्रकार की प्रवृत्तियों के लोगों को आवश्यक अनुपात में परमात्मा पैदा करता ही रहता है   
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# मनुष्य समाज ठीक से जी सके, समाज में संतुलन बना रहे इसलिये चार प्रकार की प्रवृत्तियों के लोगोंं को आवश्यक अनुपात में परमात्मा पैदा करता ही रहता है   
 
# जनसंख्या के प्रमाण में पैदा होने वाले जन्मजात वर्णों की या प्रवृत्तियों ( गुण और लक्षणों ) की शुद्धता बनाए रखने के लिये और समाज में संतुलन बनाए रखने के लिये वर्ण व्यवस्था की रचना की गई थी। यह आनुवांशिकता से नहीं थी।   
 
# जनसंख्या के प्रमाण में पैदा होने वाले जन्मजात वर्णों की या प्रवृत्तियों ( गुण और लक्षणों ) की शुद्धता बनाए रखने के लिये और समाज में संतुलन बनाए रखने के लिये वर्ण व्यवस्था की रचना की गई थी। यह आनुवांशिकता से नहीं थी।   
 
# जन्मजात व्यावसायिक कुशलता ( जाति ) का सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये संतुलन बनाये रखने के लिये हमारे पूर्वजों ने आनुवांशिकता से जाति व्यवस्था का निर्माण किया था ।   
 
# जन्मजात व्यावसायिक कुशलता ( जाति ) का सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये संतुलन बनाये रखने के लिये हमारे पूर्वजों ने आनुवांशिकता से जाति व्यवस्था का निर्माण किया था ।   
# जातियों में भी चारों वर्णों के लोगों के ‘ स्व ‘भाव के अनुसार और व्यावसायिक आवश्यकताओं के अनुसार काम का स्वरूप होता था। जैसे अपनी व्यावसायिक कुशलता (जाति) के जातिपुराण की कालानुरूप रचना और प्रस्तुति करना। इस के माध्यम से जातिधर्म को प्रतिष्ठापित करना। व्यावसायिक ज्ञान का अर्जन और ज्ञानदान करना। दान लेना और दान देना या ज्ञान या व्यवसाय के उत्पादनों की सुरक्षा, आवास, उद्योगालय, खेती, भूमि, तालाब आदि संसाधनों की सुरक्षा और रखरखाव करना। आवश्यकता और प्रसंगोपात्त सैनिक कर्म करना। या ज्ञान का प्रसार या प्रत्त्यक्ष वस्तूओं का उत्पादन करना या लोगों की सेवा आदि करना।   
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# जातियों में भी चारों वर्णों के लोगोंं के ‘ स्व ‘भाव के अनुसार और व्यावसायिक आवश्यकताओं के अनुसार काम का स्वरूप होता था। जैसे अपनी व्यावसायिक कुशलता (जाति) के जातिपुराण की कालानुरूप रचना और प्रस्तुति करना। इस के माध्यम से जातिधर्म को प्रतिष्ठापित करना। व्यावसायिक ज्ञान का अर्जन और ज्ञानदान करना। दान लेना और दान देना या ज्ञान या व्यवसाय के उत्पादनों की सुरक्षा, आवास, उद्योगालय, खेती, भूमि, तालाब आदि संसाधनों की सुरक्षा और रखरखाव करना। आवश्यकता और प्रसंगोपात्त सैनिक कर्म करना। या ज्ञान का प्रसार या प्रत्त्यक्ष वस्तूओं का उत्पादन करना या लोगोंं की सेवा आदि करना।   
 
# प्रत्येक जाति में चारों वर्णों के लोग होते है । जातियों में भी प्रवृत्तियों का संतुलन बनाए रखने का प्रयास वर्ण को भी आनुवांशिक बनाकर किया गया। यह प्रयास गुरूकुल या गुरूकुल जैसी अन्य वर्ण निर्धारण की व्यवस्था के अभाव में अधिक काल टिक नहीं पाया। यह प्रयास मूलत: दोषपूर्ण होने से इस में दोष निर्माण होने लगे।   
 
# प्रत्येक जाति में चारों वर्णों के लोग होते है । जातियों में भी प्रवृत्तियों का संतुलन बनाए रखने का प्रयास वर्ण को भी आनुवांशिक बनाकर किया गया। यह प्रयास गुरूकुल या गुरूकुल जैसी अन्य वर्ण निर्धारण की व्यवस्था के अभाव में अधिक काल टिक नहीं पाया। यह प्रयास मूलत: दोषपूर्ण होने से इस में दोष निर्माण होने लगे।   
 
# इस सब के उपरांत भी कोई यदि अपना वर्ण बदलना चाहता था या जाति बदलना चाहता था तो इस की भी व्यवस्था की गई थी । इस बात में लचीलापन था । लेकिन इस वर्ण या जाति के परिवर्तन को कठिन बनाने के लिये कठोर तप के प्रावधान रखे गये थे। जिस से यह जन्मगत व्यवस्थाएं व्यक्ति के लिये ' मन:पूतं ' न बन सकें।   
 
# इस सब के उपरांत भी कोई यदि अपना वर्ण बदलना चाहता था या जाति बदलना चाहता था तो इस की भी व्यवस्था की गई थी । इस बात में लचीलापन था । लेकिन इस वर्ण या जाति के परिवर्तन को कठिन बनाने के लिये कठोर तप के प्रावधान रखे गये थे। जिस से यह जन्मगत व्यवस्थाएं व्यक्ति के लिये ' मन:पूतं ' न बन सकें।   
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== उपसंहार ==
 
== उपसंहार ==
वर्ण और जाति यह व्यवस्थाएँ शास्त्रसम्मत ही हैं। यह हमें ठीक से समझना होगा । जिन्हें हिन्दू समाज फिर से विश्वगुरू बने ऐसी आकांक्षा है ऐसे लोगों को अपने अपने पूर्वाग्रह छोडकर गहराई से इस विषय का अध्ययन करना होगा। वर्ण और जाति व्यवस्था का शास्त्रीय हिस्सा कौन सा है और अशास्त्रीय कौनसा है यह तय करना होगा। अशास्त्रीय हिस्से को छोडना होगा। शास्त्रीय हिस्से को प्रासंगिक ढंग से पुनर्प्रस्तुत करना होगा।  
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वर्ण और जाति यह व्यवस्थाएँ शास्त्रसम्मत ही हैं। यह हमें ठीक से समझना होगा । जिन्हें हिन्दू समाज फिर से विश्वगुरू बने ऐसी आकांक्षा है ऐसे लोगोंं को अपने अपने पूर्वाग्रह छोडकर गहराई से इस विषय का अध्ययन करना होगा। वर्ण और जाति व्यवस्था का शास्त्रीय हिस्सा कौन सा है और अशास्त्रीय कौनसा है यह तय करना होगा। अशास्त्रीय हिस्से को छोडना होगा। शास्त्रीय हिस्से को प्रासंगिक ढंग से पुनर्प्रस्तुत करना होगा।  
    
छुआछूत का चलन यह जाति व्यवस्था में निर्माण हुआ गंभीर दोष है। यदि जाति व्यवस्था को बनाए रखना हो तो छुआछूत विहीन जाति व्यवस्था का ही विकास करना होगा।  
 
छुआछूत का चलन यह जाति व्यवस्था में निर्माण हुआ गंभीर दोष है। यदि जाति व्यवस्था को बनाए रखना हो तो छुआछूत विहीन जाति व्यवस्था का ही विकास करना होगा।  
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प्रकृति में पेड के दो पत्ते एक जैसे नहीं होते। दो मनुष्य भी एक जैसे नहीं हो सकते। इसलिये श्रेष्ठता और कनिष्ठता तो रहेगी ही। यह प्राकृतिक ही है। किंतु मानव होने के नाते समानता आवश्यक है, इस तत्व का नयी जाति व्यवस्था में समावेष अनिवार्य है। जाति या वर्ण जो भी हो, मानवता का व्यवहार तो हर मानव से हो यह अनिवार्य है। समाज के प्रत्येक सदस्य को उस के कर्मों के आधार पर श्रेष्ठता या कनिष्ठता प्राप्त होगी। ऐसा होने से किसी के मन में कड़वाहट नहीं रहेगी।  
 
प्रकृति में पेड के दो पत्ते एक जैसे नहीं होते। दो मनुष्य भी एक जैसे नहीं हो सकते। इसलिये श्रेष्ठता और कनिष्ठता तो रहेगी ही। यह प्राकृतिक ही है। किंतु मानव होने के नाते समानता आवश्यक है, इस तत्व का नयी जाति व्यवस्था में समावेष अनिवार्य है। जाति या वर्ण जो भी हो, मानवता का व्यवहार तो हर मानव से हो यह अनिवार्य है। समाज के प्रत्येक सदस्य को उस के कर्मों के आधार पर श्रेष्ठता या कनिष्ठता प्राप्त होगी। ऐसा होने से किसी के मन में कड़वाहट नहीं रहेगी।  
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कुछ लोगों की पक्की धारणा है कि जाति व्यवस्था मूलत: ही दोषपूर्ण थी। इन में जो विचारशील लोग हैं उन्हें समझाना होगा। और नयी व्यवस्था के पक्ष में लाना होगा। जो लोग समझते हैं कि जाति व्यवस्था कभी ठीक रही होगी। लेकिन वर्तमान में तो यह अप्रासंगिक हो गई है। ऐसे लोगों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वर्तमान जाति व्यवस्था को तोडने से पहले वे एक सशक्त वैकल्पिक व्यवस्था की प्रस्तुति करें। वैकल्पिक व्यवस्था के प्रयोग कर यह सिध्द करें कि उन के द्वारा प्रस्तुत की हुई व्यवस्था वर्तमान जाति व्यवस्थाओं के सभी लाभों को बनाए रखते हुए इस के दोषों का निवारण करती है। ऐसी परिस्थिति में उन के द्वारा प्रस्तुत व्यवस्था का स्वीकार करना हर्ष की ही बात होगी। किंतु ऐसी किसी वैकल्पिक व्यवस्था की योजना के बगैर ही वर्तमान व्यवस्था को तोडने के प्रयास को बुध्दिमानी नहीं कहा जा सकता। ऐसा विकल्प जबतक नहीं मिल जाता, वर्तमान व्यवस्था को बनाए रखते हुए उस के दोषों का निवारण करने के प्रयास करने होंगे।  
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कुछ लोगोंं की पक्की धारणा है कि जाति व्यवस्था मूलत: ही दोषपूर्ण थी। इन में जो विचारशील लोग हैं उन्हें समझाना होगा। और नयी व्यवस्था के पक्ष में लाना होगा। जो लोग समझते हैं कि जाति व्यवस्था कभी ठीक रही होगी। लेकिन वर्तमान में तो यह अप्रासंगिक हो गई है। ऐसे लोगोंं की यह जिम्मेदारी बनती है कि वर्तमान जाति व्यवस्था को तोडने से पहले वे एक सशक्त वैकल्पिक व्यवस्था की प्रस्तुति करें। वैकल्पिक व्यवस्था के प्रयोग कर यह सिध्द करें कि उन के द्वारा प्रस्तुत की हुई व्यवस्था वर्तमान जाति व्यवस्थाओं के सभी लाभों को बनाए रखते हुए इस के दोषों का निवारण करती है। ऐसी परिस्थिति में उन के द्वारा प्रस्तुत व्यवस्था का स्वीकार करना हर्ष की ही बात होगी। किंतु ऐसी किसी वैकल्पिक व्यवस्था की योजना के बगैर ही वर्तमान व्यवस्था को तोडने के प्रयास को बुध्दिमानी नहीं कहा जा सकता। ऐसा विकल्प जबतक नहीं मिल जाता, वर्तमान व्यवस्था को बनाए रखते हुए उस के दोषों का निवारण करने के प्रयास करने होंगे।  
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जिन्हें शास्त्र के अनुसार व्यवहार नही करना है उन का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में दिया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 16-23 </ref>: <blockquote>य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत: ॥</blockquote><blockquote>न स सिध्दिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥ 16-23॥  </blockquote><blockquote>अर्थात् ऐसे लोगों को न सुख मिलता है न कोई सिध्दी प्राप्त होती है अर्थात् कोई ना तो ऐहिक लाभ मिलते हैं और ना ही कोई पारलौकिक ही । </blockquote>ऐसे लोगों को उन के हाल पर छोड देना ही ठीक रहेगा । किन्तु जहाँ तत्वबोध की संभावनाएँ हैं वाद-संवाद तो करना होगा । विवाद और वितंडा वाद को टालकर ही आगे बढना होगा। एक और अत्यंत महत्व की बात की ओर भी ध्यान देना होगा। वर्ण और जाति यह व्यवस्थाएँ  कितनी भी उपयुक्त  समझमें आती होगी, जबतक जीवन का वर्तमान प्रतिमान (Paradigm), जो पूरी तरह से अधार्मिक (अधार्मिक) बन गया है, इसे जडसे बदलकर जीवन के धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान के एक अंग की तरह वर्ण और जाति व्यवस्थाओं को प्रतिष्ठित नहीं करते तब तक अलग से वर्ण और जाति व्यवस्थाओं को प्रतिष्ठित नहीं कर सकते।  
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जिन्हें शास्त्र के अनुसार व्यवहार नही करना है उन का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में दिया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 16-23 </ref>: <blockquote>य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत: ॥</blockquote><blockquote>न स सिध्दिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥ 16-23॥  </blockquote><blockquote>अर्थात् ऐसे लोगोंं को न सुख मिलता है न कोई सिध्दी प्राप्त होती है अर्थात् कोई ना तो ऐहिक लाभ मिलते हैं और ना ही कोई पारलौकिक ही । </blockquote>ऐसे लोगोंं को उन के हाल पर छोड देना ही ठीक रहेगा । किन्तु जहाँ तत्वबोध की संभावनाएँ हैं वाद-संवाद तो करना होगा । विवाद और वितंडा वाद को टालकर ही आगे बढना होगा। एक और अत्यंत महत्व की बात की ओर भी ध्यान देना होगा। वर्ण और जाति यह व्यवस्थाएँ  कितनी भी उपयुक्त  समझमें आती होगी, जबतक जीवन का वर्तमान प्रतिमान (Paradigm), जो पूरी तरह से अधार्मिक (अधार्मिक) बन गया है, इसे जडसे बदलकर जीवन के धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान के एक अंग की तरह वर्ण और जाति व्यवस्थाओं को प्रतिष्ठित नहीं करते तब तक अलग से वर्ण और जाति व्यवस्थाओं को प्रतिष्ठित नहीं कर सकते।  
    
==References==
 
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