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## पूरे समाज के लिये मैं अकेला ही उत्पादन करूँगा, उस से मिलनेवाले लाभ का मैं एकमात्र हकदार बनूँं ऐसी राक्षसी महत्वाकांक्षा सारे समाज में व्याप्त हो जाती है। इस वातावरण और उपजी स्पर्धा में समाज का एक बहुत छोटा वर्ग ही सफल होता है। बाकी सब लोग चूहे की मानसिकता वाले बन जाते हैं। जो अपने से दुर्बल और निश्चेष्ट किसी को भी खाते जाते हैं   
 
## पूरे समाज के लिये मैं अकेला ही उत्पादन करूँगा, उस से मिलनेवाले लाभ का मैं एकमात्र हकदार बनूँं ऐसी राक्षसी महत्वाकांक्षा सारे समाज में व्याप्त हो जाती है। इस वातावरण और उपजी स्पर्धा में समाज का एक बहुत छोटा वर्ग ही सफल होता है। बाकी सब लोग चूहे की मानसिकता वाले बन जाते हैं। जो अपने से दुर्बल और निश्चेष्ट किसी को भी खाते जाते हैं   
 
## व्यवसाय व्यक्तिगत और विशालतम बनते जाते हैं। जैसे मायक्रोसॉफ्ट या फोर्ड आदि। आर्थिक दृष्टि से कुछ लोग बहुत बडे बन जाते हैं । अन्य कुछ लोगों की जो बडे बन रहे हैं ऐसे लोगों की एक सीढी बनीं दिखाई देती है। किंतु इस सीढी पर बहुत कम लोग होते हैं। बहुजन तो चींटियों की तरह रेंगने लग जाते हैं । समाज में आर्थिक विषमता बढती है।  
 
## व्यवसाय व्यक्तिगत और विशालतम बनते जाते हैं। जैसे मायक्रोसॉफ्ट या फोर्ड आदि। आर्थिक दृष्टि से कुछ लोग बहुत बडे बन जाते हैं । अन्य कुछ लोगों की जो बडे बन रहे हैं ऐसे लोगों की एक सीढी बनीं दिखाई देती है। किंतु इस सीढी पर बहुत कम लोग होते हैं। बहुजन तो चींटियों की तरह रेंगने लग जाते हैं । समाज में आर्थिक विषमता बढती है।  
## आर्थिक सत्ता के केंद्रीकरण के कारण पैसे का प्रभाव दिखाई देने लगता है। इस से गुण्डागर्दी, झूठ, फरेब और विज्ञापनबाजी की मदद से भी आर्थिक विकास की सीढी पर शीघ्रातिशीघ्र ऊपर चढने की मानसिकता बनने लगती है। संचार माध्यमों के दुरूपयोग के लिये निमित्त बन जाता है।   
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## आर्थिक सत्ता के केंद्रीकरण के कारण पैसे का प्रभाव दिखाई देने लगता है। इस से गुण्डागर्दी, झूठ, फरेब और विज्ञापनबाजी की सहायता से भी आर्थिक विकास की सीढी पर शीघ्रातिशीघ्र ऊपर चढने की मानसिकता बनने लगती है। संचार माध्यमों के दुरूपयोग के लिये निमित्त बन जाता है।   
 
## ज्ञान तो व्यक्ति में अंतर्निहीत ही होता है। उस का विकास वह कर सकता है। ज्ञानप्राप्ति का अधिकार हर व्यक्ति को है। किंतु कुशलता यह हर व्यक्ति की भिन्न होती है। हर व्यक्ति उस की विशिष्ट व्यावसायिक कौशल की विधा और उस विधा के विकास की संभावनाएँ लेकर ही जन्म लेता है। जन्म के उपरांत उस में परिवर्तन की संभावनाएँ बहुत कम होतीं है। परिवर्तन बहुत लम्बे और कठिन तप से ही हो सकता है। यह तप करने की तैयारी सामान्य मनुष्य की नहीं होने से वह असफल हो जाता है। दौड में पीछे रह जाता है। फिर व्यावसायिक तरीके  नहीं अन्य हथकंडे अपनाने लग जाता है। लाचार बन जाता है या निराश हो जाता है।  
 
## ज्ञान तो व्यक्ति में अंतर्निहीत ही होता है। उस का विकास वह कर सकता है। ज्ञानप्राप्ति का अधिकार हर व्यक्ति को है। किंतु कुशलता यह हर व्यक्ति की भिन्न होती है। हर व्यक्ति उस की विशिष्ट व्यावसायिक कौशल की विधा और उस विधा के विकास की संभावनाएँ लेकर ही जन्म लेता है। जन्म के उपरांत उस में परिवर्तन की संभावनाएँ बहुत कम होतीं है। परिवर्तन बहुत लम्बे और कठिन तप से ही हो सकता है। यह तप करने की तैयारी सामान्य मनुष्य की नहीं होने से वह असफल हो जाता है। दौड में पीछे रह जाता है। फिर व्यावसायिक तरीके  नहीं अन्य हथकंडे अपनाने लग जाता है। लाचार बन जाता है या निराश हो जाता है।  
 
## हर बच्चे के कुशलताओं के विकास के स्तर की मर्यादा भिन्न भिन्न होती हैं। जन्मजात कुशलताओं से भिन्न व्यवसाय के चयन के कारण अपने विकास के उच्चतम संभाव्य स्तर तक पहुँचने के लिये व्यक्तिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में अवसर ही नहीं होता। यह अवसर जातिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में सहज ही प्राप्त हो जाता है।  
 
## हर बच्चे के कुशलताओं के विकास के स्तर की मर्यादा भिन्न भिन्न होती हैं। जन्मजात कुशलताओं से भिन्न व्यवसाय के चयन के कारण अपने विकास के उच्चतम संभाव्य स्तर तक पहुँचने के लिये व्यक्तिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में अवसर ही नहीं होता। यह अवसर जातिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में सहज ही प्राप्त हो जाता है।  
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भारत के इतिहास में कई बार ब्राह्मण जाति का मनुष्य राजा बना। सम्राट यशोधर्मा, पुष्यमित्र आदि ब्राह्मण जाति के ही तो थे। शूद्र राजा भी कई हुए है। ये सब उन जातियों के क्षत्रिय वर्ण के लोग ही थे। क्षत्रिय राजा मनु द्वारा प्रस्तुत की गई 'मनुस्मृति’ हजारों वर्षों तक भारत में सबसे अधिक मान्यता प्राप्त स्मृति रही है। क्या मनु का ब्राह्मणत्व नकारा जा सकता है? इसी तरह क्या बाबासाहब अंबेडकर को ब्राह्मणत्व नकारा जा सकता है?   
 
भारत के इतिहास में कई बार ब्राह्मण जाति का मनुष्य राजा बना। सम्राट यशोधर्मा, पुष्यमित्र आदि ब्राह्मण जाति के ही तो थे। शूद्र राजा भी कई हुए है। ये सब उन जातियों के क्षत्रिय वर्ण के लोग ही थे। क्षत्रिय राजा मनु द्वारा प्रस्तुत की गई 'मनुस्मृति’ हजारों वर्षों तक भारत में सबसे अधिक मान्यता प्राप्त स्मृति रही है। क्या मनु का ब्राह्मणत्व नकारा जा सकता है? इसी तरह क्या बाबासाहब अंबेडकर को ब्राह्मणत्व नकारा जा सकता है?   
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राजा के सलाहकार कैसे हों इस विषय में बताया गया है कि राजा को विद्वान सलाहकार मंत्रियों की मदद से राज्य चलाना चाहिये। 3 ब्राह्मण, 8 क्षत्रिय, 21 वैश्य और 3 शूद्र मंत्रियों का मंत्रिमंडल रहे। मनुस्मृति के अनुसार यह मंत्री श्रेष्ठ परंपराओं के वाहक, शास्त्र को जाननेवाले, बहादुर, ध्येयवादी, अच्छे कुलों के ऐसे होने चाहिये। उपर्युक्त मंत्रियों में से जो तीन शूद्र मंत्री है क्या उन से ब्राह्मण मंत्री की तरह ही अपेक्षाएं नहीं थीं । मंत्री के लिये अपेक्षित इन गुणों की अपेक्षा तो केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जाति के ब्राह्मण या क्षत्रिय वर्ण के लोगों से ही की जा सकती है।   
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राजा के सलाहकार कैसे हों इस विषय में बताया गया है कि राजा को विद्वान सलाहकार मंत्रियों की सहायता से राज्य चलाना चाहिये। 3 ब्राह्मण, 8 क्षत्रिय, 21 वैश्य और 3 शूद्र मंत्रियों का मंत्रिमंडल रहे। मनुस्मृति के अनुसार यह मंत्री श्रेष्ठ परंपराओं के वाहक, शास्त्र को जाननेवाले, बहादुर, ध्येयवादी, अच्छे कुलों के ऐसे होने चाहिये। उपर्युक्त मंत्रियों में से जो तीन शूद्र मंत्री है क्या उन से ब्राह्मण मंत्री की तरह ही अपेक्षाएं नहीं थीं । मंत्री के लिये अपेक्षित इन गुणों की अपेक्षा तो केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जाति के ब्राह्मण या क्षत्रिय वर्ण के लोगों से ही की जा सकती है।   
    
धर्मपालजी कहते हैं<ref>धर्मपाल, रमणीय वृक्ष </ref> कि सन 1800 के करीब भारत में 5 लाख से भी अधिक विद्यालय थे। इन विद्यालयों में शुल्क नहीं लिया जाता था। इन में अध्यापन करने वाले बहुत कम शिक्षक ब्राह्मण जातियों के थे। अन्य सभी जातियों के लोग शिक्षक का काम करते थे। किन्तु सभी नि:शुल्क शिक्षा ( ज्ञानदान ) ही देते थे । अर्थात् ब्राह्मण के गुण और लक्षण इन में थे। ये सब उन जातियों के ब्राह्मण वर्ण के लोग  तो हुए।   
 
धर्मपालजी कहते हैं<ref>धर्मपाल, रमणीय वृक्ष </ref> कि सन 1800 के करीब भारत में 5 लाख से भी अधिक विद्यालय थे। इन विद्यालयों में शुल्क नहीं लिया जाता था। इन में अध्यापन करने वाले बहुत कम शिक्षक ब्राह्मण जातियों के थे। अन्य सभी जातियों के लोग शिक्षक का काम करते थे। किन्तु सभी नि:शुल्क शिक्षा ( ज्ञानदान ) ही देते थे । अर्थात् ब्राह्मण के गुण और लक्षण इन में थे। ये सब उन जातियों के ब्राह्मण वर्ण के लोग  तो हुए।   

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