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डॉ श्रीधर व्यंकटेश केतकर लिखते हैं<ref>धार्मिक समाजशास्त्र (वरदा प्रकाशन, सेनापति बापट मार्ग, पुणे 16) पृष्ठ 142</ref> - ब्राह्मणांचा सर्वत्र प्रचार होण्यापूर्वी समाजाला असे स्वरूप होते कि प्रत्येक जातीत चातुरर््वण्य होते म्हणजे शेतकरी, पुजारी, व्यापारी, आणि सेवक वर्ग होते'। अर्थात् ब्राह्मणों का सर्वत्र प्रचार होने से पूर्व प्रत्येक जाति में किसान, पुजारी, व्यापारी और सेवक ऐसे चार वर्ण थे।   
 
डॉ श्रीधर व्यंकटेश केतकर लिखते हैं<ref>धार्मिक समाजशास्त्र (वरदा प्रकाशन, सेनापति बापट मार्ग, पुणे 16) पृष्ठ 142</ref> - ब्राह्मणांचा सर्वत्र प्रचार होण्यापूर्वी समाजाला असे स्वरूप होते कि प्रत्येक जातीत चातुरर््वण्य होते म्हणजे शेतकरी, पुजारी, व्यापारी, आणि सेवक वर्ग होते'। अर्थात् ब्राह्मणों का सर्वत्र प्रचार होने से पूर्व प्रत्येक जाति में किसान, पुजारी, व्यापारी और सेवक ऐसे चार वर्ण थे।   
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ऐसा कहते हैं कि १९११ की जन-गणना तक भारत में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह जातियाँ ही नहीं थीं। जातियाँ तो थीं। लेकिन उन्हे वर्ण से जोडा हुआ नहीं था। हर जाति में चारों वर्णों के बच्चे पैदा होते थे और अपने जन्मगत स्वभाव (वर्ण) के अनुसार अपने परिवार के काम में सहायक बनते थे। इस जन-गणना में अंग्रेजों ने जतियों को वर्णों में बाँटा। कई जातियों ने उन का वर्गीकरण किस वर्ण में करना चाहिये इस के लिये जन-गणना अधिकारियों और अंग्रेज सरकार के साथ चर्चाएँ कीं तथा छुटपुट आंदोलन भी चलाये थे। तब से पूरी जाति ही किसी वर्ण की कहलाई जाने लग गयी थी। यह तो धार्मिक (धार्मिक) वर्ण की मान्यता से पूर्णत: भिन्न व्यवस्था थी। अप्राकृतिक थी। अस्वीकार्य थी। किंतु इस विषय को संवेदनशील बना देने के कारण इस विषय पर कोई बहस होती है तो जाति व्यवस्था को गालियाँ देने के लिये ही होती है। जाति व्यवस्था के तत्व को या मर्म को समझने के लिये नहीं होती। इस कारण से जातियों का चार वर्णों में बँट जाना यह बात पिछली ५ पीढियों में सर्वमान्य बन गयी है। वास्तव में तो वर्ण की वास्तविक कल्पना के अनुसार शूद्र जाति होती ही नहीं है। पशू हत्या से जुडे कर्मों के कारण या अन्य कुछ कारणों से हो, कुछ जातियाँ अछूत कहलाईं। कितु वे शूद्र जातियाँ नहीं थीं। हर जाति में सेवक का काम करने वाले लोग शूद्र वर्ण के ही माने जाते थे। इन शूद्रों में कुछ तो जन्म से ही शूद्र के गुण-कर्म लेकर आते हैं इस लिये शूद्र होते हैं तो दूसरे मनुस्मृति में कहे अनुसार अपने कर्मों से शूद्र बन जाते हैं तो तीसरे कुछ लोग परिस्थिति के कारण शूद्र (सेवक कर्म) करने के लिये बाध्य हो जाते हैं। हालाँकि समाज के त्रिवर्ण का कोई शूद्र (सेवक) कर्म करने को बाध्य हो जाये, यह नहीं तो उस व्यक्ति के और ना ही समाज के हित में होता है।   
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ऐसा कहते हैं कि १९११ की जन-गणना तक भारत में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह जातियाँ ही नहीं थीं। जातियाँ तो थीं। लेकिन उन्हे वर्ण से जोड़ा हुआ नहीं था। हर जाति में चारों वर्णों के बच्चे पैदा होते थे और अपने जन्मगत स्वभाव (वर्ण) के अनुसार अपने परिवार के काम में सहायक बनते थे। इस जन-गणना में अंग्रेजों ने जतियों को वर्णों में बाँटा। कई जातियों ने उन का वर्गीकरण किस वर्ण में करना चाहिये इस के लिये जन-गणना अधिकारियों और अंग्रेज सरकार के साथ चर्चाएँ कीं तथा छुटपुट आंदोलन भी चलाये थे। तब से पूरी जाति ही किसी वर्ण की कहलाई जाने लग गयी थी। यह तो धार्मिक (धार्मिक) वर्ण की मान्यता से पूर्णत: भिन्न व्यवस्था थी। अप्राकृतिक थी। अस्वीकार्य थी। किंतु इस विषय को संवेदनशील बना देने के कारण इस विषय पर कोई बहस होती है तो जाति व्यवस्था को गालियाँ देने के लिये ही होती है। जाति व्यवस्था के तत्व को या मर्म को समझने के लिये नहीं होती। इस कारण से जातियों का चार वर्णों में बँट जाना यह बात पिछली ५ पीढियों में सर्वमान्य बन गयी है। वास्तव में तो वर्ण की वास्तविक कल्पना के अनुसार शूद्र जाति होती ही नहीं है। पशू हत्या से जुडे कर्मों के कारण या अन्य कुछ कारणों से हो, कुछ जातियाँ अछूत कहलाईं। कितु वे शूद्र जातियाँ नहीं थीं। हर जाति में सेवक का काम करने वाले लोग शूद्र वर्ण के ही माने जाते थे। इन शूद्रों में कुछ तो जन्म से ही शूद्र के गुण-कर्म लेकर आते हैं इस लिये शूद्र होते हैं तो दूसरे मनुस्मृति में कहे अनुसार अपने कर्मों से शूद्र बन जाते हैं तो तीसरे कुछ लोग परिस्थिति के कारण शूद्र (सेवक कर्म) करने के लिये बाध्य हो जाते हैं। हालाँकि समाज के त्रिवर्ण का कोई शूद्र (सेवक) कर्म करने को बाध्य हो जाये, यह नहीं तो उस व्यक्ति के और ना ही समाज के हित में होता है।   
    
भारत के इतिहास में कई बार ब्राह्मण जाति का मनुष्य राजा बना। सम्राट यशोधर्मा, पुष्यमित्र आदि ब्राह्मण जाति के ही तो थे। शूद्र राजा भी कई हुए है। ये सब उन जातियों के क्षत्रिय वर्ण के लोग ही थे। क्षत्रिय राजा मनु द्वारा प्रस्तुत की गई 'मनुस्मृति’ हजारों वर्षों तक भारत में सबसे अधिक मान्यता प्राप्त स्मृति रही है। क्या मनु का ब्राह्मणत्व नकारा जा सकता है? इसी तरह क्या बाबासाहब अंबेडकर को ब्राह्मणत्व नकारा जा सकता है?   
 
भारत के इतिहास में कई बार ब्राह्मण जाति का मनुष्य राजा बना। सम्राट यशोधर्मा, पुष्यमित्र आदि ब्राह्मण जाति के ही तो थे। शूद्र राजा भी कई हुए है। ये सब उन जातियों के क्षत्रिय वर्ण के लोग ही थे। क्षत्रिय राजा मनु द्वारा प्रस्तुत की गई 'मनुस्मृति’ हजारों वर्षों तक भारत में सबसे अधिक मान्यता प्राप्त स्मृति रही है। क्या मनु का ब्राह्मणत्व नकारा जा सकता है? इसी तरह क्या बाबासाहब अंबेडकर को ब्राह्मणत्व नकारा जा सकता है?   

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