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# वस्तुनिष्ठता : जो प्रत्येक सामान्य मनुष्य द्वारा समान रूप से जाना जा सकता है वही वस्तुनिष्ठ है। १ साडी की लम्बाई और चौडाई तो सभी महिलाओं के लिये एक जितनी ही होगी। किन्तु उसका स्पर्श का अनुभव हर स्त्री को भिन्न होगा। १ किलो लड्डू का वजन कोई भी करे वह १ किलो ही होगा। किन्तु उस लड्डू का स्वाद हर मनुष्य के लिये भिन्न हो सकता है। इस लिये जिसका मापन किया जा सकता है वह साईंस के दायरे में आता है। लेकिन स्पर्श, स्वाद आदि जो हर व्यक्ति के अनुसार भिन्न भिन्न होंगे वे साईंस के विषय नहीं बन सकते।      
 
# वस्तुनिष्ठता : जो प्रत्येक सामान्य मनुष्य द्वारा समान रूप से जाना जा सकता है वही वस्तुनिष्ठ है। १ साडी की लम्बाई और चौडाई तो सभी महिलाओं के लिये एक जितनी ही होगी। किन्तु उसका स्पर्श का अनुभव हर स्त्री को भिन्न होगा। १ किलो लड्डू का वजन कोई भी करे वह १ किलो ही होगा। किन्तु उस लड्डू का स्वाद हर मनुष्य के लिये भिन्न हो सकता है। इस लिये जिसका मापन किया जा सकता है वह साईंस के दायरे में आता है। लेकिन स्पर्श, स्वाद आदि जो हर व्यक्ति के अनुसार भिन्न भिन्न होंगे वे साईंस के विषय नहीं बन सकते।      
 
# विखंडित विश्लेषण पध्दति : वैज्ञानिक दृष्टिकोण की विचारधारा को देकार्ते की यह सब से बडी देन है। उस ने पेंचिदा बातों को समझने के लिये सामान्य मनुष्य के लिये विखंडित विश्लेषण पध्दति के रूप में एक प्रणालि बताई। इस पध्दति के अनुसार पूर्ण वस्तू का ज्ञान उसके छोटे छोटे टुकडों के प्राप्त किये ज्ञान का जोड होगा।      
 
# विखंडित विश्लेषण पध्दति : वैज्ञानिक दृष्टिकोण की विचारधारा को देकार्ते की यह सब से बडी देन है। उस ने पेंचिदा बातों को समझने के लिये सामान्य मनुष्य के लिये विखंडित विश्लेषण पध्दति के रूप में एक प्रणालि बताई। इस पध्दति के अनुसार पूर्ण वस्तू का ज्ञान उसके छोटे छोटे टुकडों के प्राप्त किये ज्ञान का जोड होगा।      
# जडवाद : जड का अर्थ है अजीव। पूरी सृष्टि अजीव पदार्थों की बनीं है। साईंस के अनुसार सारी सृष्टि में चेतन कुछ भी नहीं है। स्वयंप्रेरणा, स्वत: कुछ करने की शक्ति सृष्टि में कहीं नहीं है। साईंस भावना, प्रेम, सहानुभूति आदि नहीं मानता। मिलर की परिकल्पना के अनुसार जिन्हे हम जीव् समझते है वे वास्तव में रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदे होते है।      
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# जड़वाद : जड़ का अर्थ है अजीव। पूरी सृष्टि अजीव पदार्थों की बनीं है। साईंस के अनुसार सारी सृष्टि में चेतन कुछ भी नहीं है। स्वयंप्रेरणा, स्वत: कुछ करने की शक्ति सृष्टि में कहीं नहीं है। साईंस भावना, प्रेम, सहानुभूति आदि नहीं मानता। मिलर की परिकल्पना के अनुसार जिन्हे हम जीव् समझते है वे वास्तव में रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदे होते है।      
 
# यांत्रिक दृष्टिकोण : टुकडों के ज्ञान को जोडकर संपूर्ण को जानना तब ही संभव होगा जब उस पूर्ण की बनावट यांत्रिक होगी। यंत्र में एक एक पुर्जा कृत्रिम रूप से एक दूसरे के साथ जोडा जाता है। उसे अलग अलग कर उसके कार्य को समझना सरल होता है। ऐसे प्रत्येक पुर्जेका कार्य समझ कर पूरे यंत्र के कार्य को समझा जा सकता है।      
 
# यांत्रिक दृष्टिकोण : टुकडों के ज्ञान को जोडकर संपूर्ण को जानना तब ही संभव होगा जब उस पूर्ण की बनावट यांत्रिक होगी। यंत्र में एक एक पुर्जा कृत्रिम रूप से एक दूसरे के साथ जोडा जाता है। उसे अलग अलग कर उसके कार्य को समझना सरल होता है। ऐसे प्रत्येक पुर्जेका कार्य समझ कर पूरे यंत्र के कार्य को समझा जा सकता है।      
इस विचार में जड को समझने की, यंत्रों को समझने की सटीकता तो है। किन्तु चेतन को नकारने के कारण चेतन के क्षेत्र में इस का उपयोग मर्यादित रह जाता है। चेतन और जड़ मिलकर जीव बनाता है। जीव का निर्माण जड पंचमहाभूत और आत्म तत्व इन के योग से होता है। परिवर्तन तो जड में ही होता है। लेकिन वह चेतन  की उपस्थिति के बिना नहीं हो सकता। इस लिये जीव का जितना भौतिक हिस्सा है उस हिस्से के लिये साईंस को प्रमाण मानना उचित ही है। इस भौतिक हिस्से के मापन की भी मर्यादा है। जड भौतिक शरीर के साथ जब आत्म शक्ति जुड जाति है तब वह केवल जड की भौतिक शक्ति नहीं रह जाती। और प्रत्येक जीव यह जड और चेतन का योग ही होता है। इस लिये चेतन के मन, बुद्धि, अहंकार आदि विषयों में फिझिकल साईंस की कसौटियों को प्रमाण नहीं माना जा सकता। अनिश्चितता का प्रमेय (थियरी ऑफ अनसर्टेंटी), क्वॉटम मेकॅनिक्स, अंतराल भौतिकी (एस्ट्रो फिजीक्स), कण भौतिकी (पार्टिकल फिजीक्स) आदि प्रमेयों और साईंस की आधुनिक शाखाओं ने देकार्ते के प्रतिमान की मर्यादाएं स्पष्ट कर दीं है।      
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इस विचार में जड़ को समझने की, यंत्रों को समझने की सटीकता तो है। किन्तु चेतन को नकारने के कारण चेतन के क्षेत्र में इस का उपयोग मर्यादित रह जाता है। चेतन और जड़़ मिलकर जीव बनाता है। जीव का निर्माण जड़ पंचमहाभूत और आत्म तत्व इन के योग से होता है। परिवर्तन तो जड़ में ही होता है। लेकिन वह चेतन  की उपस्थिति के बिना नहीं हो सकता। इस लिये जीव का जितना भौतिक हिस्सा है उस हिस्से के लिये साईंस को प्रमाण मानना उचित ही है। इस भौतिक हिस्से के मापन की भी मर्यादा है। जड़ भौतिक शरीर के साथ जब आत्म शक्ति जुड जाति है तब वह केवल जड़ की भौतिक शक्ति नहीं रह जाती। और प्रत्येक जीव यह जड़ और चेतन का योग ही होता है। इस लिये चेतन के मन, बुद्धि, अहंकार आदि विषयों में फिझिकल साईंस की कसौटियों को प्रमाण नहीं माना जा सकता। अनिश्चितता का प्रमेय (थियरी ऑफ अनसर्टेंटी), क्वॉटम मेकॅनिक्स, अंतराल भौतिकी (एस्ट्रो फिजीक्स), कण भौतिकी (पार्टिकल फिजीक्स) आदि प्रमेयों और साईंस की आधुनिक शाखाओं ने देकार्ते के प्रतिमान की मर्यादाएं स्पष्ट कर दीं है।      
    
अपने अधिकार कोई छोडना नहीं चाहता। यह बात स्वाभाविक है। इसी के कारण आज का साईंटिस्ट प्रमाण के क्षेत्र में अपना महत्व खोना नहीं चाहता।      
 
अपने अधिकार कोई छोडना नहीं चाहता। यह बात स्वाभाविक है। इसी के कारण आज का साईंटिस्ट प्रमाण के क्षेत्र में अपना महत्व खोना नहीं चाहता।      
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# मानव जीवन का लक्ष्य यदि परमात्मपद प्राप्ति है तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान  के विकास और उपयोग का लक्ष्य भी परमात्मपद प्राप्ति ही रहेगा। अन्य नहीं। और मोक्षप्राप्ति का या परमात्मपदप्राप्ति का मार्ग तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ ही है। कुछ लोग कहेंगे कि मोक्ष मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है। मानव जीवन का लक्ष्य सुख है। फिर भी व्यक्ति समाज का और सृष्टि का अविभाज्य ऐसा हिस्सा होने से जब तक सुख समाजव्याप्त और सृष्टिव्याप्त नहीं होता व्यक्ति भी सुख से नहीं जी सकता। विज्ञान और तन्त्रज्ञान का उपयोग ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के लिये करने से ही व्यक्तिगत सुख की आश्वस्ति मिल सकेगी।      
 
# मानव जीवन का लक्ष्य यदि परमात्मपद प्राप्ति है तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान  के विकास और उपयोग का लक्ष्य भी परमात्मपद प्राप्ति ही रहेगा। अन्य नहीं। और मोक्षप्राप्ति का या परमात्मपदप्राप्ति का मार्ग तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ ही है। कुछ लोग कहेंगे कि मोक्ष मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है। मानव जीवन का लक्ष्य सुख है। फिर भी व्यक्ति समाज का और सृष्टि का अविभाज्य ऐसा हिस्सा होने से जब तक सुख समाजव्याप्त और सृष्टिव्याप्त नहीं होता व्यक्ति भी सुख से नहीं जी सकता। विज्ञान और तन्त्रज्ञान का उपयोग ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के लिये करने से ही व्यक्तिगत सुख की आश्वस्ति मिल सकेगी।      
 
# ‘प्रकृति के नियम’ ही विज्ञान है। विज्ञान के व्यवहार में उपयोग को ही तन्त्रज्ञान  कहते हैं। विज्ञान वैश्विक होता है। तन्त्रज्ञान  नहीं। तन्त्रज्ञान स्थानिक प्राकृतिक संसाधनों के आधारपर चयन करने या विकास करने की बात है।      
 
# ‘प्रकृति के नियम’ ही विज्ञान है। विज्ञान के व्यवहार में उपयोग को ही तन्त्रज्ञान  कहते हैं। विज्ञान वैश्विक होता है। तन्त्रज्ञान  नहीं। तन्त्रज्ञान स्थानिक प्राकृतिक संसाधनों के आधारपर चयन करने या विकास करने की बात है।      
# विज्ञान या तन्त्रज्ञान यह अपने आप में न तो उपकारी होते है और ना ही विनाशकारी। इनका उपयोग करनेवाले मनुष्य की सुर या असुर प्रवृत्ति उसे उपकारक या विनाशकारी बनाती है। इसलिये सृष्टि के अस्तित्वों याने जीव और जड जगत के लिये हानिकारक कोई तन्त्रज्ञान असुर स्वभाव के मनुष्य को मिलना दुनिया के लिये घातक होता है।      
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# विज्ञान या तन्त्रज्ञान यह अपने आप में न तो उपकारी होते है और ना ही विनाशकारी। इनका उपयोग करनेवाले मनुष्य की सुर या असुर प्रवृत्ति उसे उपकारक या विनाशकारी बनाती है। इसलिये सृष्टि के अस्तित्वों याने जीव और जड़ जगत के लिये हानिकारक कोई तन्त्रज्ञान असुर स्वभाव के मनुष्य को मिलना दुनिया के लिये घातक होता है।      
 
# प्रकृति चक्रीयता से चलती है। इसलिये वर्तमान की एक(सीधी)रेखीय विकास की अवधारणा प्रकृति विरोधी है। सीधी रेखा में जितना कम हो उतना वह अधिक प्रकृति सुसंगत होगा। सामान्यत: सृष्टि में सीधी रेखा में कोई रचना नहीं होती।      
 
# प्रकृति चक्रीयता से चलती है। इसलिये वर्तमान की एक(सीधी)रेखीय विकास की अवधारणा प्रकृति विरोधी है। सीधी रेखा में जितना कम हो उतना वह अधिक प्रकृति सुसंगत होगा। सामान्यत: सृष्टि में सीधी रेखा में कोई रचना नहीं होती।      
 
# मोक्षप्राप्ति या सुख दोनों ही मन के विषय हैं। सुख की प्राप्ति या मोक्ष ये मन की अवस्थापर निर्भर होते हैं। तन्त्रज्ञान या सुविधाओंपर नहीं।      
 
# मोक्षप्राप्ति या सुख दोनों ही मन के विषय हैं। सुख की प्राप्ति या मोक्ष ये मन की अवस्थापर निर्भर होते हैं। तन्त्रज्ञान या सुविधाओंपर नहीं।      
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== जीवन की इष्ट गति ==
 
== जीवन की इष्ट गति ==
तन्त्रज्ञान का एक और महत्वपूर्ण पहलू है। वह है सामाजिक जीवन की गति को प्रभावित करना। वर्तमान में तन्त्रज्ञान ने समाज जीवन की गति को बहुत तेज कर दिया है। समाज में तन्त्रज्ञान की अच्छी समझ रखनेवालों का बहुत छोटा वर्ग समाज को तन्त्रज्ञान के विकास की गति के साथ घसीट रहा नजर आ रहा है। वर्तमान में व्यक्तिवादी, इहवादी और जडवादी और पैनी मतिवाले लोग याने यूरो-अमरीकी लोग मनुष्य के जीवन की गति का निर्धारण कर रहे है। अतः इसमें पैनी मति के लोग बौध्दिक (सबसे श्रेष्ठ) सुख पा रहे हैं। सामान्य मनुष्य जी जान से प्रयास कर रहा है कि वह इस गति के साथ चल सके। इस प्रयास में सामान्य मनुष्य उसका सुख-चैन खोता जा रहा है। आत्मीयता को माननेवाले लोग भी कम बुद्धिमान नहीं हैं। लेकिन उनकी धर्म की समझ और धर्म में निष्ठा कम हुई समझ में आती है। अतः वे न तो व्यक्तिश: हानिकारक तन्त्रज्ञान के विरोध में डटकर खड़े होते हैं और न ही विरोध को संगठित करते हैं।   
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तन्त्रज्ञान का एक और महत्वपूर्ण पहलू है। वह है सामाजिक जीवन की गति को प्रभावित करना। वर्तमान में तन्त्रज्ञान ने समाज जीवन की गति को बहुत तेज कर दिया है। समाज में तन्त्रज्ञान की अच्छी समझ रखनेवालों का बहुत छोटा वर्ग समाज को तन्त्रज्ञान के विकास की गति के साथ घसीट रहा नजर आ रहा है। वर्तमान में व्यक्तिवादी, इहवादी और जड़वादी और पैनी मतिवाले लोग याने यूरो-अमरीकी लोग मनुष्य के जीवन की गति का निर्धारण कर रहे है। अतः इसमें पैनी मति के लोग बौध्दिक (सबसे श्रेष्ठ) सुख पा रहे हैं। सामान्य मनुष्य जी जान से प्रयास कर रहा है कि वह इस गति के साथ चल सके। इस प्रयास में सामान्य मनुष्य उसका सुख-चैन खोता जा रहा है। आत्मीयता को माननेवाले लोग भी कम बुद्धिमान नहीं हैं। लेकिन उनकी धर्म की समझ और धर्म में निष्ठा कम हुई समझ में आती है। अतः वे न तो व्यक्तिश: हानिकारक तन्त्रज्ञान के विरोध में डटकर खड़े होते हैं और न ही विरोध को संगठित करते हैं।   
    
=== मति और जीवन की गति का संबंध ===
 
=== मति और जीवन की गति का संबंध ===
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अधार्मिक जीवनदृष्टि, जीवनशैली तथा व्यवस्थाएँ मिलकर जीवन का प्रतिमान बनता है। वैसे तो तन्त्रज्ञान का विकास भी जीवन के प्रतिमान के अंतर्गत आनेवाला विषय है। लेकिन वर्तमान में तन्त्रज्ञान को जो महत्व प्राप्त हुआ है उस के कारण जीवनदृष्टि के सूत्रों के साथ तन्त्रज्ञान के विषय का स्वतंत्र विचार भी आवश्यक हो गया है। वर्तमान में स्थापित जीवनदृष्टि के निम्न सूत्र, जीवनशैली याने प्रत्यक्ष व्यवहार के सूत्र और ऐसा व्यवहार हो सके अतः बनाई गई व्यवस्थाएँ आदि भी जीवन की गति बढाते हैं।  
 
अधार्मिक जीवनदृष्टि, जीवनशैली तथा व्यवस्थाएँ मिलकर जीवन का प्रतिमान बनता है। वैसे तो तन्त्रज्ञान का विकास भी जीवन के प्रतिमान के अंतर्गत आनेवाला विषय है। लेकिन वर्तमान में तन्त्रज्ञान को जो महत्व प्राप्त हुआ है उस के कारण जीवनदृष्टि के सूत्रों के साथ तन्त्रज्ञान के विषय का स्वतंत्र विचार भी आवश्यक हो गया है। वर्तमान में स्थापित जीवनदृष्टि के निम्न सूत्र, जीवनशैली याने प्रत्यक्ष व्यवहार के सूत्र और ऐसा व्यवहार हो सके अतः बनाई गई व्यवस्थाएँ आदि भी जीवन की गति बढाते हैं।  
 
# व्यक्तिवादिता या स्वार्थ आधारित संबंध : स्वार्थ आधारित सामाजिक संबंधों के कारण प्रत्येक सामाजिक संबंध में अधिकारों के लिए संघर्ष और इस कारण बलवानों का वर्चस्व, अमर्याद व्यक्तिगत स्वातंत्र्य के कारण स्वैराचार, अपने से दुर्बल ऐसे प्रत्येक का शोषण, बलवानों के स्वार्थ का पोषण करनेवाली व्यवस्थाएँ आदि बातें समाज में स्थापित हो जातीं हैं। जब बलवानों का स्वार्थ समाज जीवन के परस्पर संबंधों का आधार होगा तो जीवन की गति का निर्धारण भी जिन की बुद्धि बलवान होती है याने की बुद्धि की गति तेज है ऐसे स्वार्थी लोग ही करते हैं।  
 
# व्यक्तिवादिता या स्वार्थ आधारित संबंध : स्वार्थ आधारित सामाजिक संबंधों के कारण प्रत्येक सामाजिक संबंध में अधिकारों के लिए संघर्ष और इस कारण बलवानों का वर्चस्व, अमर्याद व्यक्तिगत स्वातंत्र्य के कारण स्वैराचार, अपने से दुर्बल ऐसे प्रत्येक का शोषण, बलवानों के स्वार्थ का पोषण करनेवाली व्यवस्थाएँ आदि बातें समाज में स्थापित हो जातीं हैं। जब बलवानों का स्वार्थ समाज जीवन के परस्पर संबंधों का आधार होगा तो जीवन की गति का निर्धारण भी जिन की बुद्धि बलवान होती है याने की बुद्धि की गति तेज है ऐसे स्वार्थी लोग ही करते हैं।  
# ईहवादिता और जडवदिता : जो भी कुछ है बस यही जीवन है। इस जन्म के आगे कुछ नहीं होगा और इस जन्म से पहले भी कुछ नहीं था ऐसी मान्यता को इहवादिता कहते हैं। इस के कारण जितना भी अधिक से अधिक उपभोग मैं इस जन्म में कर सकता हूँ कर लूँ ऐसी महत्वाकांक्षा निर्माण हो जाती है। उपभोक्तावाद को बढावा मिलता है। प्रकृति का अनावश्यक विनाश होता है। इस अधिक से अधिक उपभोग करने की होड के कारण जीवन को अनावश्यक तेज गति प्राप्त हो जाती है। सारी सृष्टि जड से बनीं है ऐसा मान लेने से जीवन की गति का विचार ही नष्ट हो जाता है। वर्तमान विज्ञान के अनुसार जड पदार्थों की अधिकतम गति प्रकाश की गति होती है। अतः इस प्रकाश की गति के अधिक से अधिक निकट की गति प्राप्त करने के प्रयास वर्तमान में हो रहे हैं। जड की गति की सहायता से जीवन की गति बढाने को ही विकास माना जा रहा है। इस कारण भी जीवन की गति इष्ट गति से बहुत अधिक हो गई है।  
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# ईहवादिता और जड़वदिता : जो भी कुछ है बस यही जीवन है। इस जन्म के आगे कुछ नहीं होगा और इस जन्म से पहले भी कुछ नहीं था ऐसी मान्यता को इहवादिता कहते हैं। इस के कारण जितना भी अधिक से अधिक उपभोग मैं इस जन्म में कर सकता हूँ कर लूँ ऐसी महत्वाकांक्षा निर्माण हो जाती है। उपभोक्तावाद को बढावा मिलता है। प्रकृति का अनावश्यक विनाश होता है। इस अधिक से अधिक उपभोग करने की होड के कारण जीवन को अनावश्यक तेज गति प्राप्त हो जाती है। सारी सृष्टि जड़ से बनीं है ऐसा मान लेने से जीवन की गति का विचार ही नष्ट हो जाता है। वर्तमान विज्ञान के अनुसार जड़ पदार्थों की अधिकतम गति प्रकाश की गति होती है। अतः इस प्रकाश की गति के अधिक से अधिक निकट की गति प्राप्त करने के प्रयास वर्तमान में हो रहे हैं। जड़ की गति की सहायता से जीवन की गति बढाने को ही विकास माना जा रहा है। इस कारण भी जीवन की गति इष्ट गति से बहुत अधिक हो गई है।  
 
# तन्त्रज्ञान  : वैसे तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान दोनों ही तटस्थ होते हैं। अपने आप में वे हानिकारक या लाभकारक नहीं होते। उनके विकास और उपयोजन के पीछे काम करनेवाली जीवनदृष्टि ही उन्हें उपकारक या हानिकारक बनाती है। यूरो-अमरीकी याने अधार्मिक (अधार्मिक) जीवनदृष्टिवाले लोगोंं के हाथ में नेतृत्व होने से तन्त्रज्ञान  उपकारक कम और संहारक अधिक हो गया है। २०० वर्ष पहले भी अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों की जीवनदृष्टि तो वही थी जो आज है। लेकिन उस समय उनके पास तन्त्रज्ञान  का साधन नहीं था। अतः वे जीवन को अधिक गति दे नहीं पाए थे। लेकिन जब से तन्त्रज्ञान  का शस्त्र उनके हाथ में लगा है, तन्त्रज्ञान  के विकास और उपयोजन के कारण जीवन की गति इष्ट गति से अत्यंत अधिक हो गई है।  
 
# तन्त्रज्ञान  : वैसे तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान दोनों ही तटस्थ होते हैं। अपने आप में वे हानिकारक या लाभकारक नहीं होते। उनके विकास और उपयोजन के पीछे काम करनेवाली जीवनदृष्टि ही उन्हें उपकारक या हानिकारक बनाती है। यूरो-अमरीकी याने अधार्मिक (अधार्मिक) जीवनदृष्टिवाले लोगोंं के हाथ में नेतृत्व होने से तन्त्रज्ञान  उपकारक कम और संहारक अधिक हो गया है। २०० वर्ष पहले भी अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों की जीवनदृष्टि तो वही थी जो आज है। लेकिन उस समय उनके पास तन्त्रज्ञान  का साधन नहीं था। अतः वे जीवन को अधिक गति दे नहीं पाए थे। लेकिन जब से तन्त्रज्ञान  का शस्त्र उनके हाथ में लगा है, तन्त्रज्ञान  के विकास और उपयोजन के कारण जीवन की गति इष्ट गति से अत्यंत अधिक हो गई है।  
  

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