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| इंग्लैण्ड में ग्यारहवीं सदी के मध्य में नॉर्मन जनजाति के विजय के बाद उमरावशाही प्रस्थापित हुई। अन्य देशों में इसके प्रस्थापित होने के अनेक कारण हैं। कार्ल मार्क्स, फ्रेड्रिक एंजल्स आदि के मतानुसार तन्त्रज्ञान में होने वाला बड़ा परिवर्तन भी उनमें से एक कारण है। धर्मपालजी बताते हैं<ref>धर्मपाल जी , भारत का पुनर्बोध (पृष्ठ २५८)</ref> - युद्धों के कारण विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान को गति प्राप्त होती है, वह यूरोप के अंतिम कुछ शताब्दियों के अनुभवों का ही परिणाम है। इसी पृष्ठ पर आगे और कहा है – अर्थात् आधुनिक विज्ञान गुलामी की प्रथा, उमरावशाही, विश्वविजय एवं अत्याचार तथा अधिपत्य की ही उपज है। | | इंग्लैण्ड में ग्यारहवीं सदी के मध्य में नॉर्मन जनजाति के विजय के बाद उमरावशाही प्रस्थापित हुई। अन्य देशों में इसके प्रस्थापित होने के अनेक कारण हैं। कार्ल मार्क्स, फ्रेड्रिक एंजल्स आदि के मतानुसार तन्त्रज्ञान में होने वाला बड़ा परिवर्तन भी उनमें से एक कारण है। धर्मपालजी बताते हैं<ref>धर्मपाल जी , भारत का पुनर्बोध (पृष्ठ २५८)</ref> - युद्धों के कारण विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान को गति प्राप्त होती है, वह यूरोप के अंतिम कुछ शताब्दियों के अनुभवों का ही परिणाम है। इसी पृष्ठ पर आगे और कहा है – अर्थात् आधुनिक विज्ञान गुलामी की प्रथा, उमरावशाही, विश्वविजय एवं अत्याचार तथा अधिपत्य की ही उपज है। |
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− | वर्तमान साईंस का विकास यूरोपीय देशों में अभी २००-२५० वर्ष में ही हुआ है। इस विकास में धार्मिक कट्टरता एवं रूढ़िवादिता के कारण कई साईंटिस्टों को कष्ट सहन करने पडे। ब्रूनो जैसे वैज्ञानिकों को जान से हाथ धोना पडा। गॅलिलियो जैसे साईंटिस्ट को मृत्यू के डर से क्षमा माँगनी पडी तथा कारागृह में सड़ना पडा। फिर भी यूरोप के साईंटिस्टों ने हार नहीं मानी। साईंस के क्षेत्र में अद्वितीय पराक्रम कर दिखाया। तन्त्रज्ञान के क्षेत्र में भी मुश्किल से २५० वर्षों में जो प्रगति हुई है वह स्तंभित करने वाली है। | + | वर्तमान साईंस का विकास यूरोपीय देशों में अभी २००-२५० वर्ष में ही हुआ है। इस विकास में धार्मिक कट्टरता एवं रूढ़िवादिता के कारण कई साईंटिस्टों को कष्ट सहन करने पड़े। ब्रूनो जैसे वैज्ञानिकों को जान से हाथ धोना पडा। गॅलिलियो जैसे साईंटिस्ट को मृत्यू के डर से क्षमा माँगनी पडी तथा कारागृह में सड़ना पडा। फिर भी यूरोप के साईंटिस्टों ने हार नहीं मानी। साईंस के क्षेत्र में अद्वितीय पराक्रम कर दिखाया। तन्त्रज्ञान के क्षेत्र में भी मुश्किल से २५० वर्षों में जो प्रगति हुई है वह स्तंभित करने वाली है। |
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| == वर्तमान साईंस और तन्त्रज्ञान दृष्टि == | | == वर्तमान साईंस और तन्त्रज्ञान दृष्टि == |
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| # बडे उद्योग इसे सहजता से नहीं लेंगे। इसलिये एक ओर तो समाज में कौटुम्बिक उद्योगों के संबंध में जागरूकता निर्माण करना और साथ में बडे उद्योगों को दी जानेवाली सुविधाएँ कम करते जाना और दूसरी ओर बडे उद्योग कौटुम्बिक उद्योगों को हानी न पहुँचा पाए इसकी आश्वस्ति जागरूक और सक्षम कानून और सुरक्षा व्यवस्था के माध्यम से करना। | | # बडे उद्योग इसे सहजता से नहीं लेंगे। इसलिये एक ओर तो समाज में कौटुम्बिक उद्योगों के संबंध में जागरूकता निर्माण करना और साथ में बडे उद्योगों को दी जानेवाली सुविधाएँ कम करते जाना और दूसरी ओर बडे उद्योग कौटुम्बिक उद्योगों को हानी न पहुँचा पाए इसकी आश्वस्ति जागरूक और सक्षम कानून और सुरक्षा व्यवस्था के माध्यम से करना। |
| # पुराने और नये तंत्रज्ञानों के सार्वत्रिकीकरण के लिये नियामक व्यवस्था निर्माण करना। जो वर्तमान तन्त्रज्ञान इन नियमों के विपरीत समझ में आएँ उन्हें न्यूनतम हानी हो इस ढँग से कालबध्द तरीके से बंद करना। नियामक व्यवस्था के दो स्तर होंगे। पहले स्तरपर तन्त्रज्ञान को ‘पर्यावरण सुरक्षा’ की कसौटिपर परखा जाएगा। इस में अनुत्तीर्ण तन्त्रज्ञान को सार्वत्रिकीकरण की अनुमति नहीं मिलेगी। पर्यावरण सुरक्षा की कसौटी में उत्तीर्ण हुए तन्त्रज्ञान को दूसरे स्तरपर ‘सामाजिकता की सुरक्षा’ की कसौटी लगाई जाएगी। जो तन्त्रज्ञान सामाजिकता को हानि पहुँचानेवाले होंगे वे अनुत्तीर्ण होंगे। उन के सार्वत्रिकीकरण की अनुमति नहीं मिलेगी। जो तन्त्रज्ञान दोनों ही कसौटियो में उत्तीर्ण होंगे उन्हीं के सार्वत्रिकीकरण की अनुमति दी जाएगी। मनुष्य और समाज मनुष्य समाज का एक घटक होता है। किसी एक मनुष्य के नहीं होने से समाज जीवन में सामान्यत: कुछ कमी नहीं आती। किंतु समाज नहीं होने से मनुष्य तो पशु जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य हो जाएगा। इसलिये मनुष्य और समाज का संबंध अंगांगी संबंध होता है। मनुष्य अंग होता है और समाज अंगी होता है। अंग का धर्म होता है अंगी के धर्म के अविरोधी रहना। अर्थात् मनुष्य ऐसा कुछ नहीं करे जो सामाजिक हित का विरोधी हो। सामाजिक सुख का विरोधी हो। इस दृष्टि से सामाजिकता का तकाजा है कि कोई भी मनुष्य, समाज जीवन की इष्ट गति के विरोध में व्यवहार नहीं करे। किसी की मति अन्यों की तुलना में बहुत पैनी हो सकती है। लेकिन वह इस पैनी मति का याने मति की तेज गति का उपयोग जिससे समाज की इष्ट गति में बडी मात्रा में वृद्धि होती हो इस तरह से नहीं करे। हमने ऊपर देखा है कि सुख ही इष्ट गति का नियामक तत्व है। देशिक शास्त्र के अनुसार सुख प्राप्ति के लिए मनुष्य को चार बातें आवश्यक होतीं हैं। सुसाध्य आजीविका, शांति, स्वतन्त्रता और पुरूषार्थ। इन चार घटकों के आधारपर हम अब इष्ट गति के लिए समाज जीवन के लिए आवश्यक मानव की दिनचर्या का मोटा मोटा विचार करेंगे। | | # पुराने और नये तंत्रज्ञानों के सार्वत्रिकीकरण के लिये नियामक व्यवस्था निर्माण करना। जो वर्तमान तन्त्रज्ञान इन नियमों के विपरीत समझ में आएँ उन्हें न्यूनतम हानी हो इस ढँग से कालबध्द तरीके से बंद करना। नियामक व्यवस्था के दो स्तर होंगे। पहले स्तरपर तन्त्रज्ञान को ‘पर्यावरण सुरक्षा’ की कसौटिपर परखा जाएगा। इस में अनुत्तीर्ण तन्त्रज्ञान को सार्वत्रिकीकरण की अनुमति नहीं मिलेगी। पर्यावरण सुरक्षा की कसौटी में उत्तीर्ण हुए तन्त्रज्ञान को दूसरे स्तरपर ‘सामाजिकता की सुरक्षा’ की कसौटी लगाई जाएगी। जो तन्त्रज्ञान सामाजिकता को हानि पहुँचानेवाले होंगे वे अनुत्तीर्ण होंगे। उन के सार्वत्रिकीकरण की अनुमति नहीं मिलेगी। जो तन्त्रज्ञान दोनों ही कसौटियो में उत्तीर्ण होंगे उन्हीं के सार्वत्रिकीकरण की अनुमति दी जाएगी। मनुष्य और समाज मनुष्य समाज का एक घटक होता है। किसी एक मनुष्य के नहीं होने से समाज जीवन में सामान्यत: कुछ कमी नहीं आती। किंतु समाज नहीं होने से मनुष्य तो पशु जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य हो जाएगा। इसलिये मनुष्य और समाज का संबंध अंगांगी संबंध होता है। मनुष्य अंग होता है और समाज अंगी होता है। अंग का धर्म होता है अंगी के धर्म के अविरोधी रहना। अर्थात् मनुष्य ऐसा कुछ नहीं करे जो सामाजिक हित का विरोधी हो। सामाजिक सुख का विरोधी हो। इस दृष्टि से सामाजिकता का तकाजा है कि कोई भी मनुष्य, समाज जीवन की इष्ट गति के विरोध में व्यवहार नहीं करे। किसी की मति अन्यों की तुलना में बहुत पैनी हो सकती है। लेकिन वह इस पैनी मति का याने मति की तेज गति का उपयोग जिससे समाज की इष्ट गति में बडी मात्रा में वृद्धि होती हो इस तरह से नहीं करे। हमने ऊपर देखा है कि सुख ही इष्ट गति का नियामक तत्व है। देशिक शास्त्र के अनुसार सुख प्राप्ति के लिए मनुष्य को चार बातें आवश्यक होतीं हैं। सुसाध्य आजीविका, शांति, स्वतन्त्रता और पुरूषार्थ। इन चार घटकों के आधारपर हम अब इष्ट गति के लिए समाज जीवन के लिए आवश्यक मानव की दिनचर्या का मोटा मोटा विचार करेंगे। |
− | ## सुसाध्य आजीविका:जीने के लिए आवश्यक पदाथों की प्राप्ति सहज हो। इन पदाथों की प्राप्ति के लिए किए गये परिश्रम से मनुष्य का स्वास्थ्य नहीं बिगडे। साथ ही में दिन में ८ घंटे से अधिक उसे आजीविका के लिए व्यय नहीं करना पडे। | + | ## सुसाध्य आजीविका:जीने के लिए आवश्यक पदाथों की प्राप्ति सहज हो। इन पदाथों की प्राप्ति के लिए किए गये परिश्रम से मनुष्य का स्वास्थ्य नहीं बिगडे। साथ ही में दिन में ८ घंटे से अधिक उसे आजीविका के लिए व्यय नहीं करना पड़े। |
| ## शांति : शांति से तात्पर्य मनुष्य को जो विश्राम की आवश्यकता होती है उससे है। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किए गए प्रयासों के कारण थकान आना स्वाभाविक होता है। कुछ भी नहीं करने के उपरांत भी कुछ समय के बाद थकान तो आती ही है। इस थकान को मिटाने के लिए भी उसे विश्राम की, आराम की आवश्यकता तो होती ही है। दिन में ८ घंटे मनुष्य को यदि चिंतामुक्त आराम/विश्राम /नींद के लिए समय मिलता है तो हम कह सकते हैं कि मनुष्य के जीवन में शांति है। | | ## शांति : शांति से तात्पर्य मनुष्य को जो विश्राम की आवश्यकता होती है उससे है। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किए गए प्रयासों के कारण थकान आना स्वाभाविक होता है। कुछ भी नहीं करने के उपरांत भी कुछ समय के बाद थकान तो आती ही है। इस थकान को मिटाने के लिए भी उसे विश्राम की, आराम की आवश्यकता तो होती ही है। दिन में ८ घंटे मनुष्य को यदि चिंतामुक्त आराम/विश्राम /नींद के लिए समय मिलता है तो हम कह सकते हैं कि मनुष्य के जीवन में शांति है। |
| ## स्वतन्त्रता : आजीविका का संबंध समाज से होता है। इस लिए आजीविका के अर्जन में मनुष्य पूर्णत: स्वतंत्र नहीं होता। मनुष्य की स्वतन्त्रता से यहाँ तात्पर्य है जिन बातों में मनुष्य रुचि रखता है उन बातों के लिए किसी के भी अवरोध या विरोध के बिना वह कुछ समय व्यतीत कर सके। सामान्यत: दिन में यह समय ४ घंटे का होता है तो यह उचित होगा। | | ## स्वतन्त्रता : आजीविका का संबंध समाज से होता है। इस लिए आजीविका के अर्जन में मनुष्य पूर्णत: स्वतंत्र नहीं होता। मनुष्य की स्वतन्त्रता से यहाँ तात्पर्य है जिन बातों में मनुष्य रुचि रखता है उन बातों के लिए किसी के भी अवरोध या विरोध के बिना वह कुछ समय व्यतीत कर सके। सामान्यत: दिन में यह समय ४ घंटे का होता है तो यह उचित होगा। |