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# सृष्टि में केवल मनुष्य को प्रकृति को बिगाडने की, प्रकृति सुसंगत फिर भी अधिक श्रेष्ठ जीने की और सृष्टि के बिगडे सन्तुलन को ठीक करने की याने मन, बुद्धि और स्मृति की शक्तियाँ मिली हैं। इसी कारण प्रकृति का सन्तुलन  बनाए रखने की जिम्मेदारी भी मनुष्य की ही बनती है।      
 
# सृष्टि में केवल मनुष्य को प्रकृति को बिगाडने की, प्रकृति सुसंगत फिर भी अधिक श्रेष्ठ जीने की और सृष्टि के बिगडे सन्तुलन को ठीक करने की याने मन, बुद्धि और स्मृति की शक्तियाँ मिली हैं। इसी कारण प्रकृति का सन्तुलन  बनाए रखने की जिम्मेदारी भी मनुष्य की ही बनती है।      
 
# आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राणिक आवेग मनुष्यों और पशुओं में दोनों में एक जैसे ही होते हैं। मनुष्य की आवश्यकताओं का निर्धारण प्राणिक आवेग करते हैं। लेकिन मनुष्य का मन इच्छाएँ भी करता हैं। प्राणिक आवेगों की तृप्ति की सीमा होती है। लेकिन इच्छाओं की और इस कारण से तृप्ति की कोई सीमा नहीं होती। लेकिन प्रकृति के संसाधन मर्यादित होते हैं। इस विसंगति को दूर करने का एकमात्र उपाय ‘उपभोग संयम’ ही है। उपभोग संयम की शिक्षा के अभाव में हर नया तन्त्रज्ञान प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग बढाकर पर्यावरणीय समस्याओं में वृद्धि करता है।      
 
# आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राणिक आवेग मनुष्यों और पशुओं में दोनों में एक जैसे ही होते हैं। मनुष्य की आवश्यकताओं का निर्धारण प्राणिक आवेग करते हैं। लेकिन मनुष्य का मन इच्छाएँ भी करता हैं। प्राणिक आवेगों की तृप्ति की सीमा होती है। लेकिन इच्छाओं की और इस कारण से तृप्ति की कोई सीमा नहीं होती। लेकिन प्रकृति के संसाधन मर्यादित होते हैं। इस विसंगति को दूर करने का एकमात्र उपाय ‘उपभोग संयम’ ही है। उपभोग संयम की शिक्षा के अभाव में हर नया तन्त्रज्ञान प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग बढाकर पर्यावरणीय समस्याओं में वृद्धि करता है।      
# किसी भी समाज में ९०-९५ प्रतिशत लोग सामान्य प्रतिभा के होते हैं। केवल ५ -१० प्रतिशत लोग ही विशेष प्रतिभा के धनी होते हैं। इन्हें श्रीमद्भगवद्गीता में ‘श्रेष्ठ’ कहा गया है। शेष ९०-९५ प्रतिशत सामान्य लोग इन श्रेष्ठ जनों का अनुसरण करते हैं। सामान्य लोगों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कोई लेना देना नहीं होता। वे तो सामान्य ज्ञान के आधारपर अपने हित या अहित का विचार करते हैं। जब उन्हें ऐसा समझने में कठिनाई होती है वे श्रेष्ठ मनुष्यों की ओर मार्गदर्शन के लिये देखते हैं। इसीलिये वैज्ञानिक दृष्टि इन ५ -१० प्रतिशत श्रेष्ठ जनों के लिये आवश्यक होती है। ऐसे लोगों की वैज्ञानिक दृष्टि की गलत समझ ही तन्त्रज्ञान  के दुरूपयोग से उपजी समस्याओं के मूल में है।      
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# किसी भी समाज में ९०-९५ प्रतिशत लोग सामान्य प्रतिभा के होते हैं। केवल ५ -१० प्रतिशत लोग ही विशेष प्रतिभा के धनी होते हैं। इन्हें श्रीमद्भगवद्गीता में ‘श्रेष्ठ’ कहा गया है। शेष ९०-९५ प्रतिशत सामान्य लोग इन श्रेष्ठ जनों का अनुसरण करते हैं। सामान्य लोगोंं को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कोई लेना देना नहीं होता। वे तो सामान्य ज्ञान के आधारपर अपने हित या अहित का विचार करते हैं। जब उन्हें ऐसा समझने में कठिनाई होती है वे श्रेष्ठ मनुष्यों की ओर मार्गदर्शन के लिये देखते हैं। इसीलिये वैज्ञानिक दृष्टि इन ५ -१० प्रतिशत श्रेष्ठ जनों के लिये आवश्यक होती है। ऐसे लोगोंं की वैज्ञानिक दृष्टि की गलत समझ ही तन्त्रज्ञान  के दुरूपयोग से उपजी समस्याओं के मूल में है।      
 
# वर्तमान में उच्च तन्त्रज्ञान की व्याख्या क्या है? उच्च तन्त्रज्ञान वह है जो पुराने तंत्रज्ञान द्वारा निर्माण हुई किसी समस्या को तो दूर करता है और साथ ही में और नई समस्याएँ निर्माण कर और अधिक महंगे तन्त्रज्ञान की आवश्यकता निर्माण करता है। धार्मिक (भारतीय) दृष्टि से ऐसे उच्च तन्त्रज्ञान का विकास जो समस्याओं का निर्माण करता है या ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ का विरोधी है, अमान्य है। जैसे एलोपॅथी की प्रतिजैविक दवाईयाँ पुराने रोगों के जन्तुओं को और साथ ही में मनुष्य के लिये स्वास्थ्योपयोगी जन्तुओं को भी मारकर रोग के जन्तुओं की नई प्रजातियों के निर्माण की संभावनाएँ बढाते हैं। यह ठीक नहीं है।      
 
# वर्तमान में उच्च तन्त्रज्ञान की व्याख्या क्या है? उच्च तन्त्रज्ञान वह है जो पुराने तंत्रज्ञान द्वारा निर्माण हुई किसी समस्या को तो दूर करता है और साथ ही में और नई समस्याएँ निर्माण कर और अधिक महंगे तन्त्रज्ञान की आवश्यकता निर्माण करता है। धार्मिक (भारतीय) दृष्टि से ऐसे उच्च तन्त्रज्ञान का विकास जो समस्याओं का निर्माण करता है या ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ का विरोधी है, अमान्य है। जैसे एलोपॅथी की प्रतिजैविक दवाईयाँ पुराने रोगों के जन्तुओं को और साथ ही में मनुष्य के लिये स्वास्थ्योपयोगी जन्तुओं को भी मारकर रोग के जन्तुओं की नई प्रजातियों के निर्माण की संभावनाएँ बढाते हैं। यह ठीक नहीं है।      
 
# बडी मात्रा में उत्पादन के तंत्रज्ञानों ने भी कई प्रकारकी समस्याओं को जन्म दिया है। जैसे:      
 
# बडी मात्रा में उत्पादन के तंत्रज्ञानों ने भी कई प्रकारकी समस्याओं को जन्म दिया है। जैसे:      
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## हर मनुष्य की पसंद अन्यों से कुछ भिन्न होती है। भिन्नता यह प्रकृति का स्वभाव ही है। एक पेड़ पर अरबों पत्ते होते हैं। लेकिन एक भी पत्ता सही सही दूसरे पत्ते जैसा नहीं होता। लेकिन तन्त्रज्ञान से उत्पादित विशाल मात्राओं के कारण इस विविधता का नष्ट होते जाना।      
 
## हर मनुष्य की पसंद अन्यों से कुछ भिन्न होती है। भिन्नता यह प्रकृति का स्वभाव ही है। एक पेड़ पर अरबों पत्ते होते हैं। लेकिन एक भी पत्ता सही सही दूसरे पत्ते जैसा नहीं होता। लेकिन तन्त्रज्ञान से उत्पादित विशाल मात्राओं के कारण इस विविधता का नष्ट होते जाना।      
 
## मनुष्य की मूलभूत क्षमताओं में वृद्धि या विकास के स्थान पर ह्रास हो रहा है। यंत्रावलंबन बढ रहा है। कौशल नष्ट हो गए हैं या कमजोर हो गए हैं।      
 
## मनुष्य की मूलभूत क्षमताओं में वृद्धि या विकास के स्थान पर ह्रास हो रहा है। यंत्रावलंबन बढ रहा है। कौशल नष्ट हो गए हैं या कमजोर हो गए हैं।      
## पहले स्वचालित यंत्रों से विशाल मात्रा में उत्पादन करना और बाद में उसे अनैतिक, आक्रामक विज्ञापनबाजी की सहायतासे लोगों को लेने के लिये उकसाने के कारण अनावश्यक उपभोग बढता जाता है।  इससे एक ओर तो आदतें बिगडतीं हैं तो दूसरी ओर प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग होता है। और तीसरा याने महंगाई भी बढती है।      
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## पहले स्वचालित यंत्रों से विशाल मात्रा में उत्पादन करना और बाद में उसे अनैतिक, आक्रामक विज्ञापनबाजी की सहायतासे लोगोंं को लेने के लिये उकसाने के कारण अनावश्यक उपभोग बढता जाता है।  इससे एक ओर तो आदतें बिगडतीं हैं तो दूसरी ओर प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग होता है। और तीसरा याने महंगाई भी बढती है।      
 
# सामाजिकता को हानि पहुँचानेवाला तन्त्रज्ञान अमान्य है। परस्पर मिलने से, साथ में समय बिताने से, एक दूसरे के सुख दु:ख में सहभागी होने से सामाजिकता में वृद्धि होती है। इनकी संभावनाएँ कम करनेवाले तन्त्रज्ञान अस्वीकार्य हैं। जीवन को अनावश्यक गति देनेवाले, समाज को पगढीला बनाकर संस्कृति को नष्ट करनेवाले तंत्रज्ञानों का सार्वत्रिकीकरण वर्ज्य है।      
 
# सामाजिकता को हानि पहुँचानेवाला तन्त्रज्ञान अमान्य है। परस्पर मिलने से, साथ में समय बिताने से, एक दूसरे के सुख दु:ख में सहभागी होने से सामाजिकता में वृद्धि होती है। इनकी संभावनाएँ कम करनेवाले तन्त्रज्ञान अस्वीकार्य हैं। जीवन को अनावश्यक गति देनेवाले, समाज को पगढीला बनाकर संस्कृति को नष्ट करनेवाले तंत्रज्ञानों का सार्वत्रिकीकरण वर्ज्य है।      
 
# जैविक तंत्रज्ञान अनैतिक है। जैविक तन्त्रज्ञान सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। सूक्ष्म का अर्थ है अधिक बलवान। अधिक व्यापक। इन का चार या दस पीढियों के बाद की पीढियों पर क्या परिणाम होगा यह समझना इनका विकास करनेवालों के लिये संभव ही नहीं है। फिर भी कुछ प्रयोगों के आधार पर प्रतिजैविकों को मनुष्य के लिये योग्य होने की घोषणा अनैतिक ही है। एक ही पीढी में तेजी से परिवर्तन करनेवाले जैविक तन्त्रज्ञान प्रकृति में जो सहज ऐसा परस्परावलंबन है उस की किसी कडी को हानी पहुँचाते हैं। लाखों की संख्या में जो जीवजातियाँ हैं उन के इस परस्परावलंबन को पूरी तरह से समझना असंभव है। फिर भी इस का झूठा दावा कर जैविक परिवर्तन करने के तन्त्रज्ञान वर्तमान में बाजार व्याप रहे हैं। ऐसे तन्त्रज्ञान सर्वथा अमान्य हैं।      
 
# जैविक तंत्रज्ञान अनैतिक है। जैविक तन्त्रज्ञान सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। सूक्ष्म का अर्थ है अधिक बलवान। अधिक व्यापक। इन का चार या दस पीढियों के बाद की पीढियों पर क्या परिणाम होगा यह समझना इनका विकास करनेवालों के लिये संभव ही नहीं है। फिर भी कुछ प्रयोगों के आधार पर प्रतिजैविकों को मनुष्य के लिये योग्य होने की घोषणा अनैतिक ही है। एक ही पीढी में तेजी से परिवर्तन करनेवाले जैविक तन्त्रज्ञान प्रकृति में जो सहज ऐसा परस्परावलंबन है उस की किसी कडी को हानी पहुँचाते हैं। लाखों की संख्या में जो जीवजातियाँ हैं उन के इस परस्परावलंबन को पूरी तरह से समझना असंभव है। फिर भी इस का झूठा दावा कर जैविक परिवर्तन करने के तन्त्रज्ञान वर्तमान में बाजार व्याप रहे हैं। ऐसे तन्त्रज्ञान सर्वथा अमान्य हैं।      
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=== जीवन की गति बढने के दुष्परिणाम ===
 
=== जीवन की गति बढने के दुष्परिणाम ===
 
जीवन की गति अनावश्यक स्तर तक तेज हो जाने से समाज को निम्न परिणाम भोगने पडते हैं।
 
जीवन की गति अनावश्यक स्तर तक तेज हो जाने से समाज को निम्न परिणाम भोगने पडते हैं।
१.  जिनकी बुद्धि तेज चलती है ऐसे कुछ लोगों के पीछे बडी संख्या में सामान्य मनुष्य घसीटा जाता है। बुद्धि के तेज चलने से तात्पर्य ठीक चलने से नहीं है। तेज चलना और ठीक चलना दो भिन्न बातें होतीं हैं।
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१.  जिनकी बुद्धि तेज चलती है ऐसे कुछ लोगोंं के पीछे बडी संख्या में सामान्य मनुष्य घसीटा जाता है। बुद्धि के तेज चलने से तात्पर्य ठीक चलने से नहीं है। तेज चलना और ठीक चलना दो भिन्न बातें होतीं हैं।
 
२.  संस्कृति नष्ट हो जाती है। संस्कृति विकास के लिये समाज जीवन में ठहराव आवश्यक होता है। ठहराव से तात्पर्य गतिशून्यता से नहीं है। सामाजिक जीवन का पूरा प्रतिमान बिगड जाता है। जीवनशैली और व्यवस्थाएँ बिगड जातीं हैं।
 
२.  संस्कृति नष्ट हो जाती है। संस्कृति विकास के लिये समाज जीवन में ठहराव आवश्यक होता है। ठहराव से तात्पर्य गतिशून्यता से नहीं है। सामाजिक जीवन का पूरा प्रतिमान बिगड जाता है। जीवनशैली और व्यवस्थाएँ बिगड जातीं हैं।
३.  जीवन एक दौड की स्पर्धा का रूप ले लेता है। हर संभव तरीके से आगे जाने का प्रयास हर कोई करने लगता है। आगे जाने की होड लग जाती है। कम बुद्धिवाले लोग होड में पिछड जाते हैं। इस के कारण ईर्षा, द्वेष आदि व्यापक हो जाते हैं। पैनी बुद्धिवाले लोग कम बुद्धिवाले लोगों का उपयोग अपने लिये करने लगते हैं। स्पर्धा में असफल हुए पिछडे लोगोंद्वारा बुद्धि का दुरूपयोग होने लग जाता है।   
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३.  जीवन एक दौड की स्पर्धा का रूप ले लेता है। हर संभव तरीके से आगे जाने का प्रयास हर कोई करने लगता है। आगे जाने की होड लग जाती है। कम बुद्धिवाले लोग होड में पिछड जाते हैं। इस के कारण ईर्षा, द्वेष आदि व्यापक हो जाते हैं। पैनी बुद्धिवाले लोग कम बुद्धिवाले लोगोंं का उपयोग अपने लिये करने लगते हैं। स्पर्धा में असफल हुए पिछडे लोगोंंद्वारा बुद्धि का दुरूपयोग होने लग जाता है।   
    
=== जीवन को गति देनेवाले घटक ===
 
=== जीवन को गति देनेवाले घटक ===
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# व्यक्तिवादिता या स्वार्थ आधारित संबंध : स्वार्थ आधारित सामाजिक संबंधों के कारण प्रत्येक सामाजिक संबंध में अधिकारों के लिए संघर्ष और इस कारण बलवानों का वर्चस्व, अमर्याद व्यक्तिगत स्वातंत्र्य के कारण स्वैराचार, अपने से दुर्बल ऐसे प्रत्येक का शोषण, बलवानों के स्वार्थ का पोषण करनेवाली व्यवस्थाएँ आदि बातें समाज में स्थापित हो जातीं हैं। जब बलवानों का स्वार्थ समाज जीवन के परस्पर संबंधों का आधार होगा तो जीवन की गति का निर्धारण भी जिन की बुद्धि बलवान होती है याने की बुद्धि की गति तेज है ऐसे स्वार्थी लोग ही करते हैं।  
 
# व्यक्तिवादिता या स्वार्थ आधारित संबंध : स्वार्थ आधारित सामाजिक संबंधों के कारण प्रत्येक सामाजिक संबंध में अधिकारों के लिए संघर्ष और इस कारण बलवानों का वर्चस्व, अमर्याद व्यक्तिगत स्वातंत्र्य के कारण स्वैराचार, अपने से दुर्बल ऐसे प्रत्येक का शोषण, बलवानों के स्वार्थ का पोषण करनेवाली व्यवस्थाएँ आदि बातें समाज में स्थापित हो जातीं हैं। जब बलवानों का स्वार्थ समाज जीवन के परस्पर संबंधों का आधार होगा तो जीवन की गति का निर्धारण भी जिन की बुद्धि बलवान होती है याने की बुद्धि की गति तेज है ऐसे स्वार्थी लोग ही करते हैं।  
 
# ईहवादिता और जडवदिता : जो भी कुछ है बस यही जीवन है। इस जन्म के आगे कुछ नहीं होगा और इस जन्म से पहले भी कुछ नहीं था ऐसी मान्यता को इहवादिता कहते हैं। इस के कारण जितना भी अधिक से अधिक उपभोग मैं इस जन्म में कर सकता हूँ कर लूँ ऐसी महत्वाकांक्षा निर्माण हो जाती है। उपभोक्तावाद को बढावा मिलता है। प्रकृति का अनावश्यक विनाश होता है। इस अधिक से अधिक उपभोग करने की होड के कारण जीवन को अनावश्यक तेज गति प्राप्त हो जाती है। सारी सृष्टि जड से बनीं है ऐसा मान लेने से जीवन की गति का विचार ही नष्ट हो जाता है। वर्तमान विज्ञान के अनुसार जड पदार्थों की अधिकतम गति प्रकाश की गति होती है। अतः इस प्रकाश की गति के अधिक से अधिक निकट की गति प्राप्त करने के प्रयास वर्तमान में हो रहे हैं। जड की गति की सहायता से जीवन की गति बढाने को ही विकास माना जा रहा है। इस कारण भी जीवन की गति इष्ट गति से बहुत अधिक हो गई है।  
 
# ईहवादिता और जडवदिता : जो भी कुछ है बस यही जीवन है। इस जन्म के आगे कुछ नहीं होगा और इस जन्म से पहले भी कुछ नहीं था ऐसी मान्यता को इहवादिता कहते हैं। इस के कारण जितना भी अधिक से अधिक उपभोग मैं इस जन्म में कर सकता हूँ कर लूँ ऐसी महत्वाकांक्षा निर्माण हो जाती है। उपभोक्तावाद को बढावा मिलता है। प्रकृति का अनावश्यक विनाश होता है। इस अधिक से अधिक उपभोग करने की होड के कारण जीवन को अनावश्यक तेज गति प्राप्त हो जाती है। सारी सृष्टि जड से बनीं है ऐसा मान लेने से जीवन की गति का विचार ही नष्ट हो जाता है। वर्तमान विज्ञान के अनुसार जड पदार्थों की अधिकतम गति प्रकाश की गति होती है। अतः इस प्रकाश की गति के अधिक से अधिक निकट की गति प्राप्त करने के प्रयास वर्तमान में हो रहे हैं। जड की गति की सहायता से जीवन की गति बढाने को ही विकास माना जा रहा है। इस कारण भी जीवन की गति इष्ट गति से बहुत अधिक हो गई है।  
# तन्त्रज्ञान  : वैसे तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान दोनों ही तटस्थ होते हैं। अपने आप में वे हानिकारक या लाभकारक नहीं होते। उनके विकास और उपयोजन के पीछे काम करनेवाली जीवनदृष्टि ही उन्हें उपकारक या हानिकारक बनाती है। यूरो-अमरीकी याने अधार्मिक (अधार्मिक) जीवनदृष्टिवाले लोगों के हाथ में नेतृत्व होने से तन्त्रज्ञान  उपकारक कम और संहारक अधिक हो गया है। २०० वर्ष पहले भी अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों की जीवनदृष्टि तो वही थी जो आज है। लेकिन उस समय उनके पास तन्त्रज्ञान  का साधन नहीं था। अतः वे जीवन को अधिक गति दे नहीं पाए थे। लेकिन जब से तन्त्रज्ञान  का शस्त्र उनके हाथ में लगा है, तन्त्रज्ञान  के विकास और उपयोजन के कारण जीवन की गति इष्ट गति से अत्यंत अधिक हो गई है।  
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# तन्त्रज्ञान  : वैसे तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान दोनों ही तटस्थ होते हैं। अपने आप में वे हानिकारक या लाभकारक नहीं होते। उनके विकास और उपयोजन के पीछे काम करनेवाली जीवनदृष्टि ही उन्हें उपकारक या हानिकारक बनाती है। यूरो-अमरीकी याने अधार्मिक (अधार्मिक) जीवनदृष्टिवाले लोगोंं के हाथ में नेतृत्व होने से तन्त्रज्ञान  उपकारक कम और संहारक अधिक हो गया है। २०० वर्ष पहले भी अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों की जीवनदृष्टि तो वही थी जो आज है। लेकिन उस समय उनके पास तन्त्रज्ञान  का साधन नहीं था। अतः वे जीवन को अधिक गति दे नहीं पाए थे। लेकिन जब से तन्त्रज्ञान  का शस्त्र उनके हाथ में लगा है, तन्त्रज्ञान  के विकास और उपयोजन के कारण जीवन की गति इष्ट गति से अत्यंत अधिक हो गई है।  
    
== भारतीय तन्त्रज्ञान नीति के महत्त्वपूर्ण सूत्र ==
 
== भारतीय तन्त्रज्ञान नीति के महत्त्वपूर्ण सूत्र ==
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## जिन तंत्रज्ञानों से किसी को लाभ तो होता है लेकिन हानी किसी की नहीं होती - स्वीकार्य हैं।  
 
## जिन तंत्रज्ञानों से किसी को लाभ तो होता है लेकिन हानी किसी की नहीं होती - स्वीकार्य हैं।  
 
## जिन तंत्रज्ञानों से चराचर सभी की हानी होती है - अस्वीकार्य हैं।  
 
## जिन तंत्रज्ञानों से चराचर सभी की हानी होती है - अस्वीकार्य हैं।  
## जिन के प्रयोग से कुछ लोगों का लाभ होता है और कुछ लोगों की हानी होती है - अस्वीकार्य हैं।  
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## जिन के प्रयोग से कुछ लोगोंं का लाभ होता है और कुछ लोगोंं की हानी होती है - अस्वीकार्य हैं।  
 
उपर्युत में से ३ रे और ४ थे प्रकार के तन्त्रज्ञान ही दुनियाँभर की तंत्रज्ञानों से निर्मित समस्याओं के मूल कारण हैं। वर्तमान में ऐसे तंत्रज्ञानों का ही बोलबाला है। इसलिये धीरेधीरे लेकिन कठोरतासे ऐसे तंत्रज्ञानों का उपयोग और विकास रोकना होगा।
 
उपर्युत में से ३ रे और ४ थे प्रकार के तन्त्रज्ञान ही दुनियाँभर की तंत्रज्ञानों से निर्मित समस्याओं के मूल कारण हैं। वर्तमान में ऐसे तंत्रज्ञानों का ही बोलबाला है। इसलिये धीरेधीरे लेकिन कठोरतासे ऐसे तंत्रज्ञानों का उपयोग और विकास रोकना होगा।
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वर्तमान की आओ जाओ घर तुम्हारा है जैसी यानी धर्मशाला जैसी मुक्त या दुष्टों के हाथों में भी संहारक तन्त्रज्ञान जाने से न रोकने वाली विकृत तन्त्रज्ञान नीति से सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये उपयुक्त तन्त्रज्ञान नीति तक समाज को ले जाना अत्यंत कठिन बात है। लेकिन करणीय तो यही है। इसलिये हर प्रकार के प्रयत्नों से  करना तो ऐसा ही होगा। कई प्रकार के बिंदू इसमें ध्यान में लेने की आवश्यकता है। इस दृष्टि से कुछ बिन्दू नीचे दे रहे हैं। अपनी मति और अनुभवों के आधारपर स्थल, काल और परिस्थिति का ध्यान रखकर इस परिवर्तन की प्रक्रिया को सुदृढ और तेज किया जा सकता है।
 
वर्तमान की आओ जाओ घर तुम्हारा है जैसी यानी धर्मशाला जैसी मुक्त या दुष्टों के हाथों में भी संहारक तन्त्रज्ञान जाने से न रोकने वाली विकृत तन्त्रज्ञान नीति से सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये उपयुक्त तन्त्रज्ञान नीति तक समाज को ले जाना अत्यंत कठिन बात है। लेकिन करणीय तो यही है। इसलिये हर प्रकार के प्रयत्नों से  करना तो ऐसा ही होगा। कई प्रकार के बिंदू इसमें ध्यान में लेने की आवश्यकता है। इस दृष्टि से कुछ बिन्दू नीचे दे रहे हैं। अपनी मति और अनुभवों के आधारपर स्थल, काल और परिस्थिति का ध्यान रखकर इस परिवर्तन की प्रक्रिया को सुदृढ और तेज किया जा सकता है।
 
# ‘कुटुम्ब और कौटुम्बिक उद्योग’ यह विषय शिक्षा के हर स्तरपर शक्ति के साथ समाविष्ट करना।
 
# ‘कुटुम्ब और कौटुम्बिक उद्योग’ यह विषय शिक्षा के हर स्तरपर शक्ति के साथ समाविष्ट करना।
# कौटुम्बिक उद्योगों की महत्ता, असुर वृत्ति के लोगों को कैसे पहचानना, असुर प्रवृत्तियों के हाथों में घातक तन्त्रज्ञान जाने से होनेवाले सामाजिक दुष्परिणामों के विषय में, सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये तंत्रज्ञानों के व्यावहारिक उपयोजन आदि के बारे में शिक्षा के माध्यम से बच्चों के मन को आकार देना। असुरों के हाथ में ऐसा कोई भी घातक तन्त्रज्ञान नहीं जाने देंगे इस बिंदूपर उन्हें संकल्पबध्द करना।
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# कौटुम्बिक उद्योगों की महत्ता, असुर वृत्ति के लोगोंं को कैसे पहचानना, असुर प्रवृत्तियों के हाथों में घातक तन्त्रज्ञान जाने से होनेवाले सामाजिक दुष्परिणामों के विषय में, सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये तंत्रज्ञानों के व्यावहारिक उपयोजन आदि के बारे में शिक्षा के माध्यम से बच्चों के मन को आकार देना। असुरों के हाथ में ऐसा कोई भी घातक तन्त्रज्ञान नहीं जाने देंगे इस बिंदूपर उन्हें संकल्पबध्द करना।
 
# पहल करना, प्रोत्साहन देना, प्रायोजित करना ऐसे भिन्न भिन्न मार्गों से ‘संयुक्त कुटुम्बों का सुसंस्कृत, समृध्द और शक्तिशाली समाज बनाने में योगदान’ के ऊपर शोध कार्य करवाना। ऐसा सभी ज्ञान, शिक्षा में और समाज में लाना।
 
# पहल करना, प्रोत्साहन देना, प्रायोजित करना ऐसे भिन्न भिन्न मार्गों से ‘संयुक्त कुटुम्बों का सुसंस्कृत, समृध्द और शक्तिशाली समाज बनाने में योगदान’ के ऊपर शोध कार्य करवाना। ऐसा सभी ज्ञान, शिक्षा में और समाज में लाना।
 
# वर्तमान में जो कौटुम्बिक उद्योग चल रहे हैं उन्हें हर तरह से बढावा देना।
 
# वर्तमान में जो कौटुम्बिक उद्योग चल रहे हैं उन्हें हर तरह से बढावा देना।

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