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पर स्टील के बडे पात्रों की या मिट्टी के घड़ों की व्यवस्था होनी चाहिये । शुद्ध पानी विषयक लोगों की गलत धारणाओं को बदलना चाहिये ।
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पर स्टील के बडे पात्रों की या मिट्टी के घड़ों की व्यवस्था होनी चाहिये । शुद्ध पानी विषयक लोगोंं की गलत धारणाओं को बदलना चाहिये ।
    
५. सभा और सम्मेलनो में, परिचर्चा के कार्यक्रमों में लोग मंच पर जूते पहनकर ही जाते हैं । वास्तव में जिस प्रकार मन्दिर में या घर में जूते पहनकर नहीं जाया जाता उस प्रकार मंच पर भी जूते पहनकर नहीं जाना चाहिये । कार्य और कार्यक्रम की शोभा और पवित्रता बनाये रखनी चाहिये ।
 
५. सभा और सम्मेलनो में, परिचर्चा के कार्यक्रमों में लोग मंच पर जूते पहनकर ही जाते हैं । वास्तव में जिस प्रकार मन्दिर में या घर में जूते पहनकर नहीं जाया जाता उस प्रकार मंच पर भी जूते पहनकर नहीं जाना चाहिये । कार्य और कार्यक्रम की शोभा और पवित्रता बनाये रखनी चाहिये ।
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१९. सार्वजनिक स्थानों पर स्थान स्थान पर विज्ञापन ही विज्ञापन दिखाई देते हैं। इससे वस्तुओं, रास्तों, बगीचों आदि का सौन्दर्य तो नष्ट होता ही है परन्तु हमारी दृश्येन्ट्रिय पर भी अत्याचार होता है। अर्थ हमारे पर इतना हावी हो गया है, बाजार इतना प्रभावी हो गया है कि अच्छी बातों को हम अच्छी नहीं रहने देते ।
 
१९. सार्वजनिक स्थानों पर स्थान स्थान पर विज्ञापन ही विज्ञापन दिखाई देते हैं। इससे वस्तुओं, रास्तों, बगीचों आदि का सौन्दर्य तो नष्ट होता ही है परन्तु हमारी दृश्येन्ट्रिय पर भी अत्याचार होता है। अर्थ हमारे पर इतना हावी हो गया है, बाजार इतना प्रभावी हो गया है कि अच्छी बातों को हम अच्छी नहीं रहने देते ।
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२०. सामाजिक शिष्टाचार के रक्षक पुलीस या कानून नहीं होते, परिवार के वृद्धजन, धर्माचार्य और शिक्षक होते हैं । इन लोगों ने घरों में, विद्यालयों में और कथाओं तथा सत्संगों में युवाओं और युवतियों को सार्वजनिक शिष्टाचार सिखाने की आवश्यकता है । रेल, बस, यातायात, सभा, मेले, उत्सव आदि में ऐसे शिष्टाचार की मात्रा कम होती रही है यह चिन्ता का विषय है ।
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२०. सामाजिक शिष्टाचार के रक्षक पुलीस या कानून नहीं होते, परिवार के वृद्धजन, धर्माचार्य और शिक्षक होते हैं । इन लोगोंं ने घरों में, विद्यालयों में और कथाओं तथा सत्संगों में युवाओं और युवतियों को सार्वजनिक शिष्टाचार सिखाने की आवश्यकता है । रेल, बस, यातायात, सभा, मेले, उत्सव आदि में ऐसे शिष्टाचार की मात्रा कम होती रही है यह चिन्ता का विषय है ।
    
२१. नगरों और महानगरों के सभी प्रमुख मार्गों पर, जहाँ यातायात भारी मात्रा में रहता है, साइकिल सवारों के लिये आरक्षित लेन होनी चाहिये जिससे उनकी सुरक्षा हो सके और निश्चित मन से साइकिल चला सर्के । दूसरी ओर साइकिल का उपयोग बढ़ाने का निवेदन सभी सार्वजनिक माध्यमों से होना चाहिये ।
 
२१. नगरों और महानगरों के सभी प्रमुख मार्गों पर, जहाँ यातायात भारी मात्रा में रहता है, साइकिल सवारों के लिये आरक्षित लेन होनी चाहिये जिससे उनकी सुरक्षा हो सके और निश्चित मन से साइकिल चला सर्के । दूसरी ओर साइकिल का उपयोग बढ़ाने का निवेदन सभी सार्वजनिक माध्यमों से होना चाहिये ।
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जनसामान्य ने. मान्य. नहीं करना चाहिये । जनसामान्य को यह अधिकार है क्योंकि वे जनप्रतिनिधि हैं । लोगों ने चुनकर उन्हें संसद में भेजा है |
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जनसामान्य ने. मान्य. नहीं करना चाहिये । जनसामान्य को यह अधिकार है क्योंकि वे जनप्रतिनिधि हैं । लोगोंं ने चुनकर उन्हें संसद में भेजा है |
    
२७. लोकशिक्षा के व्यवस्थित तन्त्र के अभाव में आज विज्ञापन, चुनावी घोषणायें और नारेबाजी, टीवी के धारावाहिक और विज्ञापन लोकशिक्षा के माध्यम बन गये हैं। उनका उद्देश्य लोकशिक्षा का नहीं है, मनोरंजन के द्वारा पैसा कमाने का है। परिणाम स्वरूप समाज दिशाहीन और अनाथ बन गया है । भटकने के सभी कारक प्रभावी हैं । इस स्थिति में लोकशिक्षा के तन्त्र को प्रभावी बनाने की आवश्यकता है ।
 
२७. लोकशिक्षा के व्यवस्थित तन्त्र के अभाव में आज विज्ञापन, चुनावी घोषणायें और नारेबाजी, टीवी के धारावाहिक और विज्ञापन लोकशिक्षा के माध्यम बन गये हैं। उनका उद्देश्य लोकशिक्षा का नहीं है, मनोरंजन के द्वारा पैसा कमाने का है। परिणाम स्वरूप समाज दिशाहीन और अनाथ बन गया है । भटकने के सभी कारक प्रभावी हैं । इस स्थिति में लोकशिक्षा के तन्त्र को प्रभावी बनाने की आवश्यकता है ।
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३०. इस स्थिति में पुनः शिक्षक को ही लोकशिक्षा का कार्य विद्यालयों के माध्यम से हाथ में लेना होगा । लोकशिक्षा का यह काम धर्माचार्यों को साथ लेकर हो सकता है ।
 
३०. इस स्थिति में पुनः शिक्षक को ही लोकशिक्षा का कार्य विद्यालयों के माध्यम से हाथ में लेना होगा । लोकशिक्षा का यह काम धर्माचार्यों को साथ लेकर हो सकता है ।
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३१. शिक्षा क्षेत्र तो आज स्वायत्त नहीं है। इसलिये शिक्षक को अपना सबकुछ छोड़कर इस काम में लगना पड़ेगा । परन्तु धर्माचार्य तो आज भी स्वतन्त्र हैं, आज भी लोगों के आदर के पात्र हैं, आज भी धनी और सत्ताधारी लोग उनके पास आकर उनके चरणों में झुकते हैं । वे तो जो चाहें कर सकते हैं और करवा सकते हैं । इस स्थिति में उनका दायित्व सबसे अधिक है ।
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३१. शिक्षा क्षेत्र तो आज स्वायत्त नहीं है। इसलिये शिक्षक को अपना सबकुछ छोड़कर इस काम में लगना पड़ेगा । परन्तु धर्माचार्य तो आज भी स्वतन्त्र हैं, आज भी लोगोंं के आदर के पात्र हैं, आज भी धनी और सत्ताधारी लोग उनके पास आकर उनके चरणों में झुकते हैं । वे तो जो चाहें कर सकते हैं और करवा सकते हैं । इस स्थिति में उनका दायित्व सबसे अधिक है ।
    
३२. धर्माचार्यों ने प्रजा की धर्मवृत्ति जाग्रत करनी चाहिये । दुनिया कानून से नहीं, धर्म से चलती है यह बताना चाहिये । सामाजिक जीवन में धर्म का अर्थ कर्तव्य होता है यह बताना चाहिये । हरेक व्यक्ति का समाज में अपनी अपनी भूमिका के अनुसार कर्तव्यधर्म होता है । उसका पालन करने से ही स्वयं की और समाज की रक्षा होती है यह आग्रहपूर्वक बताना चाहिये ।
 
३२. धर्माचार्यों ने प्रजा की धर्मवृत्ति जाग्रत करनी चाहिये । दुनिया कानून से नहीं, धर्म से चलती है यह बताना चाहिये । सामाजिक जीवन में धर्म का अर्थ कर्तव्य होता है यह बताना चाहिये । हरेक व्यक्ति का समाज में अपनी अपनी भूमिका के अनुसार कर्तव्यधर्म होता है । उसका पालन करने से ही स्वयं की और समाज की रक्षा होती है यह आग्रहपूर्वक बताना चाहिये ।
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३३. धर्म संज्ञा को आज राजनीति के लोगों ने विवाद का विषय बनाया है और प्रजा समस्त को श्रमजाल में फैँसा दिया है । धर्म की और प्रजा की इस विवाद और सम्भ्रम से रक्षा करना धर्माचार्यों का कार्य है ।
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३३. धर्म संज्ञा को आज राजनीति के लोगोंं ने विवाद का विषय बनाया है और प्रजा समस्त को श्रमजाल में फैँसा दिया है । धर्म की और प्रजा की इस विवाद और सम्भ्रम से रक्षा करना धर्माचार्यों का कार्य है ।
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३४. देश में असंख्य मन्दिर, मठ, यात्राधाम हैं । वे सब लोगों की श्रद्धा के केन्द्र हैं । लाखों यात्री इन स्थानों पर रोज रोज आते हैं । इन सभी धर्म केन्द्रों को आज ऐसी शिक्षा के केन्द्र बनने की आवश्यकता है ।
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३४. देश में असंख्य मन्दिर, मठ, यात्राधाम हैं । वे सब लोगोंं की श्रद्धा के केन्द्र हैं । लाखों यात्री इन स्थानों पर रोज रोज आते हैं । इन सभी धर्म केन्द्रों को आज ऐसी शिक्षा के केन्द्र बनने की आवश्यकता है ।
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३५. भारत की प्रजा तो आज भी धर्मप्राण है । परन्तु इस प्रजा के दैनन्दिनि जीवनव्यवहार पर जिन्होंने कब्जा कर लिया है ऐसे मुट्वीभर लोग धर्म के विरोधी हैं । धर्माचार्य धर्मप्राण प्रजा के आस्था के केन्द्र बने हुए हैं । परन्तु धर्मविरोधी मुडीभर लोगों की मैत्री कर रहे हैं । इसी कारण से संस्कृति दाँव पर लग गई है । यह बड़ा गम्भीर विषय है जिसका दायित्व वहन करने वाला कोई नहीं है ।
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३५. भारत की प्रजा तो आज भी धर्मप्राण है । परन्तु इस प्रजा के दैनन्दिनि जीवनव्यवहार पर जिन्होंने कब्जा कर लिया है ऐसे मुट्वीभर लोग धर्म के विरोधी हैं । धर्माचार्य धर्मप्राण प्रजा के आस्था के केन्द्र बने हुए हैं । परन्तु धर्मविरोधी मुडीभर लोगोंं की मैत्री कर रहे हैं । इसी कारण से संस्कृति दाँव पर लग गई है । यह बड़ा गम्भीर विषय है जिसका दायित्व वहन करने वाला कोई नहीं है ।
    
३६. समाज में आज परस्पर विश्वास का अभाव दिखाई देता है कोई किसी की बात जल्दी से मान नहीं लेता है। कोई सदूभावना से कुछ कर सकता है ऐसा किसी को लगता नहीं है । यह ठीक नहीं है । दुनिया विश्वास पर चलती है केवल कानून से नहीं । अतः परस्पर विश्वास बढाने की आवश्यकता है । अनेक प्रकार के आयोजनों में हम आपका विश्वास करते हैं,” ऐसा भाव जगाने वाले छोटे छोटे उपाय सार्वजनिक कार्यक्रमों में किये जा सकते हैं । छोटी छोटी बातों में प्रमाण नहीं माँगना, लिखित सूचनाओं का आग्रह नहीं करना, लिखित में उत्तर नहीं माँगना, 'आपका क्या भरोसा' यह नहीं करना, बार बार
 
३६. समाज में आज परस्पर विश्वास का अभाव दिखाई देता है कोई किसी की बात जल्दी से मान नहीं लेता है। कोई सदूभावना से कुछ कर सकता है ऐसा किसी को लगता नहीं है । यह ठीक नहीं है । दुनिया विश्वास पर चलती है केवल कानून से नहीं । अतः परस्पर विश्वास बढाने की आवश्यकता है । अनेक प्रकार के आयोजनों में हम आपका विश्वास करते हैं,” ऐसा भाव जगाने वाले छोटे छोटे उपाय सार्वजनिक कार्यक्रमों में किये जा सकते हैं । छोटी छोटी बातों में प्रमाण नहीं माँगना, लिखित सूचनाओं का आग्रह नहीं करना, लिखित में उत्तर नहीं माँगना, 'आपका क्या भरोसा' यह नहीं करना, बार बार
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३७. इसी प्रकार विश्वसनीय होना भी अत्यन्त आवश्यक है । झूठे वायदे नहीं करना, बोली हुई बात को भूल नहीं जाना, किसी ने सहायता माँगी तो मना नहीं करना, बोली गई बात से मुकर नहीं जाना, विश्वासघात नहीं करना आदि अनेक छोटी छोटी बातें हैं जो विश्वास को बनाये रखती हैं । जिस समाज में परस्पर विश्वास की मात्रा अधिक होती है वहाँ तनाव कम होते हैं ।
 
३७. इसी प्रकार विश्वसनीय होना भी अत्यन्त आवश्यक है । झूठे वायदे नहीं करना, बोली हुई बात को भूल नहीं जाना, किसी ने सहायता माँगी तो मना नहीं करना, बोली गई बात से मुकर नहीं जाना, विश्वासघात नहीं करना आदि अनेक छोटी छोटी बातें हैं जो विश्वास को बनाये रखती हैं । जिस समाज में परस्पर विश्वास की मात्रा अधिक होती है वहाँ तनाव कम होते हैं ।
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३८. विघालयो, कार्यलयों, सभागृहों, सरकारी अस्पतालों , सडकों, बगीचों जैसे सार्वजनिक स्थानों की स्वच्छता और सुरक्षा का कोई दायित्व लोगों का नहीं है ऐसा ही आज चित्र है । Teeth ae हमारा अधिकार है और स्वच्छता करना और बनाये रखना सरकार का कर्तव्य है' ऐसा लोकमानस बन गया है । यह मानस तीर्थस्तानों पर भी दिखाई देता है । संस्थायें भी अपनी ही जिम्मेदारी समझकर स्वच्छता बनाये रखने की व्यवस्था तो करती है परन्तु कभी स्वच्छता बनाये रखवाने में या करवाने में यशस्वी होती हैं या नहीं भी होती हैं। इस विषय में संस्थाओं के स्तर पर प्रबोधन, प्रशिक्षण और प्रत्यक्ष कृति की अत्यन्त आवश्यकता है । काम करने के स्थान की स्वच्छता का अग्रह स्वभाव बन जाने तक प्रबोधन होना आवश्यक है ।
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३८. विघालयो, कार्यलयों, सभागृहों, सरकारी अस्पतालों , सडकों, बगीचों जैसे सार्वजनिक स्थानों की स्वच्छता और सुरक्षा का कोई दायित्व लोगोंं का नहीं है ऐसा ही आज चित्र है । Teeth ae हमारा अधिकार है और स्वच्छता करना और बनाये रखना सरकार का कर्तव्य है' ऐसा लोकमानस बन गया है । यह मानस तीर्थस्तानों पर भी दिखाई देता है । संस्थायें भी अपनी ही जिम्मेदारी समझकर स्वच्छता बनाये रखने की व्यवस्था तो करती है परन्तु कभी स्वच्छता बनाये रखवाने में या करवाने में यशस्वी होती हैं या नहीं भी होती हैं। इस विषय में संस्थाओं के स्तर पर प्रबोधन, प्रशिक्षण और प्रत्यक्ष कृति की अत्यन्त आवश्यकता है । काम करने के स्थान की स्वच्छता का अग्रह स्वभाव बन जाने तक प्रबोधन होना आवश्यक है ।
    
३९, जिसका पैसा हमें खर्च नहीं करना पडा है ऐसी सामग्री का अपव्यय करने में जरा भी विचार नहीं करना भी स्वाभाविक बन गया है । किसी भी सामग्री का अपव्यय नहीं करना नैतिकता है । हमारे सभी शास्त्र यह सिखाते हैं । परन्तु यह आदत छूटती नहीं है । अब तो हम पैसे खर्च करके लाये हैं ऐसी सामग्री का भी अपव्यय होता है । यह व्यक्तिगत स्वभाव से आगे अब संस्थागत स्वभाव बन गया है । एक पेन की आवश्यकता है परन्तु दो लाना, पाँच छायाप्रतियों की आवश्यकता है परन्तु आठ करवाना आदि असंख्य बातों में अपव्यय दिखाई देता है । प्रजा की समृद्धि का इससे हास होता है । संस्थाओं की कार्यपद्धति में बदल करने की आवश्यकता है और विद्यालयों में और घरों में इसे सिखाने की आवश्यकता है ।
 
३९, जिसका पैसा हमें खर्च नहीं करना पडा है ऐसी सामग्री का अपव्यय करने में जरा भी विचार नहीं करना भी स्वाभाविक बन गया है । किसी भी सामग्री का अपव्यय नहीं करना नैतिकता है । हमारे सभी शास्त्र यह सिखाते हैं । परन्तु यह आदत छूटती नहीं है । अब तो हम पैसे खर्च करके लाये हैं ऐसी सामग्री का भी अपव्यय होता है । यह व्यक्तिगत स्वभाव से आगे अब संस्थागत स्वभाव बन गया है । एक पेन की आवश्यकता है परन्तु दो लाना, पाँच छायाप्रतियों की आवश्यकता है परन्तु आठ करवाना आदि असंख्य बातों में अपव्यय दिखाई देता है । प्रजा की समृद्धि का इससे हास होता है । संस्थाओं की कार्यपद्धति में बदल करने की आवश्यकता है और विद्यालयों में और घरों में इसे सिखाने की आवश्यकता है ।
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५३. वही कार्यालय अच्छा है जो कम से कम जगह में अधिक से अधिक व्यवस्थायें बनाता है, दिन में अधिकतम समय कार्यरत रहता है, कम से कम बिजली का व्यय करता है । वह कार्यालय अच्छा है जहाँ कर्मचारी कम से कम समय में अधिक से अधिक काम करते हैं अच्छे से अच्छा काम करते हैं और खुश रहते हैं । कार्यालयों में ऐसा मानस निर्माण करने हेतु संस्कारों की शिक्षा देना अधिक उपयोगी है, *कार्यसंस्कृति' (वर्क कल्चर) की नहीं ।
 
५३. वही कार्यालय अच्छा है जो कम से कम जगह में अधिक से अधिक व्यवस्थायें बनाता है, दिन में अधिकतम समय कार्यरत रहता है, कम से कम बिजली का व्यय करता है । वह कार्यालय अच्छा है जहाँ कर्मचारी कम से कम समय में अधिक से अधिक काम करते हैं अच्छे से अच्छा काम करते हैं और खुश रहते हैं । कार्यालयों में ऐसा मानस निर्माण करने हेतु संस्कारों की शिक्षा देना अधिक उपयोगी है, *कार्यसंस्कृति' (वर्क कल्चर) की नहीं ।
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५४. भारतीय नव वर्ष और इसाई नव वर्ष अलग अलग होते हैं । शिक्षित लोगों में, फिल्‍मी दुनिया के लोगों में, कोर्पोरेट सेंक्टर में, क्रिकेट के खिलाडियों में और विशेष रूप से युवाओं में इसाई नववर्ष मनाने का प्रचलन बढ रहा है । घरों में तो भारतीय नव वर्ष मनाया जाता है । इसाई नव वर्ष मनाने हेतु घर से बाहर ही जाना होता है । उसमें नाचगान और मदिरा की ही महिमा होती है । भारतीय नव वर्ष हर प्रान्त में अलग अलग दिन पर पडता है, परन्तु हमें मालूम ही नहीं है कि भारतीय नव वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को आरम्भ होता है, भारतीय संवत्‌ शकसंवत्‌ है । इसे भारत की संसद ने एकमत से पारित कर स्वीकार
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५४. भारतीय नव वर्ष और इसाई नव वर्ष अलग अलग होते हैं । शिक्षित लोगोंं में, फिल्‍मी दुनिया के लोगोंं में, कोर्पोरेट सेंक्टर में, क्रिकेट के खिलाडियों में और विशेष रूप से युवाओं में इसाई नववर्ष मनाने का प्रचलन बढ रहा है । घरों में तो भारतीय नव वर्ष मनाया जाता है । इसाई नव वर्ष मनाने हेतु घर से बाहर ही जाना होता है । उसमें नाचगान और मदिरा की ही महिमा होती है । भारतीय नव वर्ष हर प्रान्त में अलग अलग दिन पर पडता है, परन्तु हमें मालूम ही नहीं है कि भारतीय नव वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को आरम्भ होता है, भारतीय संवत्‌ शकसंवत्‌ है । इसे भारत की संसद ने एकमत से पारित कर स्वीकार
    
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आइआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों के विद्यार्थियों का विदेशगमन आदि शिक्षाक्षेत्र के सामाजिक अपराध हैं। जो प्राथमिक विद्यालय निःशुल्क शिक्षा देता है, जो सौ रूपये शुल्क लेता है और जो दसहजार लेता है उनके कक्षा एकके पाठ्यक्रम क्या अलग होते हैं ? क्या अलग पद्धति a ued जाते हैं ? क्या महँगी सामग्री का प्रयोग करने से अधिक अच्छा पढ़ा जाता है ? शिक्षा और पैसे का इतना बेहूदा सम्बन्ध जोड़ना समाज को कभी भी मान्य नहीं होना चाहिये | ज्ञानप्राप्ति के लिये गरीब और अमीर में कोई अन्तर ही नहीं होना चाहिये । दोनों को साथ बैठकर पढ़ना चाहिये । विद्यालयों ने दोनों को समान मानना चाहिये । दोनों को समान रूप से. संस्कारवान,. साफसुथरे, आचारवान, बुद्धिमान और सदूगुणी बनाना चाहिये । आज अच्छे घर के लोग अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में इसलिये भेजना नहीं चाहते क्योंकि उनमें पिछड़ी बस्तियों के बच्चे आते हैं । यह मानसिक और व्यावहारिक अन्तर पाटने का काम समाजहितैषी लोगों को करना चाहिये ।
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आइआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों के विद्यार्थियों का विदेशगमन आदि शिक्षाक्षेत्र के सामाजिक अपराध हैं। जो प्राथमिक विद्यालय निःशुल्क शिक्षा देता है, जो सौ रूपये शुल्क लेता है और जो दसहजार लेता है उनके कक्षा एकके पाठ्यक्रम क्या अलग होते हैं ? क्या अलग पद्धति a ued जाते हैं ? क्या महँगी सामग्री का प्रयोग करने से अधिक अच्छा पढ़ा जाता है ? शिक्षा और पैसे का इतना बेहूदा सम्बन्ध जोड़ना समाज को कभी भी मान्य नहीं होना चाहिये | ज्ञानप्राप्ति के लिये गरीब और अमीर में कोई अन्तर ही नहीं होना चाहिये । दोनों को साथ बैठकर पढ़ना चाहिये । विद्यालयों ने दोनों को समान मानना चाहिये । दोनों को समान रूप से. संस्कारवान,. साफसुथरे, आचारवान, बुद्धिमान और सदूगुणी बनाना चाहिये । आज अच्छे घर के लोग अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में इसलिये भेजना नहीं चाहते क्योंकि उनमें पिछड़ी बस्तियों के बच्चे आते हैं । यह मानसिक और व्यावहारिक अन्तर पाटने का काम समाजहितैषी लोगोंं को करना चाहिये ।
    
सामाजिक व्यवहार
 
सामाजिक व्यवहार
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७१. सामाजिक सम्बन्ध निर्माण करने हेतु हम व्यवसायों का आधार ले सकते हैं क्योंकि वही एक बात ऐसी है जो हम परिवार से बाहर जाकर करते हैं । एक व्यवसाय करने वालों के यदि समूह बनते हैं और उनमें सामाजिक सम्बन्ध विकसित होते हैं तो व्यावहारिक और मानसिक दोनों प्रकार से आत्मीयता और परस्पर सहयोग की भावना बढ़ेगी । सामाजिक सम्बन्ध व्यावसायिक सम्बन्धों से थोड़े अधिक अन्तरंग होते हैं । जैसे कि आपस में मैत्री होना, एकदूसरे के घर आनाजाना, विवाह आदि पारिवारिक समारोहों में सम्मिलित होना, पारिवारिक सुखदुःखों में सहभागी होना आदि से सामाजिक सम्बन्ध बनते हैं । यह एक मनोवैज्ञानिक सुरक्षा व्यवस्था है ।
 
७१. सामाजिक सम्बन्ध निर्माण करने हेतु हम व्यवसायों का आधार ले सकते हैं क्योंकि वही एक बात ऐसी है जो हम परिवार से बाहर जाकर करते हैं । एक व्यवसाय करने वालों के यदि समूह बनते हैं और उनमें सामाजिक सम्बन्ध विकसित होते हैं तो व्यावहारिक और मानसिक दोनों प्रकार से आत्मीयता और परस्पर सहयोग की भावना बढ़ेगी । सामाजिक सम्बन्ध व्यावसायिक सम्बन्धों से थोड़े अधिक अन्तरंग होते हैं । जैसे कि आपस में मैत्री होना, एकदूसरे के घर आनाजाना, विवाह आदि पारिवारिक समारोहों में सम्मिलित होना, पारिवारिक सुखदुःखों में सहभागी होना आदि से सामाजिक सम्बन्ध बनते हैं । यह एक मनोवैज्ञानिक सुरक्षा व्यवस्था है ।
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७२. एक व्यवसाय करने वाले लोगों की आवासव्यवस्था भी एक साथ हो सकती है । आज भी महानगरों में पत्रकार कॉलोनी, प्रोफेसर्स कोलोनी आदि के रूप में साथ साथ निवास व्यवस्था होती है । बेंक, रेलवे, पुलीस आदि में संस्था की ओर से आवास - आवंटित किये जाते हैं । जब तक नौकरी में हैं तब तक यह व्यवस्था रहती है, नौकरी पूरी होने पर आवास छोड़ना पड़ता है । इसीको व्यवस्था का रूप देकर समान व्यवसाय के लोग साथ साथ रहें ऐसा विचार ही प्रचलित किया जाय और लोगों के मानस में बिठाया जाय तो सामाजिक सम्बन्ध विकसित होने में सुविधा रहेगी ।
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७२. एक व्यवसाय करने वाले लोगोंं की आवासव्यवस्था भी एक साथ हो सकती है । आज भी महानगरों में पत्रकार कॉलोनी, प्रोफेसर्स कोलोनी आदि के रूप में साथ साथ निवास व्यवस्था होती है । बेंक, रेलवे, पुलीस आदि में संस्था की ओर से आवास - आवंटित किये जाते हैं । जब तक नौकरी में हैं तब तक यह व्यवस्था रहती है, नौकरी पूरी होने पर आवास छोड़ना पड़ता है । इसीको व्यवस्था का रूप देकर समान व्यवसाय के लोग साथ साथ रहें ऐसा विचार ही प्रचलित किया जाय और लोगोंं के मानस में बिठाया जाय तो सामाजिक सम्बन्ध विकसित होने में सुविधा रहेगी ।
    
७३. सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में नये बच्चों का प्रवेश
 
७३. सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में नये बच्चों का प्रवेश
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७८. राजकीय क्षेत्र समाजजीवन का एक आयाम है। वास्तव में राज्यतन्त्र समाजतन्त्र के अधीन होना चाहिये परन्तु आज राज्यतन्त्र समाजतन्त्र पर हावी हो गया है । दिखाई यह देता है कि समाज की आज कोई व्यवस्था नहीं, sata ch क्षेत्र की कोई व्यवस्था नहीं, शिक्षाक्षेत्र की कोई व्यवस्था नहीं है तो इन सब पर राज्य का हावी हो जाना तो स्वाभाविक ही है । राज्य के लिये हमने लोकतन्त्र प्रणाली को अपनाया है । भारत के जन्म से सन १९४७ तक भारत में राजाओं का राज्य था । सन १९४७ में ऐसा क्या कारण था कि हमने लोकतन्त्र को अपना लिया ? इस मूल प्रश्न को पूछने का और उसका उत्तर प्राप्त करने का विचार भी हमें कभी आता नहीं है यह क्या महान आश्चर्य की बात नहीं है ? लोकतन्त्र को हमने ऐसे अपना लिया है जैसे वह तो हमारे अस्तित्व का अंश है ।
 
७८. राजकीय क्षेत्र समाजजीवन का एक आयाम है। वास्तव में राज्यतन्त्र समाजतन्त्र के अधीन होना चाहिये परन्तु आज राज्यतन्त्र समाजतन्त्र पर हावी हो गया है । दिखाई यह देता है कि समाज की आज कोई व्यवस्था नहीं, sata ch क्षेत्र की कोई व्यवस्था नहीं, शिक्षाक्षेत्र की कोई व्यवस्था नहीं है तो इन सब पर राज्य का हावी हो जाना तो स्वाभाविक ही है । राज्य के लिये हमने लोकतन्त्र प्रणाली को अपनाया है । भारत के जन्म से सन १९४७ तक भारत में राजाओं का राज्य था । सन १९४७ में ऐसा क्या कारण था कि हमने लोकतन्त्र को अपना लिया ? इस मूल प्रश्न को पूछने का और उसका उत्तर प्राप्त करने का विचार भी हमें कभी आता नहीं है यह क्या महान आश्चर्य की बात नहीं है ? लोकतन्त्र को हमने ऐसे अपना लिया है जैसे वह तो हमारे अस्तित्व का अंश है ।
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७९. भारत में 'लोकतन्त्र' की संकल्पना है, वैसी व्यवस्था भी कभी रही है परन्तु जिस “डेमोक्रसी' शब्द को हमने लोकतन्त्र माना है वह लोकतन्त्र की भारतीय संकल्पना से सर्वथा भिन्न है । जरा विचार करें कि पाँच अनाडियों का मत एक विद्वान के सामने, दोचार गुन्डों का मत एक सन्त के मत से, दस स्वार्थी और कपटी लोगों का मत एक अत्यन्त बुद्धिमान और सेवभावी सज्जन के मत से चार गुना, पाँच गुना, दस गुना अधिक प्रभावी है वही मान्य है ।
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७९. भारत में 'लोकतन्त्र' की संकल्पना है, वैसी व्यवस्था भी कभी रही है परन्तु जिस “डेमोक्रसी' शब्द को हमने लोकतन्त्र माना है वह लोकतन्त्र की भारतीय संकल्पना से सर्वथा भिन्न है । जरा विचार करें कि पाँच अनाडियों का मत एक विद्वान के सामने, दोचार गुन्डों का मत एक सन्त के मत से, दस स्वार्थी और कपटी लोगोंं का मत एक अत्यन्त बुद्धिमान और सेवभावी सज्जन के मत से चार गुना, पाँच गुना, दस गुना अधिक प्रभावी है वही मान्य है ।
    
८०. इतनी एक ही बात का विचार करें तो भी समझ में आ सकता है कि ऐसी व्यवस्थावाला समाज कभी चल ही नहीं सकता । वह व्यवस्था ही नहीं है, यह घोर अनवस्था है । संविधान, कानून, न्यायालय, इस अनवस्था की रक्षा के लिये है । कोई इसके विरुद्ध आवाज ही नहीं निकाल सकता ।
 
८०. इतनी एक ही बात का विचार करें तो भी समझ में आ सकता है कि ऐसी व्यवस्थावाला समाज कभी चल ही नहीं सकता । वह व्यवस्था ही नहीं है, यह घोर अनवस्था है । संविधान, कानून, न्यायालय, इस अनवस्था की रक्षा के लिये है । कोई इसके विरुद्ध आवाज ही नहीं निकाल सकता ।

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