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५. तीसरा, शिक्षा के धार्मिककरण के प्रयास भी आरम्भ होकर धीरे धीरे प्रस्तुत हो रहे थे । इन तीनों का एकदूसरे पर प्रभाव होना तो साहजिक ही था । शिक्षा के प्रयास एक ओर तो स्वतन्त्रता प्राप्ति की भावना के ही अंगरूप थे । तभी तो सभी प्रयासों को निरपवाद रूप से राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन का ही अंगभूत माना गया । दूसरी ओर उसी कारण से वे प्रयास पूरी शक्ति के साथ नहीं हो रहे थे । ब्रिटीश शिक्षा के साथ उन्हें निरन्तर संघर्ष करना पड रहा था । यह भी युद्ध का बहुत महत्त्वपूर्ण मोर्चा था ।
 
५. तीसरा, शिक्षा के धार्मिककरण के प्रयास भी आरम्भ होकर धीरे धीरे प्रस्तुत हो रहे थे । इन तीनों का एकदूसरे पर प्रभाव होना तो साहजिक ही था । शिक्षा के प्रयास एक ओर तो स्वतन्त्रता प्राप्ति की भावना के ही अंगरूप थे । तभी तो सभी प्रयासों को निरपवाद रूप से राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन का ही अंगभूत माना गया । दूसरी ओर उसी कारण से वे प्रयास पूरी शक्ति के साथ नहीं हो रहे थे । ब्रिटीश शिक्षा के साथ उन्हें निरन्तर संघर्ष करना पड रहा था । यह भी युद्ध का बहुत महत्त्वपूर्ण मोर्चा था ।
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६. एक संयोग तो यह भी ध्यान देने योग्य है कि शिक्षा के धार्मिककरण के प्रयास ऐसे लोगों के द्वारा हुए हैं जिन्होंने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त की थी । ऐसे किसी विद्वान के द्वारा नहीं हुए जो काशी जैसी ज्ञाननगरी में धार्मिक परम्परा का गुरुकुल चलाता हो, जहाँ वेदाध्ययन होता हो और समाज में सम्मानित भी हो । ऐसे किसी के द्वारा भी नहीं हुए जो अंग्रेजी शिक्षा को प्राप्त करना अहितकारी मानता हो और जिसने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त ही नहीं की हो ।
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६. एक संयोग तो यह भी ध्यान देने योग्य है कि शिक्षा के धार्मिककरण के प्रयास ऐसे लोगोंं के द्वारा हुए हैं जिन्होंने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त की थी । ऐसे किसी विद्वान के द्वारा नहीं हुए जो काशी जैसी ज्ञाननगरी में धार्मिक परम्परा का गुरुकुल चलाता हो, जहाँ वेदाध्ययन होता हो और समाज में सम्मानित भी हो । ऐसे किसी के द्वारा भी नहीं हुए जो अंग्रेजी शिक्षा को प्राप्त करना अहितकारी मानता हो और जिसने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त ही नहीं की हो ।
    
७. उस समय भी देश की अस्सी से नव्वे प्रतिशत प्रजा
 
७. उस समय भी देश की अस्सी से नव्वे प्रतिशत प्रजा
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१४. महात्मा गांधीने चिन्तन किया परन्तु, राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयोग उनके कार्यकर्ताओने किये । गाँधीजी स्वयं शिक्षक नहीं थे । फिर भी उनके कार्यकर्ता उनके चिन्तन के प्रति पूर्ण रूप से निष्ठावान थे इसलिये उनका चिन्तन और प्रयोग साथ साथ चला ऐसा हम कह सकते हैं ।
 
१४. महात्मा गांधीने चिन्तन किया परन्तु, राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयोग उनके कार्यकर्ताओने किये । गाँधीजी स्वयं शिक्षक नहीं थे । फिर भी उनके कार्यकर्ता उनके चिन्तन के प्रति पूर्ण रूप से निष्ठावान थे इसलिये उनका चिन्तन और प्रयोग साथ साथ चला ऐसा हम कह सकते हैं ।
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१५. एक मात्र गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ऐसे थे जो शत प्रतिशत शिक्षक थे । शेष सभी किसी बडे आन्दोलन के हिस्से के रूप में शिक्षा का भी चिन्तन और प्रयोग करते थे । रवीन्द्रनाथ ठाकुरने पूर्ण रूप से धार्मिक शिक्षा का एक श्रेष्ठ और यशस्वी प्रयोग किया और ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक पक्षों का समायोजन किया । शिक्षाक्षेत्र में प्रयोग करना चाहते हैं ऐसे अनेक लोगों के लिये उनका प्रयोग अध्ययन के योग्य है ।
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१५. एक मात्र गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ऐसे थे जो शत प्रतिशत शिक्षक थे । शेष सभी किसी बडे आन्दोलन के हिस्से के रूप में शिक्षा का भी चिन्तन और प्रयोग करते थे । रवीन्द्रनाथ ठाकुरने पूर्ण रूप से धार्मिक शिक्षा का एक श्रेष्ठ और यशस्वी प्रयोग किया और ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक पक्षों का समायोजन किया । शिक्षाक्षेत्र में प्रयोग करना चाहते हैं ऐसे अनेक लोगोंं के लिये उनका प्रयोग अध्ययन के योग्य है ।
    
१६. स्वामी श्रद्धानन्दू का आर्यसमाज के गुरुकुलों का प्रयोग एक अर्थ में विशिष्ट है क्योंकि वह वेदाध्ययन और प्राचीन गुरुकुल पद्धति को ही अपनाकर चला ।. परन्तु वह अनुकरणीय नहीं हुआ | देशव्यापी होने पर भी नहीं हुआ ।
 
१६. स्वामी श्रद्धानन्दू का आर्यसमाज के गुरुकुलों का प्रयोग एक अर्थ में विशिष्ट है क्योंकि वह वेदाध्ययन और प्राचीन गुरुकुल पद्धति को ही अपनाकर चला ।. परन्तु वह अनुकरणीय नहीं हुआ | देशव्यापी होने पर भी नहीं हुआ ।
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१८. इसका एक कारण यह हो सकता है कि ये प्रयोग करने वाले सबके सब अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त किये हुए थे । वे विद्वान तो थे परन्तु अंग्रेजी ज्ञान में । उन्हें शिक्षा का केन्द्रबिन्दु धार्मिक ज्ञान होना चाहिये यह बात ध्यान में ही नहीं आई ।
 
१८. इसका एक कारण यह हो सकता है कि ये प्रयोग करने वाले सबके सब अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त किये हुए थे । वे विद्वान तो थे परन्तु अंग्रेजी ज्ञान में । उन्हें शिक्षा का केन्द्रबिन्दु धार्मिक ज्ञान होना चाहिये यह बात ध्यान में ही नहीं आई ।
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१९. अनेक लोगों के लिये शिक्षा मुख्य विषय नहीं था । आज भी अनेक संगठन ऐसे हैं जिनका मुख्य विषय अन्य है परन्तु वे शिक्षा के क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं । इनके अपने विश्वविद्यालय भी हैं । परन्तु उनके मुख्य विषय दूसरे हैं, अधिक व्यापक हैं । स्वामी रामदेव महाराज, गायत्री प्रज्ञापीठ, रामकृष्ण मिशन, faa fea, स्वामीनारायण सम्प्रदाय आदि अनेक संस्थाओं और संगठनों के मुख्य विषय धर्म, संस्कृति, वेदान्त आदि हैं, शिक्षा उनके व्यापक कार्य का एक अंग है । इसलिये भावात्मक पक्ष तो सुदूढ है परन्तु ज्ञानात्मक पक्ष का विचार ये नहीं करते हैं ।
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१९. अनेक लोगोंं के लिये शिक्षा मुख्य विषय नहीं था । आज भी अनेक संगठन ऐसे हैं जिनका मुख्य विषय अन्य है परन्तु वे शिक्षा के क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं । इनके अपने विश्वविद्यालय भी हैं । परन्तु उनके मुख्य विषय दूसरे हैं, अधिक व्यापक हैं । स्वामी रामदेव महाराज, गायत्री प्रज्ञापीठ, रामकृष्ण मिशन, faa fea, स्वामीनारायण सम्प्रदाय आदि अनेक संस्थाओं और संगठनों के मुख्य विषय धर्म, संस्कृति, वेदान्त आदि हैं, शिक्षा उनके व्यापक कार्य का एक अंग है । इसलिये भावात्मक पक्ष तो सुदूढ है परन्तु ज्ञानात्मक पक्ष का विचार ये नहीं करते हैं ।
    
२०. देश में अनेक संगठन ऐसे हैं जो शुद्ध शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत हैं । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा प्रेरित ये संगठन देशव्यापी हैं । संख्यात्मक दृष्टि से विश्व में प्रथम क्रमांक पर हैं, संगठनात्मक दृष्टि से समाज में और शिक्षा क्षेत्र में इनकी स्वीकृति है, वे प्रभावी है। कार्यकर्ताओं का अच्छा समर्पित वर्ग भी इनके पास है । परन्तु ये सब भी ज्ञानात्मक पक्ष को स्पर्श करते नहीं दिखाई देते हैं। वही पश्चिमी शिक्षा हजारों विद्यालयों में चल रही है ।
 
२०. देश में अनेक संगठन ऐसे हैं जो शुद्ध शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत हैं । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा प्रेरित ये संगठन देशव्यापी हैं । संख्यात्मक दृष्टि से विश्व में प्रथम क्रमांक पर हैं, संगठनात्मक दृष्टि से समाज में और शिक्षा क्षेत्र में इनकी स्वीकृति है, वे प्रभावी है। कार्यकर्ताओं का अच्छा समर्पित वर्ग भी इनके पास है । परन्तु ये सब भी ज्ञानात्मक पक्ष को स्पर्श करते नहीं दिखाई देते हैं। वही पश्चिमी शिक्षा हजारों विद्यालयों में चल रही है ।
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मूल्यनिष्ठ शिक्षा की बात करते हैं, संस्कारों की शिक्षा की बात करते हैं परन्तु राष्ट्रीय शिक्षा का विषय नहीं आता है। अनेक संगठन छोटे या बडे कम या अधिक संख्या में कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं। कार्यक्रम के हिसाब से ये अत्यन्त भव्य और प्रभावी भी होते हैं । उनमें जो विचार व्यक्त किये जाते हैं वे भी उत्तम होते हैं । विचार व्यक्त करने वाले कोई तो बोलने के लिये बोलते हैं, ऐसा बोलने पर ही स्वीकृति मिलेगी ऐसा विचार कर बोलते हैं परन्तु लगभग आधी संख्या में प्रामाणिक, निष्ठावान, कार्यदक्ष, समर्पित, विद्वान कार्यकर्ता भी होते हैं । परन्तु कार्यक्रम और कार्य का सम्बन्ध बहुत क्षीण हो गया है । बोलने वालों और करने वालों के दो अलग वर्ग हो गये हैं । जो विद्वान हैं वे क्रियावान नहीं हैं, जो क्रियावान हैं वे विद्वान नहीं हैं । क्रियावान विद्वानों का अनुकरण नहीं करते हैं ।
 
मूल्यनिष्ठ शिक्षा की बात करते हैं, संस्कारों की शिक्षा की बात करते हैं परन्तु राष्ट्रीय शिक्षा का विषय नहीं आता है। अनेक संगठन छोटे या बडे कम या अधिक संख्या में कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं। कार्यक्रम के हिसाब से ये अत्यन्त भव्य और प्रभावी भी होते हैं । उनमें जो विचार व्यक्त किये जाते हैं वे भी उत्तम होते हैं । विचार व्यक्त करने वाले कोई तो बोलने के लिये बोलते हैं, ऐसा बोलने पर ही स्वीकृति मिलेगी ऐसा विचार कर बोलते हैं परन्तु लगभग आधी संख्या में प्रामाणिक, निष्ठावान, कार्यदक्ष, समर्पित, विद्वान कार्यकर्ता भी होते हैं । परन्तु कार्यक्रम और कार्य का सम्बन्ध बहुत क्षीण हो गया है । बोलने वालों और करने वालों के दो अलग वर्ग हो गये हैं । जो विद्वान हैं वे क्रियावान नहीं हैं, जो क्रियावान हैं वे विद्वान नहीं हैं । क्रियावान विद्वानों का अनुकरण नहीं करते हैं ।
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५१. विद्वानों को कुछ करके दिखाने की जिम्मेदारी या इच्छा नहीं होने के कारण से वे क्रियावान नही होते हैं यह तो ठीक है परन्तु इस कारण से उनकी अपेक्षायें और मार्गदर्शन अव्यावहारिक भी होता है । क्रियावान लोगों को क्या काम करना है इसकी ठीक से जानकारी नहीं होने के कारण से आवश्यकता की पूर्ति 'करने हेतु क्या क्या करना चाहिये, कैसे करना चाहिये इसकी जानकारी नहीं होती । अतः दोनों एकदूसरे से असन्तुष्ट रहते हैं। परिणाम स्वरूप भाषण होते हैं और कार्यक्रम होते हैं, भाषणों के कार्यक्रम होते हैं परन्तु कार्य नहीं होता ।
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५१. विद्वानों को कुछ करके दिखाने की जिम्मेदारी या इच्छा नहीं होने के कारण से वे क्रियावान नही होते हैं यह तो ठीक है परन्तु इस कारण से उनकी अपेक्षायें और मार्गदर्शन अव्यावहारिक भी होता है । क्रियावान लोगोंं को क्या काम करना है इसकी ठीक से जानकारी नहीं होने के कारण से आवश्यकता की पूर्ति 'करने हेतु क्या क्या करना चाहिये, कैसे करना चाहिये इसकी जानकारी नहीं होती । अतः दोनों एकदूसरे से असन्तुष्ट रहते हैं। परिणाम स्वरूप भाषण होते हैं और कार्यक्रम होते हैं, भाषणों के कार्यक्रम होते हैं परन्तु कार्य नहीं होता ।
    
५२. उदाहरण के लिये धार्मिक शिक्षा की संकल्पना और स्वरूप विषयक गोष्ठी या गोष्ठीयाँ होती हैं, विद्वानों के भाषण होते हैं परन्तु गोष्ठी समाप्त होने के बाद उसमें व्यक्त हुए विचारों के अनुरूप कार्ययोजना नहीं बनती । वास्तव में प्रथम क्रियान्वयन की पूर्ण तैयारी करने के बाद गोष्ठी का आयोजन होना चाहिये परन्तु वास्तव में ज्ञान और क्रिया एकदूसरे से अलग ही रह जाते हैं ।
 
५२. उदाहरण के लिये धार्मिक शिक्षा की संकल्पना और स्वरूप विषयक गोष्ठी या गोष्ठीयाँ होती हैं, विद्वानों के भाषण होते हैं परन्तु गोष्ठी समाप्त होने के बाद उसमें व्यक्त हुए विचारों के अनुरूप कार्ययोजना नहीं बनती । वास्तव में प्रथम क्रियान्वयन की पूर्ण तैयारी करने के बाद गोष्ठी का आयोजन होना चाहिये परन्तु वास्तव में ज्ञान और क्रिया एकदूसरे से अलग ही रह जाते हैं ।

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