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== सामाजिक सुरक्षा ==
 
== सामाजिक सुरक्षा ==
जिस समाज में लोगोंं को अपने अपने हित की रक्षा के लिये हमेशा सावध नहीं रहना पड़ता वह समाज संस्कारी समाज कहा जाता है । जहां अपने हित की रक्षा के लिये हमेशा सावध रहना पड़ता है वह असंस्कारी समाज है । जिस समाज में स्त्री सुरक्षित है, छोटे बच्चे सुरक्षित हैं, दुर्बल सुरक्षित हैं वह समाज संस्कारी समाज है । सामाजिक सुरक्षा के लिये कानून, पुलिस और न्यायालय की व्यवस्था होती है। परन्तु यह व्यवस्था पर्याप्त नहीं है । इसके साथ यदि अच्छाई की शिक्षा न दी जाय और लोगोंं के मन सद्धावपूर्ण और नीतिमात्तायुक्त न बनाए जाय तो केवल कानून किसी की रक्षा नहीं कर सकता । मनोविज्ञान के ज्ञाता एक सुभाषितकार का कथन है:{{Citation needed}}<blockquote>कामातुराणां न भयं न लज्जा</blockquote><blockquote>अर्थातुराणाम्‌ न गुरुर्न बंधु: ।।</blockquote><blockquote>अर्थात जिसके मन पर वासना छा गई है उसे भय अथवा लज्जा रोक नहीं सकते तथा जिन्हें अर्थ का लोभ लग गया है उसे गुरु अथवा भाई की भी परवाह नहीं होती ।</blockquote>अतः मनुष्य का मन जब तक ठीक नहीं होता तब तक कानून किसी की सुरक्षा नहीं कर सकता । आजकल हम देखते हैं कि बलात्कार के किस्से बढ़ गए हैं । लोग कहते हैं कि कानून महिलाओं की सुरक्षा नहीं करता और अपराधी को फांसी जैसा कठोर दंड नहीं दिया जाता अतः ऐसे किस्से बढ़ते हैं। परन्तु मनोविज्ञान इसे मान्य नहीं करेगा क्योंकि एक को फांसी हुई अतः दूसरा उस दुष्कृत्य से परावृत्त होगा ऐसा नहीं है। मनोविज्ञान और समाजशास्त्र दोनों को सम्यक रूप में जानने वाला तो कहेगा कि बलात्कारी को बलात्कार करने से और महिलाओं को अपने ऊपर होने वाले बलात्कार से बचाने के लिये परिवारजनों ने उनकी सुरक्षा की चिन्ता स्वयं भी करनी चाहिए, तभी कानून भी उनकी सहायता कर सकता है। लोगोंं के जानमाल की सुरक्षा के लिये, अपराधियों को दंड देने के लिये पुलिस, कानून और न्यायालय होने पर भी लोग अपनी सुरक्षा के लिये घरों को ताले लगाते हैं, बेंक में लॉकर रखते हैं और साथ में धन लेकर अकेले यात्रा नहीं करते उसी प्रकार बलात्कार के संबंध में भी करना चाहिये। यह जो कानून के साथ साथ दूसरी सुरक्षा है वह शिक्षा का क्षेत्र है। बाल अवस्था से ही धर्म और नीतिमत्ता के संस्कार दिए बिना, संयम और सदाचार सिखाये बिना सामाजिक सुरक्षा स्थापित नहीं हो सकती। पराया धन मिट्टी के समान और पराई स्त्री माता के समान यह आग्रहपूर्वक सिखाने का विषय है।
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जिस समाज में लोगोंं को अपने अपने हित की रक्षा के लिये सदा सावध नहीं रहना पड़ता वह समाज संस्कारी समाज कहा जाता है । जहां अपने हित की रक्षा के लिये सदा सावध रहना पड़ता है वह असंस्कारी समाज है । जिस समाज में स्त्री सुरक्षित है, छोटे बच्चे सुरक्षित हैं, दुर्बल सुरक्षित हैं वह समाज संस्कारी समाज है । सामाजिक सुरक्षा के लिये कानून, पुलिस और न्यायालय की व्यवस्था होती है। परन्तु यह व्यवस्था पर्याप्त नहीं है । इसके साथ यदि अच्छाई की शिक्षा न दी जाय और लोगोंं के मन सद्धावपूर्ण और नीतिमात्तायुक्त न बनाए जाय तो केवल कानून किसी की रक्षा नहीं कर सकता । मनोविज्ञान के ज्ञाता एक सुभाषितकार का कथन है:{{Citation needed}}<blockquote>कामातुराणां न भयं न लज्जा</blockquote><blockquote>अर्थातुराणाम्‌ न गुरुर्न बंधु: ।।</blockquote><blockquote>अर्थात जिसके मन पर वासना छा गई है उसे भय अथवा लज्जा रोक नहीं सकते तथा जिन्हें अर्थ का लोभ लग गया है उसे गुरु अथवा भाई की भी परवाह नहीं होती ।</blockquote>अतः मनुष्य का मन जब तक ठीक नहीं होता तब तक कानून किसी की सुरक्षा नहीं कर सकता । आजकल हम देखते हैं कि बलात्कार के किस्से बढ़ गए हैं । लोग कहते हैं कि कानून महिलाओं की सुरक्षा नहीं करता और अपराधी को फांसी जैसा कठोर दंड नहीं दिया जाता अतः ऐसे किस्से बढ़ते हैं। परन्तु मनोविज्ञान इसे मान्य नहीं करेगा क्योंकि एक को फांसी हुई अतः दूसरा उस दुष्कृत्य से परावृत्त होगा ऐसा नहीं है। मनोविज्ञान और समाजशास्त्र दोनों को सम्यक रूप में जानने वाला तो कहेगा कि बलात्कारी को बलात्कार करने से और महिलाओं को अपने ऊपर होने वाले बलात्कार से बचाने के लिये परिवारजनों ने उनकी सुरक्षा की चिन्ता स्वयं भी करनी चाहिए, तभी कानून भी उनकी सहायता कर सकता है। लोगोंं के जानमाल की सुरक्षा के लिये, अपराधियों को दंड देने के लिये पुलिस, कानून और न्यायालय होने पर भी लोग अपनी सुरक्षा के लिये घरों को ताले लगाते हैं, बेंक में लॉकर रखते हैं और साथ में धन लेकर अकेले यात्रा नहीं करते उसी प्रकार बलात्कार के संबंध में भी करना चाहिये। यह जो कानून के साथ साथ दूसरी सुरक्षा है वह शिक्षा का क्षेत्र है। बाल अवस्था से ही धर्म और नीतिमत्ता के संस्कार दिए बिना, संयम और सदाचार सिखाये बिना सामाजिक सुरक्षा स्थापित नहीं हो सकती। पराया धन मिट्टी के समान और पराई स्त्री माता के समान यह आग्रहपूर्वक सिखाने का विषय है।
    
एक के पास अपरिमित सम्पत्ति और उसके आसपास रहने वालों के पास खाने को अन्न नहीं ऐसी अवस्था में धनवान के धन की सुरक्षा नहीं हो सकती । अतः बाँट कर खाओ, बिना दान दिए सम्पत्ति का उपभोग न करो, अपनी कमाई का दस प्रतिशत हिस्सा अनिवार्य रूप से दान करो, अकेले खाने वाला पाप खाता है जैसे सूत्र व्यवहार के लिये दिए गए । भारत की परम्परा में पापपुण्य की कल्पना सामाजिक दृष्टि से ही की गई है । आजकल उसे धर्म की संज्ञा देकर नकारा जाता है, उसे अवैज्ञानिक कहा जाता है परन्तु भारत में धर्म को ही समाजधारणा करने वाला तत्व बताया है । धर्म की परम्परा में अपने से छोटों की रक्षा करने को सार्वभौम व्यवस्था के रूप में ही प्रतिष्ठित किया गया है। राजा ने प्रजा का, पिता ने पुत्र का, आचार्य ने छात्र का, मालिक ने नौकर का, मनुष्य ने प्रकृति का रक्षण करना चाहिये । जो रक्षण करता है वही सम्मान का अधिकारी होता है । यही धर्म है, यही पुण्य भी है और पुण्य का फल स्वर्ग है वह भी यहीं पृथ्वी पर ही है । अतः समाजशास्त्र के ग्रन्थों को मानव धर्मशास्त्र ही बताया गया है ।
 
एक के पास अपरिमित सम्पत्ति और उसके आसपास रहने वालों के पास खाने को अन्न नहीं ऐसी अवस्था में धनवान के धन की सुरक्षा नहीं हो सकती । अतः बाँट कर खाओ, बिना दान दिए सम्पत्ति का उपभोग न करो, अपनी कमाई का दस प्रतिशत हिस्सा अनिवार्य रूप से दान करो, अकेले खाने वाला पाप खाता है जैसे सूत्र व्यवहार के लिये दिए गए । भारत की परम्परा में पापपुण्य की कल्पना सामाजिक दृष्टि से ही की गई है । आजकल उसे धर्म की संज्ञा देकर नकारा जाता है, उसे अवैज्ञानिक कहा जाता है परन्तु भारत में धर्म को ही समाजधारणा करने वाला तत्व बताया है । धर्म की परम्परा में अपने से छोटों की रक्षा करने को सार्वभौम व्यवस्था के रूप में ही प्रतिष्ठित किया गया है। राजा ने प्रजा का, पिता ने पुत्र का, आचार्य ने छात्र का, मालिक ने नौकर का, मनुष्य ने प्रकृति का रक्षण करना चाहिये । जो रक्षण करता है वही सम्मान का अधिकारी होता है । यही धर्म है, यही पुण्य भी है और पुण्य का फल स्वर्ग है वह भी यहीं पृथ्वी पर ही है । अतः समाजशास्त्र के ग्रन्थों को मानव धर्मशास्त्र ही बताया गया है ।

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