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| # हम उन्हें समझने की परवाह नहीं करते हैं । हमारे अल्पज्ञान के कारण वे हमारे जैसे नहीं हैं अतः विकसित नहीं हैं और हमारे पास हैं ऐसी सुविधायें नहीं हैं अतः वे दुःखी हैं ऐसा मानते हैं । हमारे जैसी शिक्षा देंगे तो उनका विकास होगा यह हमारा भ्रम है। हमारे जैसी शिक्षा प्राप्त कर हमारे जैसी नौकरी करना, हमारे जैसे कपड़े पहनना, हमारे जैसी भाषा बोलना, हमारे जैसे घरों में रहना आदि विकास के लक्षण हैं ऐसा हमारा विचार उनके लिये संकट का ही कारण बनता है परन्तु इसका विचार हमें नहीं आता है। जो हमारे जैसा नहीं वह विकसित नहीं यह तो बहुत ही असहिष्णु विचार है, अमानवीय विचार है, भारत की संस्कृति का यह विचार है ही नहीं । अतः शिक्षा का विचार करते समय हमें उन्हें अपने जैसा बनाना है यह विचार ही छोड़ देना चाहिए । | | # हम उन्हें समझने की परवाह नहीं करते हैं । हमारे अल्पज्ञान के कारण वे हमारे जैसे नहीं हैं अतः विकसित नहीं हैं और हमारे पास हैं ऐसी सुविधायें नहीं हैं अतः वे दुःखी हैं ऐसा मानते हैं । हमारे जैसी शिक्षा देंगे तो उनका विकास होगा यह हमारा भ्रम है। हमारे जैसी शिक्षा प्राप्त कर हमारे जैसी नौकरी करना, हमारे जैसे कपड़े पहनना, हमारे जैसी भाषा बोलना, हमारे जैसे घरों में रहना आदि विकास के लक्षण हैं ऐसा हमारा विचार उनके लिये संकट का ही कारण बनता है परन्तु इसका विचार हमें नहीं आता है। जो हमारे जैसा नहीं वह विकसित नहीं यह तो बहुत ही असहिष्णु विचार है, अमानवीय विचार है, भारत की संस्कृति का यह विचार है ही नहीं । अतः शिक्षा का विचार करते समय हमें उन्हें अपने जैसा बनाना है यह विचार ही छोड़ देना चाहिए । |
| # वन्य सम्पदा की भयंकर लूट, हमारे ही लाभ के कानून बनाकर उनका होने वाला भयानक शोषण और उन्हें असंस्कृत मानकर उनके लिए की जाने वाली हमारे जैसी शिक्षा व्यवस्था हमने उन पर किया हुआ आक्रमण है। हमारे बुद्धिबल, सत्ताबल और पुलिसबल के कारण हमने उन्हें कहीं का नहीं रखा है । उनके लिये शिक्षा की व्यवस्था करने से पूर्व हमें ही अपनी समझ और व्यवहार ठीक कर लेने की आवश्यकता है । | | # वन्य सम्पदा की भयंकर लूट, हमारे ही लाभ के कानून बनाकर उनका होने वाला भयानक शोषण और उन्हें असंस्कृत मानकर उनके लिए की जाने वाली हमारे जैसी शिक्षा व्यवस्था हमने उन पर किया हुआ आक्रमण है। हमारे बुद्धिबल, सत्ताबल और पुलिसबल के कारण हमने उन्हें कहीं का नहीं रखा है । उनके लिये शिक्षा की व्यवस्था करने से पूर्व हमें ही अपनी समझ और व्यवहार ठीक कर लेने की आवश्यकता है । |
− | # जिस प्रकार नागरी संस्कृति का आक्रमण उनके लिये संकट का एक निमित्त है उसी प्रकार धर्मांतरण का संकट बहुत बड़ा है। धार्मिकता की मुख्य धारा से तोड़ने का काम एक ओर ईसाई मिशनरी और दूसरी ओर साम्यवादी खेमा करता है । विश्व के व्यापारी संगठन वन्य सम्पदा की लूट चला रहे है । भारत के व्यापारी भी इसमें पीछे नहीं हैं । एक संकट मानसिकता बदलने का है । ब्रिटीशों ने अपने शासन के दौरान उनके लिये आदिवासी शब्द का प्रयोग आरम्भ किया । स्वतन्त्र भारत में हमने भी बिना कोई विचार किए उसे अपना लिया है। इसका पुनर्विचार होने की आवश्यकता है । एक सादा प्रश्र पुछने की आवश्यकता है कि यदि वनवासी इस देश में मूल निवासी हैं तो हम नगरों और ग्रामों में रहने वाले, जो वनों में नहीं रहते हैं वे लोग, कौन हैं ? ब्रिटीशों ने लिखे अथवा लिखवाये इतिहास की थियरी कहती है कि जिस प्रकार आप ब्रिटीशों को आक्रान्ता कहते हैं उसी प्रकार ये नगरों और ग्रामों में रहने वाले, अपने आपको आर्य बताने वाले लोग भी भारत के नहीं हैं, वे भी बाहर से ही आक्रान्ता बनकर ही आए हैं, अतः यदि ब्रिटिश इस देश को छोड़कर जाएँ ऐसा कहना है तो आर्यों को भी इस देश को छोड़कर जाना चाहिए । अब तो विश्व इतिहास ने भी आर्य बाहर से भारत में आए इस थियरी को नकार दिया है । अब विश्व स्वीकार करता है कि आर्य इस देश के ही थे औए भारत से सम्पूर्ण विश्व में गए थे। परन्तु आज भी वनवासी अपने आपको वनवासी न कहकर आदिवासी अथवा मूल निवासी कहलाना अधिक पसन्द करते हैं। और नागरी लोगों को अपने शत्रु मानते हैं । नागरी लोग को भी आत्म निरीक्षण करना चाहिए। इस कारण से उनके लिये शिक्षा की व्यवस्था करना तो दूर हमने अपने आपको रोकने की आवश्यकता है । इन दो बातों का सन्दर्भ ठीक से ध्यान में लेकर उनका परिहार कैसे करना इसका ठीक से विचार कर लेने के बाद उनके लिये और उनके सन्दर्भ में शिक्षा का विचार करना चाहिए । ऐसा विचार करने के आयाम कुछ इस प्रकार हैं: | + | # जिस प्रकार नागरी संस्कृति का आक्रमण उनके लिये संकट का एक निमित्त है उसी प्रकार धर्मांतरण का संकट बहुत बड़ा है। धार्मिकता की मुख्य धारा से तोड़ने का काम एक ओर ईसाई मिशनरी और दूसरी ओर साम्यवादी खेमा करता है । विश्व के व्यापारी संगठन वन्य सम्पदा की लूट चला रहे है । भारत के व्यापारी भी इसमें पीछे नहीं हैं । एक संकट मानसिकता बदलने का है । ब्रिटीशों ने अपने शासन के दौरान उनके लिये आदिवासी शब्द का प्रयोग आरम्भ किया । स्वतन्त्र भारत में हमने भी बिना कोई विचार किए उसे अपना लिया है। इसका पुनर्विचार होने की आवश्यकता है । एक सादा प्रश्र पुछने की आवश्यकता है कि यदि वनवासी इस देश में मूल निवासी हैं तो हम नगरों और ग्रामों में रहने वाले, जो वनों में नहीं रहते हैं वे लोग, कौन हैं ? ब्रिटीशों ने लिखे अथवा लिखवाये इतिहास की थियरी कहती है कि जिस प्रकार आप ब्रिटीशों को आक्रान्ता कहते हैं उसी प्रकार ये नगरों और ग्रामों में रहने वाले, अपने आपको आर्य बताने वाले लोग भी भारत के नहीं हैं, वे भी बाहर से ही आक्रान्ता बनकर ही आए हैं, अतः यदि ब्रिटिश इस देश को छोड़कर जाएँ ऐसा कहना है तो आर्यों को भी इस देश को छोड़कर जाना चाहिए । अब तो विश्व इतिहास ने भी आर्य बाहर से भारत में आए इस थियरी को नकार दिया है । अब विश्व स्वीकार करता है कि आर्य इस देश के ही थे औए भारत से सम्पूर्ण विश्व में गए थे। परन्तु आज भी वनवासी अपने आपको वनवासी न कहकर आदिवासी अथवा मूल निवासी कहलाना अधिक पसन्द करते हैं। और नागरी लोगोंं को अपने शत्रु मानते हैं । नागरी लोग को भी आत्म निरीक्षण करना चाहिए। इस कारण से उनके लिये शिक्षा की व्यवस्था करना तो दूर हमने अपने आपको रोकने की आवश्यकता है । इन दो बातों का सन्दर्भ ठीक से ध्यान में लेकर उनका परिहार कैसे करना इसका ठीक से विचार कर लेने के बाद उनके लिये और उनके सन्दर्भ में शिक्षा का विचार करना चाहिए । ऐसा विचार करने के आयाम कुछ इस प्रकार हैं: |
| #* सर्व प्रथम हमारे विश्वविद्यालयों में वनवासी संस्कृति का अध्ययन होना चाहिए । ऐसे अध्ययन हेतु कुछ बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए । ऐसा अध्ययन उनके साथ नागरी जीवन की समरसता स्थापित करने की दृष्टि से होना आवश्यक है । उनकी संस्कृति की विशेषताओं को जानने की दृष्टि से होना चाहिए । हमें उनकी रक्षा के लिये क्या क्या करने की आवश्यकता पड़ेगी यह जानने की दृष्टि से होना चाहिए । | | #* सर्व प्रथम हमारे विश्वविद्यालयों में वनवासी संस्कृति का अध्ययन होना चाहिए । ऐसे अध्ययन हेतु कुछ बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए । ऐसा अध्ययन उनके साथ नागरी जीवन की समरसता स्थापित करने की दृष्टि से होना आवश्यक है । उनकी संस्कृति की विशेषताओं को जानने की दृष्टि से होना चाहिए । हमें उनकी रक्षा के लिये क्या क्या करने की आवश्यकता पड़ेगी यह जानने की दृष्टि से होना चाहिए । |
| #* ऐसा अध्ययन वनवासी क्षेत्र में रहकर, उनके साथ समरस होकर, उन्हें हमारे साथ सहभागी बनाकर होना चाहिए । आज तो उनके मन में हमारे लिये विश्वास नहीं है। यह विश्वास जागृत करने का काम प्रथम करना चाहिए । वनवासी संस्कृति का अध्ययन हमें भी करना चाहिए और उनके लिये भी योजना बनानी चाहिए । | | #* ऐसा अध्ययन वनवासी क्षेत्र में रहकर, उनके साथ समरस होकर, उन्हें हमारे साथ सहभागी बनाकर होना चाहिए । आज तो उनके मन में हमारे लिये विश्वास नहीं है। यह विश्वास जागृत करने का काम प्रथम करना चाहिए । वनवासी संस्कृति का अध्ययन हमें भी करना चाहिए और उनके लिये भी योजना बनानी चाहिए । |
− | #* इस अध्ययन का केन्द्र अनिवार्य रूप से वनवासी क्षेत्र में ही होना चाहिए । वनवासी परिवेश में ही होना चाहिए । वहाँ अध्ययन करने वाले लोगों ने वहाँ की जीवनशैली अपनानी चाहिए । हम यदि नगरों में आने वाले वनवासियों को नगरों के खानपान और वस्त्र परिधान के लिये बाध्य कर सकते हैं तो हम भी उनकी शैली अपना सकते हैं । | + | #* इस अध्ययन का केन्द्र अनिवार्य रूप से वनवासी क्षेत्र में ही होना चाहिए । वनवासी परिवेश में ही होना चाहिए । वहाँ अध्ययन करने वाले लोगोंं ने वहाँ की जीवनशैली अपनानी चाहिए । हम यदि नगरों में आने वाले वनवासियों को नगरों के खानपान और वस्त्र परिधान के लिये बाध्य कर सकते हैं तो हम भी उनकी शैली अपना सकते हैं । |
− | #* वनवासियों के पास जो ज्ञान है उसका अध्ययन करना चाहिए । अभी उनके पास जो ज्ञान है वह शास्त्रीय नहीं है, पारम्परिक है । परन्तु अनुभव यह आता है कि शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त किए हुए अनेक लोगों की तुलना में वह अधिक पक्का और परिणामकारी है । उसका बहुत बड़ा कारण तो यह है कि उनका पारम्परिक ज्ञान धार्मिकता की बैठक लिये हुए है और हमारे विश्वविद्यालयों में दिया जाने वाला ज्ञान यूरोअमेरिकी अधिष्ठान लिए हुए है । ऊपर से हमारे विश्वविद्यालयों में निष्ठापूर्वक अध्ययन भी नहीं होता है। इन दो कारणों से वनवासियों के ज्ञान का और हमारे विश्वविद्यालयों के ज्ञान का कोई मेल नहीं है । इस परिप्रेक्ष्य में उनके ज्ञान को हमने ठीक से अध्ययन कर उसे प्रतिष्ठा दिलाने का प्रयास करना चाहिए। | + | #* वनवासियों के पास जो ज्ञान है उसका अध्ययन करना चाहिए । अभी उनके पास जो ज्ञान है वह शास्त्रीय नहीं है, पारम्परिक है । परन्तु अनुभव यह आता है कि शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त किए हुए अनेक लोगोंं की तुलना में वह अधिक पक्का और परिणामकारी है । उसका बहुत बड़ा कारण तो यह है कि उनका पारम्परिक ज्ञान धार्मिकता की बैठक लिये हुए है और हमारे विश्वविद्यालयों में दिया जाने वाला ज्ञान यूरोअमेरिकी अधिष्ठान लिए हुए है । ऊपर से हमारे विश्वविद्यालयों में निष्ठापूर्वक अध्ययन भी नहीं होता है। इन दो कारणों से वनवासियों के ज्ञान का और हमारे विश्वविद्यालयों के ज्ञान का कोई मेल नहीं है । इस परिप्रेक्ष्य में उनके ज्ञान को हमने ठीक से अध्ययन कर उसे प्रतिष्ठा दिलाने का प्रयास करना चाहिए। |
| #* हमारी सरकारी नीतियाँ आज तो इसके विपरीत हैं परन्तु हमें इसका भी ठीक से अध्ययन कर समस्या सुलझाने का प्रयास करना चाहिए। | | #* हमारी सरकारी नीतियाँ आज तो इसके विपरीत हैं परन्तु हमें इसका भी ठीक से अध्ययन कर समस्या सुलझाने का प्रयास करना चाहिए। |
| #* वनवासियों को नगर में लाने का प्रयास हम सोचते हैं उतना उचित नहीं है। वे वन में रहकर खुश हैं तो उन्हें नगरों में लाने की या नगरों को वनो में ले जाने की क्या आवश्यकता है? | | #* वनवासियों को नगर में लाने का प्रयास हम सोचते हैं उतना उचित नहीं है। वे वन में रहकर खुश हैं तो उन्हें नगरों में लाने की या नगरों को वनो में ले जाने की क्या आवश्यकता है? |
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| * गाँव उद्योगकेन्द्र होते हैं। भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना गाँव का काम है। उद्योग का अर्थ है उत्पादनकेन्द्र । गाँव में सभी भौतिक वस्तुओं का उत्पादन होता है। | | * गाँव उद्योगकेन्द्र होते हैं। भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना गाँव का काम है। उद्योग का अर्थ है उत्पादनकेन्द्र । गाँव में सभी भौतिक वस्तुओं का उत्पादन होता है। |
| * गाँव का मुख्य उद्योग कृषि है । वह मनुष्य की अन्न की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है । कृषक केवल अपने अन्न की आवश्यकताओं की पूर्ति करता नहीं है, सारे गाँव की अन्न की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है । | | * गाँव का मुख्य उद्योग कृषि है । वह मनुष्य की अन्न की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है । कृषक केवल अपने अन्न की आवश्यकताओं की पूर्ति करता नहीं है, सारे गाँव की अन्न की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है । |
− | * कृषि के लिये आवश्यक अन्य यन्त्रसामग्री का उत्पादन करने वाले उद्योग गाँव में होते हैं । उदाहरण के लिये, हल, बैलगाड़ी तथा अन्य सामग्री का उत्पादन करने वाले लोहार, सुथार, बुनकर, चमार आदि अनेक कारीगर गाँव में होते हैं । कृषि के साथ साथ लोहार, सुधार आदि लोगों के घर की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं । | + | * कृषि के लिये आवश्यक अन्य यन्त्रसामग्री का उत्पादन करने वाले उद्योग गाँव में होते हैं । उदाहरण के लिये, हल, बैलगाड़ी तथा अन्य सामग्री का उत्पादन करने वाले लोहार, सुथार, बुनकर, चमार आदि अनेक कारीगर गाँव में होते हैं । कृषि के साथ साथ लोहार, सुधार आदि लोगोंं के घर की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं । |
| * भौतिक आवश्यकताओं के साथ साथ शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक स्तर की जितनी भी आवश्यकतायें होती हैं उनकी भी पूर्ति करने की व्यवस्था गाँव में होती है । उदाहरण के लिये शिक्षक, पुरोहित, महाजन, पंचायत, व्यापारी आदि भी गाँव में होते ही हैं। | | * भौतिक आवश्यकताओं के साथ साथ शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक स्तर की जितनी भी आवश्यकतायें होती हैं उनकी भी पूर्ति करने की व्यवस्था गाँव में होती है । उदाहरण के लिये शिक्षक, पुरोहित, महाजन, पंचायत, व्यापारी आदि भी गाँव में होते ही हैं। |
| * इस प्रकार गाँव एक स्वयम्पूर्ण आर्थिक,सामाजिक इकाई है । | | * इस प्रकार गाँव एक स्वयम्पूर्ण आर्थिक,सामाजिक इकाई है । |
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| हमारी गाँव की परंपरा में जातिगत भेद भुलाने की बहुत अच्छी व्यवस्था थी। लोग जबतक गाँव के अन्दर होते थे और अपने अपने व्यवसाय करते थे तबतक तो जातियाँ भिन्नता रखती थीं, परंतु जब वे तीर्थयात्रा पर जाते थे तब गाँव की सीमा से बाहर निकलते ही सब जातिभेद भुला देते थे अर्थात मानते नहीं थे। गाँव में जातिभेद के कारण वे एकदूसरे की रोटी नहीं खाते थे या पानी भी नहीं पीते थे, कदाचित अस्पृश्यता भी मानते थे परंतु गाँव की सीमा से बाहर सब एक हो जाते थे, जातिरहित हो जाते थे, एक ही जाति के हो जाते थे । वह जाति होती थी तीर्थयात्रियों की । सौ वर्ष पूर्व के धार्मिक समाज की यह स्थिति थी। आज जातिभेद रोटीबेटी का निषेध और अस्पृश्यता के रूप में कदाचित दिखाई नहीं देता है, परंतु वह कानून, नौकरियाँ, होटल, सिनेमा, वाहनों से यात्रा आदि के कारण विवशता हो जाने के कारण से है। मन में से वह गया नहीं है। शिक्षा के कारण जाती, वर्ण, व्यवसाय आदि की अज्ञानजनित उपेक्षा के कारण भेद नहीं दिखाता है परंतु मन में से भेदभाव गया नहीं है, वह भिन्न स्वरूपों में प्रकट होता है । इसको मिटाने के लिये शिक्षा को बहुत गम्भीर प्रयास करने चाहिए। शिक्षित समाज समरस समाज होता है अतः समरसता के अभाव को एक चुनौती के रूप में स्वीकार करना चाहिए । | | हमारी गाँव की परंपरा में जातिगत भेद भुलाने की बहुत अच्छी व्यवस्था थी। लोग जबतक गाँव के अन्दर होते थे और अपने अपने व्यवसाय करते थे तबतक तो जातियाँ भिन्नता रखती थीं, परंतु जब वे तीर्थयात्रा पर जाते थे तब गाँव की सीमा से बाहर निकलते ही सब जातिभेद भुला देते थे अर्थात मानते नहीं थे। गाँव में जातिभेद के कारण वे एकदूसरे की रोटी नहीं खाते थे या पानी भी नहीं पीते थे, कदाचित अस्पृश्यता भी मानते थे परंतु गाँव की सीमा से बाहर सब एक हो जाते थे, जातिरहित हो जाते थे, एक ही जाति के हो जाते थे । वह जाति होती थी तीर्थयात्रियों की । सौ वर्ष पूर्व के धार्मिक समाज की यह स्थिति थी। आज जातिभेद रोटीबेटी का निषेध और अस्पृश्यता के रूप में कदाचित दिखाई नहीं देता है, परंतु वह कानून, नौकरियाँ, होटल, सिनेमा, वाहनों से यात्रा आदि के कारण विवशता हो जाने के कारण से है। मन में से वह गया नहीं है। शिक्षा के कारण जाती, वर्ण, व्यवसाय आदि की अज्ञानजनित उपेक्षा के कारण भेद नहीं दिखाता है परंतु मन में से भेदभाव गया नहीं है, वह भिन्न स्वरूपों में प्रकट होता है । इसको मिटाने के लिये शिक्षा को बहुत गम्भीर प्रयास करने चाहिए। शिक्षित समाज समरस समाज होता है अतः समरसता के अभाव को एक चुनौती के रूप में स्वीकार करना चाहिए । |
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− | समरसता के अभाव के दो सबसे भीषण कारक आज प्रवर्तमान हैं । एक है अस्पृश्यता और दूसरा है साम्प्रदायिक संकुचितता। अस्पृश्यता सभ्य समाज का कलंक है। वास्तव में विगत दो तीन सौ वर्षों में अस्पृश्यता ने समाज पर कहर ढाया है । वास्तव में भारत की परंपरागत वर्णव्यवस्था में शूद्र वर्ण कभी अस्पृश्य नहीं रहा है। उल्टे समाज की आर्थिक समृद्धि कृषकों और कारीगरों पर ही निर्भर थी। कृषक वैश्य और कारीगर शूद्र वर्ण के थे । अस्पृश्य माने भी जाते थे तो केवल सफाई करने वाले लोग थे। चांडाल अस्पृश्य थे ऐसा भगवान शंकराचार्य के समय का भी उल्लेख है। परंतु यह अस्पृश्यता विद्वेष का कारण नहीं बनती थी क्योंकि वेदाध्ययन का अधिकार शूद्रों को भी था, तपश्चर्या के परिणामस्वरूप वे उच्च वर्ण के भी हो सकते थे। शूद्र और अस्पृश्य मानी जाने वाली जातियों में सन्त भी हुए हैं जिन्हें सर्व वर्ण के लोग आदर देते हैं। आत्मसाक्षात्कारी महात्मा सभी वर्गों में थे । ऐसा होते हुए भी विगत तीन सौ वर्षों में अस्पृश्यो को दलित, पीडीत, पीछड़े आदि कहा गया, उन पर अमानुषी अत्याचार किये गए और उन्हें अनेक अच्छी बातों से वंचित रखा गया । समाज के तथाकथित उच्च वर्गों के मद के कारण ही यह सब हुआ । अब आज कानून के कारण, नीतियों के कारण और ऊपर वर्णित की गई है ऐसी व्यावहारिक विवशताओं के कारण अस्पृश्यता ऊपर से तो दिखाई नहीं देती है परंतु लोगों के मनों में वह है। शिक्षा में अस्पृश्यता को मिटाने का, वर्णद्वेष मिटाने का, जातिगत द्वेष मिटाने का प्रावधान होना चाहिए । मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, धर्मशिक्षा, अध्यात्मशिक्षा आदि विषयों में इसके संबंध में पाठ्यविषय होने चाहिए । ये केवल बौद्धिक स्वरूप के होना पर्याप्त नहीं है, वे व्यावहारिक स्वरूप के भी होने चाहिए। | + | समरसता के अभाव के दो सबसे भीषण कारक आज प्रवर्तमान हैं । एक है अस्पृश्यता और दूसरा है साम्प्रदायिक संकुचितता। अस्पृश्यता सभ्य समाज का कलंक है। वास्तव में विगत दो तीन सौ वर्षों में अस्पृश्यता ने समाज पर कहर ढाया है । वास्तव में भारत की परंपरागत वर्णव्यवस्था में शूद्र वर्ण कभी अस्पृश्य नहीं रहा है। उल्टे समाज की आर्थिक समृद्धि कृषकों और कारीगरों पर ही निर्भर थी। कृषक वैश्य और कारीगर शूद्र वर्ण के थे । अस्पृश्य माने भी जाते थे तो केवल सफाई करने वाले लोग थे। चांडाल अस्पृश्य थे ऐसा भगवान शंकराचार्य के समय का भी उल्लेख है। परंतु यह अस्पृश्यता विद्वेष का कारण नहीं बनती थी क्योंकि वेदाध्ययन का अधिकार शूद्रों को भी था, तपश्चर्या के परिणामस्वरूप वे उच्च वर्ण के भी हो सकते थे। शूद्र और अस्पृश्य मानी जाने वाली जातियों में सन्त भी हुए हैं जिन्हें सर्व वर्ण के लोग आदर देते हैं। आत्मसाक्षात्कारी महात्मा सभी वर्गों में थे । ऐसा होते हुए भी विगत तीन सौ वर्षों में अस्पृश्यो को दलित, पीडीत, पीछड़े आदि कहा गया, उन पर अमानुषी अत्याचार किये गए और उन्हें अनेक अच्छी बातों से वंचित रखा गया । समाज के तथाकथित उच्च वर्गों के मद के कारण ही यह सब हुआ । अब आज कानून के कारण, नीतियों के कारण और ऊपर वर्णित की गई है ऐसी व्यावहारिक विवशताओं के कारण अस्पृश्यता ऊपर से तो दिखाई नहीं देती है परंतु लोगोंं के मनों में वह है। शिक्षा में अस्पृश्यता को मिटाने का, वर्णद्वेष मिटाने का, जातिगत द्वेष मिटाने का प्रावधान होना चाहिए । मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, धर्मशिक्षा, अध्यात्मशिक्षा आदि विषयों में इसके संबंध में पाठ्यविषय होने चाहिए । ये केवल बौद्धिक स्वरूप के होना पर्याप्त नहीं है, वे व्यावहारिक स्वरूप के भी होने चाहिए। |
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| साम्प्रदायिक संकुचितता असहिष्णुता का रूप लेती है। अपने संप्रदाय का अनुसरण तो आग्रहपूर्वक करना चाहिए परन्तु दूसरे संप्रदायों को हेय नहीं मानना चाहिए, उनका भी आदर करना चाहिए । यह मुद्दा संस्कृति विषयक पाठ्यक्रम का महत्त्वपूर्ण हिस्सा होना चाहिए । | | साम्प्रदायिक संकुचितता असहिष्णुता का रूप लेती है। अपने संप्रदाय का अनुसरण तो आग्रहपूर्वक करना चाहिए परन्तु दूसरे संप्रदायों को हेय नहीं मानना चाहिए, उनका भी आदर करना चाहिए । यह मुद्दा संस्कृति विषयक पाठ्यक्रम का महत्त्वपूर्ण हिस्सा होना चाहिए । |
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| == सामाजिक सुरक्षा == | | == सामाजिक सुरक्षा == |
− | जिस समाज में लोगों को अपने अपने हित की रक्षा के लिये हमेशा सावध नहीं रहना पड़ता वह समाज संस्कारी समाज कहा जाता है । जहां अपने हित की रक्षा के लिये हमेशा सावध रहना पड़ता है वह असंस्कारी समाज है । जिस समाज में स्त्री सुरक्षित है, छोटे बच्चे सुरक्षित हैं, दुर्बल सुरक्षित हैं वह समाज संस्कारी समाज है । सामाजिक सुरक्षा के लिये कानून, पुलिस और न्यायालय की व्यवस्था होती है। परन्तु यह व्यवस्था पर्याप्त नहीं है । इसके साथ यदि अच्छाई की शिक्षा न दी जाय और लोगों के मन सद्धावपूर्ण और नीतिमात्तायुक्त न बनाए जाय तो केवल कानून किसी की रक्षा नहीं कर सकता । मनोविज्ञान के ज्ञाता एक सुभाषितकार का कथन है:{{Citation needed}}<blockquote>कामातुराणां न भयं न लज्जा</blockquote><blockquote>अर्थातुराणाम् न गुरुर्न बंधु: ।।</blockquote><blockquote>अर्थात जिसके मन पर वासना छा गई है उसे भय अथवा लज्जा रोक नहीं सकते तथा जिन्हें अर्थ का लोभ लग गया है उसे गुरु अथवा भाई की भी परवाह नहीं होती ।</blockquote>अतः मनुष्य का मन जब तक ठीक नहीं होता तब तक कानून किसी की सुरक्षा नहीं कर सकता । आजकल हम देखते हैं कि बलात्कार के किस्से बढ़ गए हैं । लोग कहते हैं कि कानून महिलाओं की सुरक्षा नहीं करता और अपराधी को फांसी जैसा कठोर दंड नहीं दिया जाता अतः ऐसे किस्से बढ़ते हैं। परन्तु मनोविज्ञान इसे मान्य नहीं करेगा क्योंकि एक को फांसी हुई अतः दूसरा उस दुष्कृत्य से परावृत्त होगा ऐसा नहीं है। मनोविज्ञान और समाजशास्त्र दोनों को सम्यक रूप में जानने वाला तो कहेगा कि बलात्कारी को बलात्कार करने से और महिलाओं को अपने ऊपर होने वाले बलात्कार से बचाने के लिये परिवारजनों ने उनकी सुरक्षा की चिन्ता स्वयं भी करनी चाहिए, तभी कानून भी उनकी सहायता कर सकता है। लोगों के जानमाल की सुरक्षा के लिये, अपराधियों को दंड देने के लिये पुलिस, कानून और न्यायालय होने पर भी लोग अपनी सुरक्षा के लिये घरों को ताले लगाते हैं, बेंक में लॉकर रखते हैं और साथ में धन लेकर अकेले यात्रा नहीं करते उसी प्रकार बलात्कार के संबंध में भी करना चाहिये। यह जो कानून के साथ साथ दूसरी सुरक्षा है वह शिक्षा का क्षेत्र है। बाल अवस्था से ही धर्म और नीतिमत्ता के संस्कार दिए बिना, संयम और सदाचार सिखाये बिना सामाजिक सुरक्षा स्थापित नहीं हो सकती। पराया धन मिट्टी के समान और पराई स्त्री माता के समान यह आग्रहपूर्वक सिखाने का विषय है। | + | जिस समाज में लोगोंं को अपने अपने हित की रक्षा के लिये हमेशा सावध नहीं रहना पड़ता वह समाज संस्कारी समाज कहा जाता है । जहां अपने हित की रक्षा के लिये हमेशा सावध रहना पड़ता है वह असंस्कारी समाज है । जिस समाज में स्त्री सुरक्षित है, छोटे बच्चे सुरक्षित हैं, दुर्बल सुरक्षित हैं वह समाज संस्कारी समाज है । सामाजिक सुरक्षा के लिये कानून, पुलिस और न्यायालय की व्यवस्था होती है। परन्तु यह व्यवस्था पर्याप्त नहीं है । इसके साथ यदि अच्छाई की शिक्षा न दी जाय और लोगोंं के मन सद्धावपूर्ण और नीतिमात्तायुक्त न बनाए जाय तो केवल कानून किसी की रक्षा नहीं कर सकता । मनोविज्ञान के ज्ञाता एक सुभाषितकार का कथन है:{{Citation needed}}<blockquote>कामातुराणां न भयं न लज्जा</blockquote><blockquote>अर्थातुराणाम् न गुरुर्न बंधु: ।।</blockquote><blockquote>अर्थात जिसके मन पर वासना छा गई है उसे भय अथवा लज्जा रोक नहीं सकते तथा जिन्हें अर्थ का लोभ लग गया है उसे गुरु अथवा भाई की भी परवाह नहीं होती ।</blockquote>अतः मनुष्य का मन जब तक ठीक नहीं होता तब तक कानून किसी की सुरक्षा नहीं कर सकता । आजकल हम देखते हैं कि बलात्कार के किस्से बढ़ गए हैं । लोग कहते हैं कि कानून महिलाओं की सुरक्षा नहीं करता और अपराधी को फांसी जैसा कठोर दंड नहीं दिया जाता अतः ऐसे किस्से बढ़ते हैं। परन्तु मनोविज्ञान इसे मान्य नहीं करेगा क्योंकि एक को फांसी हुई अतः दूसरा उस दुष्कृत्य से परावृत्त होगा ऐसा नहीं है। मनोविज्ञान और समाजशास्त्र दोनों को सम्यक रूप में जानने वाला तो कहेगा कि बलात्कारी को बलात्कार करने से और महिलाओं को अपने ऊपर होने वाले बलात्कार से बचाने के लिये परिवारजनों ने उनकी सुरक्षा की चिन्ता स्वयं भी करनी चाहिए, तभी कानून भी उनकी सहायता कर सकता है। लोगोंं के जानमाल की सुरक्षा के लिये, अपराधियों को दंड देने के लिये पुलिस, कानून और न्यायालय होने पर भी लोग अपनी सुरक्षा के लिये घरों को ताले लगाते हैं, बेंक में लॉकर रखते हैं और साथ में धन लेकर अकेले यात्रा नहीं करते उसी प्रकार बलात्कार के संबंध में भी करना चाहिये। यह जो कानून के साथ साथ दूसरी सुरक्षा है वह शिक्षा का क्षेत्र है। बाल अवस्था से ही धर्म और नीतिमत्ता के संस्कार दिए बिना, संयम और सदाचार सिखाये बिना सामाजिक सुरक्षा स्थापित नहीं हो सकती। पराया धन मिट्टी के समान और पराई स्त्री माता के समान यह आग्रहपूर्वक सिखाने का विषय है। |
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| एक के पास अपरिमित सम्पत्ति और उसके आसपास रहने वालों के पास खाने को अन्न नहीं ऐसी अवस्था में धनवान के धन की सुरक्षा नहीं हो सकती । अतः बाँट कर खाओ, बिना दान दिए सम्पत्ति का उपभोग न करो, अपनी कमाई का दस प्रतिशत हिस्सा अनिवार्य रूप से दान करो, अकेले खाने वाला पाप खाता है जैसे सूत्र व्यवहार के लिये दिए गए । भारत की परम्परा में पापपुण्य की कल्पना सामाजिक दृष्टि से ही की गई है । आजकल उसे धर्म की संज्ञा देकर नकारा जाता है, उसे अवैज्ञानिक कहा जाता है परन्तु भारत में धर्म को ही समाजधारणा करने वाला तत्व बताया है । धर्म की परम्परा में अपने से छोटों की रक्षा करने को सार्वभौम व्यवस्था के रूप में ही प्रतिष्ठित किया गया है। राजा ने प्रजा का, पिता ने पुत्र का, आचार्य ने छात्र का, मालिक ने नौकर का, मनुष्य ने प्रकृति का रक्षण करना चाहिये । जो रक्षण करता है वही सम्मान का अधिकारी होता है । यही धर्म है, यही पुण्य भी है और पुण्य का फल स्वर्ग है वह भी यहीं पृथ्वी पर ही है । अतः समाजशास्त्र के ग्रन्थों को मानव धर्मशास्त्र ही बताया गया है । | | एक के पास अपरिमित सम्पत्ति और उसके आसपास रहने वालों के पास खाने को अन्न नहीं ऐसी अवस्था में धनवान के धन की सुरक्षा नहीं हो सकती । अतः बाँट कर खाओ, बिना दान दिए सम्पत्ति का उपभोग न करो, अपनी कमाई का दस प्रतिशत हिस्सा अनिवार्य रूप से दान करो, अकेले खाने वाला पाप खाता है जैसे सूत्र व्यवहार के लिये दिए गए । भारत की परम्परा में पापपुण्य की कल्पना सामाजिक दृष्टि से ही की गई है । आजकल उसे धर्म की संज्ञा देकर नकारा जाता है, उसे अवैज्ञानिक कहा जाता है परन्तु भारत में धर्म को ही समाजधारणा करने वाला तत्व बताया है । धर्म की परम्परा में अपने से छोटों की रक्षा करने को सार्वभौम व्यवस्था के रूप में ही प्रतिष्ठित किया गया है। राजा ने प्रजा का, पिता ने पुत्र का, आचार्य ने छात्र का, मालिक ने नौकर का, मनुष्य ने प्रकृति का रक्षण करना चाहिये । जो रक्षण करता है वही सम्मान का अधिकारी होता है । यही धर्म है, यही पुण्य भी है और पुण्य का फल स्वर्ग है वह भी यहीं पृथ्वी पर ही है । अतः समाजशास्त्र के ग्रन्थों को मानव धर्मशास्त्र ही बताया गया है । |